जानकी पुल पर कल युवा लेखक आलोक रंजन की कहानी ‘स्वाँग से बाहर’ प्रकाशित हुई थी। कहानी समकालीन जीवन के बेहद जटिल और बारीक समस्या यानी कि रिश्तों के असंख्य विकल्प के बीच जीने के बावजूद भी कोई मन-माफ़िक़ रिश्ता नहीं मिल पाने को रेखांकित करती है। इस संवेदनशील कहानी पर पढ़िए कुमारी रोहिणी की टिप्पणी-
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संडे को अख़बार पढ़ने या ख़ख़ोरने की आदत बचपन के दिनों में विकसित हुई कुछेक ऐसी आदतों में से एक है जो आज भी बरकरार है। ऐसे में ही आज के हिंदुस्तान टाइम्स के सप्लीमेंट में एक लेखनुमा खबर पर नज़र गई। आद्रिजा डे के “स्टक एट ‘जस्ट-टॉकिंग’ स्टेज ऑफ़ डेटिंग? हेयर इज व्हाट इट सेज अबाउट यू” इस लेख के शीर्षक को देखते ही मन में कुछ कौंध सा गया। इस समय में तमाम ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स और उसकी उपयोगिता और उनके यूज़र्स, उन डेटिंग एप्स पर मिलने वाले लोगों और उनके माध्यम से बनने वाले रिश्तों और उनकी वास्तविकता की एक झलक मिलती है इस लेख को पढ़कर। लेकिन मेरे मन की सुई जहां अटकी वह इस लेख के डिटेल और आँकडें नहीं थे। इस शीर्षक को पढ़कर लगा जैसे देजा वू हो। शायद ऐसा ही कुछ पढ़ा है, या ऐसे ही ऑनलाइन डेटिंग वाली प्रेम कहानी वाले किसी जोड़े को जानती हूँ। लेकिन नहीं ऐसा भी नहीं था, सेकंड के हज़ारवें हिस्से में याद आ गया कि ऐसा ही एक संवाद आलोक रंजन की हालिया प्रकाशित कहानी ‘स्वांग से बाहर’ के नायक-नायिका के बीच होता है। आलोक रंजन की इस कहानी को लोग पसंद कर रहे हैं और उसे तारीफ़ मिल रही है। मेरे लिए आलोक रंजन को सोशल मीडिया पर पढ़ने के अलावा औपचारिक रूप से पढ़ने का यह पहला मौक़ा था। कहानी में सरल-सहज भाषा में समकालीन और हमारे आसपास घटित होने वाला दृश्य रचकर आलोक रंजन ने एक बहुत ही गंभीर और हमारे समय की तेज़ी से पसर रही समस्या को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के लाकर सबके सामने रख दिया है। ‘स्वांग के बाहर’ नामक कहानी एक लाँग डिस्टेंस रखने या रखने की इच्छा रखने वाले दो दोस्तों के बीच की कहानी है, जिसमें दोनों ही पात्र एक दूसरे को लंबे समय से जानते हैं और अच्छे दोस्त हैं। कहानी की नायिका अपने कई वर्ष लंबे रिश्ते के टूटने के बाद एक नये रिश्ते की तलाश और दरकार दोनों में है और देर-सवेर इस बात को समझती है कि उसके मन का वह पुरुष उसका यह पुराना दोस्त ही है। लेकिन कहानी तो कहानी होती है, कई बार कहानी का स्वरूप जीवन से भी अधिक उलझा होता है, और यह कहानी उसी श्रेणी में आती है। नायिका का दोस्त शादीशुदा है, हालाँकि उसका वह प्रेमी जिससे वह लगभग सोलह साल से रिश्ते में थी वह भी शादीशुदा था। ख़ैर लेकिन जो चला गया उसकी बात क्या ही करना! आगे कहानी में नायिका के प्रेम-प्रस्ताव के बाद दोनों के बीच कुछ देर की चुप्पी पसर जाती है, और फिर नायक, नायिका को उससे प्रेम करने की सलाह दे बैठता है। उसकी इस सलाह में एक ही बात होती है