आज प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि मृत्युंजय कुमार सिंह के खंड काव्य ‘द्रौपदी’ की डॉ. सुनील कुमार शर्मा द्वारा समीक्षा।
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सद्य प्रकाशित खंड काव्य – द्रौपदी पाठकों के बीच चर्चा में है। महाभारत की पौराणिक कथा से संदर्भित द्रौपदी के पात्र को कवि मृत्युंजय सिंह ने एक खंड काव्य के रूप में अद्भुत रूप से पुनर्जीवित किया। यह साहित्य ही है जिसने अलक्षित पात्रों को भी मुख्यधारा में स्थान दिया है। दरअसल यह साहित्य का गुणधर्म है कि वह जीवन में हो या काव्य में, सिर्फ केंद्र को ही नहीं देखता वरन परिधि की घटनाएं भी उसकी जद में आती है । यशोधरा और उर्मिला जैसे पात्र जिनका अपने कथा विन्यास में एक भुला देने वाला स्थान था, उन्हें मैथिलीशरण गुप्त जी ने मुख्य धारा में लाकर एक नया साहित्यिक जीवन प्रदान किया ! उसी परम्परा में समकालीन कविता के चर्चित हस्ताक्षर मृत्युंजय कुमार सिंह ने अपनी नई कृति ‘द्रौपदी’ में द्रौपदी के साथ-साथ समकालीन समय से संवाद स्थापित करने की कोशिश की है। कवि अपने कवि-धर्म का पालन करते हुए द्रौपदी की आँखों से पाठकों को तत्कालीन समाज, धर्म, नैतिकता और रिश्तों की सच्चाई से अवगत करने का सच्चा प्रयास करता है। इसके साथ पाठकों को द्रौपदी के चरित्र से संबंधित बहुत से अनकहे और अनछुए पक्षों से रूबरू होने का अवसर मिलता है। इस काव्य-यात्रा से गुजरते हुए यह स्वतः उभर कर आता है कि कवि ने इहलौकिक द्रौपदी के साथ चल कर गंभीर बोध भाव तल पर कुछ अलग ढंग से संवेदनाओं के नए आयाम गढ़े हैं। बेनु वर्मा (2015) के शोध के अनुसार द्रौपदी के चीरहरण के प्रकरण को विभिन्न साहित्यिक लेखकों ने अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को व्यक्त करने के लिए ‘साइड शैडोइंग’ की तकनीक के माध्यम से विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। कार्ल जुंग की ‘आर्कटाईपल फेमिनियन’ की अवधारणा के तहत द्रौपदी के पात्र को साहित्यकारों ने अपने समय और संदर्भों के अनुसार पुनरसृजित, परिभाषित किया है। इस के चलते साहित्यिक जगत में द्रौपदी का चरित्र दिव्य, नश्वर और मिथक के दायरे को लांघ कर पौराणिक और साहित्यिक प्रतिपादनों से परे जाने में सक्षम रहा है किंतु अधिकतर साहित्यिक व्याख्याएँ उस की कथा-व्यथा को समझने-समझाने के सार्थक प्रयास करने में सफल प्रतीत नहीं होती। कवि अपनी इस कृति के माध्यम से साहित्यिक जगत के इस पहलू को संबोधित करने का प्रयास करता है। मिथक और पौराणिक कथाएं सांस्कृतिक विकास के लिए हमेशा से ही प्रासंगिक और आवश्यक रही हैं । इसके अतिरिक्त यह पूरे विश्व के लेखकों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी है – तभी तो द्रौपदी के पात्र को और महाभारत की कथा को विभिन्न भाषाओं में और विभिन्न अंतर्वस्तु और रुपों में रचा गया है । अमलेश भट्टाचार्य त्याग की सशक्त ज्योति, परमहंस योगानंद के लिए कुल कुण्डलिनी तो भील जनजाति की महाभारत में द्रौपदी, देवी का रूप धारण करती हैं । इरावती कर्वे उन्हें ‘नाथावती अनाथवत’ के विशेषण से परिभाषित करने का प्रयत्न करते हैं। इस सन्दर्भ में यह खंड काव्य बताता है – “युद्ध का कारण मुझे/ मानते है वो गुणी / पहले परख ले भावना / जो वासना में थी सनी” इन पंक्तियों को पाठक बार-बार को पढ़ता है और ठहरता है – ठहर कर सोचता है – इस कथा को हमें स्त्री विमर्श के संदर्भ में देखना भी चाहिए। पाठक सोचने को मजबूर होता है – धर्म यदि प्रमाद बन बुद्धि पर सत्ता स्थापित कर तो मानवता संकुचित होकर कहीं यज्ञ कुंड तक ही सीमित न रह जाये तो चीरहरण की पुनरावृत्ति को रोकना संभव नहीं होगा । ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना- स्त्री की अहम भूमिका के प्रति सहज अनंत और सादृश्य विशेषताओं का आत्मसातीकरण इस रचना की केंद्रीय भूमिका में है। स्त्री राजघराने की होकर भी वंचित व्यथित उत्पीड़ित और विस्मृत रही है जिस के प्रति कवि की संवेदनात्मक प्रतिबद्धता उसे इस महत्त्वपूर्ण विषय पर सृजन करने का मुख्य कारक रही होगी। इस दीर्घ कविता से यह भी प्रतिबिम्बित होता है कि सत्ता लोलुपता, संपत्ति अर्जन, जाति, सम्प्रदाय और कुटुंब की विभाजनकारी रेखाएं मानव-समाज और उनके विकास की संभावनाओं को प्राचीन काल से ही प्रभावित करती आ रही हैं। कुरुक्षेत्र का युद्ध इसका एक ज्वलंत उदहारण है। साहित्य और संगीत की विभिन्न विधाओं में सतत रूप से सक्रिय मृतुन्जय जी महज शब्दों से ही अभिव्यक्त नहीं करते वरन अपने अहसासों को अनूठे अंदाज में पिरोते हैं। इसके चलते काव्य रचना का हर छंद सीधे दिल में उतरता है। दरअसल उनके रचना जगत में स्त्रीत्व के प्रति कृतज्ञता अन्तः सलिल है और वो उसकी सहजता, सरलता और कोमलता को मानव जीवन बचाए रखने के लिए अहम् मानते है। यही वजह है कि कवि आज के निष्ठुर युग में भी अपनी रचना में तार्किक होते हुए भी संगीत की लय और ताल के साथ एक कोमलता और सजलता बचाए रखते हैं । कवि का छंद-ज्ञान अद्भुत है और इस खंड काव्य को ‘छंदों का प्रयोग और गेयता’ विशिष्ट बनाती है । बहुत जल्द ही इसके छंद पाठको की जबान पर चढ़ जाते है । वास्तव में बहुत दिनों बाद साहित्य में ऐसी कोई कृति आई है जिसका पाठक सस्वर पाठ करता है। कवि की जिज्ञासा लोक परम्पराओं से जुड़े द्रौपदी के विभिन्न रूपों से और संबंधित घटनाओं में उतरी है डूबी है और डूब कर ही उस पीड़ा और व्यथा से भी गुजरने की चेष्टा की है जिससे संभवतः द्रौपदी गुजरी होंगी अन्यथा इस प्रकार की अभिव्यक्ति संभव नहीं हो पाती! रचनाकार ने महाभारत की वृहत्कथा के अक्षय तत्व – द्रौपदी के इहलौकिक स्वरूप के माध्यम से प्रासंगिक और अतिलौकिक सवाल उठाते है। पाठक के रूप में जब इस काव्य धारा में बहता है तो पाठक की जिज्ञासा जिन्दा हो जाती है । उदाहरण के लिए पढ़ते समय एक नहीं अनेक सवाल उठ कर आते हैं जैसे यदि धृतराष्ट्र की आँखे होती तो क्या वो भी कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लेते या चीर हरण रोक लेते ? यही इस रचना की विशेषता है कि इसे पढ़ते हुए पाठक भी अन्वेषक भी हो जाता है तभी उन्हें कई प्रश्न झंझोड़ते भी हैं। जैसे इस काव्य यात्रा में तिरते हुए पाठक के जेहन में सवाल उठता है-“वासना की भूख के/ आर-पार देख पाना/ असंभव तो नहींफिर क्यों कर अर्थों का विस्थापन कर / अनर्थ करता मानव मनविकल्पों के मोड़ पर / निर्णय क्या सोच कर लिएमन में तैरती / कामनाओं की सिद्धि के अलावा / कहना मुश्किल हैहार दी गई द्यूत क्रीड़ा में / ये कैसी क्रीड़ा / था दोष किस का/ सोचोमजबूरी भीष्म के सफेद केशों की क्या थी / कहना मुश्किल है” यह सच है कि सृजक की कल्पनाएं अपने युग की संभावनाओं की सरहदों के भीतर ही टहलती