आज पढ़िए युवा लेखिका अदिति भारद्वाज की कहानी। अदिति दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध कर रही हैं, आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं और हाल में ही आलोचना पत्रिका में प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर उनका आलेख प्रकाशित हुआ जिसकी बहुत प्रशंसा हुई। आप यह कहानी पढ़िए- मॉडरेटर
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घर से निकल जब गली में आती है तो रोज़ की वही कुछ चिर-परिचित झलकियां। पड़ोस में बन रही अट्टालिका में काम-करने वाले मज़दूर बीवी-बच्चों समेत आग के इर्द-गिर्द जमा उसे हसरत से देखते हुए। मानो आग तापने का न्योता। वह मुस्कुराती हुई आगे बढ़ती है। गाड़ियां साफ करता वह नौ-दस साल का सलोना लड़का। उसके चेहरे की लोनाई से तो मानो आँखें नहीं हटती। निरीह-सी हंसी लिए जब रोज़ नमस्ते दीदी कहता तो उसकी सुबह को भीतर तक तर कर जाता। “काश इसे किसी स्कूल भेजा जा सकता। माँ-बाप जाने कौन हैं, इतने छोटे बच्चे से काम करवा रहे हैं।” वह खुद पर झुँझलाती हुई-सी बढ़ती है। ऐन गली के खत्म होने से पहले बेंत की मचिया पर बैठी वह बड़ी-बूढ़ियाँ, जिनके चेहरे पर उम्र ने इतनी रेखाएँ खींच दी हैं कि देवदार के पुराने पेड़ों की मानिंद लगती हैं। भरे-पूरे घरों की ये बहू-बेटेवालियाँ गृहस्थी से सुर्खरू हों धूप में बैठ आपस में कनफूसियाँ करती हैं। उन्हें पार करते हुए वह अक्सर महसूस करती है कि उनकी फ़ारिग बुज़ुर्ग आँखें उसे नज़रों में तौल रही है। कयास लगा रही है। “कौन है ये लड़की जो हर दिन इस वक़्त चाल में हड़बड़ाहट घोले यूं तीर-सी छूटती है।” और गली के मुहाने पर बैठा वह अधेड़ चौकीदार। उस बंद गली के सीमित संसार का अंतिम सदस्य। बारहों महीने सातों दिन उसी लकड़ी के स्टूल पर बैठा आने-जाने वालों पर एक उड़ती निग़ाह डालता रहता। “हर समय कैसे कोई अख़बार पढ़ सकता है?” सोचती हुई वह गली से ऐन सड़क को जा मिलती है।
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“क्या हुआ? आज फिर पानी की बोतल साथ लाना भूल गयी? कृति ने जब उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा तो एहसास हुआ कि वह कॉलेज पहुँच चुकी है।
कृति और उसकी नियुक्ति एक साथ हुई थी इस कॉलेज में। पहले ही दिन वह उसकी आँखों में छिपे बचपने को ताड़ गई थी। पर यूं पहली बार ही किसी से इतना खुलना उसे नहीं आता, इसीलिए उस दिन तो कटी-कटी ही रही। “पहले ही दिन लोगों को सर चढ़ाना ठीक भी नहीं। जान से अधिक दोस्ती हो जाएगी तो उसमें भी आफत।” मन ने उसे चेताया। पर जब सामने वाला हृदय में स्नेह लिए बार-बार प्रहार करता रहे तो फिर इस अनचीन्हेपन की दीवार में सेंध लगना कितनी बड़ी बात थी। फलसफ़ा यह कि अब दोनों इस महाविद्यालय में एक दूसरे की पीठ हैं। मज़ाल किसी की कि एक के पास दूसरे की बुराई कर सकें। दोनों ही अभी अस्थायी हैं पर मित्रता का बैना कई जन्मों के लिए लिखवाया हुआ लगता है।
