आज पढ़िए नेहा नरुका के कविता संग्रह ‘फटी हथेलियाँ’ पर यह विस्तृत टिप्पणी, लिखा है युवा लेखिका अनु रंजनी ने। यह संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है-
========================
यदि कोई स्त्री, स्त्री अधिकारों, उसके संघर्षों की बात करे तो बहुत आसानी से उस पर पक्षपात का आरोप लगा दिया जाता है(भले यह समाज सदियों से स्त्रियों के साथ पक्षपात ही क्यों न करता आया हो ), उसे स्त्रीवादी कह दिया जाता है लेकिन असल में स्त्रीवाद केवल स्त्रियों की बात नहीं करता बल्कि वह पूरे मानव समाज और उससे भी एक कदम अधिक समूची सभ्यता की बात करता है, जिसमें स्त्री-पुरुष, पेड़-पौधे, जानवर, पर्वत, जंगल, समूची प्रकृति शामिल होती है । इसी संपूर्णता की उपस्थिति हमें नेहा नरूका के नवप्रकाशित (एवं पहले) काव्य-संग्रह ‘फटी हथेलियाँ’ (2023 ई.) में मिलती है । यह कविताएँ स्त्री-संघर्ष, प्रेम, धर्मसत्ता, राजसत्ता, पूँजीवाद, जाति-व्यवस्था, सांप्रदायिकता सब की स्थिति बयान करती हैं साथ ही हर कदम पर सवाल करती चलती हैं ।
किसी भी घर को चलाने के लिए स्त्री को अनिवार्य माना जाता रहा है । स्त्री के विभिन्न रूपों में से सबसे अनिवार्य माँ मानी गई है, लेकिन इस समाज में माँ की अनिवार्यता उसे स्वतंत्र नहीं बनाती, उसे इंसान का दर्ज़ा नहीं देती । वह उसके जीवन को रोटी तक ही सीमित कर देती है, हर पहर माओं को यही चिंता रहती है कि खाना क्या बनेगा? घर के मुखिया, बच्चों से यही सवाल पूछती रहती है । भोजन पकाना उसे ही है लेकिन शायद ही कभी वह अपनी पसंद से खाना बनाती हो, उसपर भी विडंबना यह कि खुद खाना बनाती है, लेकिन अपनी पसंद से नहीं, फिर सबसे अन्त में वही खाती है और कितनी बार तो उसके हिस्से खाना आता भी नहीं क्योंकि बचपन से वह समझौता करना ही सीखती आई है । इस पूरी यंत्रणदायक स्थिति को दर्ज़ करती है इस संग्रह की पहली कविता ‘अम्मा की रोटी’ –
अम्मा लगी रहती है
रोटी की जुगत में
सुबह चूल्हा…
शाम चूल्हा…
अम्मा के मुँह पर रहते हैं बस दो शब्द
‘रोटी और चूल्हा’
…………………………….
खुरदुरे नमक के टुकड़े
सिल पर दरदराकर
गेहूँ की देह में घुसी अम्मा
खा लेती है
कभी चार रोटी
कभी एक
और कई बार तो शून्य रोटी ।
‘आखिरी रोटी’ शीर्षक कविता अलग-अलग वर्ग की स्त्रियों और उनकी स्थितियों को बताते हुए, उनमें विभिन्न असमानताएँ बताते हुए जो समानताएँ बताती है वह इस समाज में स्त्रियों की स्थिति को बताने के लिए स्पष्ट है । इसकी कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं –
“मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं थे
उसके पास कपड़े ही नहीं थे
कपड़ों के नाम पर थी कुछ उतरन
जो मेरे जैसे घरों से हर त्यौहार की सुबह उसे मिलती”
………………………………………….
“ मेरे घर के नैतिक पुरुष जंगल, खेत, सड़क…पर जाकर उसका बलात्कार करते
और रसोई, स्नानघर, छत…पर मेरा”
………………………………………….
