प्रसिद्ध गायक राशिद ख़ान के निधन के बाद उनकी कला को याद करते हुए यह लेख लिखा है जाने माने युवा लेखक प्रवीण कुमार झा ने। पेशे से चिकित्सक और नॉर्वे प्रवासी प्रवीण कुमार झा ने अन्य किताबों के अलावा शास्त्रीय संगीत पर एक शानदार किताब लिखी है ‘वाह उस्ताद’। फ़िलहाल राशिद ख़ान साहब पर उनका लिखा पढ़िए-
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“पहले के ज़माने में इल्म की क़द्र होती थी कि किसे कितनी विद्या है। आज गले की क़द्र होती है, इल्म पर कम जोर है। अगर इल्म और गला दोनों हों, तो सोने पर सुहागा। तुम में वह बात है”
- कुमारप्रसादमुखर्जीउस्तादराशिदख़ानसे
आज की जेनरेशन जेड या जो नयी पीढ़ी है, उसके सामने हिंदुस्तानी संगीत का ज़ख़ीरा मौजूद है। एक क्लिक पर कई दशकों का संगीत बेहतरीन तकनीक की आवाज़ के साथ सुना जा सकता है। कहीं भी। कभी भी। इस बिंदु के साथ अपनी बात रखने का ध्येय यह है कि मेरी इच्छा पुरानी इमारतों के ढहने पर रोने की नहीं। ऐसे बुलंद इमारत न कभी ढहते हैं, न पुराने होते हैं, न अपनी पहचान खोते हैं। उस्ताद राशिद ख़ान को नयी दुनिया के ऐप्प स्पॉटिफाइ पर दस लाख़ से अधिक बार हर महीने सुना जाता है। वह कल और आज के बीच की एक मजबूत कड़ी थे, जिसमें कल के संगीत को संभालते हुए आज को संवारना था।
अगर इतिहास में लौट कर देखें तो सत्तर का दशक दुनिया में एक वैचारिक और राजनीतिक विप्लव था। इसका प्रभाव ज़ाहिर है कि कला और संगीत पर भी पड़ रहा होगा। भारत के कई दिग्गज संगीतकार पश्चिम का रुख़ कर चुके थे या करने वाले थे। जिसे हम संगीत के घराने कहते हैं, उनका स्वरूप भी बदल रहा था। उसके कई कारण थे, मगर उस अनिश्चित काल में जब बदायूँ से निकला एक किशोर अपने रामपुर-सहसवान घराने की गायकी झोले में बाँध कर अपने नाना के साथ कलकत्ता के नए-नवेले शास्त्रीय संगीत संस्था का रुख़ करता है, तो यह अपने-आप में एक मज़बूत दस्तक थी। हालाँकि यह अतिशयोक्ति होगी, लेकिन जब विप्लव जैसे शब्द का प्रयोग किया है तो नूह के नाव का प्रयोग क्यों न करूँ?
आइटीसी नामक कंपनी ने कलकत्ता में एक संगीत संस्था स्थापित की, जहाँ उस्ताद निसार हुसैन ख़ान अपने नाती राशिद ख़ान को साथ लेते आए। इससे पहले वह बालक उनके साथ महीनों से मंद्र सप्तक में स्वरों का उतार-चढ़ाव सीख रहे थे। कुछ छोटा ख़याल सीखे थे, जिसे तैयारी के साथ सुना कर दाख़िला मिल गया। यह एक नयी शुरुआत थी, क्योंकि इस तरह संगीत सीखने का रिवाज़ कम था। जानकार आपत्ति कर सकते हैं कि गंधर्व महाविद्यालय, भातखंडे संस्थान या प्रयाग संगीत समिति तो पहले से थे। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे कई मुहिम चले, मगर यहाँ मैं एक बदलाव की बात कर रहा हूँ जो आज के दौर में मौजू है। ग्यारह वर्ष के उस्ताद राशिद ख़ान को जो पहला मंच कलकत्ता में मिला जब उन्होंने राग पटदीप गाया, उस मंच पर उसी कड़ी में पंडित रविशंकर ने सितार बजाया। ऐसी सोहबत, ऐसी बरकत, ऐसा मंच, ऐसी प्रेरणा अगर कोई संस्था दे पाती है, तो वह नयी पीढ़ी में ऊर्जा ला सकती है। आज की डिजिटल भाषा में कहूँ तो उस्ताद हिंदुस्तानी संगीत के ऐसे प्रोटोटाइप थे, जो अपने नित नए बेहतर वर्जन लाते गए, मगर मूल मॉडल की तासीर नहीं बदली।
