मुझे याद है बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ प्रकाशित हुआ था। नाटकों-फ़िल्मों की दुनिया के संघर्ष, संबंधों, सफलता-असफलता की कहानियों में गुँथे इस उपन्यास को लेकर तब बहुत बहस हुई थी। याद आता है सुधीश पचौरी ने इसकी समीक्षा लिखते हुए उसका शीर्षक दिया था ‘यही है राइट चॉइस’। दो दशक से अधिक हो गए। कवि यतीश कुमार ने मुझे चाँद चाहिए पढ़ा तो उसके सम्मोहन में यह कविता ऋंखला लिख दी। एक ही कृति हर दौर के लेखक-पाठक से अलग तरह से जुड़ती है, इसी में उसकी रचनात्मक सार्थकता है। आप भी पढ़िए- जानकी पुल।
मुझे चांद चाहिए
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1.
आत्मरति के अभिशाप से ग्रसित
शास्त्रों से निकले धागों में उलझी
पट्टे जैसे अनुबंध में बंधी अनागत वह
असंभव की आकांक्षी
रूढ़ियों के अहाते में
इच्छाशक्ति की कुशा लपेटे
आत्मसन्धान में लगी रही … लगातार
‘अस्वीकार’ और ‘नकार’ की प्रतिध्वनि
उसके जीवन का अपरिवर्तनीय सत्य थी
कटोरी में रखा पानी
झरने की फुहार बनने के लिए
आकुंठ व्यग्र थी
अधखुली किताब पर
सो जाने की ज़िद
पन्नों में दर्ज़ हर्फ़ों की बीहड़ में
हिरनी सी कुलांचे भरती रही
बजरी के रास्तों पर ऐसे चलती
गोया कोई सब्ज़ बाग़
आँखों मे लिए बौराती हो
करौंदे से अशोक बनने की चाह में
पहला ही कदम
नागवार नाम बदलकर कर लिया उसने
चांद बनने की ख़्वाहिश में
वह यशोदा से वर्षा बन गई
2.
यह कैसी दुनिया है
जहां घर की दीवारें परकोटे सी हैं
जिसमें पिता स्वप्नहंता हैं
और माँ सिर्फ एक तमाशबीन …
जिसे दरख़्त को खाद-पानी देना है
वही उसकी जड़ पर कुल्हाड़ी चलाता है
रुंधे स्वर में पिता कराहते रहते
और, मानते कि ईश्वर कहीं तो है
जबकि दोनों के विश्वास में
ईश्वर का चेहरा हमेशा अलग रहा
छल-प्रपंच से भरी इस दुनिया में
परंपरा से भिन्न सोचती स्त्री एक आखेट है
उसे इल्म तक नहीं कि हर जगह वह
ताक़तवर और चालाक शिकारियों से घिरी है
3.
दुनियादार पिता का आदेश
नियति पर लिखे प्राचीन-धर्मांध
फतवों की तरह
सपनों की सतहें रुखड़ा करता रहा
ऋतुसंहार से लेकर विषबेल तक
न जाने क्या-क्या नहीं समझा गया उसे
और वो हमेशा सोचती रहती
अवांतर में ही सुषुप्त रहेंगी इच्छाएं सारी!
पर जिज्ञासा उसकी सबसे बड़ी सखी थी
उसे पता था
स्वप्नहीन यथार्थ से लड़ने के लिए
सपने पालने सबसे ज़रूरी हैं
रह-रह कर कटती हुई
पोखर की मिट्टी सी वह
स्व-क्षय से परेशान
मूर्तरूप की ज़िद कर बैठी
आलोक वृत की परिधि में
पंख फैलाने की हिमाकत
आश्वस्त करता उसे बार-बार
कि अंदर का ज्वार
सोडे की बंद बोतल सा
कभी न कभी फूटेगा ज़रूर
4.
