जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा को वैसे तो जासूसी उपन्यासों के लेखक के रूप में जाना जाता है, जिसको हिंदी का गंभीर पाठक समुदाय हिकारत की दृष्टि से देखता है. ऐसे में शायद ही किसी का ध्यान इस ओर गया हो कि उन्होंने ऐसे कई उपन्यास लिखे जिनको साहित्यिक कहा जा सकता है. लेकिन सब लुगदी में छपा और धीरे-धीरे विलुप्त हो गया. ऐसा ही एक विलुप्त उपन्यास है ‘दूसरा ताजमहल’. जो १८वीं-१९वीं शताब्दी के शायर नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित है. उस नजीर अकबराबादी के जिनके बारे में लेखक ने लिखा है कि वह न तो दरगाह का शायर था, न दरबार का शायर था बल्कि जनता का शायर था. जिस दौर में शेरो-शायरी समाज के उच्च वर्ग की सभ्यता का प्रतीक समझी जाती थी उस दौर में नजीर ने शायरी को अवाम के जीवन-प्रसंगों से जोड़ा, उनके छोटे-छोटे मसाइलों से जोड़ा. उपन्यास की कथा के अनुसार उसने इसकी कोई परवाह नहीं की कि लोग उसके बारे में क्या कहते हैं, उसे शायर मानते हैं या नहीं. वह तो आगरा यानी अकबराबाद में खुश था क्योंकि वहां की जनता उनके नज्मों को गुनगुनाती थी-
आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है
मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है
मुफलिस कहो, फ़कीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नजीर कहो, आगरे का है.
उपन्यास की भूमिका में लेखक ने लिखा है कि नजीर की प्रामाणिक जीवनी नहीं मिलती इसलिए उन्होंने उनकी रचनाओं के सहारे उनके जीवन को इस उपन्यास में बुनने का प्रयास किया है. उपन्यास की कथा सन १७७५ में लखनऊ में शुरू होती है. जब नवाब आसफुद्दौला ने एक भिखारी को यह गाते सुना- पैसे का ही अमीर के दिल में ख्याल है/ पैसे का ही फ़कीर भी करता सवाल है/ पैसा ही रूप-रंग है, पैसा ही माल है/ पैसा न हो तो आदमी चरखे का माल है. नवाब इन शब्दों से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने पता करवाया तो पता चला कि आगरे के किसी नौजवान शायर नजीर की पंक्तियाँ हैं. नवाब साहब बेचैन हो उठे. उन्होंने उस मंगते को नवाब ने सौ रुपये की थैली दी कि उसने नवाब को उस शायर का नाम बताया. लेखक ने लिखा है उस रात लखनऊ में यह कहावत चल निकली- ‘जिसको न दे मौला, उसको दे आसफुद्दौला’. क्योंकि उन्होंने एक फ़कीर को केवल इसलिए १०० रुपयों की थैली दे दी कि उसने उनके सामने नजीर अकबराबादी की नज़्म गुनगुनाई जो कि नवाब साहब को बहुत पसंद आई. खैर, नवाब साहब की बेचैनी बढ़ गई क्योंकि वे चाहते थे कि नजीर को किसी तरह अपने दरबार में रखा जाए.
आसफुद्दौला इससे पहले दिल्ली के शायर मीर तकी मेरे को रहने के लिए बुला चुके थे लेकिन मीर की तुनकमिजाजी ने उनका दिल तोड़ दिया था. एक दिन मेरे नवाब के पास अपने नए शेर सुनाने आये तो उस समय नवाब साहब रंग-बिरंगी मछलियों को देखने में व्यस्त थे. उन्होंने मीर को आदेश दिया कि वे अपने शेर कहें, लेकिन मेरे चुप रहे. पूछा गया तो मीर ने कहा कि नवाब साहब तो मछलियों को देख रहे हैं वे क्या ख़ाक शेर कहें. नवाब ने कहा कि अगर शेरों में ताब होगी खुद ब खुद ध्यान उधर चला जायेगा. मीर साहब ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप ऐसा निकले कि फिर ४०० रुपये माहावार की नौकरी करने नवाब साहब के दरबार में कभी नहीं लौटे. ऐसे में उनको लगा कि अगर नजीर को बुलवा लिया जाए तो मीर के न रहने की कुछ तो भरपाई हो ही सकती है. वे नजीर को आगरे से लखनऊ बुलाने की जुगत में लग गए. उन्होंने अपने एक खास सिपहसालार को इस काम के लिए खास तौर पर आगरा भेजा यह कहते हुए कि किसी तरह नजीर को यहाँ ले आना.
नवाब साहब के उस सिपहसालार ने आगरा पहुँचते ही नजीर को खोजा और पहले नवाब साहब की ओर से उसे १०० सोने की मुहरों का नजराना पेश किया और फिर यह प्रस्ताव कि अगर वे लखनऊ में चलकर दरबार में रहना स्वीकार कर लें तो उनको ४०० रुपये माहावार मिलेंगे. नजीर उस समय आगरा में एक हिंदू व्यापारी के बच्चों को पढाने का काम करते थे, जिसकी तनख्वाह उन्होंने खुद निर्धारित की थी १७ रुपये महीने. ४०० रुपये की बात सुनकर वे चलने को तैयार भी हो गए लेकिन उनके जाने की बात सुनकर सारा का सारा आगरा शहर ऐसे भावुक हो उठा कि उन्होंने लखनऊ जाने का इरादा छोड़ दिया और १७ रुपये माहावार की नौकरी में ही खुशी-खुशी रहते रहे. इसीलिए उपन्यास के अनुसार, उनको उस ज़माने में जनता ‘दूसरा ताजमहल’ कहने लगी. ताजमहल के बाद आगरा में गौरव करने लायक दूसरी चीज़.
