युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर की हर विषय पर अपनी राय होती है, अपना नज़रिया होता है। यहाँ व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर उनके सुचिंतित विचार पढ़िए-
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आज से तकरीबन २० साल पहले अच्छे प्राध्यापक विकिपीडिया के आलेखों को पढ़ने और उस पर विश्वास करने से मना करते थे। आज भी विकिपीडिया के सारे आलेखों को हम बेहतरीन और सच मान लें, ऐसा कहा नहीं जा सकता। फिर भी हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि विकिपीडिया अब कई मायनों में पथ प्रदर्शक है। यह विषय से परिचय कराने की पहली सीढ़ी है।
पिछले दस सालों में ह्वाट्सएप पर आती ऐतिहासिक जानकारियों के त्रुटिपूर्ण होने के कारण कई लोग ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी कह कर ऐसे ज्ञान का मजाक उड़ाते। यदि हम इस पचड़े में न पड़ें कि ज्ञान का अर्थ शुद्ध ज्ञान है और त्रुटिपूर्ण ज्ञान भ्रम है या अपूर्ण ज्ञान अज्ञान है, समकालीन संदर्भ में हमारा आशय उन सूचनाओं से है जो अधिकांश इतिहास से जुड़ी होती हैं। ह्वाट्सएप से हम यदि तत्कालीन अफवाह को हटा दें और उन सूचनाओं पर गौर करें जिसे प्रोपेगेण्डा कहा जाता है, या उन ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान दिलाया जाता है जो संभवत: छुपे हैं, या बदल दिए गए हैं या कभी हुए ही नहीं।
सोचने वाली बात है कि हमारी आपत्ति किस बात को लेकर है? प्रोपेगेण्डा को लेकर? यह तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए क्योंकि बीसवीं सदी का पूरा समाज प्रोपेगेण्डा पर ही चलता है। प्रोपेगेण्डा का अर्थ है प्रायोजित (धन-राजनीति आदि के बल पर) विचार जिसे सही लगता हुआ जनमानस में स्थापित किया जाए। हमारे समय में यह स्वीकार्य है, भले ही हम इसे जितना भी अनुचित माने। जिस दिन हम समाज के तौर पर या राज्य के तौर पर क्रिकेट, फुटबाल आदि को प्रोपेगेण्डा से इतर जुए का, जूते बेचने का, शराब-सिगरेट बेचने के उपक्रम का साधन समझने लगेंगे तब ही हम प्रोपेगेण्डा मुक्त समाज हो सकते हैं। इसी तरह फिल्म उद्योग, टीवी उद्योग – प्रोपेगेण्डा पर ही चलता है कि यह सही है जो हम कह रहे हैं। उदाहरण के लिए मैं पिछले पचास साल में कोई भी ऐसी समाचार पत्र या फिल्मी पत्रिका देखना चाहूँगा जिसमें कुछ अभिनेता विशेष या कुछ फिल्मों को स्थापित करने का पुरजोर प्रयास न हो। दरअसल प्रोपेगेण्डा का मूल स्वरूप यही है कि बिना विशेष पड़ताल के हमारी बात ‘आप्त’ वाक्य की तरह मान ली जाए। जो दिखाया जा रहा है वही साबुन सबसे अच्छा है। जो कार हम बेच रहे हैं आपको इसकी सख्त ज़रूरुत है। बाजारवाद प्रोपेगेण्डा पर ही चलता है। अब स्थिति यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था मार्केटिंग के पैसे से, शेयर बाजार के अटकलों से और नाना प्रकार के प्रोपेगेण्डा से ही चलती है। कम्पनी की “ब्रैण्ड वैल्यू” उसके भौतिक घटकों की कीमत से कहीं अधिक होती है।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी पर उठते सवाल का सीधा उत्तर है कि हमें राजनैतिक प्रोपेगेण्डा से आपत्ति है! क्यों आपत्ति है? क्योंकि इससे हिंसा फैल सकती है, साम्प्रादायिक तनाव फैलता है, विधि-व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। दरअसल हमारी बड़ी आबादी अशिक्षित है, बहुत ही भावुक है और बात-बेबात पर हथियार उठा कर लड़ सकती है। भले ही राज्य के पास हिंसा की असीमित ताकत है हिंसा रोकने के लिए, फिर भी हर काल में, हर देश में नागरिकों के पास हथियार रहे ही हैं और अन्य ताकतों से मुहैय्या कराए ही जाते हैं। या फिर हम किसी राजनैतिक पार्टी विशेष की बात को सही नहीं मानते इसलिए।