कुंवर नारायण के किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है. ८० पार की उम्र हो गई है लेकिन साहित्य-साधना उनके लिए आज भी पहली प्राथमिकता है. भारत में साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे जा चुके इस लेखक से शशिकांत ने बातचीत की. प्रस्तुत है आपके लिए- जानकी पुल.
रचना जीवन मूल्यों से जुड़कर अभिव्यक्ति पाती है। लेखक का हदय बड़ा होना चाहिए, अन्यथा आपका लेखन बनावटी-सा लगता है। जिस दौर में मैंने पढऩा-लिखना शुरू किया, हमारे बीच ऐसे कई लेखक थे, जिनकी रचनाओं में और उनके व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकार और जीवन-दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। उस समय भी और आज भी जब-जब मैं लिखने बैठता हूं तो मुझे उन लेखकों की याद आती है।
हमारी नई पीढ़ी के लेखकों को उनकी भाषा, उनके साहित्य और उनकी जीवन दृष्टि से प्रेरणा लेनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर मशहूर चित्रकार वानगॉग को ही देखा जाए। उनकी जिंदगी में एक समय इतनी गरीबी आ गई थी कि उनके पास कैनवास खरीदने के पैसे तक नहीं होते थे। लेकिन फिर भी कला के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर कोई आंच नहीं आई। वे दवाई के डिब्बे पर चारकोल से पेंटिंग करते थे। क्योंकि कलर खरीदने के पैसे भी उनके पास नहीं होते थे। और आज उनकी वे पेंटिंग बहुत महंगे बिक रहे हैं।
दरअसल सच्चे लेखक और कलाकार में खुद को अभिव्यक्त करने की हुड़क होती है। एक बड़े कवि-लेखक में इस तरह का सामाजिक सरोकार होना ही चाहिए। निराला और उनके समकालीन कई बड़े कवियों पर यह लागू होती है। मेरी नजर में आज भी ऐसे बहुत से लेखक हैं और ऐसा लेखन हो रहा है जिसमें सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। लेकिन यह भी सच है कि कुछ ऐसे भी लेखक हैं जिनके लेखन में समाजिक सरोकार बनावटी सा लगता है।
आपको समझना चाहिए कि आज हमारी जिंदगी काफी जटिल हो गई है। कई तरह की समस्याएं हमारे सामने हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि यदि समस्याएं और चुनौतियां बढ़ी हैं तो उनका सामना करने का हमारा सामर्थ्य भी बढ़ा है। हर जमाने में समस्याएं रहती हैं और हर पीढ़ी को उनका सामना करना पड़ता है। लेकिन आज हम एक ऐसे कठिन समय में जी रहे हैं जिसमें मुश्किलें काफी बढ़ गई हैं। वे कौन कौन सी मुश्किलें हैं? उन मुश्किलों से कैसे निपटा जाए, हमारे समय के लेखकों को इसका उपचार खोजना होगा।
हमारे समय के लेखक पूरी शक्ति के साथ इसके इलाज के बारे में नहीं सोच पा रहे हैं। यह सच हो सकता है। लेकिन हमारे बीच के कुछ लेखकों का ध्यान इन समस्याओं पर जा रहा है। हमें इसका संतोष भी होना चाहिए। दरअसल जब से पंजाब का विभाजन हुआ है, उसके बाद कम से कम यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा साहित्य अपने समय और समाज की समस्याओं के प्रति निरपेक्ष रहा है। साहित्यकारों की दृष्टि अपने आसपास की समस्याओं पर रहती है। यह छूटनेवाली नहीं है, खासकर तब जब हम एक ऐसे कठिन और अत्याचारी समय में रह रहे हैं।