“बस एक ही समानता थी
कि हम अपने-अपने घरों की आखिरी रोटी खाते थे
अगर हमारी माँएँ जीवित होतीं तो ये आखिरी रोटियाँ वे खा रही होतीं ।”
घर की परिकल्पना में ही सुरक्षा है लेकिन बहुत सी स्त्रियों के हिस्से यह सुरक्षा भी नहीं आती, हमारे आस-पास ऐसी बहुत सी स्त्रियाँ हैं जिन्हें जहाँ सुरक्षा मिलनी थी वहाँ भी उनके अनुभव में यौन-शोषण जुड़ा । इसी बुरे अनुभव को कवयित्री ‘शोकगीत’ में दर्ज़ करती हैं जहाँ लड़कियों को अपने पिता से ही भय है जिस कारण उनका बचपन, उनका चहकना भी उनसे छूट जाता है और वे समय से पहले ही परिपक्व हो जाती हैं (परिस्थितवश बन जाती हैं ) –
“उनकी रात यह सोचते हुए गुजरती कि आखिर पिता भी तो पुरुष है
पिता भी तो रखते हैं अपनी आध्यात्मिक किताबों के बीच
सेक्स कथाओं की रंगीन-सी किताब
जिसके कवर पर लगभग नंगी-सी एक औरत खड़ी है”
आगे जब वे लिखती हैं कि
“ मैं जानती हूँ ‘पुरुष बनना’ इस सभ्यता की सबसे खतरनाक प्रक्रिया है
दुनिया के वे पिता जिनके वीर्य से बच्चियाँ बनीं
काश खुद को ‘पुरुष बनने’ से बचा लेते !
तो ये बच्चियाँ कम से कम अपने आँगन में तो फुदक लेतीं
काश ये बच्चियाँ कुछ बरस चिड़िया बन कर जी लेतीं !
तो मेरी उदास कलम से ये शोकगीत न निकलता ।”
तो स्वाभाविक रूप से ‘पुरुष बनने’ पर ध्यान जाता है । आखिर यह पुरुष बनना है क्या ? यह कहीं न कहीं स्त्रीवादी व सामाजिक कार्यकर्ता नंदिता दास के उस बयान की ओर ध्यान ले जाता है कि “ Evey man is a ‘potential rapist’ ”। इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वे सभी पुरुषों को बलात्कारी कह रही हैं बल्कि इसका आशय यह है कि प्रत्येक पुरुष में यह संभावना है कि वह चाहे तो कभी भी बलात्कार कर सकता है । इसे विस्तार में जानने के लिए यह लेख पढ़ा जा सकता है – https://medium.com/@anneteinafrica/all-men-are-potential-rapists-399176050f3
इस संग्रह की कविता ‘पुत्रकथा’ एक बालक के पुरुष कहने की प्रक्रिया ही बताती है जो समाज के विभिन्न कारकों द्वारा निर्मित होता है, जिसके बारे में माँ स्पष्ट कहती है कि उसने जैसा अपने बेटे को बनाया था वह उम्र बढ़ने के साथ वैसा नहीं है –
“मेरे शापित पुत्र के पास अब बस एक धड़ है, दो हाथ हैं, दो पैर हैं, एक पेट है, एक लिंग है
पर वह स्नेहिल मुख नहीं जिसे मैंने निर्मित किया था कभी
उसके पास अब एक मनुष्यभक्षी मुख है, उसके पास मुझे देने के लिए अनेक क्रूर भय हैं”
जहाँ जीवन के हर कदम पर स्त्रियों के हिस्से दुख, तकलीफ़, हिंसा आती हैं ऐसी स्थिति में किसी ऐसा का होना जो दुनिया की चाल, उसकी कुटिलता के प्रति स्त्रियों को आगाह कर सके, यह राहत देती है । ऐसी ही आगाह करने वाली कविता है ‘शक्कर से ज़रा बचकर रहना’ जिसकी शुरुआती पंक्तियाँ ही संकेत के लिए पर्याप्त हैं –
“ मेरी दोस्त जब कोई तुमसे सिर्फ़ फूल-पत्तियों की बातें करे
तो सतर्क हो जाना
ज़्यादा मीठा बोलने वाले
अक्सर सबके हिस्से की मिठाई खुद खा जाते हैं”
साल 2016 में एक फिल्म आई थी ‘पिंक’ जिसमें स्त्री के न कहने का मतलब न होता है, इस बात की महत्ता बताने की बेहतरीन कोशिश थी । यह ‘न’ स्त्री के यौन-संबंध में असहमति के महत्त्व को रेखांकित करती है । लेकिन यौन-संबंध से अतिरिक्त, बेहद मामूली बात पर भी स्त्री की असहमति नहीं स्वीकार की जाती है यह भी ‘सिल-लोढ़ा’ सामने रखती है –
“ दिल्ली में रहने वाली लाडो को
रात बारह बजकर पाँच मिनट पर
उसके देवर ने सिल-लोढ़े पर मसाला पीसने को कहा