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी में कुछ अच्छाइयाँ हैं। पहली तो यह कि किसी विषय को ले कर आपकी जड़ता को उद्वेलित करती है। विषय से परिचय कराती है। हम यह मान लें कि ज्ञान की अपेक्षा भ्रम स्थापित करती है। इस भ्रम से क्या होगा? क्या आपको किसी व्यक्ति विशेष के चेतना के उद्भव से फर्क पड़ता है। सच्चाई यही है कि नहीं पड़ता। यदि पड़ता तो हम उन्नत शिक्षा व्यवस्था के लिए कुछ सोचते-विचारते। हमारा तात्कालिक लक्ष्य यह होता है कि जिसे हम भ्रम या त्रुटिपूर्ण या अपूर्ण ज्ञान समझते हैं वह हमारे अनुकूल होना चाहिए और वही ‘सत्य’ के रूप स्थापित होना चाहिए। हम इस बात की चर्चा करने में जुट जाते हैं कि एक विधुर प्रेम में था या नहीं, उसने अपनी बीमार पत्नी को ठीक से देखा या नहीं, कोई अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा कैसे करता था, हत्यारा देशभक्त था या नहीं आदि, आदि। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे विवादित तथ्यों में व्यक्तिपरक आलोचना है या कहिए निंदा या भर्त्सना है। ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी पर किसी तथ्यात्मक (जो कि किसी व्याख्या से मुक्त घटना मात्र हो) मुद्दों पर कुछ नहीं कहता, जैसे कि पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुयी या किसने जीती। ऐसा इसलिए कि जो निर्विवाद है उसपर कोई कह कर क्या हासिल कर सकता है? ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी पर यह सवाल उठाया जा सकता है कि ताजमहल दरअसल कोई प्राचीन मंदिर था आदि, आदि। ऐसे भ्रम की काट अपेक्षाकृत आसान है जैसे कि ऐतिहासिक प्रमाण – शाहजहाँ के समय के अभिलेख, फ्रासिंसी वैद्य फ्रांसुआ बर्नियर की पुस्तक आदि। अब कोई यह कहे कि बर्नियर का कहा हम नहीं मानते। या हम उसकी कुछ बातों को मानते हैं और शाहजहाँ के व्यक्तित्व के बारे में लिखी अन्य बातों को नहीं मानते।
यहाँ ही ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी की विशेषता प्रकट होती है। सामान्यतया विश्वविद्यालय की व्यवस्था में वाचस्पति की उपाधि (डॉक्टरेट की डिग्री) के उपरान्त ही कोई ज्ञान परम्परा में दखल देने के, उससे मानने या ना मानने, समर्थन या विरोध में प्रमाण दे सकता है और अहिंसक तरीके से अपनी बात रख सकता है। ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी इसके विपरीत किसी भी उपाधि या योग्यता की माँग नहीं रखता। यहाँ कोई ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर कुछ भी बोल सकता है और फैला सकता है। मुझे आशा है कि लोकतंत्र के उपासक इस बात पर सहमत नज़र आएँगे, ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी सही मायने में ‘जनतांत्रिक’ है, गणतांत्रिक भले ही न हो।
भ्रम की काट विश्वविद्यालय में प्रस्तुत है क्योंकि वहाँ ज्ञान की परम्परा का नियमन है (वह भले ठीक तरीके से न हो रहा हो, वह अलग विषय है), इसके इतर ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी में किसी संश्लिष्ट ज्ञान के परिमार्जित, सुविचारित, शुद्ध होने की आवश्यकता नहीं है।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी की अन्य विशेषता उसके अपरिमित और अनियंत्रित हो जाने को लेकर है। हर तथ्य की जाँच कर के उसे आगे भेजना, या सोशल मीडिया पर पोस्ट की शुचिता कृत्रिम मेधा से करवाना आदि अत्यंत जटिल हैं। हर मनुष्य के लिए यह लगभग उसकी सीमा से बाहर है कि वह संदेश को परखे और विचारे।