निष्ठुर अंधकार से भरे
लाल बजरी वाले पथ पर
आलोक का कपाट लिए
चांद को अपलक निहारती कुमुदनी
प्रतीक्षा की आवृत्तियों को ताकती रहती
भीतर-भीतर घुमड़ता बेचैनी का धुआं
बाहर निकलने के लिए
रोशनदान तलाशता रहता
उसे कहाँ ख़बर थी
कि आँखों से होकर भी
फूटते हैं हज़ार रास्ते !
और मरने के बाद भी
बारहा लौट आते हैं देखे सपने !
मछलियाँ उन्मुक्त तैरती हैं
अपनों ने जितनी बार उतारे उसके चोईटें
उसकी ख़्वाहिशों को उतनी ही धार मिली
मुक्त होने के एकल संकल्प को
गिरह में बांधे
सोच रखा था उसने
कि पीड़ा और संत्रास में पैबस्त दिनों को
एक न एक दिन
तज देना ही है
5.
भावनाओं के अंतर्द्वंद्व में भी
मुक्ति की चाहना लिए
दो चोटियों और जूड़ों के बीच
निर्वाक… उतावली टहलती रही
कोई डिठौना लगाता
तो कोई प्रोफाइल ताकता
फिर किसी ने उस दिन हौले से
उसके हाथों को यूँ दबाया
जैसे छुअन ही औषधि हो
और वह खिलखिला उठी
मित्रता दवाई पर लिपि हुई एक मिठास है
जिसमें घुल जाती है कड़वाहट भी
सन्निपात के भंवर से निकल
सानिध्य की साझी धार में
सर्वग्रासी पीड़ा भूल गई
पहली बार उसने जाना
बाँटने से दुःख भी मीठा हो जाता है
एक हथेली में बाहर का मौन
दूसरी हथेली में अंतर का कोलाहल …
दोनों हथेलियाँ जब एक-दूसरे के गले लगीं
तो थोड़ा-थोड़ा बँट गईं खुद में
6.
समय के साथ कषाय का तनाव
इस तरह फैला
कि तीली दिखाने भर से विस्फोट हो जाए
कमरबंद के नीचे का प्रहार
अधिक घातक होता है
बस कई बार चोट महसूसे बग़ैर
पहचाने जाने की सलाहियत होनी चाहिए
अपनों का दिया गया प्रहार
मन के सबसे नाजुक तंतु को भी
तोड़ के रख देता है
घबराहट में उसने
मौत से आंखमिचौली खेल ली
बहुत तड़फड़ाई लेकिन जब
नीम नींद में आँखें खोलीं
तो उसने मौत को आँखें मूंदते हुए देखा
एक नई अनुभूति हुई उसे
कि अपना-अपना बोझ
ख़ुद ही ढोने के लिए
हम सभी अभिशप्त हैं
हस्बेमामूल अब वह वही नहीं रही
पंख निकल आए थे
और वह भी उड़ने का हुनर
सीखना चाहती थी
7.
गड्डमड्ड और बेतरतीबी के पेंच में
कसाने से पहले
उड़ना सीख लिया उसने
सोपान पर डेग रखते ही
सीढ़ी लिफ्ट की तरह नीचे चल देती है
और भ्रम बना रहता है
कि हम ऊपर जा रहे हैं
समय के साथ डेग दर डेग
हृदय की शून्यता अपनी परिधि
अंश दर अंश बढ़ा रही थी
सतर्कता से परिधि के बाहर
कदम रखते ही
उसने चुन-चुन कर अस्त्र चलाये
उसे पता था
सतर्कता सबसे बेजोड़ शस्त्र है
जो आसानी से साधा नहीं जाता
आइसबर्ग पर बैठे कबूतर को कहाँ पता
कि कौन से पहाड़ पर बैठा है वो
समयांतर में उसे पता चला
दरअसल वो कबूतर नहीं आइसबर्ग है
8.
