युवा कवि आस्तीक वाजपेयी की कविताओं में जिस तरह से प्रेम, संवेदना और गहरी वेदना की उदासी है वह आजकल कम कवियों में दिखाई देता है। उनकी कुछ कविताएँ दे रहा हूँ जो क्रमशः तद्भव और समास में प्रकाशित हैं। दोनों पत्रिकाओं को आभार के साथ कविताएँ यहाँ दे रहा हूँ- प्रभात रंजन
===============================
संभलना
संभलने दे मुझे… ग़ालिब
वह खोती जा रही है।
मुझे अब उसकी आँखें याद नहीं आती
मुझे बस यह पता है, उससे
सुन्दर आँखें कभी नहीं देखी हैं।
लेकिन उनका आकार और रंग खो रहा है।
इस अकेलेपन और शराब से
मेरी विस्मृति में वह घुल रही है।
वह अब केवल विचार है
सालों पहले मेरे पिता को भी, देवताओं,
तुमने इसी स्मृति-दोहन से तोड़ा था।
क्या कोई पारिवारिक श्राप है
जिससे हम सब को गुज़रना है।
उसके दुबले-पतले पैर अब
याद में नहीं है, बस सुन्दर हैं,
खुद वे ख़त्म हो गये हैं।
उसके हाथ इतने पतले कि बिखर जाते
अब बिखरने की कल्पना के लिए भी
नहीं बाक़ी हैं।
उसे मेरे अन्दर से अपमान और
शराब ने ख़त्म कर दिया है।
काश कि मैं मर चुका होता
उसकी मुस्कुराहट को याद कर।
वह मेरे बचपन के भोपाल या
सागर में जाकर रहने लगी है।
जब, देवताओं, मुझे कुछ देते नहीं
तो इतना छीनते क्यों हो?
माँ- जो मुझे वहाँ से देखती
हो जहाँ मरने पर हम जाते हैं-
इन सब से कहो कि कुछ रहम करें,
मेरी यादें तो न छीने।
उसकी हँसी को छीनने के पहले
मुझ पर इल्ज़ाम लगाते मुझे मौका देते कि
मैं जिसने उसे कभी छुआ भी नहीं,
उसे अपनी शर्त पर खो पाता।
वह अपना मुँह कोरोना के मास्क से ढाँक कर बैठी है
कोई मुझे उससे दूर खींच रहा है, वह
समय है, वह मेरा परिवार है
वह मैं हूँ जो खोकर ही अपनाता है।
यह तुम्हारी ग़लती है, अंजना अम्मा,
मैंने तुम्हें भी तो खो कर ही पाया है।
उसके बात करने का तरीका, बात
सुनने का, हँसने का, गुस्सा होने का
कुछ तो छोड़ दो,
तुम एक अप्रत्याशित कामना हो।
भगवान् के लिये अपनी उम्मीद
मुझसे मत छीनो।
उम्मीद की खातिर देवताओं, उसे रोक लो
मेरी खातिर, सम्भावना, बच जाओ।
उसके पैर ग़ायब, उसकी टाँगे ग़ायब
उसकी कमर जो पता नहीं पतली थी या नहीं, ग़ायब,
उसके हाथ, उसकी गर्दन ग़ायब
उसकी शक्ल, उसके बाल ग़ायब, उसके
दामन का खयाल…
मैं क्या सोच रहा था
===============
पीठ का दर्द
पीठ में दर्द बढ़ रहा है।
मैं पहली बार उसे देख रहा हूँ।
वह मुझे एक लिफ़ाफ़ा पकड़ा रही है।
मैं उसे ऐसे लेता हूँ जैसे
मुझ में कुछ सुध अभी बाक़ी है।
दर्द ग़ायब हो रहा है।
मैं पहली बार भागते हुए गिर पड़ा हूँ।
घुटने से एक लपट दौड़ जाती है।
शरीर का दर्द ज़्यादा बुरा होता है अपमान से।
अपमान की अब आदत पड़ गयी है।
परिवार के गुस्से की तरह वह
अब मेरी खुदी का हिस्सा बन चुका है।
वह पहली बार कुछ बोलती है।