यहाँ मीमांसा दर्शन का जटिल सिद्धान्त उल्लेखनीय है जहाँ ज्ञान स्वत: प्रामाण्य माना जाता है, वहीं न्याय दर्शन में ज्ञान को परत: प्रामाण्य माना जाता है। (स्वतः प्रामाण्यवाद के अनुसार किसी वस्तु का ज्ञान स्वतः प्रमाण होता है । ज्ञान की प्रामाणिकता ज्ञान जनक सामग्री से उत्पन्न होती है किसी बाहरी कारण से नहीं। परतः प्रामाण्यवाद के अनुसार ज्ञान स्वतः प्रमाण नहीं होता और ज्ञान की प्रामाणिकता बाहरी कारणों पर निर्भर है। ज्ञान- जनक-सामग्री से उत्पन्न होती है।)
आमतौर पर हम अपने लौकिक जीवन में अधिकतर मीमांसावादी दृष्टिकोण से चलते हैं कि जब तक प्राप्त ज्ञान अमान्य न सिद्ध हो (किसी विरोधाभासी अनुभव मिलने के कारण), तब तक उसे स्वत:प्रामाण्य मान कर सही चलते हैं। संभवत: इसमें परिवर्तन यह आएगा कि हम सोशल मीडिया पर आयी हर बात पर संदेह ही करेंगे क्योंकि वह सोशल मीडिया से आयी है।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी के संदर्भ में हमें पहली बात यह माननी चाहिए कि किसी की इच्छा के विरुद्ध किसी भी बात को मनवाया नहीं जा सकता। हम अपने समर्थन में कई प्रमाण दे सकते हैं। दर्शन के संदर्भ में यह प्रमाण ‘आगम प्रमाण’ या ‘शब्द प्रमाण’ कहे जाते हैं। यह ध्यान देना चाहिए कि बौद्ध शब्द प्रमाण या आगम प्रमाण को प्रमाण नहीं मानते, पर व्यवहार हेतु स्वीकार कर लेते हैं। समूचा आधुनिक समाज विज्ञान, भौतिकी, रसायन आदि शब्द प्रमाण पर आधारित हैं, जैसे कि नमक मूलत: सोडियम और क्लोरीन जैसे मूल भौतिक तत्वों को संयोजन है, गुरुत्वाकर्षण के नियम से सौर मंडल के पिण्डों की गतियाँ निर्धारित होती हैं आदि। ज्ञान के इन क्षेत्रों की मूलभूत विशेषता है कि सारे शब्द प्रमाण परीक्षण हेतु उपलब्ध हैं, जो कि धर्मशास्त्र आदि में नहीं हैं। जैसे कि कर्मफलवाद की सत्यता किसी परीक्षण के लिए उपलब्ध नहीं होती।
बहरहाल, शब्द प्रमाण का स्वरूप है प्रमा का अबाधित (कोई विरोधाभासी अनुभव या विपरीत ज्ञान की अनुपस्थिति में) हो कर हृदयंगम होना। अगर कल किसी तरह कोई यह सिद्ध कर दे कि ताजमहल १६५३ के बजाय १६५५ में बन कर तैयार हुआ या तूतेनखामेन की जन्मतिथि २०० साल आगे-पीछे है, हम आधुनिक ज्ञान परम्परा के अनुसार विश्वविद्यालयों में उसे उक्त शास्त्र के नियमों के अनुसार परीक्षण कर के उसे स्वीकारेंगे। जैसे बीस साल पहले प्लूटो एक ग्रह माना जाता था, अब नहीं माना जाता है। इस विशेष संदर्भ में न हम तब गलत थे, न अब गलत हैं क्योंकि ग्रह की परिभाषा अब परिष्कृत हो गयी।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी के कई कर्णधार अपने से प्रतिकूल ऐतिहासिक प्रमाणों को नहीं मानते, क्योंकि उनके लिए उनके पूर्वाग्रह ही ज्ञान में बाधा है।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी के ज्ञान के पहलू जो चिन्ताजनक लगते हैं वे हैं किसी समूह या राजनैतिक पार्टी या धर्म विशेष के प्रति पूर्वाग्रह को पुख्ता करना। यहाँ पर स्पिनोजा के एथिक्स के तीसरे अध्याय के ४६वें प्रमेय को उद्धृत करता हूँ:
If someone has been given pleasure or unpleasure by someone of a class or nation different from his own, and this pleasure or unpleasure is accompanied by the idea of that person as its cause, with that person being thought of as belonging to that class or nation, then he will love or hate not only that person but everyone of the same class or nation.