सिरजने की झील में डुबकी लगाना
जीवन के आभा-वृत में
अनुभव के नव स्तर पर
गोता लगाने जैसा होता है
कलात्मक नींद में
अंतरमनन की आंच
आलोक मंडल बन
सिर के पीछे चमकती है
आलोक मंडल के आभास
और यथार्थ के बीच
लगातार आवाजाही रही उसकी
अतीत की केंचुल उतार
वर्तमान को इतना लंबा चुंबन दिया
कि सांसों के अनगिन दरिया फूट पड़े
पलकें मूंदते ही चेहरे पर महसूसती
वही चिर-परिचित स्पर्श
एक गुदगुदी सी हँसी
खिल आती थी होठों पर
9.
नायिका की आँखें तरल और पारदर्शी हैं
कि नायक देख सके उसमें अपना चेहरा …
दूधिया चकाचौंध में पर्दा उठता है
और नेपथ्य में मिल जाते हैं दो एकांत
मन मे पहला फूल खिला
खुश्बू में इतरा उठा
गंध के प्रति हर्ष भी
बिना संभले
फिर एक और चुंबन…
मक्खन पर गर्म चाकू की तरह उतर गया
प्रेम और तृष्णा मिलकर
धनुष की प्रत्यंचा खींचते हैं
और दोहरी हो जाती है कमान …
कपोत की गर्दन की नसों की तरह
फड़फड़ाई वह
फिर शांत हो गई जिबह किए गए
एक परिंदे की तरह
10.
मन में भूकंप
और मस्तक में ज्वालामुखी
प्रतिध्वनियों से भरी ज़िंदगी
पर देह बिल्कुल शांत
रोज़ पर्दा उठता
रोज़ बढ़ती जाती उनकी परिधियाँ ..
लेकिन उसके मन का आलोड़न
उसके पाश में ही करार पाता
बेगानेपन की चुंगी
प्रगाढ़ता के दायरे में सिमटती जाती
स्पर्शों के बहाने
देहों की बयार बहने लगती
मन डुबकियाँ लगाता
और अनुभूति कामना के शिखर पर
आनापान करती
और एक दिन आह्लादित मन ने
उद्घोष कर दिया –
‘मैं भी एक स्त्री बन गई हूँ.’
11.
एक गूंज हवाओं में तैरती हुई
घर तक ख़बर बन कर पहुंचती है
प्रलय संकेत बन
वर्जनाओं और निषेधों के हवाले के साथ धमकता है
भाई बरजता रहा .. मेघ बरसता रहा
नीचे धरती दरकती रही … बहुत धीरे-धीरे
अकेलापन ऐसे कचोटता रहा
जैसे किसी आत्मीय के
दाह-संस्कार के बाद
बार-बार लौट रही हो श्मशान से
मन ही मन ऐसे तिलमिलाई
जैसे वह लड़की नहीं,
लगातार हांकी जाने वाली पशु हो
स्पष्टवादिता उसके लिए इकलौता विकल्प थी
और खुले गले से उसने कहा दिया –
‘आय एम इन लव.’
अपनों की कुल्हाड़ी ने
बना डाला जड़विहीन उसको ..
पर भूंजे की तरह नहीं फूटी वह
बल्कि कमलगट्टे की तरह ख़ुद को और कसा
और यूँ
वर्षा अब उन्मुक्त हो चुकी थी ….
12.
रंगमंच पर अभिनय से
ज्यादा कठिन है
रंगमंच के लिए संघर्ष
चप्पल घिसने का दंश
और समझौतों का अवसाद
अभिनय के समानांतर ही चलता रहता है
इमोशन कोई रिकॉल स्विच नहीं होता
इसको अपनाने के लिए
सबको अपनी-अपनी थ्योरी
विकसित करनी होती है
अतीत की अंधेरी खिड़की
बाहर की स्याही को
वर्तमान में कई बार खींच लाती है
और नुकीला मौन चुभने लगता है
उसे अब छीली हुई लकड़ी की गंध
भाने लगी थी
चपलता धीरे-धीरे ठिठकने लगी
और उसे चुप्पी से प्रेम होने लगा
13.
