आज दुष्यंत की कुछ गज़लें-कुछ शेर. जीना, खोना-पाना- उनके शेरों में इनके बिम्ब अक्सर आते हैं. शायद दुष्यंत कुमार की तरह वे भी मानते हैं- ‘मैं जिसे ओढता-बिछाता हूँ/ वो गज़ल आपको सुनाता हूँ.
1
”मेरे खयालो! जहां भी जाओ।
मुझे न भूलो, जहां भी जाओ।
थके पिता का उदास चेहरा,
खयाल में हो, जहां भी जाओ।
घरों की बातें किसे कहोगे,
दिलों में रखो, जहां भी जाओ।
कहीं परिंदे गगन में ठहरे!
मकां न भूलो, जहां भी जाओ। ”
2
‘बडे शहरों अक्सर ख्वाब छोटे टूट जाते हैं
बडे ख्वाबों की खातिर शहर छोटे छूट जाते हैं
सलीका प्यार करने का जरा सा भी नहीं आता
हवाओं को मनाता हूं परिंदे रूठ जाते हैं
बहुत मजबूत लगते हैं ये रिश्ते हमें अक्सर
जरा सी भूल से लेकिन भरोसे टूट जाते हैं”
3
”सहरा में भी फूल खिले हैं मानो बरसों बाद मिले हैं
इतना भीगा हूं मैं तेरी यादों की इस बारिश में
लौट के आए ना जाने वाले बीत गई हैं उम्र मेरी
अपने पागल दिल को इतना समझाने की कोशिश में
उसके मन की करता जाउं अपने मन की बतलाकर
इतना सी फर्क रहा है मेरी उसकी ख्वाहिश में ”
18 Comments
sabhi dosto ka dili shukriya..
amitesh ji aur bhai Gautam Rajrishi ji ko bahut shukriya, is tankeedee nigaah ke liye..koshish karunga..
apki muhabbaten milti rahen..
अनमोल…
दुष्यंत कुमार को सलाम…
'दुष्यंत कुमार?
बहुत मजबूत लगते हैं ये रिश्ते हमें अक्सर
जरा सी भूल से लेकिन भरोसे टूट जाते हैं''
Kya baat hai…waah.
इस नए दुष्यंत के तेवर प्रभावित करते हैं| आज की ग़ज़ल का एक बिलकुल फ्रेश अंदाज़ है दुष्यंत का| उनकी दो-एक कहानियों ने भी हाल में प्रभावित किया है| किन्तु ऊपर अमितेश जी की टिप्पणी गौर-तलब है| दरअसल ये हम सब रचनाकारों की दुर्बलता है कि हम अपनी कमजोर रचनाओं से भी मोह छोड़ नहीं पाते| पहली दोनों ग़ज़लों के शेर जहाँ दुष्यंत की लेखनी का कायल करवाते हैं, वही तीसरी वाली निराश भी|
@ब्रीजमोहन जी, आप थोड़ा सा उलझ गए हैं नाम की समानता को लेकर| ये दूसरे वाले दुष्यंत हैं, हमारी दुआ है कि अपने नाम को उसी ऊंचाइयों पर ले जाएँगे ये वाले दुष्यंत भी…आमीन!
इन दो पुस्तकों के अलावा आपकी और भी पुस्तकें प्रकाशित हुई है। मेरे पास केवल एक ही किताव थी दुष्यंत जी की साये में धूप उसमें यह गजल थीं या नहीं बिल्कुल घ्यान नहीं आरहा है
सबसे अच्छी बात यह है कि दुष्यंत बिलकुल देसी मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं.
थके पिता का उदास चेहरा,
खयाल में हो, …aur
लौट के आए ना जाने वाले बीत गई हैं उम्र…
behad umda lines. sundar bhav. badhai
उपर की दो गज़ले जहां प्रभावित करती है वहीं तीसरी जो पता नहीं क्या है? कवि की दो गज़लों से बनी छवि को ब्लर करने लगती है…
सचमुच दुष्यंत का जवाब नहीं। उनके तेवर, उनकी कल्पनाएं, उनका शब्द चयन सभी कुछ लाजवाब है।
———
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
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