वह पहली बार हँसती है।
पहली बार मेरी बात पर रोती है।
लगता है कि दर्द कम हो रहा है।
वह फिर बढ़ जाता है।
मैं उससे बहुत दूर चला आया हूँ।
अब बात नहीं होती, तब भी नहीं होती थी।
समय बीतने पर भी उसे भूल नहीं पा रहा।
शराब पीकर पहली बार उलटी कर रहा हूँ।
ऐसा लग रहा है जैसे अंतड़ियाँ
मुँह में आ गयी हैं।
मेरा दर्द अब पीठ का हिस्सा बन चुका है।
मेरा भाई मुझे पहली बार पीट रहा है
मुझे डर नहीं लग रहा, आश्चर्य हो रहा है।
पहली बार मैं बीबी पर चिल्ला रहा हूँ।
जैसे मैं हल्का महसूस कर रहा हूँ।
पहली बार बीबी बेटी को लेकर चली गयी है।
इस दर्द की तरह हर दर्द में अमूमन अकेला हो जाना
पहली बार जंगल में शेर का दिखना,
पहली बार समन्दर का दिखना
पहली बार बर्फ़ और बेटी की आँखों में हँसी याद आ रहे हैं।
दर्द खत्म हो गया है।
अचानक डॉक्टर कहता है कि
दवाई दिन में दो बार खानी है।
पीठ में दर्द बढ़ रहा है,
मैं पहली बार उसे देख रहा हूँ।
====================
स्वप्न-लोक
मैं समुद्र तट पर लेटा हूँ।
वह भागकर आती है, शाम हो रही है।
आकाश खूनी लाल रंग का हो गया है क्षितिज पर।
क्षितिज से काला समन्दर मिल रहा है।
वह मेरे पास लेटी है।
वह कुछ कह रही है, हँस रही है।
क्या यह वही है?
वह भागती है
समन्दर के अन्दर चली जाती है।
मैं उसके पीछे।
मुझे तैरना नहीं आता।
पहले गीले होने का एहसास नहीं होता
फिर थोड़ा, फिर पूरी तरह भागने का
फिर डूबने का और हाँफ़ने का।
मैं थोड़ी देर तो तैर गया
फिर मुझे याद आया कि
मुझे तैरना नहीं आता, मेरा डूबना शुरू हो गया है।
वह दिख रही है।
पीछे पलट कर हँस रही है
मैं डूब रहा हूँ, वह हँस रही है
वह ऐसे कभी नहीं हँसी है।
मैं मरता हूँ और झटके से उठ जाता हूँ।
पसीने से भीग गया हूँ, बिजली नहीं है
पंखा नहीं चल रहा
मैं हाँफ़ता हूँ फिर पानी पीता हूँ,
पंखा चल पड़ता है।
शराब न पियो तो सपने आते हैं।
यह इकलौता फ़ायदा है न पीने का।
सपना यही आता है, तैरना फिर डूबना
पर उसे केवल यहीं देख सकता हूँ।
एक भारीपन लग रहा है, मैं थका हुआ हूँ।
चौबीस घण्टों से सोया नहीं हूँ।
अचानक कन्धे पर एक हाथ खट से, मैं उठता हूँ।
मैं अहाते में ही सो गया था।
घर जाने का समय हो गया,
सपना देखने का,
किसी और तरह उसे खोने का समय।
=========================
संस्कार
अमलतास का पेड़ नीम के पेड़ से ढंक गया है।
नीम की परछाईं में खो गया है।
धूप में घास चमक रही है।
कुत्ते बोल रहे हैं,
और लोग भौंक रहे हैं।
मैं और मेरे साथी अपनी
महत्वाकांक्षाओं के बोझ से दब नहीं जाते।
अब वह ही हमारा घर है।
अब माँ बाप अपने बच्चों को
झूठ बोलना भी सिखाते हूँ।
मुझे सिखाने की ज़रूरत नहीं है
सब कहते हैं मेरी बेटी तेज़ दिमाग़ है।
ते़ज मैं क्यों नहीं हो पाता
सफ़ेद बाल आना शुरू होने के बाद भी?
