पेंटर वेद नायर की कला और उनकी कला-प्रेरणाओं पर यह लेख लिखा है कवयित्री विपिन चौधरी ने. उनकी कला को समझने के लिहाज से इस लेख का अपना महत्व है- जानकी पुल.
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किसी कला-दीर्घा में प्रदर्शित आधुनिकता की आबोहवा से लस्त-पस्त लम्बोतरे चेहरे उस वयोवृद्ध भारतीय कलाकार की कलाकृतियों का अटूट हिस्सा हैं, जिन्होंने अपने जीवन के कई साल कला के सेवा करते हुए बखूबी गुज़ारे। चित्रकार वेद नायर की कला रचना का संसार छः दशक तक फैला हुआ है। दिल्ली कला विश्वविद्यालय के विद्यार्थी ‘वेद नायर’ ने अपनी रचनात्मकता के माध्यम के तौर न केवल चित्रकला को चुना बल्कि मूर्तिकला, स्थापना, ग्राफिक, प्रिंट फोटोग्राफी, कंप्यूटर- पुस्तकों के सीमित संस्करणों पर खूब जम कर काम किया।
अधिकतर कुर्ता-पज़ामा पहने, लम्बी-सफ़ेद दाढ़ी वाले दार्शनिक-चित्रकार की मानिंद दिखने वाला एक बेहद शांत-सरल इन्सान चित्रकला की दुनिया में अपने पूरे दम-ख़म के साथ सक्रिय है।
उनके चित्रों में मध्ययुगीन करुणा साफ़ तौर पर दिखाई देती है और जो तरह-तरह के मुखौटे उनकी चित्रकला और मूर्तिकला में समाविष्ट है, वे इंसान की आत्मा का निचोड़ है जो उसके चेहरे पर साफ़ स्पष्ट रूप में दिखता है। स्विस चित्रकार ‘अल्बर्टो गिअचोमेत्ति‘ की तरह एकदम से लम्बी-लम्बी कलाकृतियां कलाकार की सर्जनात्मकता की सक्रिय पहचान हैं।
एक कलाकार, अपकी कला के जरिये समय की सच्चाई को पकड़ने की कोशिश करता है। किसी भी समाज की संस्कृति और इतिहास को उसकी कला के द्वारा ही पहचाना जा सकता है. ईजिप्ट, ग्रीस, रोम,मेसोपोटामिया, बेबीलोन, सुमेर और यूनान में मिले अवशेषों से ही पता चल सका की उनका पिछला इतिहास कला के मामले में कैसा था।
सदियों से सामाज में भारी फेरबदल के बाद भी कलात्मक काम न केवल बचा रहा बल्कि दूसरी संस्कृतियो में स्थानांतरित भी हुआ. टॉल्स्टॉय कला को एक ईमानदार अभिव्यक्ति और संचार का रूप मानते थे, हेडिगर, कला को ‘पृथ्वी‘ और ‘विश्व के बीच एक सक्रिय संघर्ष निर्धारित करने की क्षमता का माध्यम समझते थे.
हमारी वर्तमान सदी की आधुनिक कला, बेशुमार संभावनाओं के द्वार तो खोलती ही है साथ ही नए मापदंड भी बनाती रही है.विश्व भर मे कला के महत्व को समझा गया है. वस्तुतः कला विचारों और भावनाओं का ही उत्कृष्ट परिणाम है और कला के स्पष्ट निरूपण के लिए कलाकार एक प्रतीक को चुनता है। कलाकार वेद नायर का चुनाव ‘प्रकर्ति’ हैं। इसी प्रकृति के माध्यम से ही वे कला की रंग- बिरंगी, घेरदार-घुमावदार सीढियों पर चढ़ते-उतरते हैं।
बचपन का जंगल
‘पर्यावरण‘ शुरुआत से ही वेद नायर के यहाँ एक प्रमुख चिंता का विषय रहा है. बार-बार उनकी कलाकृतियों में प्रकर्ति की शांत परी उतरती है और वहां आकर उकडू बैठ जाती है और प्रक्रति का वह अनगढ़ रूप जिसे हम ‘जंगल‘ के नाम से जानते हैं, वेद की कलाकृतियों में अपना सटीक हिस्सा ले कर ही मानता है। कारण यही है कि वेद की भागीदारी बचपन से ही जंगल के साथ रही। लगाव की उस उत्पति के साथ ही कला का अनगढ़ जीवन भी अपना आकार लेता गया। घर की वीरानियों से भाग कर वेद, उस जंगल में जा पहुँचते थे जहाँ सबके लिए स्थान था शेर के लिए भी और कोयल के लिए भी, सांप के लिए भी और उदबिलाव के लिए भी । जहाँ के जीवन का अपना संगीत और और अपना रूप-रंग है।
12 Comments
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