तेलुगु उपन्यासकार केशव रेड्डी के उपन्यास ‘भू-देवता’ का अंश
केशव रेड्डी की गिनती तेलुगु के प्रतिष्ठित उपन्यासकारों में होती है। 2019 में किसान के जीवन पर आधारित उपन्यास भू-देवता काफी चर्चित रहा था। संयोग से इस समय पूरे देश में किसान एक बार फिर चर्चा में हैं। देशभर में चल केंद्र सरकार के नए बिल पर किसान आन्दोलन अपने चरम पर है। भू-देवता में केशव रेड्डी ने 70 साल पहले की उन स्थितियों का चित्रण किया है जब अकाल रोज ही तांडव किया करता था। लेकिन 70 साल बाद भी किसानों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। तो भू-देवता एक ऐसे किसान की कथा है जिसने अपने जमीन गंवा दी है। भू-देवता राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है, फ़िलहाल आप अंश पढ़िए-
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आकाश में घने बादल छाते जा रहे हैं। सिर उठाकर दिगन्तों तक कितना भी ढूँढो, हथेली-भर नीला आकाश दुर्लभ है। विभिन्न आकार-प्रकार के बादल प्रकट हो गए हैं। अब वे ईशान की दिशा में अग्रसर नहीं हैं। जहाँ-तहाँ निश्चल, गम्भीर और रहस्यमय रूप से उपस्थित मात्र हैं। उनके पीछे विराजमान सूरज की किरणें सीधे आकर ज़मीन को छू नहीं रही हैं; दिगन्तों के पास परावर्तित होकर ही ज़मीन पर उतर रही हैं। सूरज का उजास थोड़ी देर तक भगवे रंग में, तो थोड़ी देर तक स$फेद चाँदनी की तरह झिलमिला रहा है। ज़मीन पर इन्द्रजाल की तरह पसरे उस उजास को देखकर कुत्ते ‘भौं…भौं…’ करते हुए गलियों में टेढ़े-मेढ़े दौड़ने लगे हैं। मैदानों में पशु नथुनों को फड़काते हुए सींगों से ज़मीन को कुरेदने लगे हैं। पेड़ों पर कौए ‘काँव-काँव’ करते हुए एक डाल से दूसरी डाल पर कूद रहे हैं। बगुले भूमि के समानान्तर उड़ नहीं रहे हैं। कभी ऊपर की ओर तो कभी नीचे की ओर उड़ने लगे हैं। मुर्गियाँ हिचकते-हिचकते आकर अपने खानों में ऐसे पहुँच रही हैं, जैसे उनसे कोई गुनाह हो गया हो। फिर अपने सिर को पंखों के नीचे दबाकर चुपचाप लेट रही हैं। मुर्गों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह साँझ की बेला है या भोर का वक्त। निरर्थक ही वे बाँग देने लगे हैं।
हवा का चलना एकदम बन्द हो जाने से पत्ते स्थिर हैं। निश्चल पवन गर्मी को क्रमश: आत्मसात् करता जा रहा है। वातावरण की गर्मी एक सीमा से ऊपर पहुँच जाने पर पतंगे शोर करने लगे हैं। धरती कुम्हार के आवाँ की तरह, धोबी की भट्ठी की तरह तप रही है। मनुष्यों के शरीर बुरी तरह पसीना उगल रहे हैं। उन लोगों ने अपने शरीर से उतार देने योग्य सारे कपड़े उतार दिए हैं।
कई किसानों ने आकाश की ओर देखकर सोचा, बादल उतर रहे हैं। ईशान के कोने में उतरते जा रहे हैं। लगता है कि शाम तक मूसलाधार बारिश शुरू हो जाएगी। रात में तालाब के परिवाह का टूट जाना तो पक्का ही समझो।
