राकेश श्रीमाल की कविताएँ

    जानकी पुल के उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ के संपादक राकेश श्रीमाल का आज जन्मदिन (5 दिसम्बर) है। जानकी पुल की तरफ से बधाई देने के लिए उनके पहले कविता संग्रह ‘अन्य’ (वाणी प्रकाशन, 2001) में प्रकाशित उनकी कुछ प्रेम कविताओं को पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इन कविताओं के साथ राकेश जी के ही बनाए तीन रेखांकन भी दिए जा रहे हैं। उम्मीद है यह रचनात्मक तोहफा उन्हें और जानकी पुल के पाठकों को अच्छा लगेगा-

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    रुमाल
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    एक रुमाल में समाकर
    वह मेरे साथ
    लगातार रही पूरी यात्रा में
    हाथ में पकड़े हुए
    किसी फिक्र की तरह
    जेब में रखा रुमाल
    चौकीदार की तरह
    जागता रहा रातभर
    दुःस्वप्नों को फटकार भगाने के लिए
    मेरी गीली देह को सोखता, सुखाता रुमाल
    अपनी काया में
    उसकी नम्रता लिए हुए
    हर क्षण तैयार रहा
    उसके होने को
    सतत स्पर्श में बदलता हुआ
    एक छोटे रुमाल में
    और भी छोटी बनकर
    वह लगातार घुलती रही
    हर पल पिघलती मेरी देह में
    अंतिम
    ———
    वह कौन सी लड़की होगी
    जिससे हम जीवन में अंतिम बार मिलेंगे
    लगभग क्षणिक मुस्कान
    या
    दूर सड़क पर चलती
    अपने बीमार भाई का टिफिन ले जाती
    पता नहीं कौन सी
    हो सकता है
    वह लाल फ्रॉक पहने हो
    या उसने अपने जूड़े में फूल लगा रखे हों
    यह भी तो पता नहीं
    हम जिसे अंतिम बार देखेंगे
    उसके विचार प्रेम के बारे में क्या होंगे
    सम्भव है
    अंतिम लड़की आपसे कुछ बात कर ले
    पूछ लें आपका नाम
    और यह भी
    कि आपने जीवन में क्या किया है
    हमें यह भी पता नहीं पड़ेगा
    कि जो लड़की हम देख रहे हैं
    वह हमारे जीवन की अंतिम लड़की है
    वह कभी नहीं जान पाएगी
    कोई उसे अंतिम बार देख रहा है
    होगी जरूर
    कहीं न कहीं एक लड़की
    जिसे जीवन में हम अंतिम बार देखेंगे
    असंभव
    ———-
    कल ही मैंने
    बिखेर दिए थे तुम्हारी चोटी के बाल
    कल तुम ही तो गुनगुना रही थी गाना
    कल ही यह भी हुआ था
    हम झगड़े नहीं थे किसी बात पर
    कल ही तुम लाई थी मेरे लिए टिफिन
    कल ही छेड़ा था मैंने तुम्हें फोन पर
    कल ही मिलते रहे थे हम विदा के बाद तक
    क्या यह संभव है कि हमारा जीवन
    वैसा ही रहे जैसा कल था