यदि किसी को किसी से, जो किसी अन्य समूह/वर्ग या राष्ट्र से सम्बन्धित हो, सुख या दुख मिला हो और यह सुख या दुख उस अन्य व्यक्ति के कारण प्रतीत होता हो, जिसमें वह व्यक्ति किसी समूह या राष्ट्र से जुड़ा प्रतीत होता हो तो ना केवल वह उस अन्य व्यक्ति से बल्कि उससे जुड़े समूह या वर्ग के सभी लोग से प्रेम या घृणा करेगा।
मानवीय स्वभाव के बारे में यह दार्शनिक टिप्पणी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह मानवीय स्वभाव है कि वह समूह या वर्ग से इतर नहीं सोच पाता है यदि कोई अपने को समूह या वर्ग विशेष जोड़ कर प्रकट करता है। यही कारण है कि इकबाल भारत में खलनायक के रूप में स्थापित हुए हैं, भले ही उनके आखिरी साल संभवत: किसी अंतर्विरोध से घिरे रहे हों।
यह गौर करने वाली बात है कि तमाम राजनैतिक झगड़े के केन्द्र में समाज का उत्स या सामूहिक कल्याण गौण है बल्कि समूह विशेष की बात केन्द्र में आ गयी है। अगर कोई सार्वजनिक नीति बनती है तो बहुत लोग उसे अपने समूहगत अधिकारों का हवाला दे कर निरस्त करना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि समकालीन राजनीति की शुचिता प्रोपेगेण्डा पर चलती कि हर नागरिक की व्यक्तिगत अभिरुचि उसकी समूहगत अभीप्साओं के अंतर्गत ही आनी चाहिएँ। अत: किसी के प्रेम और किसी के घृणा के अकारण पात्र हैं।
यह विचित्रता हमें संज्ञान में लेनी चाहिए कि समूह के लाभ पर आधारित राजनीति के लिए हमें व्यक्तिपरक आलोचना या प्रस्थापना का सहारा लेना पड़ता है। साम्यवादी देश भी अपने नेता को देवता या आलोचना से परे ले जाने की प्रवृत्ति रही है। अधिनायकवाद में तो यह है ही।
यह ध्यान देने की बात है यह स्पिनोजा के सूत्र से जुड़ा है कि समूह का उत्थान या पतन उससे जुड़े व्यक्ति से परिलक्षित होना चाहता है। जबकि शासन चलाने में हमेशा कई लोग लगे होते हैं, पर सारे उत्थान या पतन का जिम्मेदार एक व्यक्ति को माना जाता है और उसे समूह या वर्ग या राष्ट्र से सम्बन्धित किया जाता है। इस अर्थ में प्रधानमंत्री की आलोचना उसे अस्वीकार्य हो जाती है। भले ही यह बात सही हो कि बहुत से प्रधानमंत्री पढ़ने-लिखने में कमजोर थे या महात्मा गाँधी स्कूल में किसी तरह पास कर जाते हैं। यह बात बहुत महत्त्व नहीं रखती कि राजनेता अपने स्कूल-कॉलेज की डिग्रियों के लिए नहीं बल्कि अन्य कार्यों के लिए याद किए जाते हैं और किए जाने चाहिए।
वैश्विक राजनीति का यह स्वरूप हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि हर राजनीति अपने मूल स्वरूप में समूहगत राजनीति है। कोई राजनीति, बिना किसी ‘अन्य’ की अवधारणा के नहीं चलती। कई बार ‘अन्य’ विदेशी राज्य होते हैं, कई बार समूह या धर्म विशेष होते हैं। यह भी हमें निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि तथाकथित लोकतंत्र या कोई