किसी से असहमत होना अपराध है।
मैं यह अपराध अब नहीं करता।
व्यावहारिक होने का अर्थ है डरपोक होना
मैं वह भी होने की कोशिश कर रहा हूँ।
एक वाक्य मैं बहुत दिनों से सीखने
की कोशिश कर रहा हूँ।
जैसे हर सुन्दर लड़की मुझ से मुँह
मोड़ लिया करती है वैसे ही
वह वाक्य भी कहीं खो गया है।
एक आदमी मुझ से बहस कर रहा है
मैं यह समझने की कोशिश करता हूँ कि
वह मुझे क्यों भड़का रहा है
शायद उसे भी नहीं पता
लोगों पर चिल्लाना भी एक नशा है।
ठण्ड की शुरुआत से
मौसम में ताज़गी आ गयी है।
ठण्ड की छुट्टियां की यादें
मेरे पास आकर खड़ी हो जाती हैं।
एक माँ बाप अपने बच्चे के
सबसे अच्छे होने की दुहाई दे रहे हैं
मैं भी ऐसे ही दूसरों को उबाऊँगा।
बड़े होकर सारे बच्चे दूसरे बच्चों को
वैसे ही धोखा देंगे जैसे हम देते हैं
जैसे हमसे पहले भी दिया गया है।
जंगल में दूर कहीं से चिड़िया की आवाज़ आने पर
सब लोग जंगल नहीं, कैमरे पर
ध्यान देते हैं,
शेर आने वाला है।
वह वाक्य यह था, ‘‘मैं तो कोई ग़लत काम करता ही नहीं।’’
=====================
हंस अकेला
एक बया पेड़ पर अपना घोंसला बना रही है,
उसका चटक पीला रंग धूप से मिलकर
मानो उसे अदृश्य बना देता है।
जंगल धूप में चमक रहा है,
उसमें ठहरा तालाब दमक रहा है।
एक नेवला भाग कर सड़क पार करता है
एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी तक।
नील गायों का एक समूह जंगल के
किनारे खड़ा होकर खेतों को देख रहा है।
दो उकाब तालाब के पास
एक सूखे पेड़ पर बैठे हैं,
वे पेड़ के रंग में मिल जा रहे हैं।
पेड़ का हिस्सा होने पर वे अपने शिकार का
हिस्सा हो गये हैं, सुबह की धुन्ध का भी
मैं यहाँ अकेला अपने परिवार में मिल रहा हूँ।
उससे जो है, उससे भी जो खत्म हो चुका है।
एक कठफोड़वा पता नहीं क्यों सड़क पर बैठा है?
मेरी गाड़ी निकलती है तो वह उड़ जाता है।
दो नील गाय अचानक सड़क भागकर पार करती हैं।
मैं डर जाता हूँ।
मेरे जिगर में मेरी मौत सुगबुगाती है।
बेटी मीलां दूर औरों के साथ खेल खेलकर खुश है।
गौरैयाँ अब नहीं दिखतीं
मेरे बचपन के हर आँगन में आती थीं वे।
तीन बटेरें झाड़ से बाहर भागती हैं
एक गुहेरा बिजली की गति से
पीछे वाली बटेर को पकड़ लेता है।
मौत आँखों के सामने असहज लगती है।
एक लंगूर गाँव के अन्दर आ गया है।
लोग उसे शोर मचाकर भगाने की कोशिश कर रहे हैं,
छतें खत्म नहीं होती, पेड़ आते नहीं।
एक टिटहरी कीचड़ में लंगड़ाकर चल रही है।
थोड़ा समय मेरी मौत के बाद बीतता है,
सब फिर से सामान्य हो जाता है।
धूप में चमकते दमकते तालाब के एक कोने पर
वह अकेला खड़ा है, ठण्ड खत्म हो गयी है,
प्रवास का समय आ गया वह उड़ जाएगा…
===============
कारावास और अन्य कविताएँ
मेरी नौकरी ऐसी है कि समय-समय पर तबादला होता रहता है। मैं कुछ सालों के लिए समुन्दर के पास बसे एक सुन्दर शहर में था। हम जब किसी जगह रहकर वहाँ से जाते हैं, तो अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ देते हैं और एक हिस्सा उस जगह का अपने साथ ले आते हैं। वह जगह छूटने के लगभग दो साल बाद वहाँ जो छूटा है, उसकी लय मुझे मिली है। ये कविताएँ इस लय से निकली हैं। स्मृति का स्वभाव है कि जो छूट जाता है वह बच जाता है और जो अपने पास है वह रिसता रहता है अनुपस्थिति में। प्रेम निर्मम होता है और दूरी से बढ़ता है। मैं ये कविताएँ लिखकर उससे आज़ाद होना चाहता हूँ।