उनकी इस यात्रा में दो चीजें शामिल हैं, जो हर व्यक्ति के सीखने लायक हैं। पहली कि अन्य वरिष्ठ संगीतकारों से कुछ ग्रहण करना और दूसरी कि अपना नवाचार लाना। उस्ताद राशिद ख़ान स्वयं कहते थे कि मैं किन्ही एक का शागिर्द नहीं रहा। यह बात ठीक थी कि वह संगीतकारों के ख़ानदान से ही ताल्लुक रखते थे, उस्ताद निसार हुसैन ख़ान से गंडा बँधवाया था, लेकिन वह इसमें रूढ़ नहीं थे। उन्होंने दूसरे घरानों से भी चीजें अपनायी और जिन परिपक्व उस्ताद को हम सुनते हैं, वह ऐसी कई शैलियों का समुच्चय है। हालाँकि यह बात उनके घराने की भी पहचान है, कि वे एक शैली में बँध कर नहीं रहे। छायानट की एक ही बंदिश ‘झनन झनन बाजे बिछुआ’ कानों में नहीं गूँजती रही। वे नित नए प्रयोग करते रहे, दूसरे घरानों से भी अच्छी चीजें लाते रहे। बहरहाल घराने के सिरमौर रहे इनायत हुसैन ख़ान को ग्वालियर से दहेज में बंदिशें मिली थी। दहेज में बंदिशें!
एक क़िस्सा जो लोकप्रिय है कि एक बार कलकत्ता के प्रतिष्ठित डोवरलेन सम्मेलन में युवा राशिद ख़ान को पंडित भीमसेन जोशी के पीछे नहीं बैठने दिया गया। उन्होंने प्रण लिया कि एक दिन यही डोवरलेन मुझे बुलाएँगे और मैं उस दिन मना करने की स्थिति में रहूँगा। इस क़िस्से को कई कोण से देखा जा सकता है। यह एक तरह का चैलेंज है, जो संगीतकार को बेहतरी की ओर ले जा सकता है। यह एक युवा संगीतकार को हतोत्साहित भी कर सकता है। आज आप यूट्यूब पर पंडित भीमसेन जोशी की जुगलबंदी ढूँढें। आपको मात्र एक पुरुष कार्नाटिक संगीत दिग्गज एम बालकृष्णन के साथ प्रस्तुतियाँ मिलेंगी। मगर स्क्रॉल करने पर सूची में एक अन्य गायक भी मिलेंगे, जिनके साथ पंडित जी ने जुगलबंदी गायी। राशिद ख़ान!
उस्ताद कभी हतोत्साहित नहीं हुए बल्कि उन्होंने पंडित जी का स्नेह हासिल किया। किराना घराने की महक हासिल की। एक बार पंडित जी ने उन्हें अपने घर में एक बैठक के लिए बुलाया। अपना तानपुरा उन्हें दिया और राशिद ख़ान ने गाना शुरु किया। जब एक महान गायक अपने सुंदर भविष्य को सामने देखता है, तो चेहरे से एक शिकन तो दूर होती है। पंडित जी ने बैठक के बाद उनको दस हज़ार रुपए का लिफ़ाफ़ा दिया। राशिद ख़ान ने कहा- “पंडित जी! यह क्या? आपसे मैं यह कैसे ले सकता हूँ? आपके साथ बैठना ही मेरा हासिल है।” पंडित जी ने कहा- “राशिद! यह लिफ़ाफ़ा एक सीख के लिए दे रहा हूँ। कभी किसी बैठक के लिए मुफ्त में मत गाना।”
डोवरलेन ने उन्हें आमंत्रित किया, जब राशिद ख़ान पेरिस के आयोजन में जा रहे थे। कभी मंच से उतारे गए युवक अब हिंदुस्तानी संगीत को ऊँची उड़ान पर ले जा रहे थे।
आज के नवयुवक उस्ताद को ‘जब वी मेट’ फ़िल्म के गीत ‘आओगे जब तुम ओ साजना’ से भी जानते हैं। कई लोग उस्ताद सुल्तान ख़ान को ‘पिया बसंती रे’ गीत से जानते हैं। लोकप्रियता के माध्यम तो बदलते ही रहते हैं, मगर इस लोकप्रियता में अपनी परंपरा को कायम रखना कठिन होता है। फ्यूजन से कंफ्यूजन की ओर भटक जाते हैं। मगर आप इस गीत को सुनें तो देखेंगे कि जो मुखड़े के साथ सरगम ‘म म प नी सा रे’ रखने की उनकी शैली है, वह कायम है।
