हाल के दिनों में आभासी दुनिया में सबसे लम्बी बहस जो चली वह कवि कमलेश के उस बातचीत को लेकर चली जो ‘समास’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उसी बातचीत के आधार पर उनको साहित्य में दाखिल-ख़ारिज किया जाता रहा, लेकिन उनकी कविताओं को लेकर कोई बहस नहीं हुई. मुझे लगता है कि आभासी दुनिया की बहसें व्यक्ति-केन्द्रित अधिक होती गई हैं, वे बहसें रचनाओं के आधार पर नहीं होती. यह दुर्भाग्य की बात है कि उदयप्रकाश का मूल्यांकन हम उनकी कहानियों के आधार पर नहीं करते उन्होंने किसके हाथ से पुरस्कार ले लिए इसके आधार पर करने लगते हैं. बहरहाल, आभासी दुनिया के पाठकों के लिए पहली बार कमलेश की कविताएं. आशा है हम इनको पढेंगे और इनके आधार पर भी हम उनका मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे- जानकी पुल.
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जानती हैं औरतें
एक दिन सारा जाना-पहचाना
बर्फ़-सा थिर होगा
याद में।
बर्फ़-सी थिर होगी
रहस्य घिरी आकृति
आंखें भर आएंगी
अवसाद में।
आएंगे, मंडराते प्रेत सब
मांगेंगे
अस्थि, रक्त, मांस
सब दान में।
जानती हैं औरतें
बारी यह आयु की
अपनी।
नैहर आये
घूंघट में लिपटे तुम्हारे रोगी चेहरे के पास
लालटेन का शीशा धुअंठता जाता है
सांझ बहुत तेज़ी से बीतती है गांव में।
भाई से पूछती हो — भोजन परसूं?
वह हाथ-पांव धोकर बैठ जाता है पीढ़े पर
—छिपकली की परछाईं पड़ती है फूल के थाल में।
आंगन में खाट पर लेटे-लेटे
बरसों पुराने सपने फिर-फिर देखती हो
—यह भी झूठ!
महीनों हो गये नैहर आये।
चूहे धान की बालें खींच ले गये हैं भीत पर
बिल्ली रात भर खपरैल पर टहलती रहती है
मां कुछ पूछती है, फिर रूआंसी हो जाया करती है।
जा मेरी बेटी, जा
फ्रेडेरिको खार्सिया लोर्का के प्रति
भोर के तारे ने
न्यौता सारा जवार
मेरे
ब्याह दिन।
बिजली गिरी, तड़ाक
नीम के पेड़ पर,
मेरे ब्याह दिन।
टपकता रहा टप-टप
लहू
मेरी चूनर पर।
सूरज की बेटी की
आंखों में आंसू
ब्याह दिन।
खेतों में उपले
बीने
तीन बरस,
ढोया खर-पात
सिर पर
तीन बरस,
वह देखने, पिता ने, भेजे
कोसों तक
पण्डित, हज्जाम।
तारों ने तैयार किया
सारा ज्यौनार
ब्याह दिन;
टपकता रहा लहू
नीम के पेड़ से;
दाग़ ही दाग़
मेरी चूनर पर।
मां, मेरी, बता!
क्या करूं?