कारावास
जो चले गये हैं
वे स्मृति के निर्मम दरबान बन गये हैं
अब वे नये लोगों को अन्दर नहीं आने देते
लोग एक उम्र के बाद
स्मृतियों के अधीन हो जाते हैं
मुझे कल एक लड़की दिखी
जो तुम्हारी तरह दिखती थी
उसे याद करने की कोशिश में
मैं तुम्हें याद करने लगा हूँ
तुम्हें देखे महीने साल में बदल गये हैं,
वे भी सालों और दशकों में बदल जाएँगे
तुम्हारा न होना गहरा होता रहेगा
थोड़े दिनों बाद तुम्हारी याद की जगह
और भी पुरानी यादंे ले लेंगी।
बचपन का बागीचा जो अब वह
नहीं बचा है, सामने आ जाएगा
उसमें सब्ज़ियों की जगह लम्बी घास ले लेगी
तुम्हारी जगह कोई और बीत गयी लड़की ले लेगी
माँ की जगह एक दूसरी माँ ले लेगी
पिता की जगह दूसरा पिता
भाई की जगह दूसरा भाई
जो ज़्यादा ख़ुश रहता था और चिन्तित कम।
मेरी जगह एक दूसरा मैं जो इतने सालों बाद
ख़ुद को देख रहा है जब उसकी ज़्यादातर सम्भावनाएँ
दुःख और अफ़सोस में तबदील हो गयी हैं।
उसे नहीं पता कि प्रेम नाउम्मीदी की साँस होता है
और ख़ुश होना समझदार होने से ज़्यादा ज़रूरी होता है।
बेटी की हँसी और ख़ुशी और बचपन का परिवार
जो उससे प्यार करता है देखकर डर जाता हूँ,
जितना उसे मिलेगा उतना ही देर तक और
शिद्दत से छीना जाएगा।
मैं चाहता हूँ कि वह अम्मा, पापा, बाबा, दादी से
ज़्यादा प्यार न करे,
नहीं तो हमारे जाने पर
वह हमें खोजेगी जैसे मैं खोजता हूँ
पिता में पिता,
माँ में माँ,
बुआ में बुआ
भाई में भाई,
घास में घास
हर लड़की में उस लड़की को
जिसको अब नहीं देख पाऊँगा।
=======================
इच्छा
शुरुआत में एक पेड़ था।
उस पर ढेर सारी पत्तियाँ थी।
पत्तियाँ ठण्ड में झड़ जातीं,
बसन्त में उग आती।
जब वह पेड़ शाम को थक जाता,
अपने नीचे खड़े लोगों को देखता।
उसके ऊपर गिलहरी भागती थी
चिड़िया बैठ जाती थीं और
तितलियाँ भी कई बार छिप जाती थीं।
वह पेड़ रोज़ मुझे याद दिलाता था कि
होकर भी सबके लिए वह अदृश्य था।
उसके छोटे और लम्बे पैर जिन्हें वह कुर्सी
के नीचे फैला लिया करती थी
अब पेड़ की शाखों की तरह फैल गये हैं इस ख़ाली कमरे में
उसकी भूरी आँखे ग़ायब हो गयी हैं
ध्ाीरे-ध्ाीरे मेरी स्मृति से
जैसे पेड़ की पत्तियों में से
ध्ाीरे-ध्ाीरे सूरज की रोशनी ग़ायब हो जाती है
और रात और अँध्ोरा चला आता है।
पतझर में पेड़ की पत्तियों की तरह मेरी कामना
रात की थकान और नींद से मिल कर झड़ जाती है
अगले दिन फिर उग जाने के लिए।
एक सूखी टहनी-सा रोज़ टूटता हूँ मैं
पेड़ भी रात में जब उस पर कोई नहीं होता
अगले दिन का इन्तज़ार करता है।
अकेलापन इंसान के लिए ख़तरनाक होता है
वह छोटी-छोटी इच्छाओं तक को भूचाल बना देता है।
जैसे पेड़ पर बसन्त में एक कोपल फिर दूसरी
फिर पूरा पेड़ फिर पूरा जंगल और आसमान।
उस दुनिया में जिसमें मैं नहीं हूँ, वह रहती है
मेरी पूरी दुनिया बनकर।