खेतों में काम कर रहे किसानों ने अपने काम जहाँ-तहाँ छोड़ दिए हैं। अपने उपकरणों को सिर या कन्धों पर उठाकर उन्होंने घर का रास्ता ले लिया है। मैदान में फैलाए कपड़ों को उठाकर धोबियों ने अफ़रा-तफ़री में उनका गट्ठर बना लिया है और अब गट्ठरों को गधों पर लादकर घर की ओर चल पड़े हैं। गाँव में कुछ लोगों ने कहीं-कहीं से उड़े हुए अपने मकानों के छप्परों को ताबड़तोड़ दुरुस्त कर लिया है। मकान पर चढ़कर छत के छेदों को पुआल या ताड़ के पत्तों से ढक दिया है और छत से जलावन को ले आकर मकानों के अन्दर डाल लिया है।
थोड़ी देर में हवा का चलना शुरू हो गया। पेड़ों की डालें तो नहीं, बस, पत्ते हिलने लगे हैं।
धीरे-धीरे बादलों के अपना आकार खो देने से ऐसा लगा जैसे एक महामेघ ने पूरे आकाश को आच्छादित कर लिया हो। वह महामेघ गाढ़े काले रंग का है। पृथ्वी पर अँधियारा छाने लगा। बादलों का गर्जन और उसके पीछे बिजली का चमकना आरम्भ हो गया। प्रकृति ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया था।
मोटी-मोटी बूँदों के साथ वर्षा आरम्भ हो गई। बूँदें ज़मीन पर जहाँ गिरती हैं, वहाँ से धूल बालिश्त-भर ऊपर हवा में उछलती है। पूरी धरती को धूल के बादलों ने ढाँप दिया है। जो भी बूँद गिरती है, ज़मीन उसे वहीं-की-वहीं सोखती जा रही है। बूँदों को सोखकर ज़मीन सोंधी गन्ध बिखेरने लगी है। वह गन्ध मन्द लहरों के रूप में चारों ओर फैल रही है।
वह गन्ध बक्कि रेड्डी के नथुनों से आ टकराई। वह खटिया पर उठ बैठा। मिट्टी की गन्ध से भरी हवा को उसने अन्दर छाती-भर में खींच लिया। उसे बार-बार वह अन्दर ऐसे खींचता रहा, जैसे कोई लालची आदमी रत्नराशियों का ढेर लगा रहा हो। मिट्टी की गन्ध ने उसके शरीर के अणु-अणु का स्पर्श किया। उस गन्ध ने उसके भीतर एक सनातन भूख जगा दी। फिर वह भूख एक प्रचंड रूप धारण करती चली गई।
जुगाली कर रहे बैलों की ओर उसने देखा। खेती का काम करने से उनकी गरदनों पर रोएँ उग आए थे। फिर उसने दीवार से सटाकर रखे हल की तरफ़ ताका। उसकी मूठ सीधी खड़ी थी।
बक्कि रेड्डी की हथेलियों में खुजली-सी होने लगी। हथेलियाँ बन्द होतीं, और खुल जातीं। ऐसा गाढ़ा अन्धकार जो हथेली से चिपक जाए, ज़मीन पर व्याप गया था। हरहराकर पानी बरसता जा रहा था। वर्षा ऐसे हो रही थी, जैसे ज़मीन और आसमान एक हो गए हों, या हाथी अपनी सूँड़ों की पिचकारियाँ छोड़ रहे हों या मटकों में भरकर कोई पानी उड़ेल रहा हो। पर्वतों को कम्पित करने वाली हवा तनों समेत पेड़ों को झकझोर रही थी। बिजली आकाश को खंड-खंड चीरती चमक रही थी। वह कभी भयंकर घोष के साथ तो कभी मन्द ध्वनि के साथ गरज रही थी।
पानी फैलकर बहने लगा। बहकर वह छोटे-छोटे नालों में मिलने लगा। छोटे-छोटे नाले टेढ़े-मेढ़े बहकर सोते में मिलने लगे। सोते का पानी सूखे पत्तों और तिनकों को धकेलते हुए तालाब की ओर बहने लगा।
निरन्तर बरसते पानी और हरहराकर बहती हवा से आतंकित गाँव सिकुड़-सा गया। लोग कसकर चादरें ओढ़े गहरी नींद में डूबे हुए हैं। बस, थोड़े-से बूढ़े प्रकृति के बीभत्स रव को सुनते हुए जगे हुए हैं।
