इस बार विश्व पुस्तक मेला का थीम बाल साहित्य है। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि हम हिन्दी वाले बाल साहित्य को गंभीरता से नहीं लेते। अभी कल जब मैंने शिक्षाविद मनोज कुमार का बाल साहित्य लेखन पर यह लेख पढ़ा तो मन में यह संकल्प लिया कि बाल साहित्य लिखने की कोशिश करूंगा। मनोज जी ने बहुत गंभीरता से बाल-साहित्य की चुनौतियों को बेहद कम शब्दों में इतनी स्पष्टता के साथ सामने रखा है कि बाल साहित्य के लेखन और उसकी आवश्यकता की समझ बनने लगती है। मनोज कुमार ‘रूम टू रीड’ में संपादक हैं, जहां से नियमित तौर पर बाल साहित्य का प्रकाशन होता है। वहीं से निकालने वाली पत्रिका ‘भाषा बोली’ का वे सम्पादन भी करते हैं। यह लेख उन्होंने पत्रिका के संपादकीय के रूप में लिखा है। आप भी पढ़िये- प्रभात रंजन
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डॉ स्वायस(Theodor Seuss Geisel) की हाजि़रजवाबी से जुड़ा एक वाकया सुनने में आता है। जैसा कि आप जानते हैं डॉ स्वायस बच्चों के प्रिय लेखक थे। उन्होंने बच्चों के लिए लगभग छियालीस किताबें लिखीं और चित्रित की हैं। ऐसा कुछ सचमुच ही डॉ स्वायस के साथ घटा था या यह महज़ अफवाह है, कहा नहीं जा सकता, लेकिन वाकया है मज़ेदार। हुआ यूँ कि डॉ. स्वायस को एक मशहूर न्युरो सर्जन किसी पार्टी में मिले। डॉक्टर साहब ने उनसे कहा कि वे भी शौकिया तौर पर खाली समय में बच्चों के लिए किताबें लिखते हैं। डॉ. स्वायस ने छूटते ही कहा- ओह, एक शौक मुझको भी है, मैं शौकिया तौर पर ब्रेन सर्जरी करता हूँ।
हर ऐसे प्रसंग की तरह इस प्रसंग में भी अतिरंजना है। बच्चों के लिए लिखना और ब्रेन सर्जरी दोनों दो प्रकार के काम हैं, लेकिन इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि बच्चों के लिए लिखना श्रमसाध्य और रचनात्मक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण कार्य है। ऊपरी तौर पर देखें तो बच्चों के लिए लिखा गया अच्छा साहित्य इतना सहज लगता है कि लेखक के किसी सजग रचनात्मक प्रयास की तरफ ध्यान ही नहीं जाता है। और तो और बच्चों के लिए लिखी गई कहानी या कविता में शब्दों और वाक्यों की संख्या भी बहुत कम होती है। ऐसा लगता है कि ऐसी रचनाएं दिन में चार-पाँच तो लिखी ही जा सकती हैं, बस लिखने के टेबल पर बैठने भर की देर है।
बच्चों के लिए चाहे पाठ्यपुस्तकें लिखी जाएँ या रचनात्मक साहित्य, वैचारिक और रचनात्मक सजगता तथा चयन और परित्याग की अचूक दृष्टि के बिना अच्छी सामग्री का निर्माण संभव नहीं है। बच्चों के एक दूसरे मशहूर लेखक बु्रश बालान (Bruce Balan)ने बच्चों के साहित्य में शब्दों के चुनाव को लेकर एक महत्त्वपूर्ण बात कही है। उनका कहना है कि जब आप पाँच सौ शब्दों की कहानी लिखते हैं, तो हर शब्द का वजन 1/500 होता है, जबकि 40000 शब्दों की रचना में प्रत्येक शब्द का वजन 1/40000 होता है। इस वक्तव्य से सौ फीसदी सहमत होना ज़़रूरी नहीं है, क्योंकि शब्दों के चयन और भाषिक प्रयोग को लेकर सजगता हर प्रकार की रचना की सफलता की पूर्वशर्त है, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रचनात्मक चुनौती का अंदाज़ शब्द-संख्या के आधार पर नहीं लगाया जाना चाहिए।