जब पानी गिरता है सारी यादें, सारी कामनाएँ लेकर
मैं काम पर जाता हूँ जहाँ मुझे पता है कि
उसकी यादें मेरा पहले से इन्तज़ार कर रही हैं।
ठण्ड में हम लोग पेड़ों की सूखी टहनियाँ
रात में जलाते थे,
हम बात करते थे, हमारे पास हमारा कोई था।
अब हर दिन ठण्ड है और मैं ख़ुद ही पेड़ की
टहनी बनकर जल रहा हूँ
ख़ुद को ही गर्मी पहुँचाता
अपनी उस आग को मैं लगातार घूर रहा हूँ।
वह मेरी त्वचा झुलसा रही है।
वह उस आग से बहुत दूर एक ऐसी जगह है जहाँ
मैं नहीं हूँ,
उसके न होने से ऐसा बन गया हूँ कि
जलता हूँ और ख़ुद को जलाता हूँ नाउम्मीदी की तरह
उम्मीद की तरह राख नहीं होता।
========================
वह
क्या उसकी आँखें बदल गयी होगीं
क्या उसके बाल कम हो गये होंगे और सफ़ेद
क्या उसकी कामनाओं में अन्ततः मैं आ गया हूँ।
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ होगा।
उसके केश वही होंगे जिनमें गुँथकर
अभी तक बाहर नहीं निकल पाया हूँ।
उसे मुँह छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं थी
मैं क्या कर लेता।
मैं तो अशक्त था और उसे देख लगता था कि
भाग जाऊँ उसकी तरफ,
उससे दूर अपने बचपन की तरफ,
अपने बचपन को छोड़कर उसमें।
वह बहुत सुकुमार थी, कृशांगी थी।
उसे इसका संकोच था।
हमेशा संकोच होता था मुझे
शक्तिशाली लोगों को देखकर,
वह दूसरों के सच को मारते हैं
और अपना खोजते नहीं।
वह अपनी लम्बी अँगलियों से मुझे मना कर रही है
सारे लम्बे पेड़ और छोटी घास जंगलों के
अँधेरे में मिल रहे हैं,
अचानक मुझे
याद आता है कि उसे याद आती होगी।
जंगल गुज़रने लगता है,
मैं उससे दूर ख़ुद को खोने की कोशिश करता हूँ
लेकिन वह हर पेड़ की हर पत्ती, हर घास का हर तिनका,
हर हिरण, उगता हुआ हर सूरज और मेरी साँस
बन जाती है।
वह आ रही है, उसे देखो कल्पना।
वह अपनी नीली पोशाक पहने हुए है।
वह मुझ से बचते हुए जा रही है
मैं केवल उससे बचे बिना
बाक़ी सब से बेरुख़ खड़ा हूँ
उसका होना मुझे मैं बना रहा है।
उसकी बेढंगी चाल मुझे याद आ रही है।
उसका बेढंग मेरा ढंग बन गया है।
पत्तियाँ भी सुबह उसी लय में सिहरती हैं
जानवर वैसे ही ख़ुश होते हैं और
बच्चों में उतनी ही बेढंगी जिज्ञासा पैदा होती है
उतना ही बेढंगा है मेरा जीवन
और यह अकेलापन।
सूरज उग रहा है।
वह हँसती थी तो अपनी ख़ुशी पर
शर्मा जाती थी।
चिड़ियों की तरह सुबह
पत्तियों की तरह शाम
कामना की तरह उम्मीद
मैं शर्माता हूँ उसे याद कर जो
अब जाने बूढ़ी हो गयी होगी।
जो दिखती नहीं, बात नहीं करती
और मेरी हर बात में है।
अपनी कल्पना और याद की ध्ाुँध्ा के
परे मैं भाग रहा हूँ,
उसकी मुस्कान, मैं भाग रहा हूँ
वह उस दिन मेरी बात पर हँस रही थी,
मैं भाग रहा हूँ,
उस दिन बहुत ग़ुस्सा थी,
मैं भाग रहा हूँ,
उस दिन मुझसे छिपकर रो रही थी,
मैं भाग रहा हूँ,
उसकी आँखें, वह
उसके हाथ, मुझे
उसके पैर, क्यों
उसकी कमर, नहीं
उसके रूखे बाल, बुलाती
मैं भाग रहा हूँ।
वह बोलती है, ‘तुम्हें हर बार की
तरह देर हो गयी।’
===========
भूलना
इसमें कोई शक नहीं कि वह मुझे भूल चुकी होगी।