भी राजनैतिक व्यवस्था धर्म से कभी मुक्त नहीं हो पायी है और संभवतया आने वाले सैकड़ों सालों में मुक्त हो भी न सके। भले ही विज्ञान का धार्मिक अवधारणाओं से छत्तीस का आँकड़ा रहे। राजनीति और धर्म का अंतर्सम्बन्ध व्यक्तिपरक उपासना के प्रारूप पर अकाट्य रूप से स्थापित है। जिस तरह अधिकांश मतों में ईशनिन्दा दण्डनीय या हेय माना जाता है, उसी तरह कोई राजनैतिक पार्टी नायक की स्थापना और उसकी उपासना के बिना नहीं रह सकती। उसी तरह विरोधी विचारधारा पूर्वपक्ष के नायक के प्रति उदासीन न हो कर उसकी अवमानना, अवहेलना और उसके अपमान में लिप्त रहेगी ही।
लेकिन अंतर्निहित विडम्बना यह है कि ऐतिहासिक नायकों की निन्दा, सर्वनिन्दा का विषय नहीं बनती अपितु नए नायक बनाने के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। इतिहास से हम यह सत्य व्यवहार में पाते हैं कि हर तरह का मूर्तिभंजन अपने इष्ट को स्थापित करने के लिए ही किया गया है। मध्यमक दार्शनिक नागार्जुन की सर्वशून्यता का वसुबन्धु और दिङ्नाग ने खण्डन किया। ईश्वर को नहीं मानने वाले जैनियों ने तीर्थङ्करों को ही ईश्वर सरीखा आराध्य बना दिया।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी की वैधता इससे है कि हम प्रोपेगेण्डा युग में रहते हैं। एक क्षेत्र में हम बाजारवाद के नाम पर उसका समर्थन करें और राजनीति के क्षेत्र में अपने मनमुताबिक बात न होने के कारण उसका विरोध करें, यह अपेक्षा स्वप्न विषयक है। वस्तुत: यह प्रश्न उसके औचित्य का या किसी शुचिता का रहा ही नहीं। अत: आप लाख उसकी बुराई करें, इससे स्थिति बदलने वाली नहीं। हर समाज और हर काल कुछ ऐसे तत्त्वों को स्वीकार करता है जिसे अनैतिक, भ्रामक या पापपूर्ण कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए चोरी, जुआ, शराबखोरी, व्यभिचार, वेश्यावृत्ति आदि तत्त्व स्वीकृति या अस्वीकृति से परे हर समाज में पाये ही जाते हैं। यह और बात है कि कुछ लोग सभी उक्त कर्मों को उचित ठहराने के लिए पसन्दीदा तर्क तैयार रखते हैं।
इसी क्रम में हम चाह कर भी रील्स या शार्ट्स से तब तक नहीं मुक्त हो सकते जब तक राज्य न चाहे, जिसकी सम्भावना बहुत कम लगती है क्योंकि अधिकांश जनता भोगवाद में लिप्त हो कर नाचना-गाना और उससे पैसे कमाना चाहती है। बाजारवाद ने भारत के अधिकांश लोग में अभिनेता, नर्तक होने का अभूतपूर्व आत्मविश्वास भर दिया है। इतना ही नहीं बहुतों के अन्दर फॉलोअर पाने की ऐसी भूख पैदा कर दी है कि जो कृत्य बीस साल पहले अशोभनीय माना जाता था, अब वह सब स्वीकार्य हो गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि किस तरह के रील्स आज के किशोर-किशोरियाँ बनाते और देखते हैं। किस तरह से हमने आईपीएल के साथ-साथ ‘ड्रीम एलेवन’ जैसे जुए को मान्यता दे दी है।
ऐसी स्थिति में हम क्या करें?
