कल प्रसिद्ध फ़िल्मकार श्याम बेनेगल का निधन हो गया। वे समांतर सिनेमा के पर्याय थे। उनकी फ़िल्म मंथन के बहाने उनकी सिनेमा कला पर यह लेख लिखा है कवि-लेखक यतीश कुमार ने-
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साठोत्तरी कहानी, यानी बीसवीं शताब्दी के साठ के दशक और सातवें दशक यानी 1960 से 1970 के बीच लिखी कहानियों की प्रमुख धारा पूरी तरह अकहानी आंदोलन, जीवन के प्रति अस्वीकार, अजनबीपन, निरर्थकता बोध परंपरा का पूर्ण नकार, यौन उन्मुक्तता, शिल्पगत अमूर्तता जैसे तत्वों से लबरेज़ है। समय के इसी सोपान पर अकविता ने भी अपनी जगह बनायी और परिस्थितियों द्वारा प्रदत्त सृजन पर सभी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित हुआ। सिनेमा चूँकि साहित्य-कला का विस्तारित अहम हिस्सा है, तो लाज़िमी है कला साहित्य में आये इस नये बदलाव का असर सिनेमा में भी दिखना था।व्यावसायिक सिनेमा की चौंध से ऊबे लोग एक विकल्प तलाश रहे थे।विकल्प के इसी रूप को हमने समानांतर सिनेमा की श्रेणी दी ।
अगर सिनेमा को हम वर्गीकृत करते हैं, तो व्यावसायिक, क्षेत्रीय और समानांतर सिनेमा मिलकर फ़िल्म जगत का पूरा वायुमंडल रचते हैं। बंगाल बदलाव का जनक रहा है और समानांतर सिनेमा के इतिहास को भी अगर देखें तो पश्चिम बंगाल में उठे इसी समय काल के आंदोलन के प्रतिफल के तौर पर आप इसे रेखांकित कर सकते हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा की बहुलता का भी असर इसे आप मान सकते हैं। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन इस समय के असली अग्रणी नायक थें, पर हम आज बात करने जा रहे हैं इन सब महान दिग्दर्शक की फ़ेहरिस्त से इतर एक ऐसे निर्देशक की, जिन्होंने हमेशा लीक से हटकर फ़िल्में बनायीं, जिनका नाम है श्याम बेनेगल और ख़ासकर हम बात करेंगे उनकी बनायी गई चौथी फ़िल्म मंथन की। इसी के साथ भारत में किसानों की ज़िंदगी में आये बड़े बदलाव लिए उस क्रांति की, जिसका नाम है ऑपरेशन फ्लड है जिसे हम ‘श्वेत क्रांति’ या दुग्ध क्रांति के नाम से भी जानते हैं ।
यह न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में सबसे बड़े ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में से एक है। इसने भारतीय डेयरी उद्योग का चेहरा बदल दिया और लाखों ग्रामीण डेयरी किसानों के जीवन में सकारात्मक बदलाव संभव ही सका। मेरी नज़र में गाँधी जिस स्वराज या जन सहभागिता की परिकल्पना कर रहे थें उसका इससे बेहतर सफल उदाहरण दूसरा नहीं है ।
राष्ट्रीय दूध ग्रिड ने पूरे भारत में दूध उत्पादकों को 700 से अधिक कस्बों और शहरों को उपभोक्ताओं से जोड़ा।इस प्रयोग के द्वारा मौसमी और क्षेत्रीय मूल्य भिन्नताओं को कम किया जा सका और उत्पादकों को नियमित रूप व पारदर्शी तरीक़े से, उचित बाजार मूल्य मिल सका।
ज़रूरी था इस पूरे प्रयोग को सिनेमा के परदे पर उतारना और यह भी आगे चलकर एक प्रयोग की तरह साबित हुआ जो आज भी अजूबा और अपने आप में एक जनसाधारण की सहभागिता का अद्भुत उदाहरण है ।
