शिरीष कुमार मौर्य की कविताओं का अपना सम्मोहन है। इधर उन्होंने ग़ज़लें लिखी हैं और खूब लिखी हैं। अलग-अलग कैफ़ियत की कुछ ग़ज़लों का आनंद लीजिए- मॉडरेटर
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1.
थे मगर हम दर-ब-दर ऐसे न थे
हम पे राहों के असर ऐसे न थे
तुम उधर ख़ुश-बाश थे हर हाल में
और ग़मगीं हम इधर ऐसे न थे
और भी किरदार थे ख़ुशहाल-से
यार क़िस्से मुख़्तसर ऐसे न थे
हमको मुस्तकबिल पे था पूरा यक़ीं
लोग भी फिर बे-ख़बर ऐसे न थे
दिल में सूरज-चाँद थे रौशन सदा
गुमशुदा शाम-ओ-सहर ऐसे न थे
2.
हर कोई चाहता है आज़ाद हो के रहना
इस वादी-ए-वतन में आबाद हो के रहना
दिल को नसीब आया बे-दाद हो के रहना
आराइश-ए-क़फ़स में बर्बाद हो के रहना
उस्ताद सोचते हैं कुछ सीख लें जहाँ से
चेला तो चाहता है उस्ताद हो के रहना
कैसा घना हनेरा कितनी शदीद रातें
अब कौन चाहता है नक़्क़ाद हो के रहना
ज़ंजीर है गले में कैसी ये रस्म-ए-उल्फ़त
फिर माँगते हो रब से आज़ाद हो के रहना
3.
कर के एक वादा मेरी गली में था
इक रात का सितारा मेरी गली में था
न जाने किस घड़ी में ये आँख लग गई
मंज़र सजाने वाला मेरी गली में था
दुनिया की खोज में मैं भटका था हर जगह
मुझको निभाने वाला मेरी गली में था
घर में चराग़ सारे बे-रौशनी थे यूँ
पर शब का इक उजाला मेरी गली में था
अब छोड़ कर ख़ुदा के वो सात आसमान
इस ख़ाक का दिवाना मेरी गली में था
वो था कहाँ-कहाँ पर मुझको नहीं ख़बर
फिर बाद में ये जाना मेरी गली में था
मेरी पहुँच थी उसकी नीम-शब तलक
तेरा भी आना-जाना मेरी गली में था
सब जा चुके थे दिल से उम्मीद की तरह
होने को ये ज़माना मेरी गली में था
4.
कहा जो सच तो दार-ओ-रसन भी याद आए
यहाँ किसी को हम रंजिशन भी याद आए
ऐसा नहीं कि बस इन्हीं यादों में रहे हम
हमें तो आप यहाँ दफ़’अतन भी याद आए
खुले जो आँख तो सूरज भी गाँव का चमके
उठें जो पाँव तो ख़ाक-ए-वतन भी याद आए
किसी क़दीम-से चूल्हे के पास बैठें हम
शब-ए-सराय में वो अंजुमन भी याद आए
हमें बहार से इतना ही लेना-देना था
गुलों के बीच तेरा बाँकपन भी याद आए
5.
इस दाग़-दार शब को धोने के मेरे मानी
समझी नहीं वो अब तक रोने के मेरे मानी
ज़ुल्मत से लड़ते-लड़ते जैसे दिये का बुझना
इन रतजगों से थक कर सोने के मेरे मानी
कैसे किसी से पूछूँ कैसे किसी से कह दूँ
इस ख़ल्क-ए-बे-फ़लक़ में होने के मेरे मानी
सूरज के सिर पे रातें, रातों के सिर पे तारे
यूँ दूसरे का बोझा ढोने के मेरे मानी
फिर छोड़ कर अकेला सहरा में आप मुझको
क्यों पूछते हैं मुझसे खोने के मेरे मानी
6.
अल्लाह का न होना अल्लाह जानता है
किसका है वो खिलौना अल्लाह जानता है
क्या आख़िरत की चादर अल्लाह ने बुनी है
किसको कहाँ है सोना अल्लाह जानता है
दौर-ए-हलाल में भी जन्नत में कम-अबादी
क़ब्रों में कुफ़्र होना अल्लाह जानता है
ठंडी ज़मीन पर ये शबनम बता रही है
ख़ल्वत में छुप के रोना अल्लाह जानता है
कितना ख़फ़ीफ़ है ये कितना ख़ुलूस इसमें
मिट्टी का हर बिछौना अल्लाह जानता है
क्यों रौशनी बुझी है ज़ुल्मत की बेबसी है
इस घर का कोना-कोना अल्लाह जानता है
तुम भी बशर कहाँ से इस हादसे में आए
दिल हादसे में खोना अल्लाह जानता है
7.