माथे पर हाथ रखे वह चिल्लाई “उफ्फ़, हर रोज़ भूल आती हूँ। माँ कहती है लापरवाही, पर हो न हो कृति ये अर्ली डिमेंशिया के लक्षण हैं मेरे।”
“चलो हटाओ। अब ऐसा भी नहीं है। तुम्हें पता है न कि पानी भूल भी जाओगी तो मेरी बोतल का पानी तो है ही तुम्हारी मिल्कियत। इसीलिए दनदनाती हुई मुंह उठाए घर से निकल आती हो।” कृति झटकती है।
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अब वह स्टाफ रूम में बैठी बड़ी-सी गोलघड़ी की तरफ ताक रही है। “कितना पुराना होगा यह। किस ज़माने में खरीदा गया होगा? कौन ले कर आया? किसने पसंद किया होगा”? आदत है उसकी इस तरह किसी भी वक़्त अपने आप में ही लापता हो जाने की। देखने वालों को देख कर लगता किस कदर शांत है। पर उसका मन हर वक़्त अपने से संवाद करता रहता है, यह रहस्य तो बस उसे पता है।
“कहाँ हूँ मैं? नौकरी के नाम पर कहाँ फंस गई हूँ?” अपने सामने लड़कियों की उत्तर-पुस्तिकाओं की भारी गठरी को बेज़ारी से देखते हुए वह सोचती है। जल्द ही उसे इन सब को चेक कर लेना होगा। सलीके से सभी के नंबर पहले तो रजिस्टर पर फिर बाद में कॉलेज पोर्टल पर अपलोड करने होंगे। फिर माडरैशन कमिटी को लेखा-जोखा देना होगा। “बस पढ़ाना होता तो कितना अच्छा होता। ये साथ में इतनी सारी और चीज़ें क्यों करनी हैं। इतने नियम-क़ायदे। बस इन्हीं में उलझे रहो। पढ़ाने की गुणवत्ता पर कोई तवज्जोह नहीं। बस ये सारे प्रशासनिक चोंचले करते चलो साल-दर-साल, बिना कोई सवाल उठाए।” कृति से कमोबेश हर दिन ही वह इस तरह के प्रलाप किया करती।
चौंक कर उसी गोलघड़ी पर दुबारा नज़र जाती है उसकी। बस दस मिनट में क्लास शुरू हो जाएगी। “आज का लेक्चर तो शनिवार को ही तैयार कर लिया था। पर जिनके लिए तैयार किया है वो आयें भी तो”।” उसके चेहरे पर थोड़ी निराशा-सी आती है।
सामने बैठी मिसेज़ जायसवाल ने उसके चेहरे को मानो पढ़ लिया हो “क्या हुआ बच्चे। तबीयत ठीक तो है? क्लास लेनी होगी अभी तो?”
मिसेज़ जायसवाल, अर्थशास्त्र विभाग की सबसे सीनियर प्रोफेसर हैं। अगले ही साल सेवानिवृत्त होंगी। सालों के अनुभव ने उन्हें शिक्षा व्यवस्था के प्रति तो कटु बनाया है, पर लोगों के साथ आम तौर पर बड़े ख़ुलूस से पेश आती हैं। चेहरे पर फीकी मुस्कान लाकर वह कहती है “देखें न मैम, कैसा समय आ गया है। पहले स्टूडेंट्स कक्षा में टीचर का इंतजार करते थे और अब हमें कक्षा में पहुँच कर उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि क्लास है, दर्शन दे दो अपने।”
तनिक गंभीर हो मिसेज़ जायसवाल ने अपने चश्मे को ठीक करते हुए कहा “अरे। हाँ-हाँ। अब तो वह ज़माना ही नहीं रहा। इज़्ज़त नाम किस चिड़िया का है कोई जानता भी है? हमने तो अच्छे दिन फिर भी देख लिए। पर सच कहूँ, अब तो पढ़ाने को दिल नहीं करता। क्या रखा है अब इस नौकरी में। पहले तो विद्यार्थी इतने लायक़ हुआ करते कि लगता जीवन सफल हो गया शिक्षक बन कर। आज तक याद आते हैं। पर अब तो कोई पूछने वाला नहीं। तुम नए लोगों के लिए वाकई दुख होता है। कैसे इस नौकरी से निभेगी।”
