1970 के दशक में मनोहर श्याम जोशी ने कमलेश्वर के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘सारिका’ में दिल्ली के लेखकों पर केरिकेचरनुमा स्तंभ लिखा था ‘राजधानी के सलीब पर कई मसीहे चेहरे’। इस स्तंभ में अज्ञेय, रघुवीर सहाय सहित तमाम लेखकों पर छोटे बड़े केरिकेचर हैं लेकिन सबसे दिलचस्प उन्होंने अपने ऊपर लिखा है। इस तरह का आत्म व्यंग्य आजकल देखने में नहीं मिलता-
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दूसरे व्यक्ति हैं श्री मनोहर श्याम जोशी जो पुत्रवतियों को कोसने के इस पवित्र आयोजन में बतौर निपूती सहर्ष शामिल हुए हैं। आप अधूरी रचनाओं के धनी हैं और शायद इसीलिए उन्हें पूरा बहुत नहीं करते कि पोल खुल जायेगी । आप अपने प्रतिमान बहुत ऊँचे बताते हैं और उन ऊँचे प्रतिमानों के अनुसार अपनी अधूरी रचनाओं को घटिया और दूसरों की पूरी रचनाओं को घटिया बताकर सन्तोष कर लेते हैं। मनोहर श्याम जोशी वायदे का कोई भी काम आर्थिक या मानसिक लाचारियों के दबाव में ही पूरा करते हैं। आम तौर से वह अपनी प्रतिभा अपरिचित और अछूते क्षेत्रों के लिए ही सुरक्षित रखना चाहते हैं जहाँ कोई प्रतिद्वन्द्विता न हो। पिछले दिनों जब कार्यालय में तालाबन्दी होने के बाद ‘समयाभाव के कारण न लिख सकने का बहाना खत्म हो गया तो वह बड़े धर्म-संकट में पड़े। उपन्यास पूरा करने की बजाय मक्खियाँ (एक झपट्टे से मुट्ठी में कैद करके) मारने में अपना सारा समय और ध्यान लगाकर ही उन्होंने आत्मिक शान्ति पायी । मनोहर श्याम जोशी बेधड़क अल्मोड़वी बने घूमते हैं लेकन जनता जानती है कि वह खासे दब्बू और डरपोक हैं। उनसे ठहाकेबाजों, अत्याचारियों, बेवकूफों आदि को कोई जवाब मौके पर देते नहीं बनता । बाद में अलबत्ता वह कई खूबसूरत जवाब अपने खयालों में देकर खुश हो लेते हैं । अपने दब्बूपन को छिपाने के लिए वह यदा-कदा दुस्साहस का परिचय भी देते हैं खासकर लेखन में। इस तरह उन्हें एक विरोधाभास का, एक घरेलू-पालतू बोहेमियन का रूप मिला है । इसी रूप में वह यहाँ आपसे मुखातिब हैं। इतिक्षेपकम्।