जहां तक लेखक और सत्ता के बीच संबंध का प्रश्न है, साहित्य के साथ लेखक का संबंध जटिल रहा है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि सत्ता के साथ रहते हुए भी लेखकों ने अच्छे साहित्य की रचना की है। लेकिन ज्यादातर लेखकों ने सत्ता से बाहर रहकर अच्छा लिखा है और खतरे भी उठाए हैं। फिरदौसी ने महमूद के वक्त महमूद को खुश करने के लिए ‘शाहनामा’ लिखा। महमूद गजनवी ने फिरदौसी को यह वचन दिया था कि वह हर शब्द के लिए एक दीनार देगा। वर्षों की मेहनत के बाद जब फिरदौसी ‘शाहनामा’ लेकर महमूद गजनवी के पास गया तो महमूद को वह किताब पसंद नहीं आई। उसने उसे प्रत्येक शब्द के लिए एक दीनार नहीं बल्कि एक दिरहम का भुगतान करने का आदेश दिया। फिरदौसी खाली हाथ अपने घर लौट गया। यह वादाखिलाफी थी जैसे किसी कवि के प्रति शब्द एक रुपये देने का वचन देकर प्रति शब्द एक पैसा दिया जाए। उसके बाद फिरदौसी ने महमूद के खिलाफ लिखने लगा। उसके बाद महमूद को उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि फिरदौसी को उसी दर पर भुगतान किया जाए जो तय की गयी थी। महमूद ने आदेश दे दिया। दीनारों से भरी गाड़ी जब फिरदौसी के घर पहुंची तो उसकी लाश निकल रही थी। पूरी उम्र गरीबी, बेबसी और फटेहाली में काटने के बाद फिरदौसी मर चुका था।
जो लेखक सत्ता के साथ रहते हैं उन्हें देखना चाहिए कि सत्ता जनता के प्रति प्रतिबद्ध है या नहीं, क्योंकि एक लेखक के लिए आम जनता का हित सर्वोपरि है। लेखक को जनता का प्रतिनिधि होना चाहिए। राज्यसत्ता तभी तक जब तक वह जनता के पक्ष में है। अगर राजसत्ता जनता से जुड़े अपने सरोकारों से पीछे हट जाती है तो लेखक को भी सत्ता से नाता तोड़ लेना चाहिए। एक सच्चे लेखक के लिए सबसे पहली और जरूरी चीज है- आजादी। वह अपने पक्ष बदल सकता है क्योंकि वह समाज और जनता का चौकीदार है।
इस बात में कुछ सच्चाई है कि आज कुछ लेखक सत्ता और बाजार का समर्थन कर रहे हैं। मैं साहित्य और कला के उत्सवों के आयोजन के खिलाफ नहीं हूं लेकिन ऐसे मौकों पर हमारा ध्यान साहित्य और कला से जुड़े विषयों और मुद्दों पर केंद्रित रहना चाहिए। ऐसे उत्सव यदि लेखकों और पाठकों का ध्यान खींचते हैं और उन्हें एक दूसरे के साथ संवाद करने के मौके देते हैं तो ऐसे साहित्यिक उत्सव जरूर आयोजित होने चाहिए। मैं साहित्य उत्सवों को एक अवसर के रूप में देखता हूं।
इस संदर्भ में एक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। अशोक वाजपेयी ने जब भोपाल में भारत भवन बनाया तब वे देश और दुनिया भर के लेखकों, कलाकारों को वहां आमंत्रित करते थे। हमलोग वहां एक साथ बैठते थे और साहित्य एवं कला के मुद्दे पर गंभीर बातचीत करते थे। जहां तक नई पीढ़ी के लेखकों का सवाल है, मैं उनसे बार-बार कहता हूं कि श्रेष्ठ लेखन के लिए अध्ययन अत्यंत जरूरी है। जीवन का अनुभव हर किसी के पास होता है, लेकिन अध्ययन से आपके जीवनानुभव में प्रखरता आ जाती है। पढ़ते हुए आप दूसरे के जीवनानुभवों और विचारों से गहरे रूप से जुड़ते हैं, आत्म-मंथन करते हैं और खुद को, समय को और समाज की समस्याओं को बेहतर ढंग से अभिव्यक्ति कर पाते हैं। दरअसल, अध्ययन का एक संश्लिष्ट रूप है लेखन का। अपने जीवन में मुझे हमेशा पढऩे में दिलचस्पी रही है। इसलिए पढऩे-लिखने को मैं एक संयुक्त कर्म मानता हूं।
16 Comments
बहुत अच्छी और सार्थक बातचीत..