हैं। यह भी सही है कि कथन की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सरहदें होती है जिसके पार ले जा सकता है विज्ञान या अंतर्ज्ञान या रचनाकार की निरपेक्ष अन्तर्दृष्टि ! और यह कृति इस कार्य को करती हुई प्रतीत होती है। तभी कवि द्रौपदी से संवाद करता है- “पहले दिन से ही इच्छाएं / मुझे छोड़ कर चली गयीं / कह कर कि तू ए द्रौपदी / अनजाने ही छली गई।” इसी के साथ द्रौपदी के भी मुख्य सवालों को भी प्रस्तुत करता है – “कैसे मानूँ यह माया है / जब तक जीवित काया है / जीव और ब्रह्म के बीच पड़ी / यह कैसी काली छाया है ?” कवि पाठकों को काव्यधारा के साथ लेकर आगे बढ़ता है और सच बताता है – “सत्ता और शक्ति का जिस दिन / दर्प किसी पर छाता है / उस दिन उसके अन्दर का / मानव भी मर जाता है।” द्रौपदी के प्रचलित विविध व्याख्याओं, क्षेपकों, मिथक और चारित्रिक प्रेक्षणों के मध्य, सही और गलत दोनों ही तरह के नेरेटिव समाज में उपस्थित हैं। इस परिदृश्य में यह खंडकाव्य द्रौपदी के चरित्र को नई अंतर्दृष्टि और समग्र दृष्टिकोण से समझने का अवसर प्रदान करता है। उदाहरण के लिए जब पाठक द्रौपदी की पीड़ा से गुजरता है तो नई अनुभूति से रूबरू होता है। इस सन्दर्भ में खंड काव्य बताता है नारी को किसी अन्य नारी को सहना सहज नहीं है । स्त्री अपने गहने, धरोहर बाँट सकती है परन्तु उसे अपने प्रेम को बांटना संभव नहीं होता। लेकिन द्रौपदी ने अपने अन्दर की नारी को भी बाँट दिया और हर जिम्मेवारी का पवित्रता के साथ निर्वहन किया। द्रौपदी कभी अपने समय की मान्यताओं के अनुसार चलते हुए सवाल भी उठती हुई नज़र आती है। कविता यह भी बताती है दरअसल द्रौपदी की तीक्ष्ण बुद्धि और लावण्य ही उसकी शत्रुता का मुख्य कारक रही होगी फलस्वरूप द्रौपदी को बार बार दंश झेलना पड़ा। तत्कालीन समय में मूल्यों का स्खलन हुआ और जो इसे रोक सकते थे वो या तो मौन रहे या अर्थों का विस्थापन कर आँखे मूंदे रहे । नारी देह को निर्वस्त्र करना ही पौरुष प्रदर्शन का माध्यम बना। अंत में एक श्रेष्ठ सभ्यता असमय ही काल का ग्रास बन गई। ऐसी परिस्थितियों में अकेले धृतराष्ट्र को ही अंधा नहीं माना जा सकता और कवि इसलिए पुरुष प्रधान समाज से वाजिब सवाल ही नहीं करता है बल्कि नारी जाति की प्रतीक की पीड़ा हरने के लिए सार्थक प्रयास करने का भी आह्वान करता है। द्रौपदी का चरित्र नए अर्थों और संदर्भों के साथ साहित्य के क्षेत्र में मृत्युंजय कुमार सिंह जैसे कवियों के माध्यम से फिर फिर प्रकट होता रहा है। कवि इस कालजयी चरित्र के माध्यम से पुरुष प्रधान समाज से सार्थक संवाद स्थापित करने में और नारीत्व की संवेदनाओं को विस्तार करने में बहुत हद तक सफल प्रतीत होते है। इसलिए पुस्तक में प्रस्तुत द्रौपदी के विभिन्न पक्षों से गुजरते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल जी का यह कहना बेहद वाजिब है – “यह दीर्घ कविता धर्म तक को प्रश्नांकित करती है साहसिक तथा कल्पना प्रवण है। यह एक पड़ाव है समकालीन साहित्यिक परिवेश में”। इसके साथ ही कवि मृत्युंजय कुमार सिंह ने इस खंड काव्य के माध्यम से साहित्य की छंदों की समृद्ध परंपरा का अनुसरण किया है जो कि आज की समकालीन कविता के समय दुर्लभ है। कुल मिलाकर यह खंडकाव्य एक चिंतन-विषय को ही नहीं वरन चेतना और ज्ञान मूलक सरोकारों के लिए नई जमीन देने का एक सफल प्रयास करता है।