दरभंगा घराने के सुप्रसिद्ध गायक प्रशांत मल्लिक जी ने मुझे उस्ताद के विषय में कहा, “उन्होंने जिस शैली में गाया, जिस बुलंदी, जिस परफेक्शन, जिस रेंज में गाया, वह अद्भुत है। वे एक बहुमुखी गायक थे, बुलंद आवाज़ के धनी या यूं कहें वह ईश्वर प्रदत्त प्रतिभाशाली सगीतज्ञ थे। उन्होंने यह पुनः सिद्ध किया कि हिंदुस्तानी संगीत में भी सुपरस्टार हो सकते हैं। वह भी संगीत की गुणवत्ता से बिना किसी समझौते के।”
राशिद ख़ान के सरगम तान में हमें ऐसा नहीं लगता कि जल्दबाज़ी में स्वर-समूह को उतार-चढ़ाव के साथ रखा जा रहा है। जैसा कई बार टैलेंट शो में सुनने को मिलता है, और तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती है। उन नयी आवाज़ों को उस्ताद से यह सीखने की ज़रूरत है कि यह कोई रैप म्यूजिक या फकड़ा नहीं है। इसे अगर ठीक से बरता न जाए, तो इसमें गले की फिरत नहीं दिखेगी। यह एक अच्छी रटंत कही जा सकती है, गायकी नहीं।
कुछ बारीक चीजें जो समय के साथ घटती जा रही थी, या किताबों तक सीमित रह गयी थी, उसे उस्ताद राशिद ख़ान बहुत सहजता से संभाल रहे थे। सुनने वालों को भी कई बार आभास नहीं होता कि इसमें कुछ अलग है। जैसे बहलावा को लें, जो आलाप और तान के बीच की एक कड़ी है। लंबी मीड के साथ स्वर घुल-मिल रहे हैं। स्लो मोशन में। कोई एक्रोबेटिक्स नहीं। यह ग्वालियर की पुरानी शैली है, लेकिन संभवतः श्रोताओं में घटते धैर्य को देख कर इसे धीरे-धीरे कम कर दिया गया होगा। वहीं राशिद ख़ान ने इसे अपने बुजुर्गों से हासिल किया, और इसे जब तैयारी के साथ सामने रखा तो श्रोताओं को यह बहलावा मोह गया।

उनके बोल-तान में भी यह धैर्य और पूर्णता है। छंद को यूँ ही तान लेकर नहीं गाया जा रहा है, बल्कि उसे लय में बाँट कर रखा जा रहा है। ऐसा कव्वालों या ठुमरी गायकों में अक्सर दिखता है। ध्रुपद और कार्नाटिक संगीत में तो छंद का अलग ही महत्व है। ख़याल गायकी में कई बार विस्तार देते हुए छंद पीछे छूट जाता है। उस काव्य-पक्ष को साथ रखते हुए तान लेना आज के श्रोताओं से तुरंत जुड़ जाता है। जो बीट्स के साथ गुनगुनाने वाले लोग हैं, उन्हें गायकी में यह लय मिलता है तो कनेक्ट हो जाते हैं।
इस नए मंच और नई दुनिया को संगीत से जोड़ने के लिए राशिद ख़ान एक आभामंडल, एक क्रिस्टल बॉल की तरह आए और साठ वर्ष से कम उम्र में हमें छोड़ कर चले गए। संगीत की दुनिया के लिए यह एक चिर-युवा आवाज़ रहेगी, जिसमें कभी गले की क्षीणता नहीं आयी। उनमें एक साथ दशकों का संगीत दिख सकता है।
जब वह स्वर-मंडल लेकर ‘याद पिया की आए’ गाते हैं तो उनमें बड़े ग़ुलाम अली ख़ान की बुलंदी दिखती है, जब वह जबड़े की तान लेते हैं तो उनमें युवा पंडित भीमसेन जोशी दिखते हैं, जब वह स्वरों को घुला कर बरतते हैं तो उनमें उस्ताद अमीर ख़ान दिखते हैं, और जब वह ‘ता ना दे रे ना’ के साथ तराना गाते हैं तो उनमें उनके नाना गुरु उस्ताद नासिर हुसैन ख़ान जुड़ जाते हैं। इन सभी छवियों के साथ हमें उस्ताद की छवि दिखती है जो कभी धुंधली नहीं होगी।