सिनेमा के वितान को समझने के लिए इस कहानी के नेपथ्य कि आवाज़ को सुनना होगा। डॉ वर्गीज कुरियन को भारत में श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है। अगर इस कहानी के नेपथ्य की यात्रा पर चलें, तो पायेंगे कि गुजरात के आणंद में पोल्सन नाम की एक डेयरी कम्पनी चलती थी। इलाके में इकलौती कम्पनी होने की वजह से किसान औने-पौने दाम पर अपना दूध इसे बेचने को मजबूर थे। जबकि पोल्सन, मुंबई में दूध की सप्लाई करके बड़ा मुनाफ़ा कमाती थी। ये कम्पनी ब्रिटिश आर्मी को भी दूध सप्लाई करती थी। इस बात की गूढ़ता को समझ, किसानों के प्रतिनिधि त्रिभुवन दास पटेल, अपनी समस्या लेकर सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास गए, तो उन्होंने एक सहकारी संस्था बनाने का सुझाव दिया। 14 दिसंबर 1946 को खेड़ा डिस्ट्रिक्ट मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन लिमिटेड की शुरुआत हुई। इस सोसाइटी के बनने से बिचौलिए हट गए और किसानों की आमदनी में सुधार हुआ। साल 1950 में त्रिभुवन दास पटेल ने इस सोसाइटी की जिम्मेदारी, देश के लिए कुछ करने को बेचैन, डॉ. वर्गीज कुरियन को सौंपी। उन्हें को-ऑपरेटिव चलाने के लिए एक टेक्निकल मैन की मदद की ज़रूरत थी, जो एचएम दलाया के आने से पूरी हुई। कालांतर में ये तीनों अमूल के आधार स्तंभ साबित हुए। 1955 में जब को-ऑपरेशन का नाम चुनने की बारी आई तो डॉ. कुरियन ने इसका नाम अमूल रखा। ये आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड का छोटा रूप था। चुकी कुरियन ने यह सब झेला था तो कहानी की मौलिकता किसी और के पास कहाँ होती । सच्चे अनुभव के वितान से रची गई इस कहानी का पूरा श्रेय डॉक्टर कुरियन को ही जाता है ।वर्ष 1977 में रिलीज हुई श्याम बेनेगल की यह फ़िल्म ‘मंथन’, भारत के डेयरी आंदोलन की इसी सच्ची कहानी पर आधारित है, जिसने देश को दूध की कमी वाले देश से उबार कर दुनिया का शीर्ष दुग्ध उत्पादक बना दिया। दुग्ध क्रांति के केंद्र में हमारे सच्चे हीरो वर्गीज कुरियन ही थे, जिन्हें “मिल्कमैन ऑफ इंडिया” के नाम से भी जाना जाता है।फ़िल्म की कहानी भी स्वयं उन्होंने ही लिखी। कहा जाता है विजय तेंदुलकर ने इसमें उनकी मदद की थी और स्क्रीन प्ले भी विजय तेंदुलकर ने ही लिखा।
“मंथन” फ़िल्म कुरियन या अमूल की जीवनी के साथ-साथ आर्थिक और जातिगत आधार पर विभाजित देश में, आम सहमति बनाने में शामिल चुनौतियों का एक ईमानदार चित्रण भी है। यह फ़िल्म, विजय तेंदुलकर की पटकथा और कैफ़ी आज़मी के शानदार संवाद द्वारा प्रगतिशील विचारों की अभिव्यक्ति के साथ समाज में व्याप्त कुप्रथाओं पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी भी करती है। साथ ही यह फ़िल्म अमूल की सफलता की कहानी को श्रद्धांजलि देने के अपने संक्षिप्त विवरण से बहुत आगे बढ़ जाती है।