बच्चे पढ़ना-लिखना सीख सकें और शुरुआत से ही लिखे-छपे शब्दों से वे लगाव महसूस कर सकें,इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा के शुरुआती वर्षों से ही अच्छी सामग्री उनके हाथ लगे। बच्चों के लिए लिखी जाने वाली अच्छी सामग्री में कौन से गुण मौजूद होने चाहिए? अच्छी सामग्री के निर्माण में किन बातों का ध्यान रखा जाए? सामग्री उपयुक्त और रोचक है या नहीं इस बात का अंदाज़ कैसे लगाया जाए? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे जूझने की कोशिश भाषा बोली के इस अंक के कई लेखों में हुई है। बच्चों में पढ़ने के कौशल का विकास हो और वे इस कौशल का अभ्यास करते हुए सक्षम पाठक बन सकें, यह भविष्य में उनकी शैक्षिक सफलता की पूर्व शर्त है। ऐसा तभी होगा जब पढ़ना उन्हें उबाऊ और दुरुह काम नहीं लगे और इसमें उन्हें आनन्द आए। दुर्भाग्य से हमारे स्कूली शिक्षातंत्र में पढ़ने की क्रिया को अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता है। स्कूल की समय-सारणी में पढ़ने के लिए अलग से कोई अवधि शायद ही निर्धारित होती हो। लाइब्रेरी के लिए भी अलग से समय का निर्धारण किसी-किसी स्कूल में ही होता है। हमारी स्कूली व्यवस्था में पढ़ने को अगर इतना कम तवज्जो दिया जाता है तो इसके कुछ ऐतिहासिक कारण होंगे। इस अंक के एक लेख में उन कारणों की पड़ताल की गई है।
शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि कक्षा के भीतर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को बेहतर बनाया जाए, बच्चों को सीखने का ऐसा परिवेश मिले जो भौतिक और भावनात्मक दोनों प्रकार से सुरक्षित हो और साथ ही बच्चों के लिए बेहतर पाठ्य-सामग्री उपलब्ध करवाई जाएं। अभी हाल के वर्षों तक पाठ्य-सामग्री के नाम पर बच्चों के हाथों में सिर्फ पाठ्य-पुस्तकें ही पहुँचती थीं। यह संतोष का विषय है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने जो नई पाठ्यपुस्तकें बनाई हैं, वे पहले की किताबों की तुलना में बच्चों के लिए अधिक आकर्षक हैं। कई राज्य सरकारों ने भी पहले से कुछ बेहतर किताबें बनाई हैं। शायद शिक्षा का अधिकार कानून ढंग से लागू हो जाए और सभी विद्यालयों में पुस्तकालय व्यवस्थित ढंग से चलने लगे तो बच्चों के हाथों में कुछ अन्य रोचक पठन-सामग्री के पहुँचने की संभावना बनती है; लेकिन बच्चों के लिए विविध प्रकार की रोचक और उपयोगी सामग्री के निर्माण की चुनौती अब भी हमारे सामने है। यह सही समय है जब हम बेहतर सामग्री के कुछ बुनियादी गुणों के बारे में विचार करें। अच्छी उपलब्ध सामग्री की पहचान कर उसके लेखकों, चित्रकारों और प्रकाशकों को प्रोत्साहित करें। सामग्री के आकलन की कसौटियों को लेकर लगातार बातचीत करें और सामग्री के निर्माण को बढ़ावा दें। राज्य के पाठ्यपुस्तक मंडल, राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद जैसी संस्थाएँ इस दिशा में हो रहे प्रयासों को बढ़ावा दे सकती हैं और खुद भी बेहतर सामग्री निर्माण की दिशा में पहल कर सकती हैं।
अंत में एक स्पष्टीकरण। हिंदी में ‘चाइल्ड’ की तर्ज पर कोई शब्द नहीं है जिसमें लड़के और लड़कियाँ दोनों शामिल हों। हमने आमतौर पर इस अंक में विद्यार्थी के लिए ‘बच्चे’ शब्द का इस्तेमाल किया है। हमारी अपेक्षा है कि जहाँ भी हम विद्यार्थी या बच्चे का उल्लेख कर रहे हैं वहाँ लड़कियों को भी शामिल माना जाए।
आशा है भाषा बोली का यह अंक पाठ्य-सामग्री की उपयुक्तता और रोचकता के बारे में हमें वैचारिक रूप से अधिक सजग बनाएगा। हमें आपके सुझावों और टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
(रूम टू रीड की पत्रिका ‘भाषा बोली’ से साभार)
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