नदियाँ कभी समानांतर नहीं चलती
हर पड़ाव के बाद
सड़कें बदल लेती हैं
एक और करवट
यह भी जाना
कि चलना है
तो तलुओं की धूल
अलग नहीं की जा सकती
छप्पर की लकड़ी की पहचान
बारिश के मौसम में होती है
और उसने सड़ी लकड़ी बनने से
इनकार कर दिया
उसकी दुनिया में
सब कुछ तेजी से बदलता गया
सिर्फ भिंचे जबड़ों
और तनी मुट्ठियों को छोड़ कर
कर्तव्य और भावना के द्वंद्व-द्वार से बाहर
जब उसने कामनाओं का हाथ थामा
तो उसके होठों पर बुद्ध की मुस्कान थी
14.
अभाव से निकलकर
प्रभाव की चरमसीमा
कलाकार के लिए वांछित है
पर साथ में अनवरत क्रंदन
उसकी खुराक में होती है
त्वचा को ढाँचे के अनुसार
काटना सिलना
तब तक जब तक
भीतर का आलोचक संतुष्ट न हो जाये
पुरस्कार लंबी सीढ़ी के बीच का चबूतरा है
वहाँ थोड़ी देर ही ठहरा जाता है
यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई
नाटक की तीसरी घंटी भी
सबके इंतज़ार में रहती है
इंतजार पोशाक है
जिसे ओढ़े रहना दूर जाने की निशानी है
15.
वह नहीं जानती थी
जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता
वैसी कामनाएं
अधूरी होने के लिए अभिशप्त होती हैं
और एक साथ दो घोड़ों की सवारी नहीं हो सकती
वल्गा तो हाथ में एक ही रहेगी ..
वक़्त का घोड़ा दौड़ता रहा
वह लगाम और रक़ाब तलाशती रही
नाराज़गी और उलझन से गुज़रते हुए
खुशी और मायूसी के बीच डोलती रही
सुलझाने की कुंजी बस समय के पास है
जिसका बाजू पकड़े
दौड़ती रही वह बदहवास
उसने उबासियों से ख़ुद पूछा
कि क्यों ज़िंदा हो तुम अब तक ?
यह जान लो तो
और कुछ जानना ज़रूरी नहीं
भीतर से आवाज आई
सबसे जरूरी चीज स्वाकार है
गर खो गया तो कुछ नहीं बचता
16.
शहर चमगादड़ों से अटा पड़ा था
दिन उजास थे
रातें उमेठियाँ लेती हुई
खिलंदड़पना उसकी अपनी जमापूंजी
और हास्य बोध उस शहर की जरूरत
हर रिश्ते का अपना गणित लिए
शहर हिसाबी था..
जबकि आंकड़ों से रिश्ता कच्चा रहा उसका
नियत संख्या के ऊपर के नंबर
सब बराबर थे उसकी ख़ातिर
नगण्य मात्राओं में
शून्य का दाख़िल होना भी उसकी परिधि बढ़ा देता
धीरे-धीरे वह अपरिमित होती जा रही थी
आखेट के भय से भागती हुई हिरनी
अब भूख से भरी हिंसक शेरनी बन गई
17.