पहले दृश्य में ही लिखा है, पाँच लाख किसान प्रस्तुत करते हैं मंथन।अब गाँधी की परिकल्पना को सिनेमा पर उतारने का इससे सुंदर दृश्य क्या हो सकता है, जिस तरह दुग्ध संस्थान सबके सहयोग से बना और विकसित होकर एक आदर्श उदाहरण बना, ठीक उसी तरह यह फ़िल्म भी सार्वजनिक सहयोग से बनी और सही मायने में मील का पत्थर साबित हुई। असल में 1970 के दशक की शुरुआत में बेनेगल ने दूध की ख़रीद और व्यापक वितरण में अमूल की क्षमता पर दो वृत्तचित्र बनाए थे। हालाँकि, बेनेगल ने कुरियन से कहा था कि “…ये वृत्तचित्र मुख्य रूप से वे लोग देखेंगे, जो पहले से ही इस मुद्दे पर सहमत हो चुके हैं।” कुरियन ने कहा कि फिल्म के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन उनके पास एक बेहतर विचार था, बेनेगल ने कहा – “उन्होंने केंद्रों से कहा कि जब वे सुबह और शाम को संग्रह केंद्र के लिए आएँ, तो उनसे कहें कि वे 2 रुपए न लें और वे सभी एक फिल्म के निर्माता बन सकते हैं।” बेनेगल ने कहा कि मंथन “परिवर्तन के माध्यम के रूप में सिनेमा की शक्ति” के साथ-साथ कुरियन की विरासत की याद दिलाता है। कम ही लोग जानते हैं कि स्मिता पाटिल, गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी अभिनीत यह फिल्म भारत की पहली क्राउड-फंडेड फिल्म थी, जिसकी फंडिंग गुजरात के 5 लाख डेयरी किसानों द्वारा की गई थी। ये किसान गुजरात कॉपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन से जुड़े हुए थे। कुरियन ने सुझाव दिया कि इन संग्रह केंद्रों से प्रति किसान दो रुपये काटे जाएँ, जिसकी एवज में वे सभी किसान फ़िल्म के निर्माता के रूप में जाने जाएँगे। पाँच लाख लोगों के दो रुपये संयुक्त जोड़कर शायद ही विश्व में अबतक कोई इस तरह के उच्चतम कोटि की समानांतर फ़िल्म बनी होगी।
पहले दृश्य में ही भाप का इंजन अपने समय को गुन रहा है। स्वागत में देर से आये लोग कहते हैं, ट्रेन समय पर आ गई इसलिए हमें देर हो गई। मनोहर राव, जानवरों का डॉक्टर, घोड़ागाड़ी में बैठने से मना करता है, सामान का बोझ उससे देखा नहीं जाता। संवेदना और आदर्शवाद का प्रतिनिधित्व करता है नायक यहाँ। गंगानाथ डेयरी माने मिश्रा डेयरी, गाँव वालों के दूध बेचने की जगह। यहाँ मिश्रा सवर्णों के प्रतिनिधि का प्रतीक रखा गया है। ‘आदर्शवादियों की बड़ी ज़रूरत है, क्योंकि वो जल्द ग़ायब हो जाते हैं।’ मिश्रा के रोल में जब अमरीश पूरी ऐसे संवाद बोलते हैं, तब विजय तेंदुलकर का स्क्रीनप्ले और कैफ़ी आज़मी के संवाद लेखन की जोड़ी के जादू का आप लोहा मानेंगे। ‘इलाज में क्या इंसान, क्या जानवर !’ – एक किसान भोलेपन में बोलता है, तब आपको गाँव की सही स्थिति का पता चलता है। ‘सारी मलाई तो आप ही खा रहे हैं, – राव का सीधा सा प्रश्न जब मिश्रा के गले में पड़ता है तब बहुत चालाकी से अमरीश पूरी कहते हैं “यंग मैन, मैंने बनाया है इस क्षेत्र को।”