पास ही बैठी डॉक्टर सारिका, जो लैपटाप पर ताबरतोड़ कुछ लिखती जा रही थीं, सहसा रुक कर इस परिचर्चा में भाग लेते हुए कहती है “तुम तो खैर यहाँ नई हो। चीज़ें तो काफी पहले से बिगड़ने लगी थीं। ख़ास कर के जब से सोशल मीडिया और इंटरनेट ने कब्ज़ा किया है।” मिसेज जायसवाल की तरफ मुख़ातिब होती हुई वह कहना जारी रखती है “मैम आप तो विश्वास नहीं करेंगी कि कैसे मेरी क्लास में बजाय इसके कि बच्चे नोट्स लें, सीधा मेरी बातों को रिकार्ड कर लेते हैं। जो कुछ भी बोर्ड पर लिखती हूँ, उसे कॉपी में उतारने की भी ज़हमत नहीं करते बल्कि यूं फोन निकाला, फोटो खींचा और व्हाट्स एप ग्रुप्स में डाल दिया”।
वह घड़ी की तरफ एक आखरी निग़ाह डाल कर उठ खड़ी होती है। “वाक़ई अजीब दौर है।” और सीधी स्टाफ रूम से बाहर आ जाती है।
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सुबह की खिलती धूप खिड़की की कांच से छन-छन कर उसकी मेज़ पर गिरती है। बड़ा-सा यह कमरा जिसकी ऊंची-ऊंची दीवारें किसी पुराने गिरजाघर की याद दिलाता है, इन दिनों उसका दूसरा घर था। ऑनर्स की सभी महत्वपूर्ण कक्षाएँ यहीं चलती थीं। कुछ एक सब्सिडियरी पर्चों के लिए निचले तल पर स्थित ट्यूटोरियल ब्लॉक में जाना होता था। पर वह भी कितना? हफ्ते में दो-तीन दिन। इस कमरे में तो वह प्रायः दिखाई पड़ जाती है। लंबी-बड़ी खिड़कियों से जिस प्रकार धूप सारा दिन कमरे में उधम मचाती, ठंड में उसका प्रलोभन इतना अधिक था कि क्लास नहीं होने पर भी वह यहीं बैठी अपना काम करती। अभी भी वह मेज पर कोहनी टिकाए एक किताब में डूबी विद्यार्थियों की प्रतीक्षा कर रही है। “दस मिनट बीत गए इनका कोई अता-पता नहीं है। तृप्ति को फोन करती हूँ।” यह सोच वह बैग से मोबाईल निकालती है।
तृप्ति इस कक्षा की क्लास रेप्रेसेंटेटिव है। फोन की पूरी घंटी बीतने के बाद भी फोन नहीं उठाती। वह दुबारा नंबर डायल करती है। “हैलो मैम।जी-जी मैम। सॉरी मैम। बस-बस हम आ ही रहे हैं। वो पहली क्लास में आज हमारा टेस्ट था न। इसीलिए लेट हो गए।” वह हड़बड़ाती-सी एक सांस में कह जाती है। पर उसकी आवाज़ में एक बेतकल्लुफ़ी भी थी जिसे वह भांप कर मन-ही-मन मुसकुराती है।
“जानती हैं सब-की-सब कि ये मैम तो कुछ नहीं कहेंगी। मैम दिखती भी कहाँ है। इनके साथ तो हम बिल्कुल ही दोस्त बन जाते हैं।” उस दिन कक्षा से निकलते प्रकृति की आवाज़ कान में गूंज ही तो गई थी।