उपन्यास का बाकी कथानक उसी ‘दूसरा ताजमहल’ की नज्मों के सहारे बुना गया है. उपन्यास में ओमप्रकाश शर्मा ने उन्हीं नज्मों के सहारे यह दिखाने का प्रयास किया है कि नजीर किस तरह से शहर आगरा की धड़कनों से जुड़े हुए थे. कही किसी सब्जी बेचनेवाले को बेचना सिखाने का अंदाज़ में नज़्म लिख देते, कभी तवायफ मोती के कहने पर गज़ल के दो-चार शेर भी कह देते, कभी किसी पंडित के लिए कोई नज़्म, कभी किसी देवी-देवता की शान में नज़्म. हिंदू देवी-देवताओं पर सबसे अधिक नज्में लिखनेवाले इस शायर को उन्होंने भारत की मिली-जुली संस्कृति के सबसे बड़े कवि के रूप में दिखाया है. जिस दौर में धार्मिक-पौराणिक विषय कविता के आधार होते थे उस दौर में ‘आदमीनामा’ लिखेवाले इस शायर को उन्होंने भविष्य के कवि के रूप में याद किया है. उस शायर के रूप में जिसकी नज्मों में आधुनिकता की धमक सुनी जा सकती है. उन्होंने सुख-साज की कविताएँ नहीं लिखी, भाषा का बेवजह सौंदर्य नहीं बिखेरा, सीधी साफ़ जुबान में मुफलिसी, बेरोजगारी, रोटी पर ऐसी नज्में लिखते रहे जो जिसे बड़े-बड़े हाकिमों से लेकर मौला-फ़कीर तक गुनगुनाते थे. अहले-जुबान उनकी शायरी से नाक-भौं सिकोड़ते रहे इसके ऊपर भी तवज्जो दिया जाना चाहिए कि शायरी जैसी दरबारों तक महदूद रहने वाली विधा का रंग उन्होंने अवाम तक पहुंचाया.
इस छोटे-से उपन्यास को पढकर मैं यही सोचता रहा कि आखिर जासूसी उपन्यास लिखने वाले जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा को नजीर पर उपन्यास लिखने की क्यों सूझी. उन्होंने भूमिका में लिखा है कि बीस सालों से वे नजीर उपन्यास लिखने के बारे में सोच रहे थे. महीने के दो उपन्यास की दर से लिखनेवाले इस लेखक की आखिर नजीर में ऐसी क्या दिलचस्पी थी कि २० सालों तक वह इस विषय पर सोचते रहे. मुझे ऐसा लगा कि हो सकता है वे नजीर में कुछ-कुछ अपनी झलक पाने लगते हों. नजीर भी अपने दौर के बेहद लोकप्रिय शायर थे लेकिन उनको शास्त्रीय शायर के रूप में स्वीकृति नहीं मिली. नजीर की तरह ही ओमप्रकाश शर्मा भी अपने पाठकों के बूते जमे रहे. यह अलग बात है कि नजीर की कवितायें २३०-२३५ साल बाद भी उतही ही प्रासंगिक लगती हैं जबकि ओमप्रकाश शर्मा की इतनी ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक ढूँढने में मुझे कई साल लग गए. मुझे उपन्यास को पढते हुए लगा कि इसमें लेखक ने कहीं न कहीं अपनी भाषा के लोकप्रिय लेखन धारा के अग्रज के तौर पर नजीर अकबराबादी को देखने का प्रयास किया है.
यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है कि उपन्यास कितना साहित्यिक है, इसमें कितना सस्तापन है, जिनको लेखन ने ‘आदमीनामा’ के जनक-कवि के रूप में याद किया उसी के के चरित्र का किस हद तक मिथकीकरण किस हद तक किया है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक दिलचस्प उपन्यास है. पढकर सोचता रहा कि हमें साहित्य की लोकप्रिय-धारा से पूरी तरह मुंह फेरे नहीं रहना चाहिए, कम से कम उसके ऊपन नज़र रखनी चाहिए. कभी-कभी ‘दूसरा ताजमहल’ जैसे उपन्यास भी मिल जाते हैं- सारी सूचियों-उपसूचियों से अलग, कहीं दूर.
10 Comments
यह उपन्यास मुझे ज़रूर ज़रूर और जल्दी ही पढ़ना है. क्या किसी दिन आपके घर आकर देख सकता हूँ ? आपकी इजाजत हो तो फोटोस्टेट करवा लूँगा.
क्या इस उपन्यास को नेट पर उपलब्ध कराया जा सकता है या रिप्रिण्ट?
aap jise lokpriya sahitya kah rahe hain,
kuchh log use kisi bhi tarah ka sahitya nahi maante.
प्रभात भाई…कहां से लाते हैं भई आप इतनी अच्छी-अच्छी जानकारियां….मजा आ गया… लेकिन सच जैसा कि रवि भाई ने कहा… मैं भी कहूंगा..कि ये उपन्यास आप किसी तरह उपलब्ध कराइए ताकि हम लोग पढ़ सकें…..
prabhatji is gyanvardhak jaankari k liye shukriya. kya novel paddhne ko mil sakta hai…? -ravi buley
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