बरसों बाद अशोक कुमार पांडेय का कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘आवाज़-बेआवाज़’। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को पढ़कर उस पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है जाने-माने कवि पवन करण ने। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
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जहां से आवाज़ आनी थी वहां से चुप्पियों के फ़रमान जारी हो रहे हैं।
अशोक कुमार पांडेय की कविता की गति बहुत तेज है। एकदम तूफान सी। जैसे आप प्लेटफार्म पर खड़े हैं और आपके सामने से सनसनाते हुए उस स्टेशन पर न रुकने वाली ट्रेन गुजरती है। आप उसकी गति से थरथराते प्लेटफार्म पर खुद को संभालते हुए बस उसका जाना देखते है।
उस ट्रेन की गति ठीक यही हाल अपने भीतर बैठने वालों का भी करती है। तेजी से खिड़की के बाहर के दृश्य उनकी आंखों से हटते हैं। उसकी गति से हारते वह बमुश्किल कोई दृश्य अपनी नजर में बचा पाते हैं। बस इतना ही नहीं जिस भाषा में कविता लिखी जा रही है उसके शब्द और उनसे बनते वाक्य भी कविता की गति में खुद को शामिल करने के लिए तैयार होते हैं। उन्हें कवि चुनता भी उनके भीतर की ऊर्जा को भांपकर है। किसी थके हुए शब्द या वाक्य के लिए उनकी कविता में कोई जगह नहीं।
जो सबसे पहले पाठक की चेतना की जड़ता पर हमला करती हो क्या कोई कविता इतनी हमलावर हो सकती है। उसका सुभाव इतना आक्रामक हो सकता है कि उसकी अगुवाई निर्विवाद लगने लगे। पढ़ते हुए अशोक की कविता का यह प्रभाव हम पर बनता है। हमले से डरने वाली कविता, हमला झेलने वाली कविता और हमलावर कविता। हिंदी कविता का सुभाव हमला झेलने वाली कविता का तो है, हमलावर कविता का नहीं हैं। यहां हमले से आशय वैचारिक हमले से है न कि उन सामाजिक-आपराधिक हमलों से, जिनकी संख्या इन दिनों लगातार बढ़ती जा रही है। देखिये इस कवि की दृष्टि देश-दुनिया में लगातार बढ़ती जा रही राजनीति परस्त और राष्ट्रवादी- हिंसक गतिविधियों को कितनी गहराई से देख रही है और उसकी बदनीयती को उजागर करने की बेचैनी का कैसा पहाड़ उसके भीतर दरक रहा है।
कविता जिसके पीछे भीड़ पड़ी है और वह उस भीड़ के आगे तेज चलती भीड़ की मंशा से सबको अवगत करा देना चाहती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कविता जोखिम उठाना चाहती हो मगर कवि नहीं? जब सब नष्ट किया जा रहा हो और सवाल सब बचाने का हो तब कवि खुद को बचाकर कविता कैसे लिख सकता है। पीछे रहने और आगे बढने से कविता को रोकने वाला कवि कितना कवि बचेगा। हालाँकि इस समय बहुत सारे कवि बचने-छुपने के चतुर अभ्यास में हैं।
अंधेरा तब दिखाई देना शुरु होता है जब हम उसे देखना प्रारंभ करते हैं। अन्यथा अंधेरा छाया रहता है और हम उसके उजाले में जीते रहते हैं। सांप्रदायिकता और धर्मान्धता के लिए अंधेरा ही उजाला है। राष्ट्रवादियों के लिए आस्था नामक अंधकार से अधिक मुफीद क्या होगा। अंधेरा हटाने के लिए अंधेरे से जूझने के साथ-साथ अंधेरे को पहचानना और समझना जरूरी होता है।
यह आसान नहीं। यदि आप कवि हैं तो इसमें आपकी संवेदना, आपकी बेचैनी, आपके भीतर का क्षोभ और तल्खी आपका साथ दे सकती है।
इसके लिए विचार और भाषा की गलियों की खाक छानना उतना ही आवश्यक है जितना अशोक अपनी कविता में अंधेरे में डूबे रास्तों पर भटकते हैं। जिसमें ये तक पता नहीं होता कि उसका अगला कदम कहां पड़ेगा। पाठक अशोक की कविता में आने वाली अगली पंक्ति या बात का अनुमान नहीं लगा सकता। बे भाषा के नये-पुराने उपकरणों से बर्फ जैसे अंधेरे को ताड़ने-तोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं। अशोक अपनी कविता में भाषा से खेलते नहीं उसे बरतते हैं। इस चक्कर में अक्षर-वाक्य पंक्तियों के समूह ठीक से सांस लेने लगते हैं। उनके दिमाग में कहने की शक्ल में भरीं कितनी पंक्तियां आपस में टकरा रही हैं अनुमान लगाना मुश्किल है।