स्टाफ रूम तक वह झल्लाती हुई गई थी। सोचा था “आऊँगी साड़ी डाल कर तो शायद इन्हें इनकी टीचर लग सकूँ। जाने मुझे क्या समझती हैं। शायद मेरे पढ़ाने का ग़ैर-रिवायती अन्दाज़ ?” एक ने तो निहायती ढीठ बन कर भरी क्लास में पूछ ही दिया था “मैम आपकी उम्र कितनी है”। “मेरी उम्र से आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए। इतनी है कि आप सबको पढ़ा सकूँ और आपको डांट भी लगा सकूँ। तो चुपचाप पढ़ते चलिए।” कह तो दिया था पर इतनी बड़ी लड़कियों को क़ाबू कर पाना उसे वाक़ई एक चुनौती लगता। नए फ़ैशन की हर नब्ज़ से वाक़िफ़ लड़कियाँ जाने तो कब पढ़ने के लिए वक़्त निकालती कि रही सही क़सर मोबाइल ने पूरी कर दी थी। बीच कक्षा में भी रह-रह कर सेल्फियां खींचा करती। वह क्षमता के अनुसार प्रतिरोध करती। गांधी जी की अहिंसा पर आस्था न होती तो ज़रूर थप्पड़ रसीद करती। पर डील-डौल भी भगवान ने ऐसी न दी कि लोग लिहाज़ करें। उस पर से पढ़ाना भी क्या है तो साहित्य। जिसमें प्रेम से पगी रूमानी कविता पढ़ाते हुए कोई कितना गंभीर रह सकता है। वह लाख सहज-गंभीर बनी रहे, पर यह नई-नई किशोरियाँ मजाल है जो किसी बात को यूं हल्के में जाने दें। आधी तो बस पिछली सीट पर बैठ आँखों-ही-आँखों में बातें करती हँसती रहती हैं और बाँकी की उलूल-जुलूल सवालों से उसे बेचैन। “ मैम, वियोग शृंगार के कितने फेसेज़ होते हैं? “मैम, प्रेम क्या होता है?” उफ्फ़, क्या सब नहीं जान लेना चाहती ये बच्चियाँ। अजीब उम्र में हैं। एक ने तो हद ही कर दी थी “ मैम, आप किस से प्यार करती हैं?” सर पीटते हुए उसने उस दिन कृति से कहा था “क्या ही अच्छा था जो कोई और विषय पढ़ा होता। कम-से-कम ऐसे सवाल तो नहीं किये जाते।” कृति, हंस-हंस कर निढाल थी। “और पढ़ाओ उन्हें दोस्त की तरह। कम सरफिरी होती हैं ये जो उन्हें और क्रांतिकारी बना रही हो।” कृति के अलावा भी कईयों ने उसे आगाह किया है।
देखते-ही-देखते कमरे के सन्नाटे को लड़कियों की खिलखिलाहट और उनके कपड़ों की रंगीनी ने जज़्ब कर लिया। “जल्दी बैठो तुम सब। एक तो पहले ही दस मिनट बीत गए हैं। सिलेबस बचा हुआ है पूरा और तुम लोगों को देर से आने से फ़ुरसत नहीं है।” वह खुद से बातें करती है। नए भर्ती हुए शिक्षकों को बुलाकर प्रिंसिपल ने जो ताक़ीद की थी मानो उसके दिमाग़ पर हावी होने लगता है “आप का पहला दायित्व है कि विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम ख़त्म करवाएँ। टेस्ट और असायन्मेंट्स जल्दी ले कर मार्किंग कर दें। इसीलिए ये क्लास में बच्चों से बातें करने की ज़रूरत नहीं है। वरना आपको तो लगेगा कि आप उन्हें सिखला रहे हैं पर वो आपके फ़ीड्बैक में अपना कमाल दिखाएँगी कि टीचर ने तो कुछ पढ़ाया ही नहीं।कॉलेज की रैंकिंग का सवाल है।सो प्लीज़ स्टिक टू द कनवेंशंस, यू आल।”
एक दूसरे पर गिरती-पड़ती लड़कियां अपनी-अपनी जगहों पर बैठ जाती हैं। वह सब पर एक ग़ौर करती निग़ाह से देखती है। बीस हद इक्कीस की ये लड़कियां जीवन के उस दौर में हैं जहां उन्हें भविष्य की चिंता नहीं है। बस वो एक बड़े से कॉलेज की सुबह की अपनी क्लास में बैठी हुई वर्तमान की रंगीनियों में गुम हैं। कई बाहर से आई हैं। उनमें अपने छोटे शहरों या कस्बों की आत्मा बची हुई है। हॉस्टल या पीजी में रह कर बस वार्षिक परीक्षा में अच्छे नंबर आ जाएँ। उनकी सबसे बड़ी चिंता फिलवक़्त तो यही है। पर सबके चेहरे पर एक अजीब सी बेफ़िक्री है।