             
    पृथ्वी पर कुछ कविताएं
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    पृथ्वी एक शब्द नहीं है सिर्फ
    ———————————–
    इन दिनों
    मैं पृथ्वी को पढ़ रहा हूँ
    पृथ्वी के शब्द
    पृथ्वी की पीठ से निकलते हैं
    हाथ से फिसल जाते हैं
    पृथ्वी को पढ़ते हुए
    मुझसे पृथ्वी
    कई बार छूट जाती है
    वह मुस्कराती है
    मैं उसे फिर पढ़ने लगता हूँ
    पृथ्वी को
    केवल रह-रहकर ही पढा जा सकता है
    पृथ्वी
    एक शब्द नहीं है सिर्फ
    पृथ्वी केवल पृथ्वी को जानती है
    ————————————–
    वह कौन सी पृथ्वी है
    जिस पर
    पृथ्वी रहती है
    क्या पृथ्वी को मालूम है
    उस पर संसार रहता है
    मैं
    पृथ्वी को जानता हूँ
    पृथ्वी मुझे नहीं
    पृथ्वी नहीं जानती वह
    जो मैं जानता हूँ
    पृथ्वी
    केवल पृथ्वी को जानती है
    पृथ्वी
    पृथ्वी के पास क्या करती है
    पृथ्वी पृथ्वी के पास है
    —————————
    मेरी पृथ्वी
    कहीं गुम हो गई है
    मुझे पता होता
    तो एक क्षण भी
    उसे नहीं छोड़ता
    उसने कहा
    फिर मिलते हैं
    और वह देखते ही देखते अदृश्य हो गई
    क्या वह
    कहीं छुप भी सकती है
    पृथ्वी का छुपना
    पृथ्वी का नहीं होना नहीं है
    वह छुपती कभी नहीं
    सिर्फ दिखना बंद हो जाती है
    पृथ्वी का दिखना
    उतना जरूरी नहीं
    जितना पृथ्वी का होना
    पृथ्वी नहीं दिख कर भी
    होती तो पृथ्वी ही है
    पृथ्वी तो है ही
    पृथ्वी के पास
    पृथ्वी पर कोई भी चल सकता है
    —————————————-
    पृथ्वी को मालूम ही नहीं है
    मैं पृथ्वी से गुजर रहा हूँ
    मैं चुपचाप चल रहा हूँ पृथ्वी पर
    कहीं पृथ्वी जान नहीं पाए
    मैं चलता रहूँ
    पृथ्वी को कोई फर्क नहीं पड़ता
    मैं उस पर चल रहा हूँ
    या कोई और
    पृथ्वी पर
    कोई भी चल सकता है
    पृथ्वी पर चलने के लिए
    केवल
    पृथ्वी पर चलने की जरूरत है
    कोई जहाँ भी चलेगा
    पृथ्वी पर ही चलेगा
    पृथ्वी से परे
    कोई भी पृथ्वी नहीं है
    जिस पर चला जा सके
    मैं पृथ्वी पर चल रहा हूँ
    दोनों चुप हैं
    मैं भी
    पृथ्वी भी
    पृथ्वी को पकड़ते हुए
    —————————
    मैंने कल
    तुम्हारा हाथ पकड़कर
    पूरी पृथ्वी को पकड़ा था
    और उसे
    इस तरह देखा था
    जैसे उड़ती चिड़िया देखती है
    मैं सोच भी नहीं पा रहा था
    पृथ्वी
    इतनी छोटी क्यों है
    इतनी सी पृथ्वी पर
    कैसे समाए हुए हैं
    इतने सारे लोग
    जंगल, पहाड़ और घर
    पृथ्वी पर रहते हुए
    मैंने
    पृथ्वी को पकड़ा था
    सोचा था
    इसे कहीं छुपा लूँगा
    मुझे थोड़ा भी गुमान नहीं था
    पृथ्वी को
    केवल पृथ्वी में छुपाया जा सकता है
    मैंने चाहा था
    पृथ्वी को सिर्फ छुपाना
    बिना इस बात की फिक्र किए
    मेरी इस जिद में
    पृथ्वी गुम भी सकती है
    (तब कौन ढूंढता पृथ्वी को)
    पृथ्वी को पकड़े हुए
    मैं
    पृथ्वी को छुपा नहीं पा रहा था
    मैंने उसे छोड़ा
    वह पल की तरह अदृश्य हो गई
    इस बार
    तुम मेरा हाथ छोड़ना नहीं
    मैं सचमुच पृथ्वी को छुपाना चाहता हूँ
    पृथ्वी के पास कोई नहीं रहता
    ————————————
    पृथ्वी से कोई नहीं डरता
    पृथ्वी पर सब चलते रहते हैं
    पृथ्वी पर चलते हुए
    कोई पृथ्वी को देखता भी नहीं
    पृथ्वी
    अकेली रहती है हमेशा
    पृथ्वी के पास कोई नहीं रहता
    सब पृथ्वी पर रहते हैं
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