क्या किसी कवि को अपनी कविता में इतना अधिक होना चाहिए ? यह प्रश्न में कवियों के सामने रखता हूं, कि उसकी तीव्रता के सामने ‘आवश्यक’ भी गौण नजर आने लगे। अशोक भी अपनी कविता में अत्यधिक आच्छादित-अतिक्रमित है। जो अशोक के प्रारंभिक सुभाव के साथी हैं वह इस को समझते हैं कि एक कवि के रूप में जो जिस आक्रामकता-वैचारिकता के साथ जीते हैं अपनी रचना मैं भी वैसे उतर जाते हैं, अशोक भी उन दुर्धष कवियों में से एक हैं।
कवि अशोक का सुभाव कवि अशोक से भी समझौता नहीं कर सकता। मगर ये उल्लेखनीय है कि वे अपनी कविता में जब होते हैं, कवि होते हैं, एकदम सघन। जिसके झाड़-झंखाड़ पाठक को हटाने और उलझने को व्यग्र कांटे बीनने पड़ सकते हैं। पढ़ने के स्तर पर उनकी कविता को समझने की उम्मीद के साथ। वैसे भी वे अपनी कविता में उम्मीद की बात करते हैं।
संग्रह की कविताएं भले ही तीन खंडों में बंटी हों, मगर कवि का तेवर तीनों खंडों में समान है। विषय का बदलाव कवि के सुभाव को विभाजित नहीं करता। दुनिया खंड में बात कहने वाले कवि को इतनी फुर्सत नहीं कि वह आपसे हाथ भी मिला ले। वह वहां अथाह है। मगर अब दुनिया में जो घट रहा है उसे देखने के लिए देखने के लिए आपको दुनिया से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। वह अब हिंदुस्तान में ही घटने लगा। हिंदुस्तान अब दुनिया का नया पड़ाव है। जिसे हमने आमंत्रित किया है। कवि का चांद से प्रेम उल्लेखनीय है। दूसरे खंड तुम की कविताओं में कदम-कदम की तर्ज कविता-कविता चांद की उपस्थिति है। वे चांद से इतना प्रेम करते हैं कि तारों पर पांव रखते हुए अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़कर वे उसे चांद पर ले जाते हैं।
जिस कवि का रातों से जागने का रिश्ता होता है उसका चांद से भी गहरा रिश्ता होता है।
मगर अशोक अपनी प्रेम कविताओं में इतने परिपक्व हैं कि वे प्रेमिका के चेहरे को चांद के चेहरे में नहीं देखते। प्रेम के सबसे चमकीले प्रतीक से उनका गहरा याराना है और गहरी छन रही है। वे चांद पर भरोसा करते हुए उसे अपने प्रेम का साझीदार बना रहे हैं, यह क्या कम है। चांद तो कुछ कह नहीं सकता मगर प्रेमिका तो अपनी बात कर सकती है। अपने मन की कह सकती है। मगर अशोक की कविताओं में वह न के बराबर बोलती और खुद को कतई अभिव्यक्त करती नजर नहीं आती। क्या अशोक ने अपनी प्रेमिका के मुंह पर हाथ रख-रखा है। कहने-सुनने के स्तर पर इसमें भारी अंतराल है जबकि प्रेम दो लोगों का कहना-सुनना और करना-धरना है।
अशोक कुमार पांडेय अपनी कविता में प्रेमिका को अंतराल सौंपने की बात करते हैं। यहां भी एक तेज बहाव भरी आक्रामकता के साथ वे प्रेम किये जा रहे हैं। लगातार अपनी और से अपनी और अपनी ओर से प्रेमिका की भी की बात किये जा रहे हैं। प्रेमिका के समक्ष खुद को कई रूपकों उपमाओं और कथ्यों में अभिव्यक्त किये जा रहे हैं और प्रेमिका चुप है। यह एक तरफा आगे की कविताओं में दो तरफा होगा उम्मीद लगाई जा सकती है। तीसरा खंड कविता का अशोक-खंड है। कवि का एकालाप खंड। जहां और भी ज्यादा कवि अशोक है। दुनिया है। हिंदुस्तान है। सघन-समृद्ध-संवेदना है।
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संकलन से कुछ काव्य पंक्तियां
जिस दिन कवि मुंह देखकर बात करना सीखने लगता है
उसी दिन लिखना-सीखना दुष्कर होता जाता है
जो कवि मुंह देखकर बात करना नहीं सीखता
दुष्कर होती जाती है उसकी कविता
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इतिहास के चौराहे से भटक गई राह हूं जैसे,
जब आग लगी हो चारों ओर तब आंच नींदों तक भी आती है
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एक मरती हुई भाषा के कंधे पर हम लादते चले जाते हैं
कविताओं का दुसह भार