मैं उसे भूलने की महीनों से कोशिश कर रहा हूँ
अकेलापन यादों की ज़ंजीर बन गया है
मैं उसे तोड़ नहीं पा रहा हूँ
एक तरफा प्रेम में स्मृति ज़्यादा निर्मम हो जाती है
वह रोज़ मेरी याद में और सुन्दर हो जाती है
इससे भयानक, रोज़ उसकी एक-एक नज़र
और बात के सैकड़ों अर्थ निकल आते हैं
सागर के ताऊ के घर को छूटे अब सालों बीत गये हैं।
घर के बाहर चबूतरा और उसके ऊपर कनेर का पेड़ था
उसके फूलों की गन्ध्ा मुझे
सालों बाद अचानक टहलते हुए आयी
वह घर वापस आ गया, एक-एक कमरा,
आँगन, वह सड़क और सारे पेड़
लड़की के प्रेम की स्मृति और बचपन के घर की स्मृति में
यह अन्तर होता है, घर की स्मृति विनम्र होती है
वह स्मृति से चुपचाप उठकर दूर चली जाती है
जब मौसम बदलते है, वे यादें पुराने
दोस्तों की तरह हक़ से वापस आ जाती हैं।
रज्जन ताऊ फिर चबूतरे पर बैठकर
दादी की बातें पर दाँत पीस रहे हैं
शाम को बच्चू ताऊ ताश खेलने आने वाले हैं
वे लोग मुझे अकेलेपन में अपनी याद से
तड़पाते नहीं, वे अकेलापन बाँट लेते हैं
अपनी मृत्यु के इतने सालों बाद भी।
वह दूर उस शहर में अपनी ज़िन्दगी में
ख़ुश होगी, मुझे भूल चुकी होगी।
अब मेरे पास भी समय नहीं, मैं मृत
पूर्वजों के साथ हूँ।
रज्जन ताऊ अपना स्कूटर चालू कर रहे हैं
वे यह भूल चुके हैं कि उन्हें गुज़रे सालों
बीत गये हैं, अपने भतीजों को टन-टन पाईप पर ले जाने के लिए।
मुन्ना पापा सुबह उठकर हम दोनों को
टहलने ले जा रहे है यह भूल कर कि
अब हम बड़े हो गये है और दूसरे शहरों में रह रहे हैं।
अल्पना दी यह भूल कर स्याही को नहला रही हैं
कि अब उसके पास हम दोनों नहीं है,
स्याही से खेलने के लिए।
गुड्डो बुआ खिलौनों की दुकान में यह भूल कर जा रही हैं कि
हम अब खिलौनें नहीं खेलते।
बिटनियाँ बुआ और गुड़िया बुआ अपने भाई के लिए खाना बना रही हैं
यह भूलकर कि उसे गुज़रे सालों हो चुके हैं।
गुड्डन ताऊ अपने घर में नाना का वही कोट
ढूँढ रहे हैं जिससे पैसे चुराते थे।
बिटिया बुआ जो अब ठीक से चल नहीं पाती
भाग कर काका की थाली लगाती हैं।
काका हालाँकि वे दशकों पहले मर चुके हैं
ख़ुश होकर खाने बैठते हैं।
मैं, हालाँकि मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, यह याद करता हूँ।
यह सब मैं अपनी बेटी को बताना चाहता हूँ
मगर वह केवल चार साल की है
उसे अभी प्यार ने तोड़ा नहीं है पर तोड़ेगा
उसे अकेलेपन ने कचोटा नहीं है पर कचोटेगा
मुहब्बत का इज़हार न कर पाने ने
उसे झुलसाया नहीं है पर झुलसायेगा
जब यह सब होगा उसकी स्मृति की
आकाशगंगा के परे जहाँ दूसरे तारे
दूसरे ग्रहमण्डल बनाकर विचर रहे हैं
हम सब खड़े रहेंगे,
हम सब उसका इन्तज़ार करेंगे।
=====================
न होना
सोचो कि अगर भगवान है तो कितना निर्मम है
न उसने मुझे अपनी माँ से मिलने दिया
न ही तुझसे मिलने देता है।
कम-से-कम इतना रहम करता कि
तुमसे मिलाता ही नहीं।
तुम्हारी इच्छा का भार इतना बढ़ गया है
कि रोज़ जागने से सोने तक
इस वजन से कुचल कर
मैं ख़त्म हो जाता हूँ, और फिर भी बच जाता हूँ।
अब अपनी मध्यवर्गी ज़िन्दगी में फँस चुका हूँ।
नौकरी पर जाकर पदोन्नति के सपने देखने लगा हूँ।