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वह उस बेफ़िक्री से परिचित है। अभी कुछ अरसे पहले ही उसने जिया है यह सब। इतनी ही निसफ़िक्र। बड़े नामचीन से कॉलेज में पढ़ती। घर से पहली बार दूर। हॉस्टल में रहना बड़ी बात न भी सही पर उसके लिए तो थी नई बात ही।
“चलो एक आइटम डांस कर के दिखाओ” जुलाई की उस बरसाती रात में जब हॉस्टल की सीनियर लड़कियों ने फर्स्ट ईयर की नई मुर्गियों को एक साथ हाज़िर होने का फरमान जारी किया था तब वह उनका पहला शिकार थी। पहले तो उसे सवाल ही नहीं समझ आया कि ये अंग्रेजी में गिटपिट करती, बदन पर कपड़े के नाम पर बस एक गंजी और निक्कर डाली उसकी सीनियर कह क्या रही है। “जी- जी! मुझे डांस करना नहीं आता दीदी।” वह घिघियाई थी। उसका कहना था कि हंसी के फव्वारे छूट पड़े थे। इंग्लिश ऑनर्स की सबसे फैशनेबल लड़की को दीदी कहने की गुस्ताख़ी तो हो चुकी थी। बाण वापस से तो तरकश पर नहीं आता। “हम नचवाएँ बेटा। अभी सारे स्टेप्स आ जाएंगे।” दीदी के चेले चपाटों की टोली ने लगभग एक साथ कहा था। “म-म..मैम, मुझे सच में डांस नहीं आता। मैं… मैं न वो गाना गा सकती हूँ कोई।” उसने गुहार लगाती हुई नज़रों से उसी की तरह सहमे खड़े बैचमेट्स को देखते हुए कहा था।
सहमते-सहमते ही पहला सेमेस्टर बीता था। पर फिर तो मानो सब कुछ सहज हो आया। हॉस्टल की पहली रात रैगिंग करती सीनियर लड़कियां तो बहुत अच्छी दोस्त बन गईं। फ्रेशर्स पार्टी जो उस साल थोड़े देर से हुई थी, उसके लिए इंग्लिश वाली सीनियर ने ही तो उसे साड़ी पहनाई थी। साथ में नसीहत भी “सिर्फ आईब्रो बनवाने से काम नहीं चलेगा। थोड़ी फेशियल, वेक्सिंग भी करवाओ। वैनिटी नाम की भी कोई चीज होती है कि नहीं ?” एक ने तो ब्लाउस के किनारे से झाँकती चौड़ी स्ट्रैप देख लगभग चीखते हुए कहा था “अरे! अभी तक स्पोर्ट्स वाली पहनती हो। कॉलेज में हो। बड़ी हुई अब।” कितना शर्मिंदा हुई थी वह। उफ्फ़ ऐसे-ऐसे गूढ मंत्र जो बहनों से भरे परिवार में भी उसे नहीं मिले थे, हॉस्टल की सीनियरों ने सिखला दिए। दिन महीनों में और महीने सालों में बीत गए। देखेत-देखते वह खुद किसी बरसाती रात में नई आई खेप की रैगिंग का तमाशा देख रही थी।
कॉलेज और हॉस्टल के वो साल कितनी तेज़ी से बीते। न जाने कितना कुछ सीखा। दुनियाँ को नई आँखों से देखा। छोटे से शहर से आई वह अब कहाँ रह सकी थी पहले जैसी। उसकी सोच को किताबों की दुनियाँ ने एकदम ही तो बदल दिया। क्लास में अपने शिक्षकों की बातों में मानो वह डूब-डूब जाती। विचारधाराएँ क्या होती हैं? समाज में असमानताएँ क्या होती हैं? हमसे पहले न जाने कितने बड़े-बड़े कारनामे कर लोग जा चुके हैं? यह सब उसके छोटे-से अस्तित्व के लिए कितनी बड़ी-सी बातें थीं। और बात सिर्फ कक्षा तक सीमित होती तो भी खैर थी। कॉलेज की लाइब्रेरी में रखीं अंतहीन किताबें, देश-दुनियाँ की अनजानी भाषाओं में पाया जाने वाला