आज सोनाली सिंह की कहानी. सोनाली सिंह युवा पीढ़ी के उन लेखकों में हैं जिन्होंने हिंदी कहानी को समकालीन सन्दर्भों से जोड़ा है, उसकी जमीन का विस्तार किया है. उन लेखिकाओं में हैं जिन्होंने स्त्री-विमर्श की लकीर नहीं पीटी है. यही कहानी देखिये- जानकी पुल.
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भूकम्प ने उड़ी को एक बार फिरअंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों मेंला दिया. कुछ महीने पहले श्रीनगर–मुज़फ़फ़राबाद सड़क खुलने से यहस्थान चर्चित हुआ था.
आँखें मलते सूरज ने जम्हाई ली, फिर प्रखर होता हुआआसमान के बीचोंबीच टंगगया, मानों फटी आँखों सेतबाही का मंज़र देख रहाहो. हर तरफ़ गहरी ख़ामोशी थी. फ़ाख़्ताएँ राग अलापना, मुर्गियाँ दाना चुगना और कौवे मुंडेरों पर बैठकर बिछुड़े हुओं केसंदेश देना भूल गए थे. गलियों के आर–पार कीकच्ची–पक्की दीवारें एकदूसरे के गले लगकर मातम करना चाह रही थीं. उदासी की धूल झाड़कर असलम मीर डाकघर जाने कोतैयार थे. पुरानी ऊनी सदरी को पहनते ही रुईके छोटे–छोटे फोहे सदरी केफटे कोने से झर पड़े, ‘लगता है इसका वक़्त भीपूरा हो गया!’ ठंडी आहभरकर वह चल पड़े, जहाँ ब्रिटिश ज़माने का डाकघर भूकम्प से पड़ी दरारों के साथमुसकराता हुआ उनकी राह देखरहा था.
असलम मीर ने चिट्ठियाँ छांटनी शुरू कर दीं. एकाएक उनका ध्यान आलमी शोहरत–याफ़्ता जिन्नाह की तस्वीर वाले लिफ़ाफ़ों की ओरगया. वे सारे ख़त लाइन ऑफ कन्ट्रोल पारकरके आए थे, जो वहां से महज़ पन्द्रह मिनट की दूरी पर थी. सियासत के नुमाइन्दों कीवजह से बेजुबान जवानों को दिल्ली तकका सफ़र तय करना पड़ता था. उपमहाद्वीप के अबतक के सबसे ज़ोरदार ज़लज़ले से उपजे दर्द नेनियंत्रण रेखा के दोनों ओरके बाशिंदों को एककर दिया था जिसकी गवाही डाकघर में लगा चिट्ठियों का अम्बार देरहा था.
अपना ख़ाकी झोला अच्छी औरबुरी ख़बरों से भरकर असलम मीर मंतव्य कीओर निकल पड़े. पैर उठने का नाम नहीं लेरहे थे, लेकिन जाना तो था. उड़ी के लोगों के लिएवह उम्मीद की एकमात्र किरण थे जो उनकी बुझी हुई ज़िन्दगियों मेंचन्द घड़ियों के लिएजीवन की ज्योत जला देते थे.
मुख्य पोस्ट–ऑफ़िस से उड़ी तकदस किलोमीटर का सफ़र था. वह आदतन बस स्टॉप पर खड़े हो गए. बसआई, कंडक्टर की सीटी की आवाज़ गूंजी, वहाँ खड़े इक्का–दुक्का लोगों कोनिगलकर बस ज़ोर से डकार भरती हुई चली गयी.
वह जस के तस खड़े रह गए. दिलोदिमाग़ मेंखींचतान जारी थी. दिल वातलगे घुटनों के बाबत सोचता. दिमाग़ महीने भरकी ढाई हज़ार रुपए तनख़्वाह की पाई–पाई काहिसाब रखता और चेताता किबस का ख़र्चा वहनकरना उनके बूते के बाहर है.