फिर क्या हुआ कि उसने भरोसा नहीं किया
मैंने भी इस सितम का मुदावा नहीं किया
उसने दिया था हाथ अभी मेरे हाथ में
मैंने ही अपने हाथ को कासा नहीं किया
उसको लगा कि अब वो आज़ाद न रही
फिर मैं भी उसको हरदम टोका नहीं किया
उसने नहीं किया पहरा-ए-शम्स-ए-दिल
मैंने भी उसके चाँद पे हाला नहीं किया
इक नीम-रौशनी में बे-ख़ुद पड़ा था मैं
उसने भी बढ़ के और उजाला नहीं किया
उसने भी ज़मीं यूँ ही उफ़्ताद छोड़ दी
मैंने भी आस्माँ को इशारा नहीं किया
हुस्न-ए-सुलूक सीखा हुस्न-ए-ज़ुबान भी
उसने भी मेरी ख़ातिर क्या-क्या नहीं किया
ये बात सिर्फ़ मेरी और उसकी बात है
हमने दुखों को अपना तमग़ा नहीं किया
8.
रात भर खेतों में दुबकी बिल्लियाँ रोती रहीं
क्या मुसीबत थी कि सारी बस्तियाँ रोती रहीं
घिर गया फिर आस्माँ, फिर बिजलियां रोती रहीं
फिर बदन दुखता रहा फिर हड्डियाँ रोती रहीं
दुख छुपे थे पेट में दरिया मगर बहता रहा
पानियों में तैरती सब मछलियाँ रोती रहीं
तोड़ कर दोनों किनारे ले गया सैलाब-ए-ग़म
पानियों में बह रहीं कुछ कश्तियाँ रोती रहीं
दश्त-ओ-सहरा ने न जाने आस्माँ से क्या कहा
बारिशें होती रहीं और बदलियाँ रोती रहीं
देखते ही देखते गहरा गया फिर रंग-ए-शब
सहमी-सहमी टिमटिमाती बत्तियाँ रोती रहीं
दो जहाँ के बीच यूँ अटकी रही ये ज़िन्दगी
पिस गया गेहूँ मगर कुछ चक्कियाँ रोती रहीं
9.
रहता कहाँ है आख़िर क्या कर गया शिरीष
अब ढूँढ़ते किसे हो जब मर गया शिरीष
अपना वक़ार ही बस उसने निभाया था
तू सोचता है तब से ही डर गया शिरीष
बाहर है रौशनी और बा-हम हैं महफ़िलें
सब छोड़ छाड़ कर अब अंदर गया शिरीष
सैलाब था, नदी थी, कुछ बस्तियाँ भी थीं
अपने ही पानियों से था भर गया शिरीष
तू आएगा कभी तो ज़ुल्मत-कदे की सम्त
दिल का चराग़ चौखट पे धर गया शिरीष
10.
ठोकर से संग-ए-दर ने रुस्वा करा दिया
मुझको तो मेरे घर ने रुस्वा करा दिया
मुझको मेरी ख़बर ने रुस्वा करा दिया
इस्लाह-ए-चारागर ने रुस्वा करा दिया
मेरे लिए ही क्यों ये नफ़रत तराश ली
उल्फ़त की उस नज़र ने रुस्वा करा दिया
कैसी बहार आई हक़ का शजर जला
बातिल के इक समर ने रुस्वा करा दिया
मुश्किल से सब्र पर थी उम्मीद-सी बँधी
इक शख़्स-ए-बेख़बर ने रुस्वा करा दिया
ग़म की तमाम शामें, ज़ुल्मत की शब गई
क्यों आमद-ए-सहर ने रुस्वा करा दिया
मेरे लहू से जिसकी रग में जुनून है
उस जानशीन-ए-घर ने रुस्वा करा दिया
मैं मुंतज़िर था उसके सीधे जवाब का
उसकी अगर-मगर ने रुस्वा करा दिया
हमने छुपा लिया था अपना मलाल-ओ-ग़म
रो रो के नौहागर ने रुस्वा करा दिया
11.
कहने को बच रही है मायूस इक कहानी
दुनिया-ए-आम में है मख़्सूस इक कहानी
मैंने भले ही उन पर सादा ग़ज़ल कही है
किरदार कर रहे हैं महसूस इक कहानी
इतने दिये जले हैं इस ज़िन्दगी की ख़ातिर
दिल के चराग़-ए-ग़म का फानूस इक कहानी
मैं जो एक अजनबी हूँ कोने में छुप गया हूँ
महफ़िल में चल रही है मानूस इक कहानी
वो और हादसा था जिसका गवाह था मैं
मुझको सुना रहे हैं जासूस इक कहानी
इक ख़ुश्क-सी नज़र से माज़ी को देखता हूँ
मुंसिफ़ ने पूछा ली है मनहूस इक कहानी_
12.
