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    रामजी तिवारी की नई कविताएं

    By December 27, 20149 Comments3 Mins Read
    साल के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मैं कुछ नहीं कर रहा. कविताएं पढ़ रहा हूँ. जो अच्छी लगती हैं आपसे साझा करता हूँ. आज रामजी तिवारी की कविताएं. उनकी कविताओं से हम सब परिचित रहे हैं. देखिये इस प्रतिबद्ध कवि की नई कविताएं कैसी बन पड़ी हैं- प्रभात रंजन 
    ====================================================

    एक ……
    मुकाबला
                    
          
    चींटी भी कर देती है
    अपनी जमीन पर
    हाथी की धुलाई,
    जंगल का राजा
    दरिया में घड़ियाल के सामने
    दरिया-दिली दिखाने में ही
    समझता है अपनी भलाई |
    क्रिकेट का भगवान
    शतरंज की विसात पर
    दस कदम में है बिखर जाता,
    तरणताल में उतरने पर
    मैराथन धावक का भी
    पानी है उतर जाता |
    जिनकी उँगलियों में होते हैं
    चित्रों के जादू
    वे किसी बाक्सिंग रिंग में
    उसे नही आजमाते,
    जिनके कंठ से
    फूटती है स्वर-लहरियां
    वे उसे गाली बकने में
    नहीं गँवाते |
    फिर क्यों मुब्तिला हैं सारे लोग
    किसी माफिया बिल्डर या ठेकेदार से
    रहते हैं सुबहो-शाम
    उससे मुकाबले के लिए तैयार से |
    अपनी जमीन से अलग
    क्या वे जीत पायेंगे
    अपने जिले का ताज भी,
    यहाँ तक कि वार्ड या गाँव में
    कोई खिताब भी |
    हां ….! चलता रहे जीवन
    उतने धन की तो
    सबको होती है दरकार,
    मगर तब तो चुननी ही चाहिए
    अपनी जमीन
    जब मुकाबले के लिए हों हम तैयार |
    कि जिसमें हम कुछ ख़ास हैं
    कि जिसमें हमें विश्वास है |
    अब ख़ुदा के लिए
    मत बोलिएगा
    संतों वाली भाषा,
    कि मैं तो
    किसी मुकाबले में ही नहीं हूँ
    या कि जीवन तो है
    बस एक तमाशा | 
         दो …..
    मोल-भाव
                     
    कहाँ है बचकर निकलना
    कहाँ करना है मोलभाव,
    जीवन की विसात पर
    सोच समझकर धरना है पाँव |
    कितना बचेगा
    रिक्शेवाले की पीठ पर
    उभरी नसों को थोड़ा कम आँककर,
    ठेले वाले के पसीने में
    अपने उभरे अक्स को
    थोड़ा कम झांककर |
    कितना बचेगा
    पांच लौकी और दस किलो तरोई लेकर
    सड़क के किनारे बैठने वाले से भाव तुड़ाकर ,
    छाया के लिए दिन में तीन बार
    जगह बदलने वाले मोची से
    पालिश में दो-चार रूपया छुड़ाकर |
    कितना बचेगा
    प्रेस करने वाले से
    पचास पैसा प्रति कपड़ा कम कराकर,
    और चौका-बर्तन करने वाली की पगार से
    पचास रूपया महीना कम कराकर |
    उन सबसे
    जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,
    और उसी में
    अपने परिवार की गाड़ी चलाते हैं |
    नहीं-नहीं
    मैं अफरात के नहीं लुटाता हूँ,
    वरन मैं तो
    बचाने का हर नुश्खा जुटाता हूँ |
    मसलन धनतेरस में
    यदि मैं तनिष्क वाले से बच गया,
    पिज्जा और मैकडोनाल्ड की जगह
    सप्ताहांत घर में ही जँच गया |
    मैं यदि बच गया नवरात्र में
    पुजारियों के जाल से,
    बारह महीने में
    चौबीस भखौतियों के भौंजाल से |
    शहर के हर कार्नर वाले प्लाट पर
    लार टपकाने से,
    और एक दूसरे को कुचलकर
    बेतरह भाग रहे जमाने से |
    तो खुला रख सकता हूँ

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