और लाडो ने साफ़ मना कर दिया ।
तब उसके देवर ने गुस्से से पागल होकर लोढ़ा भाभी के माथे पर दे मारा
और लाडो की हत्या कर दी
इस तरह मसाला न पीसने की मामूली-सी ‘न’
लाडो की हत्या की वजह बन गई”
इस संकलन में ऐसी और भी कविताएँ हैं जो स्त्री से जुड़े सवालों, उनके संघर्षों को दर्ज़ करती हैं । उदाहरणत: ‘बलात्कारियों की सूची’, ‘फटी हथेलियाँ’, ‘तीन इच्छाएँ’, ‘बिना बाप की लड़कियाँ’, डूबते को तिनके का सहारा ही बहुत है’, ‘जवान लड़की की लाश’, ‘विदाई’, ‘पुरखिनें’ ‘सोलह खासम’ इत्यादि ।
प्रेम की बुनियाद ही बराबरी की होती है लेकिन पितृसत्तात्मक सोच इसे भी खूब प्रभावित करती है, इसमें शामिल दो लोगों में हस्तक्षेप करती आई है जो उस बराबरी के रिश्ते को ही तितर-बितर कर देती है । ‘प्रेमिकाएँ’ शीर्षक कविता प्रेम में स्त्री की की स्थिति को बखूबी बयान करती हैं । यदि कोई लड़का घर में अपने प्रेम का ज़िक्र करे तो प्राय: लोगों का कहना होता है, खास कर उसकी माँ का कि कौन चुड़ैल मेरे बेटे को फँसा ली है? हर माँ के लिए उसका बेटा राजा बेटा, आज्ञाकारी, संस्कारी होता है । इसलिए वे मानती हैं कि प्रेम में उनका बेटा जो भी कर रहा है वह लड़की ही करवा रही है । इस पूरे यथार्थ को बेहद खूबसूरती से कवयित्री लिखती हैं –
“ प्रेमी ने नस भी काटी तो कोसा गया प्रेमिकाओं को
प्रेमी ने खुदकुशी की तो बदनाम हुईं प्रेमिकाएँ
प्रेमी पागल हुए तो गालियाँ बकी गईं प्रेमिकाओं को
प्रेमिकाओं ने नस काटी तो कोसा गया प्रेमिकाओं को ही
प्रेमिकाओं ने खुदकुशी की तो बदनाम हुईं प्रेमिकाएँ ही
प्रेमिकाएँ पागल हुईं तो पीटी गईं प्रेमिकाएँ ही ।
………………………………………….
जिन प्रेमियों ने प्रेमिकाओं के सामने ही दूसरी प्रेमिका बना ली
उन्हें बेवफ़ा कहा गया
जिन प्रेमिकाओं ने प्रेमी के सामने ही दूसरा प्रेमी बना लिया उन्हें वेश्या कहा गया।”
प्रेम से संबंधित एक कविता ‘यहाँ चुम्बन लेना ज़ुर्म है’ भी है जो प्रेम में समाज द्वारा हस्तक्षेप के कारण स्त्री के मनोविज्ञान की निर्मिति को प्रस्तुत करती है । वहीं एक कविता ‘भ्रमरगीत’ भी है जो सूरदास के भ्रमरगीत से प्रेरित हैं । वहाँ भी गोपियाँ तर्क करती हैं, सवाल करती हैं लेकिन वह सब कृष्ण को पाने के लिए, अपने प्रेम को पाने के लिए करती हैं । लेकिन नेहा नरूका की गोपियाँ आज की गोपियाँ हैं, जो तर्क, सवाल तो कर ही रही हैं लेकिन अब उनमें उस प्रेम को पाने की ललक-तड़प नहीं है, अब सबसे महत्त्वपूर्ण उनका आत्म-सम्मान है –
“मन जो ईश की आराधना में रमता
अब वियोग और अपमान के तूफान से पराजित होकर ईश की निंदा में रमा है”
गोपियाँ प्रेम से आगे, राजनीति में भी रुचि लेने लगी हैं और ऐसा होना उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व को परिलक्षित करता है क्योंकि वे जान गईं हैं कि प्रेम जीवन का एक हिस्सा है, महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, सम्पूर्ण जीवन नहीं है । वे कहती हैं –
“कहना कि गोपियों ने प्रेम को गम्भीरता से लेना बन्द कर दिया है
अब वे मथुरा-नरेश के दरबार की राजनीति में रुचि लेने लगी हैं”