“सबका हक़ बराबर होगा,फ़ैसला चुनाव से होगा” – जैसे संवाद बोलते समय राव समानता का अर्थ समझाते हुए बदलाव की नींव रखता है। सरपंच की भूमिका में कुलभूषण खरबंदा, राव को समय की पहचान कराते हुए यह पूछते हैं, कि क्या हरिजन होकर भी सदस्य हो सकते हैं? जातिवाद का दंश भी यहाँ देखने को मिलता है।स्मिता पाटिल (बिंदु) पहले दृश्य से ही चौकाती हैं। संवाद का तरीक़ा बिल्कुल गाँव की देशज भाषा, ठेठ!एक से बढ़कर एक कलाकार और किरदार, उससे ऊपर इनकी जुगलबंदी। देशमुख के रोल में मोहन अगाशे, डॉक्टर राव के साथी हैं। प्रैक्टिकल हैं और राव से समय – समय पर जिरह करते दिखते हैं। आपसी संवाद की महत्ता को भी यहाँ इस तरह दर्शाया गया है।
भोला – शहर वालों से चिढ़ने वाला नसीरुद्दीन की आँखें बोलती हैं। उसके भीतर एक भूचाल है, जो हर सीन में ज्वालामुखी फटने सा लगता है। भोला हरिजनों का नेतृत्व कर रहा है। सरपंच यानी कुलभूषण खरबंदा अपने मुनाफ़े का गणित चलाता है। एक त्रिकोण है यहाँ, पावर स्ट्रगल की व्यूह रचना। समस्या सिर्फ़ दूध से जुड़ी नहीं, बल्कि स्वच्छता और रखरखाव से है। प्राइमरी स्वास्थ सेवा की ऐसी विषम व्यवस्था को राव अपनी नज़र से देखता है और जानवर का डॉक्टर होते हुए भी इंसान का इलाज करते हुए गाँव वालों के दिल के क़रीब जाने के रास्ते ईजाद करता है।
गाँव वाले उधार के कुचक्र में फँसे हैं और यह एक चक्रव्यूह सा है, जिसे तोड़ने के लिए एक सिनेमा दिखाया जाता है, जो एक बेहतर संवाद का विकल्प साबित होता है। गुजरात के खेड़ा ज़िले का ज़िक्र है और आणंद के सहकारी संघ का उदाहरण भी।
एक दृश्य में राव की पत्नी कहती है, इन दीवारों ने कहा इन हरिजनों से दूर रहना और उधर स्मिता पाटिल यानी बिंदु का पति सबके सामने राव पर इल्ज़ाम लगाता है। सामाजिक तानाबाना और व्यक्तिगत मन के रिश्ते अपने जाल बुनते दिखते हैं। बिंदु का पति ग़ुस्से में भैंस को ज़हर खिलाता है, तब राव एक नये रास्ते को खोजने की कोशिश में जातिवाद की लड़ाई में उतरता नज़र आता है। राव का यह कहना कि को-ऑपरेटिवकी कोई जात-पात नहीं होती है। समय को बदलते देख, गंगाधर मिश्रा को प्रचार और लॉटरी का सहारा लेते भी दिखाया गया। को-ऑपरेटिव का चुनाव एक तरह से जनता की ताक़त को भी दर्शाता है।
मनोहर और उनकी टीम, जिसमें मोहन अगाशे और अनंत नाग द्वारा निभाए गए किरदार भी शामिल हैं, उच्च जाति के सरपंच (कुलभूषण खरबंदा) और विद्रोही दलित, भोला (नसीरुद्दीन शाह) के बीच संघर्ष में फँस जाते हैं। मनोहर बेचैन ग्रामीणों को एकजुट करने के लिए संघर्ष करता है। वह उग्र किसान, बिंदु (स्मिता पाटिल) के प्रति अपनी भावनाओं से भी उतना ही परेशान है, जो शुरू में उससे नाराज होती है। सहकारी समितियों के लाभों पर ट्यूटोरियल के बीच, बिंदु और मनोहर के बीच यौन तनाव के भी दृश्य हैं, जबकि दोनों विवाहित हैं। अनंत नाग का भी आकर्षण गाँव की महिला के साथ होता है और इसे जानते हुए राव उसे नौकरी से निकाल देता है। कुरियन कहानी में