चांद को छूने की हसरत
और ज़मीन से उखड़ने की शुरुआत
समानांतर प्रक्रिया है
इस दुर्गम, तंग, रपटीली यात्रा में
कोई रिवर्स गीयर नहीं थी
रास्ते तालों से भरे थे
और उसकी कामनाओं पर सांकल नहीं थी
वह डेग भरती गई
लोगबाग चाबियां पकड़ाते गयें
अब उसके पास ऐसा गुच्छा था
जिनमें सौ-सौ चाभियां थी
उधेड़बुन-संशय-अनिश्चय-अविश्वास
सब अंधेरों में पहने जाने वाले लिबास हैं
अकेलापन हमेशा इन्हें पहन
आइनों में झांकता है
इसे देख
कुटिलता मुस्कुराती है
इन मुस्कुराहटों में भटकती नाव को
छोटा ही सही
लेकिन एक आकाशदीप का इंतज़ार होता है
जिसके बिना शहर का अट्टहास
किसी भी नाव को निगल सकता है
18.
पारे की तरह तेज़ी से घटता-बढ़ता असंतोष
आधारशिला रोज़ खिसकने की आशंका
अनिद्रा में लिपटी दुर्दमनीय कामनाएं
और दर्पोक्ति में आकंठ डूबा शहर
इस शहर में ज़िंदगी को रोपना
रेगिस्तान में उत्स उगाने जैसा है
यहाँ अर्थ भरी मुस्कान में
अर्थ मात्रा से अधिक अनुपात में था
कोई मूंगफली खाए
और उसके छिलके न गिरें
ऐसा कब होता है भला
जबकि यहाँ छिलके ज़्यादा थे
और मूंगफलियां कम
इस शहर में सबके अपने-अपने कवच हैं
किसी की कसी हुई और किसी की ढीली-ढाली
समय रहते दोनों कला सीख ली उसने
19.
दीये की बाती का एक सिरा जलता देख
दूसरे को हंसी आती है
तब वह कहाँ जानता है
कि जलना तो अंततः दोनों की ही नियति है
रेल की पटरियों की समानांतर दूरियां
परस्पर जैसे बढ़ती हैं
वैसे ही दुर्घटना की आशंका भी बढ़ती है
कलाइयाँ पकडे बिना
उसे नींद नहीं आती थी
कलाइयों पर उंगलियों के
निशान पैबस्त होती रही
पता भी नहीं चला
निशान कब दाग़ बन गए
अब दाग़ को मिटाने का नुस्खा
ढूंढ़ रही है वह
चाँद का मोह
कहाँ से कहाँ तक ले आया था
आस्था की ओर कि भ्रमभंग की ओर
आशा में सम्मुख इस अवसाद के ..
शकुन से अपशकुन की ओर …
ये चाँद की उच्छृंखता
मोहक तो ज़रूर है
पर उतनी ही त्रासद भी
20.
सर्द आंधी चली
लगा किसी ने उसे
पहाड़ की चोटी से सीधे
गहरे अंधे कुएँ में धकेल दिया
बहुत समय तक
ज़मीन से टकराने के इंतज़ार में
निर्वात सा अहसास
संभावित टकराहट के ख़ौफ़ में तब्दील होता रहा
निरंतर पीछा करती स्मृतियों
और उन स्मृतियों को छूने भर से
खो भी जाने का डर था उसे
अक्सर डर के सच होने की संभावना
सबसे ज़्यादा होती है
झीना अवसाद.. गुनगुना मलाल
ठिठका सा संदेह
सब एक साथ दिखा
और काले क्षण में डूबने लगा चाँद
आँख बुझने से पहले
हौले से होंठ थरथराये
“मुझे चाँद चाहिए”
और वह हमेशा के लिए डूब गया
अपराधी वह मासूमियत है
जिसकी हत्या की जा चुकी है
असंभव की आकांक्षा विदा ले रही थी
उसने प्रभु से अंतिम गुहार लगाई
मुझे चाँद नहीं बेहोशी दे दो
तड़पती मछली अब पूरी तरह निश्चेत थी
तभी गोया कोई उम्मीद का बुलबुला
उसकी हलक में अटक गया
अगले ही पल
शरीर में एक जुम्बिश होती है
और उसके लब दोबारा थरथराते हैं –
“हाँ, मैं ज़िंदा हूँ
और मुझे चाँद चाहिए.”
========