वह थके क़दमों सेपरिचित सफ़र को निकल पड़े. सूरज की झुलसाती गर्मी, पथरीले इलाक़े की ऊँची–नीची पगडंडियों पर छहघंटे का ऊबाऊ सफ़र… पिछले चौंतीस बरस सेसोचते आ रहे थे किनौकरी छोड़ दें. इससे बेहतर है कि शहर जाकर मज़दूरी कर लें, लेकिन गांव पहुँचते हीलोगों के चेहरे की चमक, मासूम बातें, आदर और अपनापन रास्ते की सारी थकान भुला देता था. गिले–शिकवे भूलकर वह गांव वालों कीदुनिया में मस्त हो जाते थे. किसी के भाई–बेटे कीनौकरी लगने की ख़बर आईतो दावत हो गई. वहाँ उनका रुतबा लाट साहब सेकम न था जैसे किउनके पिताजी ने कल्पना की थी.
असलम मीर बीस बरस केथे जब पोस्टमैनी मिली. पिताजी की ग़रीबी केकारण मैट्रिक से आगेन पढ़ सके. पिताजी दर्जा दो पास थे. वह उन्हें लाट साहब से कमतर न आंकते थे. वही उम्मीदें असलम मीर को अपने बेटे अफ़ज़ल सेथीं.
उनका दस साल का होनहार बेटा अफ़ज़ल… घाटियों में रहने वालों केलिए मौत अनजानी नहीं होती. नियंत्रण रेखा पारसे पाकिस्तानी तोपख़ाना जबतब गोलियाँ बरसाता रहता था, पर शनिवार कीसुबह मौत जिस रूप मेंआई, कोई उसके लिए तैयार नहीं था. उस मनहूस सुबह रमज़ान कीसहरी लेकर वह मस्जिद सेलौट रहे थे, कुछ चरमराने की आवाज आई. कुछ सेकंड में धमाके होने लगे. पहाड़ अपनी <
10 Comments
एक छोटी-सी घटना में जीवन का बड़ा अनुभव… कहानी दरअसल एक आँख ही तो है… जहाँ तक जिंदगी का सवाल है, वह तो उलट-पलट कर हमेशा एक ही तरह से बनती है. चाहे सारी दुनिया घुमा दीजिये, अगर आँख वर्त्तमान की नहीं है तो भटकते रहिये न्यूजीलैंड से लन्दन तक… वह नौस्टेल्जिया ही ला पायेगी. (सन्दर्भ: कहानी 'मतिल्दा की एक शाम'.) नौस्टेल्जिया हमें अतीत के जिस छोर पर ले जाता है, वहां तब भी भावुकता और अयथार्थ था आज भी है. एक भरी-पूरी बस्ती का फौजी के शव की वर्दी की तरह 'पिनकोड' में बदल जाना… दहशत को एक अनुभव के रूप प्राप्त करना… यही इस कहानी को विराट बनता है. यह कहानी हिंदी कहानी की संवेदना का कलात्मक विस्तार है. एक सम्पूर्ण कहानी. बधाई.
बेहद बारीकी से गढ़ी गई एक दमदार कहानी…
भूमिका में कही गई बात कि "सोनाली सिंह युवा पीढ़ी के उन लेखकों में हैं जिन्होंने हिंदी कहानी को समकालीन सन्दर्भों से जोड़ा है, उसकी जमीन का विस्तार किया है. उन लेखिकाओं में हैं जिन्होंने स्त्री-विमर्श की लकीर नहीं पीटी है", से सहमत हूँ…
फिलहाल सोनालीजी को बधाई…
नये कथाकारों में उन लोगों के प्रति सहज रूप से उत्सुकता बढ़ जाती है जो अपने निजी अनुभवों के साथ उन लोगों और ऐसी समस्याओं में गहरी दिलचस्पी लेते हैं, जो प्रकारान्तर से हमारे समय के गहरे सवालों और मसलों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं। सीमान्तों पर कठिन अवस्थाओं में जीने वाले लोगों की परेशानियां हमारी रचनात्मक अभिव्यक्ति का हिस्सा बन सकें, और जो युवा रचनाकार ये जोखिम उठा सकें, उनका काम वाकई काबिले तारीफ है – सोनाली की यह कहानी कुछ ऐसा ही संजीदा प्रयत्न नजर आती है। बेहद सधी हुई भाषा में एक कुदरती हादसे के बीच से गुजरे इन्सान के जज्बात और उस परिवेश के यथार्थ को यह कहानी इतनी जीवन्तता से व्यक्त कर गई है कि पढकर आश्चर्यचकित हूं। इस खूबसूरत कहानी के लिए के लिए सोनाली वाकई बधाई की हकदार है।
Very touching.Beautifully expresses man's helplessness n struggle in the wake of a natural tragedy.
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