बक्कि रेड्डी खटिया से उठ पड़ा। खूँटों से खोलकर बैलों को उसने मड़ई के बाहर ला खड़ा किया। हल को कन्धे पर टिकाए उसने ओरी में से पैना निकालकर दाएँ हाथ में थाम लिया। बैलों को हाँकता हुआ वह उनको गली में ले आया।
गली में पानी मकानों की दीवारों और ऊँची ज़मीन से रगड़ खाता हुआ बह रहा है। सारी गलियाँ सुनसान हैं। बक्कि रेड्डी गलियों से होता हुआ गाँव से बाहर निकल आया। बिजली जब चमकती तभी रास्ता दिखाई पड़ता था। बिजली की कौंध के सहारे आगे बढ़ते हुए वह अपनी ज़मीन के पास पहुँच गया। पहुँचकर खेत की मेंड़ पर उसने हल उतार दिया। फिर बिजली के प्रकाश में उसने अपने पूरे खेत पर एक नज़र दौड़ाई। चौदह एकड़ ज़मीन। ज़मीन आठ चकों में बँटी हुई है। छह चक बड़े हैं और दो छोटे। सभी पानी से भरे हुए हैं। पानी एक चक से दूसरे चक में बहा जा रहा है। खेत के दक्षिण में खड़े बड़े-से पेड़ की डालें हवा में झूल रही हैं।
बक्कि रेड्डी ने बैलों की गरदनों पर जुआ रखकर पट्टे कस दिए। हल को जुए के साथ जमा दिया। पगड़ी कसकर बाँध ली और लांग कस ली।
वह हल और बैलों के साथ चकों में ऐसे उतरा जैसे कोई दूध पीता नन्हा बच्चा सरपट रेंगता माँ की गोद में प्रवेश करता है। बाएँ हाथ से उसने हल की मूठ कसकर पकड़ ली। फिर दाएँ हाथ का पैना ऊपर उठाकर उसने बैलों को हाँका। बैल चल पड़े। हल ज़मीन को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
खूब ज़ोर की बारिश हो रही है। बिना अपनी दिशा बदले हवा तेज़ बह रही है। हवा के वेग में पेड़ की डालें इतनी नीचे झुकी जा रही हैं जैसे ज़मीन को छू लेना चाहती हों। पेड़ों के पत्ते और पतली टहनियाँ हवा में दूर, बहुत दूर उड़ी जा रही हैं।
बक्कि रेड्डी के पूरे शरीर पर से बारिश का पानी फिसल रहा है। पगड़ी भीगकर भारी हो गई है और नीचे को खिसककर गरदन पर आ टिकी है। पगड़ी निकालकर उसने मेंड़ पर उछाल दी। कमर की काछनी को छोड़कर उसकी पूरी देह खुली हुई है। हवा और बारिश दोनों उसके शरीर का निर्दयता से मर्दन कर रही हैं। ठंड से उसका शरीर थरथर काँपने लगा है। दाँत बजने लगे हैं। बूँदें तीर जैसी आकर उसके शरीर पर लग रही हैं। धीरे-धीरे उसका शरीर संवेदनशून्य हो गया। हवा के वेग में लड़खड़ाकर गिरते-गिरते अपने को सँभालता हुआ वह आगे बढ़ा जा रहा है। इस प्रयास में वह गिरगिट की तरह चल रहा है।
दो चकों की जुताई पूरी करके वह तीसरे चक में घुसा। उसके शरीर पर धीरे-धीरे कमज़ोरी छाने लगी। हल के पीछे एक-एक पैर उठाकर चलना दूभर होता गया। कमर और रीढ़ के जोड़ों में ऐसा दर्द उठने लगा जैसे शूल चुभ रहे हों। पैना थामे हाथ को कन्धे से ऊपर उठाना तक दूभर हो गया। थकान के मारे उसके उच्छ्वास और नि:श्वासों की आवाज़ बैलों के हाँफने की आवाज़ से ऊपर सुनाई पड़ रही थी। धीरे-धीरे हल का वेग मन्द पड़ने लगा। लेकिन हल की मूठ को कसकर पकड़ी हुई बक्कि रेड्डी की मुट्ठी ज़रा भी ढीली नहीं पड़ी।
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