कहां धोऊं चूनर;
कैसे छुटाऊं दाग़;
कैसे सुखाऊं चूनर।
जा, मेरी बेटी जा
राजा के बाग़ में,
फूल ही फूल खिले
सूरज की छांव में,
वहीं पर नदी में
धोना अपना चूनर,
लहू बह जाएगा
नदी की धार में,
चूनर सूख जाएगी
सूरज की छांव में,
सूरज की बेटी जा
राजा के बाग़ में।
पोटली भरम की
अच्छा हो आदमी जान ले हालत अपने वतन की।
उजले पाख के आकाश से जगमग शहर में
आधी रात भटकते उसे पता लग जाए
कोई नहीं आश्रय लौटे जहां रात के लिए
उनींदा, पड़ जाए जहां फटी एक चादर ओढ़े।
अच्छा हो आदमी देख ले सड़कों पर बुझती रोशनी।
ईंट-गारा-बांस ढोते सूचना मिल जाए उसे
बांबी बना चुके हैं दीमक झोपड़े की नींव में
काठ के खम्भे सह नहीं सकेंगे बरसाती झोंके
बितानी पड़ेंगी रातें आसमान के नीचे।
अच्छा हो दुनिया नाप ले सीमाएं अन्तःकरण की।
देखते, बांचते अमिट लकीरें विधि के विधान की
अपने सगों को कुसमय पहुंचा कर नदी के घाट पर
टूट चुके हैं रिश्ते सब, पता लग जाए उसे
नसों में उभर रही दर्द की सारी गांठें।
अच्छा हो आदमी बिखेर दे पोटली अपने भरम की।
17 Comments
हिंदी के कई कवि परिदृश्य से बाहर हैं.उनके ब्यतिगत जीवन की खूब चर्चा होती है .उनके जीवन के रह्स्य
खंगाले जाते है .उनका अवदान क्या है इस पर बात नही होती..शायद यह हमारी प्रथमिकता नही है .
अब कमलेश जी पर तूफान थम गया है.उनकी अच्छी कविताए पढ्ने को मिल रही है .हिंदी कविता में
उनका मुहावरा अलग है.उनके मूल्याकन की जरूरत है .हमे भी अब पटरी पर आ जाना चाहिये.फेस्बुक
का उपयोग बेहतरी से हो यह हमारी चह होनी चाहिये.आप को बहुत धन्यवाद
हिंदी के कई कवि परिदृश्य से बाहर हैं.उनके ब्यतिगत जीवन की खूब चर्चा होती है .उनके जीवन के रह्स्य
खंगाले जाते है .उनका अवदान क्या है इस पर बात नही होती..शायद यह हमारी प्रथमिकता नही है .
अब कमलेश जी पर तूफान थम गया है.उनकी अच्छी कविताए पढ्ने को मिल रही है .हिंदी कविता में
उनका मुहावरा अलग है.उनके मूल्याकन की जरूरत है .हमे भी अब पटरी पर आ जाना चाहिये.फेस्बुक
का उपयोग बेहतरी से हो यह हमारी चह होनी चाहिये.आप को बहुत धन्यवाद
इसमें कविता शब्दों में नहीं, शब्दों के बीच है। Unloud और अनाम। मेरी तरह।
कुछ दिनों पहले से किसी जासूसी उपन्यास के चरित्र की तरह कमलेश जी कवि के रूप में सुनाई पड रहे थे। बहुत इच्छा थी कि उनकी कविताए पढने को मिले। प्रभात जी आपने पढाया , मन साफ़ हो गया -इसके लिए धन्यवाद।
मगर एक सवाल कमलेश जी और उनके प्रशंशको से भी
इसमे कविता कहां है?
हिन्दी के सभी बोहेमियन कवि समाप्त हो गए हैं,अचानक कमलेश को जिंदा करने का मकसद समझ से परे है और उनकी जिन कविताओं को पेश किया गया है वे सामयिक जीवन से कोसों दूर हैं। यह ऐसे कवि की कविताएं हैं जिसने स्वयं भी कविता लिखना लंबे समय से बंद कर दिया है। कविता में जिस तरह का नजरिया व्यक्त हुआ है उस पर विष्णु खरे कुछ लिखते तो बहस हो भी सकती है। हिन्दी में बोहेमियन लेखक को पुनस्थापित करना एब्सर्ड प्रयास है,खासकर तब जबकि देश में भी बोहेमियन संस्कृति पिट चुकीहै।
इन कविताओं में तो कहीं विदेश नहीं है, देश ही देश विद्यमान है. कौन था जो कमलेश को नेरूदा से प्रभावित बता रहा रहा था? बधाई आपको अंततया एक कवि को हमारे समक्ष कवि के रूप में पेश किया है, ये कविताएँ गहन कविताएँ हैं. और हाँ इनमें सी. आई. ए. तो कहीं नहीं दिखता?
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