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गौर से देखो मेरा चेहरा उस फलस्तीनी बच्चे से कितना मिलता है, यह जो मेरे चेहरे में कालीख है
उसमें शामिल है सूडान की कब्रों की मिट्टी
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एक अधूरे प्रेम में डूबता हूं कमर तक
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तारा टूटकर गिरता है जैसे निगाहों से दृश्य कोई गिरे
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आजादी मेरे लिए उन रास्तों का सफर थी
जिन पर सत्ताएं बिखरती हैं धीरे-धीरे
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वह जो एक बार चढ़ा सूली पर ईश्वर हुआ,
वे जिनकी देह पर निशान अनगिनत सूलियों के रहीं अलक्षित अनाम
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पत्थर-सी देह का सपना सजाते लड़के को
आंसुओं में डूबना सिखाओ
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हमने देखा एक-दूसरे के सपनों में जाकर
अंधेरा बस होने वाला था और लौटना था हमें
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उदासी की बेंच पर बैठे हैं मैं और तुम
कहा तुमने- कोई अच्छी सी कविता है तुम्हारे पास
और मैनें टूटती सी आवाज में पुकारा तुम्हारा नाम
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एक ताला है जिसकी दूसरी चाभी तुम्हारे पास है पहली भी
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चलती कार से उछाली बोतल तो तेज संगीत गूंजा
उसी वक्त तीन बच्चे लपक पड़े हैं बोतल पर जिसमें पानी नहीं है
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जिस दरवाज़े पर लिखा है मनुष्य डरें कुत्तों से वहां एक
बच्चा खड़ा है, भीतर चली गई गेंद के बारे में सोचता
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धर्म ध्वजा के नीचे उनका लहू जमा है
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एक उदास इतिहास था उनकी कब्रगाहों में फूल-सा बिछा हुआ
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शहर में अदीब जैसे धूल-भरी लाइब्रेरी में किताब
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वह राजपथ पर चली तो नष्ट हुई
मेरी भाषा की मेरे गांव की झांकी
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आग भय से मुक्ति के लिए बनी थी अब भय उसका प्रेमी है पहला पत्थर रक्षा के लिए उठा था
आखिरी आत्महत्या के लिए उठेगा
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किसी मंदिर के गर्भगृह में सैकड़ों साल पुरानी
मृत धातुओं का ख़ज़ाना गिन रहे हैं कुछ लोग
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शर्म छोड़ दो तो कोई नहीं मार सकता हमें
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एक भीड़ है पगलाई हुई और पीछे जलते हुए घर तमाम
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उम्मीदें पुरानी चादर-सी जितने पैबंद लगाओ और बदशक्ल होती चली जाती हैं
रिवाज कफ़न में नये कपड़े का है
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थकन के पार कुछ नहीं पैरों के पास,
कोई कांटा है, जाने कि किसी फूल के दबने की चीख जो मुझमें खो गई है
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मत हंसो जब वह इतिहास के भूगोल को कर रहा हो चपटा
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जो बदलता है… कहां बदलता है
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कितने असहाय होते हैं एक मुर्दा शहर के जिंदा बाशिंदे
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कितनी जमीन चाहिए एक आदमी को?
ठठाकर हंसा हत्यारा इस सवाल पर
उतनी कि जिसके बाद किसी के पास न बचे जमीन।
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पवन करण