मेरी समझ से हमें ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी का स्वागत करना चाहिए। उन सभी वर्तनी की अशुद्धियाँ और व्याकरण की गलतियाँ और भद्दे रंग सज्जा के साथ भ्रामक ज्ञान को सहजता से लेना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम भ्रम को ज्ञान मान लें या अशुद्ध ज्ञान को स्वीकार कर लें। ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी हमें मौका देती है कि हम इतिहास को या समकालीन परिदृश्य को फिर से देखें और अपने विचारों का परिष्कार करें। अगर ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी से भ्रामक जानकारी मिलती है तो हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि इसका विलोम भी ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी पर ही फेसबुक, एक्स या ह्वाट्सएप पर ही मिलने लगेगा। बहुत हद तक ऐसा हो भी रहा है।
वस्तुत: जो ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी में तथ्यात्मक सत्यता देखना चाहते हैं वे बड़ी गलती पर हैं। क्योंकि राजनैतिक प्रोपेगेण्डा का अभीष्ट तथ्यात्मक सत्यता है ही नहीं। कोई औरंगजेब के पूरे जीवन को पढ़ कर उसके भिक्षुक सरीखे जीवन के कारण (कुरान के नकल तैयार करके अपने खर्च के लिए पैसे कमाना) अपना नायक मान सकता है, दूसरा उसे दुर्दान्त हत्यारा समझ कर खलनायक मान सकता है। यह व्याख्या का विषय है और यह अधिकार इतिहास भी देता है कि आप उसे क्या समझना चाहते हैं। दरअसल मूलभूत गलती यह है कि हम यह समझते हैं कि ‘तथ्य’ से हम ‘सत्य’ तक पहुँचेंगे या कोई अन्य पहुँचेगा। किन्तु ‘तथ्य’ समूह से सम्बन्धित प्रेम और घृणा को जन्म देता है, जैसा कि स्पिनोजा के सूत्र का उल्लेख से हम समझ सकते हैं।
सत्य के तीन सिद्धान्त – यथातथ्यवाद (थियोरी ऑफ कोरोस्पोन्डेन्स), संसक्तता सिद्धांत या सामंजस्यवादी सिद्धांत (थियोरी ऑफ कोहोरेन्स) और उपयोगितावाद (थियोरी ऑफ युटिलिटी) को हम देखें तो सत्य से हमारा आशय ज्ञान की वह कोटि जो हमारे चेतना में भली-भाँति व्यवस्थित होती है, जो हमारी ज्ञान, इच्छा और क्रिया को प्रभावित कर सके।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी का सीधा परिणाम है तथ्यात्मक सत्य के प्रति उदासीनता। दरअसल तथ्यात्मक सत्य के प्रति उदासीनता राजनीति के लिए नई बात नहीं है। डी. डी. कोसाम्बी अपने लेख में यह स्थापित करते हैं कि उन्नीसवीं सदी में विधवा पुनर्विवाह के लिए जितने प्रयत्न किये गए, उसमें गौर करने वाली बात यह थी कि कई जगहों पर ८५% से अधिक विधवा पुनर्विवाह हो रहे थे और तत्कालीन भारतीय समाज में यह सहज स्वीकार्य था, फिर भी यह ‘समाज-सुधार’ का मुद्दा बना, संभवत: इसलिए कि यह कुछ विशेष वर्ग में अस्वीकार्य रहा होगा। (देखें – https://www.ms.uky.edu/~sohum/ma330/files/kosambitext.pdf )।
बहुधा तथ्यात्मक शुचिता राजनीति के लिए अभीष्ट नहीं है। अगर हम राजनेताओं की व्यक्तिगत लिप्सा को दरकिनार भी कर दें तो भी यही निष्कर्ष निकलता है कि राजनीति समूहगत उत्थान के नाम पर ‘वैचारिक सत्य’ की स्थापना करना चाहता है। वह वैचारिक सत्य ‘तथ्य’ से परे है।
इस अर्थ में ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी दोधारी तलवार है; पहली – वह आपको भ्रम अथवा ज्ञान को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है। दूसरी – इसकी विपुलता से थक कर वैचारिक विवेचना से थक कर निकल जाना चाहते हैं। ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी के प्रायोजन में उद्देश्य के परिणाम इस तरह के हो सकते हैं – १. अधिप्रचार से सहमत हो जाना, २. अधिप्रचार से असहमत हो जाना, ३. अधिप्रचार का बहिष्कार कर देना ४. अधिप्रचार से तटस्थ या उदासीन हो जाना। विडम्बना है कि हमारे युग में यह व्यवस्था कर दी गयी है कि आप अधिप्रचार का बहिष्कार नहीं कर सकते। अगर करेंगे भी तो एक-दो, अधिक से अधिक ५-१०, इससे अधिक सम्भव नहीं है।
ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी हमारे समय को हद से अधिक जटिल बनाता है। एक जागरुक नागरिक होने के नाते कई तथ्यों को याद रखना पड़ता है जो हम कुछ ‘इन्फुलएन्सरों’ के लिए छोड़ते जा रहे हैं। हम इस बात को मान बैठे हैं कि हम सबकुछ की जाँच-पड़ताल नहीं कर सकते और हम दूसरों पर आश्रित होते जा रहे हैं। काण्ट ने अपने प्रसिद्ध लेख (ह्वाट इज इनलाइटेन्मेंट) में आधुनिक समय में मनुष्य की वकील और डॉक्टर पर आश्रित होने की प्रवृत्ति को लेकर खिन्नता प्रकट की थी।
सबसे बड़ी समस्या इतिहास को लेकर आती है कि आम व्यक्ति कोई ‘ह्वेनसांग’ की बात को प्रमाण न मानें या कोई ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ या ‘वाल्मीकि रामायण’ को ‘हिस्ट्री’ के अर्थ में इतिहास मानने लगे। ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी अक्सर उन स्रोतों को ले कर आता है जिस के प्रमाण सहज उपलब्ध नहीं है। मैं इसे इतिहासकारों की सामाजिक भूमिका का विस्तार और बहुत से विषय सम्बन्धित विशेषज्ञों की उपयोगिता के हित में देखता हूँ। लेकिन फिर भी, स्थापित इतिहासकारों और विशेषज्ञों की पहुँच भी ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी की तरह त्वरित नहीं है और ना ही उसका विस्तार वैसा है जितना किसी मैसेज के वायरल होने का है।
प्रसंगवश गलत समाचार (फाल्स न्यूज) और नकली समाचार (फेक न्यूज) के बारे में भी विचारना चाहिए। यद्यपि ये पद परिभाषित नहीं हैं, पर फिर भी मैं अपनी अल्प मति से इसे व्याख्यायित करने का प्रयत्न करता हूँ। उदाहरण कि गत मंगलवार शताब्दी एकस्प्रेस की बरेली में दुर्घटनाग्रस्त होकर पटरी से उतर गयी। यदि यह दुर्घटना हुयी ही न हो तो यह गलत समाचार (फाल्स न्यूज) में गिना जाना चाहिए। पिछले साल अतीक अहमद की कैमरे के सामने हत्या पर एक फ्रांसिसी अखबार ने यह शीर्षक दिया ‘पूर्व विधिनिर्माता और उसके भाई की लाइव टीवी पर हत्या कर दी गयी’ – https://www.lemonde.fr/en/international/article/2023/04/16/former-indian-lawmaker-and-his-brother-fatally-shot-live-on-tv_6023116_4.html यह समाचार शीर्षक तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं है पर प्रसंग की समुचित या उस तरह की व्याख्या नहीं करता जैसे कि अन्य समाचार पत्र (जैसे बीबीसी – गैंगस्टर और राजनेता की हत्या- https://www.bbc.com/news/world-asia-india-65347773 ) करते हैं। फ्रासिंसी अखबार में छपे शीर्षक का गुह्य उद्देश्य भारत के बारे में भ्रामक छवि फैलाना जान पड़ता है।
इस तरह की कई सूचनाएँ जो सही हो या गलत, शायद सोशल मीडिया पर ‘लाइक्स’ पाने के लिए या कुछ मनोरंजन के लिए या अन्य कारणों से फैलायी जाएँ तो वह नकली समाचार (फेक न्यूज) कहलाना चाहिए। इन पंक्तियों के साथ मैं यह भी रेखांकित करना चाहूँगा कि हमारे हिन्दी साहित्य में कई नकली कवि हैं और कई नकली कविताएँ हैं। उनमें से अधिकतर प्रायोजित हैं। मुश्किल यह है कि उनकी शिनाख्त करना गालियों को आमंत्रित करने जैसा है। इंटरनेट ने समाज में अनुचित और आदिम प्रवृत्तियों को पोषित किया है। नकलीपन की स्वीकार्यता हमारे युग का त्रासद सत्य है। मेरी समझ से कृत्रिम मेधा गलत समाचार पर रोक लगा सकती है, पर नकलीपने पर रोक नहीं लगा सकती।