सपने इंसान को देखने चाहिए आसमान के
और उसमें उड़ती चिड़ियों के
सपने जंगलों और उनमें घूमने वाले जानवरों के होने चाहिए,
सपने में बाघ को जंगल में खोजना चाहिए।
तुम एक दिन बहुत सुन्दर पीली पोशाक पहनकर आयी थी
तुम्हें लग रहा था कि मैं नहीं देख पाऊँगा
मैंने देख लिया था।
सपना इसका देखना चाहिए।
इंसान को मारने के लिए सबसे खतरनाक
हथियार ख्वाहिश दिया है देवताओं ने।
तुम ख़त्म नहीं होती और मैं ऐसे खर्च हो रहा हूँ कि
कभी भी ख़त्म हो जाऊँगा।
पलाश के पेड़ों से खेत भर गये हैं
उनका रंग नारंगी होता है
मुझे यह भी तुम्हारा लगता है।
खेत कट गये है और पीले लग रहे है
यह भी तुम्हारा लगता है।
मेरा सफ़ेद कुर्ता और रगों का खून भी तुम्हारा।
बाक़ी सब तुम्हारा, तुम्हें खोजना ही मेरा बच गया है।
सपना यह होना चाहिए कि मैं तुमसे
जब मैं कह सकता था, कह पाऊँ वह जो दिन ने
जिज्ञासा से, रात ने ख्वाहिश से
और बारिश ने याद से कहा है:
‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’
===============
वह जा रही है
वह जा रही है
कोई रोको उसे,
उसे अभी बता भी नहीं पाया हूँ।
मैं इतनी दूर अचानक रुक गया हूँ।
मुझे नहीं पता कि क्या दिन है
क्या शाम है।
उसे रोको, वह जा रही है।
उसे नहीं पता कि मैंने उससे मिलने के
पहले से केवल उसकी कल्पना की है।
वह जा रही है।
सबसे पहले जब मैंने घास के तिनके को देखा
और ज़मीन को और इस आसमान को
मैंने उसे याद किया है
उसे पता ही नहीं कि मेरी हर विफलता में
उसने मुझे सम्भाला था
मेरी हर ख़ुशी में मेरे जाने बगैर
इतने मीलों दूर वह ख़ुश हुई थी
क्रूर देवताओं उसे रोक लो
तुमने मुझे अपनी माँ को देखने तक नहीं दिया,
अब कुछ रहम करो।
वह जा रही है,
कोई रोको उसे
मैं कहीं भी चला जाऊँ वह नहीं मिलेगी।
क्या मैं अपने बचपन के सागर भाग जाऊँ
उसकी पहली उम्मीद में,
या अपनी निराशा भरी भोपाल की जवानी में
या भाग जाऊँ अपनी किताबों में
या इन शब्दों में जो लिख रहा हूँ
किसी में शक्ति नहीं है,
मैं कहाँ चला जाऊँ ?
सब ऐसा है जैसे कुछ नहीं मेरा,
उससे कहो कि मुझे मेरा कुछ देकर चली जाए।
मैं भीख माँगता हूँ, मैं थोड़ा बच जाऊँगा
जब यह किसी को सुनाऊँगा और
वे कहेंगे अच्छा लिखा है।
वह जा रही है
जब मुझे प्रशंसा सुनकर अच्छा लगेगा
वह जा रही है।
मैं रात में अपनी मृत माँ के पास भागता हूँ,
वह हर बार की तरह मुझे छुए बिना पकड़ लेती है,
बिना गले लगे पास बुलाती है
और कहती है, ‘मेरा बेटा !’
===================
खोजना
सिर्फ़ ऐसे ही बोल जाता हूँ,
पास न बीवी हैं, न बच्ची, न परिवार
मुझे कविता में कैद रखा जाता है।
मेरा जी करता है भाग जाऊँ
अपनी लापरवाह माँ से दूर,
अपनी बेरुख बीवी से दूर,
अपने आत्ममुग्ध्ा पिता से दूर।
अपनी लापरवाह आदतों से दूर,
अपने बेरुख एकान्त से दूर,
अपने आत्म मुग्ध्ाता के रवैये से दूर।
यह सब ऐसे काम हैं जो कभी
पूरे नहीं होंगे।
मैं परिवार माँगता था तो कहते थे
पास आ जाओ।
मैं आ गया तो वे ख़ुद दूर भाग गये।
मैं अब क्या खोजूँ ?
क्या मैं खोजूँ बचपन का सागर और वह
पहाड़ी पर बना बड़ा-सा घर ?