जो कहीं ना कहीं इस समय रिश्तों की सच्चाई और भयावहता को एक झटके में आपके सामने लाती है। नायक का तर्क होता है कि तुम मुझसे प्रेम कर लो, क्योंकि यह प्रेम लौंग-डिस्टेंस होगा। हालाँकि नायक साथ में यह भी कहता है कि इस रिश्ते में तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन मेरे जैसे लोग जो बिटवीन दी लाइन्स पढ़ने के आदि होते हैं, वह पढ़ते हैं कि इसमें मुझे भी कुछ खोना नहीं पड़ेगा, मैं अपनी पत्नी के साथ रिश्ता निभाते हुए तुम्हें भी हैंडल कर लूँगा। ख़ैर यह मेरा यानी कि एक पाठक का इंटरप्रिटेशन है लेकिन शायद लेखक ने नायक के भले मन वाला इंसान और एक अच्छा दोस्त होने के नाते अपनी दोस्त के जीवन को आसान बनाने और उसके दिल-दिमाग़ की मुश्किलों को दूर करने के प्रयास को दिखाना चाहा है। बात जो भी हो, विषय और मुद्दा एक ही है, इस ऑनलाइन और इंटरनेट से शुरू होकर इंटरनेट के लिए समर्पित अपने जीवन में हम क्या खो रहे हैं और क्या पा रहे हैं, या फिर केवल खो ही रहे हैं क्योंकि अख़बार की रिपोर्ट हो या कहानी दोनों में एक शून्य का होना ही सबसे पहले दिखाई पड़ रहा है।
आद्रिजा डे का लेख इन तथ्यों को रेखांकित करता है कि इंटरनेट के माध्यम से बने रिश्ते अस्थायी होते हैं। ये रिश्ते कई दिन, कई रात, कई सप्ताह और कभी-कभी कई महीनों तक केवल और केवल ‘बातचीत’ वाले स्तर तक ही बने रहते हैं और उनमें एक ठहराव सा आ जाता है। दोनों पक्ष ऊब जाते हैं या उन्हें यह समझ आने लगता है कि वे एक दूसरे के कम्पेटिबल नहीं हैं। यूँ भी रिल्स और शॉर्ट्स देखने के इस नेटयुग में रिश्तों में इन्वेस्ट करने के लिए समय किसके पास है, वह भी तब जब उसी मोबाइल में डाउनलोड किए दूसरे डेटिंग ऐप्स की नॉटिफ़िकेशन की हरी बत्ती के पीछे कई मैच के संदेश टिमटिमा रहे हों। हालाँकि ऑप्शंस का होना कभी बुरा नहीं होता लेकिन जब तक ऑप्शन दिखाई पड़ता रहे तब तक इंसानी स्वभाव ठहरने या प्रयास करने के मोड में भी नहीं आता है। ऐसे में ऑप्शन ही आगे चलाकर हमें ऑप्शनलेस बना सकता है।
वहीं दूसरी तरफ़ आलोक रंजन जैसे युवा कथाकार अपने नायक-नायिका के माध्यम से अपने समय के लोगों के गुप्त जीवन की समस्याओं को सामने लाते हैं। मुझे लगता है कि शिल्प, उसके कथानक या कहानी के अन्य कैरेक्ट्रिस्टिक से परे जाकर आलोक रंजन की कहानी का एक पाठ इस विषय को केंद्र में रखकर किया जाना चाहिए, और इस गंभीर मुद्दे पर एक बार देखा-सुना और लिखा जाना चाहिए जो हमारी पीढ़ी को शायद आंशिक रूप से अपने गिरफ़्त में ले रही है लेकिन हमारी अगली पीढ़ी जिसे हम ज़ेन-ज़ी कहते हैं के लिए बहुत बुरे रूप और स्वरूप में अपना दायरा फैला रही है। आख़िर पीढ़ियाँ कितनी भी उन्नत और दूरदर्शी क्यों ना हो जाएँ लेकिन अपनापन का भाव लिए रिश्ते और उन रिश्तों में वास्तविकता तो ना केवल मनुष्य जाति को बल्कि सभी प्राणियों को चाहिए ही ना! इन मुद्दों पर और लिखा जाना चाहिए ताकि आम लोगों को भी वह सब कुछ समझ आए जिससे वे गुजर तो यूँ भी रहे हैं।