वो पैकर-ए-पसमंज़र मंज़र में जा घुसा
ख़ुद को गँवा दिया तो दीगर में जा घुसा
दुनिया से थक गया तो बिस्तर में जा घुसा
बदतर भुला के अब वो बेहतर में जा घुसा
फिर क्या हुआ जो दिल ही मज़बूत न रहा
डरपोक इक परिन्दा तलघर में जा घुसा
कोई ख़ता नहीं है क़ातिल के हाथ की
इक ये हमारा दिल ही ख़ंजर में जा घुसा
बस्ती में बाघ है अब इंसाँ है जंगलों में_
मुआमला इक दूसरे के घर में जा घुसा
उसके सुख़न की बात कोई और बात है
वो मुर्गियों को छोड़ के तीतर में जा घुसा
तल्ख़ी कलाम की अब उसके न पूछिए
अंदर से तीर छोड़ा बाहर में जा घुसा
13.
हमने किसी ख़ुदा की परस्तिश भी नहीं की
जन्नत के लिए कोई कोशिश भी नहीं की
हमने किया जो ठीक लगा इस जहान में
और जो किया है उसकी नुमाइश भी नहीं की
लगते ही रहे ज़ख़्म और बहता रहा लहू
दिल ने अगरचे कोई जुम्बिश भी नहीं की
जो मिल गया उसी से ख़ुद को बना लिया
इतनी बड़ी तो हमने ख़्वाहिश भी नहीं की
दिल में ये कब कहाँ से सैलाब उमड़ आया
तुमने तो आँसुओं की बारिश भी नहीं की
रक्खा हुआ है हमने सब कुछ _धियान_ में
ना-करदा थे गुनाह तो बख़्शिश भी नहीं की
14.
क्या हो गया है मुझको दुश्वार की तरफ़ हूँ
कुछ फूल कह रहे हैं मैं ख़ार की तरफ़ हूँ
मुझ पे गिरा हुआ है इस ज़िन्दगी का मलबा
तामीर में लगा हूँ, मिस्मार की तरफ़ हूँ
रह-रह के इस सफ़र में ये दिल भी पूछता है
क्यों बे-नियाज़ हूँ अब बे-ज़ार की तरफ़ हूँ
शाख़-ए-समर से पूछो मेरा गुनाह क्या था
जन्नत का हूँ निकाला संसार की तरफ़ हूँ
गर तू मुझे बता दे इक दिल ख़रीद लाऊँ
अब इन दिनों मैं तेरे बाज़ार की तरफ़ हूँ
इन साहिलों पे चलना अब मेरा इस तरह है
इस पार चल रहा हूँ उस पार की तरफ़ हूँ
15.
वो पयम्बर और था पर आज आदम और है
पहले मौसम और थे लेकिन ये मौसम और है
उस मुसव्विर ने जुदा तस्वीर में रक्खा हमें
पेच था मरने में लेकिन ज़ीस्त का ख़म और है
कह नहीं पाए किसी से अहल-ए-दिल जो दफ़्न था
लिख नहीं पाए जिसे वो बाइस-ए-ग़म और है
हम-ज़ुबाँ कोई नहीं था हम-सफ़र कुछ लोग थे
थी जुदा रुस्वाई भी वो आज बाहम और है
उनकी महफ़िल के जुदा दस्तूर हैं उठने तलक
पहले ज़िल्लत और थी ये ख़ैर-मक़दम और है
16.
हामी मैं सीधी-सादी-सी ज़िंदगी का था
अंदेशा उन्हें इसमें भी मुफ़लिसी का था
रहते हैं बस्तियों में जितने सफ़ेद-पोश
दार-ओ-मदार उन पर ही गन्दगी का था
रौशन है एक शख़्स में ऐसे भी मेरी याद
इक मायना वजूद की ताबिन्दगी का था
वीरान बस्तियों में जुगनू भी सो गए थे
उनको लिहाज शायद कुछ चाँदनी का था
उसने किसी की राह के पत्थर नहीं चुने
उसको गुमान उसकी शीशा-गरी का था
दिल में नहीं थी कोई आवाज़-ए-ज़िन्दगी भी
आलम भी रात का था फिर बे-बसी का था
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शिरीष कुमार मौर्य
प्रोफेसर, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग
डी.एस.बी. परिसर, नैनीताल
263 001
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