नैतिक सत्य और विवेक, सौन्दर्य अनुभुति तथ्यों से संचालित नहीं होते। तथ्य भी ज्ञान के प्रकाशित होकर ही व्यवस्थित होते हैं। उदाहरण के लिए भारत १५ अगस्त १९४७ को स्वतंत्र हुआ, अपने आप में कोई मायने नहीं रखता जब तक कि हम स्वतंत्रता को व्याख्यायित नहीं करते।
इसी तरह बहुत सारे व्यक्तिगत निर्णय विधि-व्यवस्था सम्मत होने से निर्णीत नहीं होते ना ही वे धर्मादेश से अनुकूलित होते हैं। किन्तु इन कथनों की प्रामाणिकता तथ्यात्मक नहीं है अपितु चिन्तन और दर्शन का विषय है।
इस मामलें में मैं ईसाइयों को उद्धृत करना चाहूँगा कि बाइबिल के आदेश के अनुसार पापियों से भी घृणा नहीं करना चाहिए। आदेश की अनुगूँज यह है कि हमें साथ ही पाप को लक्षित अवश्य करना चाहिए। राजनीति के मामलों में हमें मूर्तिभंजक होना चाहिए कि सभी आलोच्य हैं और कोई भी राजनैतिक समसामायिक पुरुष या ऐतिहासिक व्यक्तित्व निन्दा या आलोचना के परे नहीं है। भले ही वह आलोचना पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रसित हो। लेकिन ऐसा क्यों? इसके लिए हमें रोम के औरिगा की परम्परा को याद करना चाहिए जो युद्ध में विजयी सम्राट के रथ पर पीछे खड़े हो कर हाथों में मुकुट थामें सम्राट के कानों में फुसफुसाता था कि ‘याद रखो तुम मरणशील मनुष्य हो’ – (“Memento Mori” -“remember you are mortal”)।
मेरे हिसाब से इसी क्षीण आशा के साथ हम ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी को देख सकते हैं कि वह अंतत: तथ्य और सत्य के आपातित सम्बन्ध को तोड़ने में कामयाब हो जाएगा। हमारी सभ्यता तथ्यों के प्रति उदासीन होती जाएगी। हम नायकों को मनुष्य मात्र, उनके कृत्यों को कई कारणों का आपातित संयोग समझेंगे। जिस दिन सभ्यता नायक से मुक्त हो सकेगी, तभी वह समर्थ हो सकेगी। किन्तु इसका विलोम ही व्यावहारिक सत्य प्रतीत होता है कि समर्थ समाज को नायक की आवश्यकता नहीं होती। प्रसंगवश हमें याद करना चाहिए लिबनिज़ के प्रस्तावना की सत्यता का सिद्धान्त वही प्रस्तावना सत्य है जिस वाक्य के कर्ता में विधेय की अवधारणा अंतर्निहित हो।
मूल्यहीनता और हिंसा के उपरान्त संभवत: हम नैतिक मूल्यों के व्यवस्थित प्रतिमानों की ओर ही वापस लौटेंगे जो कि आधुनिकता में खो गयी है। स्वतंत्रता के नाम पर उच्शृंखलता में बदल गयी है, अधिकार के नाम पर कर्त्तव्य को भुला दिया है और त्याग की अवधारणा लुप्तप्राय हो गयी है। नए युग के प्रतिमान दर्शन सम्मत धर्म से संचालित होंगे या स्पिनोजा जैसे दार्शनिक की विचार-व्यवस्था से चलेंगे यह अभी कहना कठिन है। इतना कहा जा सकता है कि विज्ञान का उद्भव भी समाज में पूर्वाग्रहों को तोड़ सकने में नाकाम ही सिद्ध हुआ है। विज्ञान से हो बहुत उम्मीद लगायी गयी थी वे सारी क्षीण होती जा रही हैं।
इंटरनेट, सोशल मीडिया और ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी हमें हिंसक संघर्ष की ओर ले जा रहा है। जो नया सामाजिक प्रारूप बन रहा है, उसमें व्यवस्थित विचार, प्रबुद्धता, बहुश्रुतता, वैचारिकी को हाशिये पर ढ़केल कर अप्रासंगिक बना दिया जा रहा है। बहरहाल माओ के ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ को याद करना चाहिए जब बुद्धिजीवियों को ‘स्टिकिंग ओल्ड नाइन्थ’ (Stinking Old Ninth) कहा गया और बाद में उनकी उपयोगिता याद की गयी।
हमें इस बात पर चिन्तन करना चाहिए कि क्या ज्ञानी काल से पराजित हो सकता है? यह महत्त्वपूर्ण है कि पराजय का क्या आशय लेते हैं? भारतीय दर्शन में कुछ परम्पराएँ मानती हैं कि विद्वान काल से पराजित नहीं होता। मुझे आशा है कि नई पीढ़ी ह्वाट्सएप युनिवर्सिटी से और किताबों से, बहुत सारे विवादों में खुद को गला कर ऐसे विद्वत्ता के प्रतिमान रचेगी जो ज्ञान के आलोक में हिंसा और धर्मान्धता को पराजित कर सकेगी।
इति श्री
(२० जुलाई २०२४)