हिंदी प्रकाशन जगत की समस्त घटनाएं दिल्ली में ही नहीं होती हैं. कुछ अच्छी पुस्तकें केंद्र से दूर परिधि से भी छपती हैं. ऐसी ही एक पुस्तक ‘देह धरे को दंड’ की समीक्षा युवा लेखक हरेप्रकाश उपाध्याय ने की है. पुस्तक की लेखिका हैं प्रीति चौधरी. प्रकाशक हैं साहित्य भण्डार, इलाहाबाद- जानकी पुल.
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इक्कीसवीं सदी की खासियत है यह कि हिंदी के बौद्धिक वर्ग की जमात में बहुत सारी स्त्रियां एकबारगी दिखायी पड़ी हैं, वैसे इनमें चंद तो पिछले दो-तीन दशकों से सक्रिय हैं पर अधिकांश बिल्कुल नयी हैं। उन्होंने अपने रचनात्मक हस्तक्षेप से अपनी ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है। बीती सदी में नब्बे के दशक के बाद हिंदी के बौद्धिक जगत में दलित और स्त्री अस्मिता की बहस काफी तेज हुई और नयी सदी के आते-आते वह हिंदी की रचनाशीलता और वैचारिकी की मुख्यधारा का हिस्सा बन गयी। फिर भी इन अस्मितावादी विमर्शों ने जितना हस्तक्षेप अनुभवों के ब्यौरों और गल्प के माध्यम से किया, उतना वैचारिक रूप से नहीं किया। इनके भीतर के अंतर्विरोधों की व्याख्या की कोशिश भीतर से दिखाई नहीं पड़ी और बाहर के किसी लेखक को इसका साहस नहीं हुआ या संभवतः यह उनके सामर्थ्य के बाहर का रहा। परिणामस्वरूप नये दौर की नयी-नयी प्रवृत्तियों यथा बाजारवाद, आधुनिकता, सूचना तकनीक आदि ने दलित व स्त्री आबादी के जीवन में जो नये तरह के संकट पैदा किये, जो उथल-पुथल, सकारात्मक-नकारात्मक परिवर्तन लाये, उसके विवेचनात्मक आकलन का अभाव दिखाई पड़ने लगा। स्त्री व दलित विमर्श की तमाम कवायदें अतीत राग जैसी लगने लगीं। खासकर लेखिकाओं के बीच प्रखर राजनीतिक चेतना की कमी के कारण समकालीन परिस्थितियों की विडंबनाओं के असर की समुचित पड़ताल का अभाव सा भी महसूस हुआ। पर कुछ लेखिकाओं का योगदान इस संदर्भ में काफी मूल्यवान है, उनमें प्रभा खेतान, कात्यायनी, अनामिका, रोहिणी अग्रवाल आदि महत्वपूर्ण हैं। नयी पीढ़ी में उसका सार्थक व सशक्त विकास प्रीति चौधरी के यहाँ दिखता है। प्रीति की सबसे बड़ी खासियत है कि वे अपनी रचनात्मकता में मूलतः राजनीतिक हैं। वे अपने दौर की तमाम समसामयिक घटनाओं के प्रति चौकस रहती हैं और उसके राजनीतिक पक्ष पर जोर देती हैं। हालांकि राजनीतिक चेतना भी सामाजिक अनुभवों से ही बनती है, मगर वह एकांगी दृष्टिकोण से संभव नहीं हो पाती। प्रीति मूलतः फेमिनिस्ट होते हुए भी भारतीय समाज में जो अंतर्विरोध हैं, जो उसका जटिल यथार्थ है, जो जातिगत व धर्मगत विडंबनाएं हैं, उसकी अनदेखी नहीं करतीं, बल्कि स्त्री आबादी की समस्याओं पर विचार करते हुए भारतीय समाज को समग्रता में सामने रखती हैं। स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपने परिप्रेक्ष्य में अन्य सामाजिक सच्चाइयों की अनदेखी करने लगता है। जबकि भारतीय समाज में स्त्री आबादी तमाम स्तरों पर विभाजित है। इस जटिल संरचना को ध्यान में रखते हुए ही यथार्थवादी चिंतन विकसित हो सकता है।
प्रीति चौधरी की पहली पुस्तक है- देह धरे को दंड। दरअसल यह समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में स्त्री आबादी की मूलभूत चिंताओं व समाज के स्तरीकरण को विश्लेषित करने की कोशिश है। पुस्तक दो खंडों में विभाजित है- स्त्री विमर्श और हाशिये का विमर्श। प्रीति समय सजग लेखिका हैं। वे पल-पल घटित होते बदलावों पर सतर्क निगाह रखती हैं और उसे अपने तरीके से विश्लेषित करने, समझने व उससे टकराने की कोशिश करती हैं। प्रीति का मूल सरोकार समाज में समता व समरसता की