राव को कोई ऐसा हीरो नहीं दिखाना चाहते जो आदर्श है बल्कि कई दृश्यों में वह एक परेशान, कमजोर और असहाय भी दिखता है । कहानी की ईमानदारी यही है कि समाज और समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की कश्मकश को फ़िल्म में बहुत भावपूर्ण तरीक़े से रखा गया है। बिंदु को जब को-ऑपरेटिव से समय पर मदद नहीं मिलती, तो वह गंगाधर के पास जाती है और अंगूठा लगा आती है बिना पढ़े, जिसमें राव पर बलात्कार का आरोप लिखा है। शांता जी राव की पत्नी है, वह प्रतीक है ईमानदारी के घर में कैसे आग लगती है। इसी बीच शक्ति संरचना का प्रतीक गंगाधर और सरपंच हैं, जिन्हें हर तरह के हथकंडे अपनाते देखा गया है।
भँवर के बीच भी डॉक्टर राव का यूँ शांत रहना और मनोदशा के साथ समय की आवाज़ बन कर रेडियो प्रसारण परिस्थिति की स्थिति बताना एक मौलिक सफल प्रयोग है। अचानक आया तबादला, समय की षड्यंत्रकारी कटार बनकर गिरता है और बदलाव का मशाल भोला की आँखों में दिया बनकर जलता है।
फिल्म डॉ. कुरियन और श्याम बेनेगल के विचारों से प्रेरित थी – संभवतः उनका उद्देश्य संघर्ष और आत्मनिर्भरता को थीम के रूप में दिखाना था ताकि कई अन्य लोग भी ऐसा करने के लिए प्रेरित हों; इसलिए मुख्य नायक डॉ. राव का कोई अनावश्यक महिमामंडन नहीं किया गया है, जो एक तरह से कार्रवाई के दृश्य से अंतिम वापसी की कोशिश करता है।
मेरो गाम काठा पारे
जहाँ दूध की नदियाँ बाहे
जहाँ कोयल कू कू गाये
म्हारे घर अंगना न भूलो ना…
इस गाने ने फिल्म के मूड को बखूबी दर्शाया और वास्तव में प्रीति सागर, जो फिल्म जूली में ‘माई हार्ट इज बीटिंग…’ के लिए मशहूर हैं, को फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिलवाया। फ़िल्म जागरूकता भरे संदेश लाती है। यह फिल्म का एकमात्र गाना है, जिसे वनराज भाटिया ने संगीतबद्ध किया था और बाद में इसे अमूल द्वारा टेलीविजन विज्ञापनों में इस्तेमाल किया गया। ‘मंथन’ क्राउडसोर्सिंग का अपने समय से बहुत आगे का एक प्रारंभिक उदाहरण साबित हुआ, जिसमें किसान उत्पादन लागत का भुगतान करते हैं।
समाज को बस एक राव और एक जागरूक भोला की ज़रूरत है, बदलाव को कोई रोक नहीं सकता। अत्यधिक प्रशंसित यह 1976 के अकादमी पुरस्कारों में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि थी। आज अपने निर्माण के लगभग 50 साल बाद, लीक से हटकर बनी इस फ़िल्म ‘मंथन’ का हाल में आयोजित कान्स फिल्म महोत्सव में जीन-ल्यूक गोडार्ड, अकीरा कुरोसावा और विम वेंडर्स के क्लासिक्स के साथ रेड-कार्पेट वर्ल्ड प्रीमियर किया गया। हालाँकि, पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के अनुसार, फिल्म को नए रूप में बहाल करना एक चुनौती थी।
आज भारत दूध उत्पादन में विश्व में पहले स्थान पर है।
क्रांति की मशाल यूँ ही समानांतर, समानांतर सिनेमा में जलती रहे ! आमीन!
आज श्याम बेनेगल की यादों के साथ याद आ गई उनकी यह फ़िल्म ।
सिनेमाहौल से साभार