प्रेम में संपूर्णता की बात भी अनिवार्य है । यह महत्त्वपूर्ण है कि हम जिसे मुहब्बत करें तो उसकी हर चीज़, हर वस्तु से भी मुहब्बत हो । प्रेम में इस दृष्टि की उपस्थिति हमें साहित्य में मिलने लगी है । यहाँ समकालीन कवि नवीन रांगियाल की कविता ‘मैंने उन सबसे प्रेम किया’ सहज ही याद आती है जिसमें प्रेमी उन सभी वस्तुओं से प्रेम करना स्वीकारता है जिनका वास्ता कभी प्रेमिका से रहा हो, मसलन, आईना, सीढ़ियाँ, रूम की चाभियाँ, खूँटियाँ, फ़र्श और वह सबकुछ जिसका स्पर्श उन हाथों और तलवों ने किया था । ठीक इसी तरह कवयित्री भी ‘एक बोसा ले लो’ में संपूर्णता में प्रेम करने के नजरिए पर ज़ोर देती हैं । इस स्तर पर समानता होने के बाद भी कवयित्री एक कदम आगे बढ़ कर प्रेमी से प्रेमिका की उन खराब वस्तुओं से भी प्रेम करने की गुजारिश करती हैं जिनकी उपस्थिति प्रेमिका के जीवन में बनी रहती है, मसलन – कसबाई गंदगी, मुहल्ले का पुराना जर्जर ज़मीन इत्यादि ।
नेहा उन प्रत्येक व्यवस्था पर सवाल करती हैं जो जीवन की सहजता को नष्ट करने में लगे हुए हैं, चाहे वह धर्म की व्यवस्था हो, राजनीति हो या फिर पूंजीवाद हो और यही सवाल एक तरह से सम्पूर्ण व्यावस्था को करारा जवाब भी है कि हाँ, हम आपकी नीति जानते-समझते हैं, आपकी कुटिलता से भली-भाँति वाकिफ़ हैं । ‘पार्वती-योनि’ कविता की एक पंक्ति से ही वे स्पष्ट करती हैं कि धर्म, समाज और सत्ता, तीनों मिल कर सम्पूर्ण स्त्री-जाति को किस तरह शोषित करते आए हैं –
“ लिंगपूजकों ने चूँकि नहीं पढ़ा ‘कुमारसम्भव’
और पढ़ा तो ‘कामसूत्र’ भी नहीं होगा,
सच जानते ही कितना हैं?
हालाँकि पढे-लिखे हैं
कुछ ने पढ़ी है केवल ‘स्त्री-सुबोधिनी’
वे अगर पढ़ते और जान पाते
कि किस धर्म, समाज, और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का”
संग्रह की ‘मुक्ता साल्वे’ कविता एक साथ ही ईश्वर और जाति-व्यवस्था, दोनों पर सवाल उठाती है –
“मुसलमानों के लिए ईश्वर ने कुरान लिखी
ईसाइयों के लिए ईश्वर ने बाइबिल लिखी
ब्राह्मण के लिए ईश्वर ने वेद लिखे
दलितों के लिए ईश्वर ने कुछ नहीं लिखा !
क्या ईश्वर इतना पक्षपाती था ?”
इसी तरह ‘एलिना कुरैशी’ राजनीति के उस रूप पर प्रहार करती है जो सांप्रदायिकता को ज़रिया बना कर अपना काम निकालना, अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है । मौजूदा समय में जिस तरह सांप्रदायिकता फैलाई जा रही ऐसे में ‘विविधता’ कविता जरूरी है कि हम विविधता में एकता की ताकत को पहचाने, जो कहीं न कहीं अब खोती हुई प्रतीत होने लगी है । बेहद बुनियादी बात कवयित्री लिखती हैं कि यह संभव नहीं है कि दो लोग हू-ब-हू एक जैसे हों, लेकिन इसके आधार पर हम एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हो सकते हैं –
“अगर हम एक जैसा होना भी चाहें तो यह सम्भव नहीं
क्योंकि इस संसार में एक जैसा कुछ भी नहीं होता
एक माता के पेट में रहने वाले दो भ्रूण भी एक जैसे कहाँ होते हैं…”
संग्रह की कुछ कविताएँ लंबी हैं जो एक साथ कई परिस्थितियों को बयान और उनपर सवाल करती हैं जैसे ‘कपड़े : नौ कविताएँ’ लड़कियों का अपने पसंदीदा कपड़े पाने के संघर्ष भी बताती है, राजनीति पर कटाक्ष भी करती है, अमीर-गरीब भेद को भी बताती है, कपड़े बनने की प्रक्रिया और कीड़ों पर उसका प्रभाव, वेतन की असमानता, कश्मीर और राजनीति का संबंध, राज-प्रजा की दूरी इन सब पर हमारा ध्यान आकर्षित करती है । इसी तरह ‘गाँव : दस कविताएँ’ पूँजीवाद के प्रसार और प्रभाव, ग्रामीण और शहरी परिवेश का अंतर्द्वन्द्व, किसान की दयनीय स्थिति, मनुष्य का स्वार्थ इन सबको प्रस्तुत करती है ।
इसलिए इस संग्रह के लिए केवल यह कहना या नेहा नरूका के लिए यह कहना कि वे केवल स्त्री-हक़ की ही बात करती हैं यह बहुत ही सतही और अन्यायपूर्ण निर्णय होगा । यह एक ऐसा संग्रह है जो वाकई मानव-जीवन के चौतरफा पहलू पर हमारा ध्यान ले जाता है ।