शायद ताऊ-ताई ने उसे हटा दिया होगा।
क्या मैं ढूँढूँ जवानी का दिल्ली और
कुतुबमीनार और लाल क़िला ?
शायद ताऊ-ताई ने उसे हटा दिया होगा।
क्या देखूँ बचपन का भोपाल और
वे गलियाँ ?
शायद बुआ के पास बचा होगा।
पर किस मुँह से ढूँढूँ बचपन का भोपाल,
न पिता, न माँ, न बीवी, अकेला चिल्लाता हूँ
और रोता हूँ, कहाँ से आयें वे गम जो
मिट जाएँ, कहाँ से आयें तकलीफ़ जो बँट जाएँ।
कहाँ से आए वह ख़्वाहिश जो पूरी हो जाए।
तुम तब आओ जब सब ख़त्म हो जाए और
मैं न रह जाऊँ अकेला।
=================
काका
वे उठ कर पूछ रहे हैं
‘बच्चू आ गया?’
बच्चू ताऊ फिर से कार लेकर भागने लगे हैं,
काका को दिदिया नहीं बताती।
रज्जन ताऊ रोटी में घी चुपड़ कर कह रहे हैं
कि दाल में हींग नहीं हैं।
गुड्डन ताऊ रोज़ उठ कर उस ग़ुस्सैल और
हठी आदमी को याद करते हैं।
वे अपने सच के लिए खड़े होकर और
अपने छोटों से प्यार कर सालों से काका
बनने की विफल कोशिश कर रहे हैं।
गुड्डो बुआ इतने सालों बाद इन्तज़ार कर
रही है कि अपने पिता के सामने इतराएँगी।
मैं ढूँढ रहा हूँ इतने सालों बाद अपनी माँ को,
वह नरक में काका दिदिया के पास खड़ी है,
अपने पति का इन्तज़ार करती हुई।
मेरे पिता हर दिन उठते हैं यह सोच कर
कि काका को बोल कर आज छुट्टी पर चला जाऊँगा।
वे पूरा बचपन और जवानी अकेले बिताने को अभिशप्त थे।
सालों बाद जब मैं और बड़कू बूढ़े हो रहे होंगे
अचानक हम एक घर में जाएँगे।
हम अन्दर घुसेंगे, वहाँ बच्चू ताऊ लेटे होंगे,
रज्जन ताऊ गणित कर रहे होंगे।
काका आँगन में बैठे पूछेंगे,
‘ये दोनों कौन है?’
गुड्डो बुआ कहेंगी, ‘काका ये मुन्ना के, नहीं
मेरे बेटे हैं।’
काका कहेंगे, ‘इन्हें गुड़ दही दो।’
दिदिया ध्ाीरे से हम में काका को और
ख़ुद को खोजती हुई आएँगी।
मेरी माँ भी वहीं होंगी।
रज्जन ताऊ कहेंगे,
‘क्यों कैसी रही?’
देखता अश्वत्थामा
रतन थियाम के लिए
अब इतना थक गया हूँ कि
मेरे आँसू पहले आँसू बने रहे,
फिर बस नमी, फिर कुछ नहीं।
ऐसा ही होता है।
जब लोगों को देखता था
तब पहले उम्मीद से,
फिर नाउम्मीदी से,
फिर कामना और ईर्ष्या से
फिर बस देखता था,
ऐसा ही होता है।
मुझे मेरा तो कुछ दे दो देवताओं।
बीवी और बेटी हैं पर नहीं हैं।
पिता हैं भाई है पर नहीं हैं।
रह-रहकर मैं अपने ही साथ रहता हूँ
ऐसा ही होता है।
वह बोल रहा था, ‘मुझे मत मारो।’
उसने चक्र उठाया था, वह भाग भी सकता था।
लेकिन नहीं भागा मेरी तरह।
मुझे माफ़ करो अर्जुन।
मैंने शादी की और अकेला रहा,
पिता बना और अकेला रहा,
मैं वह सब बन गया जो बनने के बाद
मनुष्य अकेला नहीं होता पर और भी अकेला हो गया।
नौकरी, गाड़ी से कुछ नहीं बदलता।
दुर्योधन मुझे तुम एक दिन दिखे थे
नाटक चल रहा था, एक ऐसी भाषा में
जो मुझे समझ में नहीं आती थी।
अपनी आँखों में तुम्हारी आग जगाये
तुम्हारी टूटी टाँग लेकर बैठा
अभिनेता पुकारता है: ‘दुर्जय !’
ऐसा ही होता है।