स्थापना से जुड़ा हुआ है। वे ऐसे समाज की पक्षधर हैं जहाँ मनुष्य के स्वाभिमान व स्वाधीनता की कद्र हो। लिंग, वर्ण, वर्ग या धर्म के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव से वे लगातार टकराने की कोशिश करती हैं और उन प्रवृत्तियों को उजागर करती हैं, जो गैरबराबरी व वर्चस्व आधारित समाज को मजबूत करने में लगी हैं। प्रीति के लेखन में बार-बार उन कारणों की पड़ताल की कोशिश दिखाई पड़ती है, जो स्त्रियों, वंचितों व अल्पसंख्यकों को देश व समाज की मुख्यधारा में आने से रोकते हैं, उनकी स्वाधीनता व स्वाभिमान को कुचलने की कोशिश करते हैं। यहाँ हाशिये का विमर्श या स्त्री विमर्श किसी प्रतिक्रियावादी स्वरूप में न होकर अधिकारों की लड़ाई का सकारात्मक पक्षधर है।
इस पुस्तक में लेखिका ने उन जड़ नैतिकताओं, मान्यताओं, परंपराओं व प्रतिमानों पर बार-बार सवाल उठाये हैं, जो समाज के किसी एक हिस्से का पूरी आबादी पर वर्चस्व के पक्षधर हैं। हमारे समाज ने स्त्री पर तमाम तरह की नैतिकताओं को लादते हुए, उनके ऊपर पारिवारिक दायित्व व यौन शुचिता का बोझ लादते हुए किस तरह छलपूर्वक उनके स्वाभिमान व जिंदगी की सहजता तक को छीन लिया है, इसका व्यापक वर्णन पुस्तक के विभिन्न लेखों में मिलता है। स्त्री विमर्श के अंतर्गत लेखिका ने उन मर्दवादी विचारों व सोच की बखिया उधेड़ने की कोशिश की है जिसने विभिन्न नैतिकताओं की आड़ में स्त्री की मेधा व श्रम की अनदेखी करते हुए उसकी महज ऐंद्रिक छवि गढ़ दी है। पुरुष स्त्री को मनुष्य के रूप में न देखकर महज देह के रूप में देख रहा है और उसी की रक्षा व कब्जे के लिए उसने ऐसा ताना-बाना बुन दिया है कि स्त्री की मानवीय गरिमा का दम घुट गया है। प्रीति स्त्री को सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में देखे जाने वाले दृष्टिकोण पर आपत्ति दर्ज करती हैं और स्त्री को भी पुरुष के समकक्ष मनुष्य का दर्जा देने की बात करती हैं। उनका मानना है कि स्त्री विमर्श पुरुष का विरोधी नहीं है, बल्कि वह तो बराबरी के दर्शन से प्रेरित है। वह चाहता है कि समाज में स्त्री और पुरुष के आधार पर मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न हो। आखिर क्यों स्त्री पति को परमेश्वर माने, वह उसके बराबर की स्तर पर क्यों न जीवन जिये? बदलते वक्त की प्रवृत्तियों ने भले आधुनिकता के नाम पर स्त्री को घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलने की छूट दे दी पर उसने भी स्त्री की रूढ़ छवि को तोड़ने की कोशिश नहीं की। बाजार ने तो स्त्री की ऐंद्रिक छवि को और ही मजबूती देने की ही कोशिश की। प्रीति ने विभिन्न घटनाओं का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए यह दिखलाने की कोशिश की है स्त्री पर जुल्म इक्कीसवीं सदी में भी कम न हुए हैं बल्कि दहेज हत्या, यौन शोषण, बलात्कार व भ्रूण हत्या के मामले बढ़े ही हैं। नये दौर में पुरुषवादी मानसिकता ने नये बाने पहन लिये हैं और वह नये तरीके से आखेट कर रही है।
प्रीति की चिंता में स्त्री ही नहीं, समग्र समाज है, वह आबादी है जो विभिन्न कारणों से आज भी अन्याय भुगतने को अभिशप्त है। शिक्षा, प्रशासन, राजनीति विभिन्न विभागों का उदाहरण लेते हुए उस अन्याय को लेखिका बेपर्द करती है। अपने राजनीतिक तेवर के कारण भी यह पुस्तक उल्लेखनीय है। खासकर हाल के दशक की सामाजिक-राजनीतिक धड़कनों व करवटों को समझने में यह पुस्तक काफी मददगार है।
पुस्तक- देह धरे को दंड (वैचारिक आलेख)
लेखिका- प्रीति चौधरी
प्रकाशक- साहित्य भंडार, 50, चाहचंद, इलाहाबाद-211003
मूल्य- 50 रुपये