आभार जानकी पुल ..
मूल्यवान बाते बतायीं कुँवर जी ने !आभार 'जानकी पुल' !
कुंवर नारायण हमारे समय में प्रामाणिक चिंतन और लेखन की महत्वपूर्ण मिसाल हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार में उन्होंने सरलता के साथ 'प्रामाणिकता' का अर्थ ही खोला है। अपनी संवेदनाओं के प्रति आध्यात्मिक होशपूर्णता बनाए रखना जिससे प्रदूषणों से बचा रहा जा सके, निजी अपनी सामाजिक चेतना और जटिलताओं की बाढ़ में अपनी सामाजिक चेतना की सही पोजिशनिंग का होश, गहरे और भरपूर अध्ययन की वकालत यानि परंपराओं से जुड़ने का बोध और कौशल, स्वयं की अभिव्यक्ति की विशिष्टता और तड़प को समझना, बनाए रखना और शेप देना, सत्ता और बाजार के प्रति न तो 'समर्थन के लिए समर्थन' और न ही 'विरोध के लिए विरोध' रखना बल्कि स्वतंत्र भाव- बोध और केस-टू-केस समझ रखना- ये सब कुछ कुंवर नारायण की कविताओं और विचारों में बिखरी जीवन दृष्टि है। छोटे से इंटरव्यू में यह सब छलक कर सामने आ गया है।………….पांडेय राकेश श्रीवास्तव
हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण कवि kunwar नारायण जी से मुलाकात अच्छी लगी.. unki kavitao जैसे ही उनके vichar saaf और spasht है.. waise तो unhone kai mahatwapurna baate की है लेकिन mai do bato par avashya kuchh kahna chahunga,,..1-lekhak की pratibadhata कहा honi chahiye और 2-likhne walo के लिए pathak hona kitna jaruri है… kisi bhi lekhak के लिए ye tippariya ek roshani की tarah है .. jisase wo apna rasta saaf saaf dekh sakta है…bahut abhar apka इस prastuti के लिए……
साहित्य ,सत्ता और प्रतिबद्धता पर संक्षिप्त परंतु रचनात्मक चर्चा ।प्रभात रंजन जी व शशिकांत जी को धन्यवाद ।
आज के समाज में सत्ता और लेखन एक दुसरे के पर्याय बन चुके …इस समय में इस तरह की संजीदगी बात ..काफी प्रभावशाली लगी …जो कुछ आज लेखन का कार्य हो रही है ..उसमें सत्ता शिनो का गुणगान ज्यादा है कही …पर …एक रुपया और एक पैसे में फर्क इस पूंजीवादी समाज में कहाँ लेखक को कहाँ खड़ा पाती है ये भी सोचनीय विषय है कही …लेखक को अपने संसाधन के लिए ..क्या उपलब्ध है इसका भी ख्याल कहाँ है पाठक या स्तत्ता को इस और ध्यान दिलाना या सोचना किसीकी जिम्मेवारी है ???/….अच्छा लेख समाज को आइना दिखाता हुआ !!!!!!!!Nirmal Paneri
bahut badiya prbhat jee,kunwar narayan jee hamare samai ke bade kaviyon me se hai,abhi van gogh par irving stone ka novel Lust for life smapt kiya,kunwar sahab ne bilkul sahi priprchey me yad kiya hai vna gogh ko,van Gogh jaise rachnatamak bechaini baut kam hogi kala aur sahitya ki duniya me.
shankhdhar dubey
कुंवर नारायन जी की बतायी बातों को अगर कथित लेखक वर्ग का बस दस पांच प्रतिशत भी मान ले तो भारत में स्थिति अब भी सुधर सकती है..कलम कारों ने धनपतियों और भ्रष्ट्र नेताओं से अधिक नुकसान किया है..असमान्य और अव्यवहारिक सी लगने वाली बातें है सभी राडिया और प्रभु चावला, बरखा जैसे सत्ता के दलालों के युग में..इस बाज़ार में ये तमाम बाते बेमानी सी हैं..बारहाल रु ब रु कराने के लिये आप बधाई की पात्र हैं..सादर
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