साहित्य यह सब भी तो उसे अपनी गिरफ़्त में लेता रहता। कहाँ रह पाते उसके विचार, उसकी सोच, अपने आस-पास को देखने की उसकी दृष्टि पहले जैसी? “मुझे भी कुछ करना है। इस धरती पर अपने जीने को सार्थक करना है। समाज को बदलना है।” छुट्टियों में अपने भाई-बहनों से मिलती तो घंटों अपने कॉलेज के अनुभवों का पिटारा खोल कर बैठ जाती। युवा आँखों का वह सुनहला स्वप्न कितना आदर्शवादी और भावुक हुआ करता था। उतना ही भावुक जितना आदर्शवादी प्रेम की अनुभूति।
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“तुम लोगों ने गुनाहों का देवता पढ़ी है।” जब उसकी साँवली, छरहरी बदन वाली नई शिक्षिका ने कक्षा समाप्त होने के बाद कक्षा में पूछा था तो सबकी आँखें एक साथ चौंकी थीं।
फिर क्या था। सत्रह-अट्ठारह की तरुणियों का कॉलेज की लाइब्रेरी पर ऐसा छापा कम-से-कम कॉलेज के इतिहास में तो अभूतपूर्व था। सबने बारी-बारी से गुनाहों का देवता पढ़ी थी। चटनी की शक्ल रह गई किताब के पन्ने भले हीं रगड़ खा-खा कर जीर्ण हो गए हों, लड़कियों के मन में भावुक प्रेम के अंकुर पनप चुके थे। न जाने कितनी सुधाएँ अपने सपनों के चंदर की रूप-रेखा मन में तैयार कर चुकी थीं। उस पर भी किताब का खुमार कई महीनों तक छाया रहा। प्रेम जैसी भावना से वैचारिक परिचय का यह पहला दौर था। बस बाँकी रह गया था तो व्यावहारिक अनुभव। पर वह भी तो………।
“ मैम आप हमारा टेस्ट कब लेंगी। इन्टर्नल असेस्मेंट में आप हमें अधिक नंबर दे दें मैम। फाइनल परीक्षा में तो वैसे भी कम ही आने हैं हमें।”मानो नींद से ही चौंक पड़ती हो जब तृप्ति उससे पूछती है।
मुस्कुराती हुई आवाज़ में बेबस-सा गुस्सा भरते हुए उसने कहा “ हाँ क्यूँ नहीं। ऐसा करती हूँ पूरे ही नंबर दे देती हूँ। काम ही ख़त्म। उत्तर पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं। क्या… है ना ? खुश अब?” लड़कियां खिलखिलाती फुलझड़ियाँ बन जाती हैं।
सुबह साढ़े नौ से दिन के चार बजे तक का सफ़र किस तरह छात्राओं के शोर और लेक्चर्स की रौ में खत्म हो जाता है, पता भी नहीं चलता। इस पल-पल बीतते वर्तमान में उसके स्वप्नों जैसा आदर्शवादी कुछ भी नहीं था। क्लास-दर-क्लास भर लेने वाली शिक्षक बनने की चाह ले कर तो दिल्ली पढ़ने नहीं आयी थी वह। “कुछ ही महीनों में इस काम से ऊबने लगी हूँ दीदी। वही बेवक़ूफ़ बच्चे। वही कक्षाएँ। सब बस नम्बर की रेस में भागते हुए। सीखने की कोई लालसा नहीं। यहाँ जो सालों से पढ़ा रहे हैं देखना चाहिए उन्हें तुम्हें, किसी भी बदलाव के लिए तैयार नहीं होते। बस हर रोज़ खुद को तैयार कर अपनी तनख़्वाह उठाने आते हैं। सिलेबस से बाहर का मजाल है जो कुछ पढ़ा सकते हैं। उफ़्फ़, उफ़्फ़, उफ़्फ़ मुझे यही करते रहना हुआ तो पागल हो जाऊँगी।” बड़ी बहन को फ़ोन पर न जाने वह समझा पाती भी या नहीं। खौलते हुए उसके मन पर बहन का ढाँढस पानी की बूँदों का असर करता “भाग्य ने इतना सुनहरा मौका थमाया है यूं पढ़ते-पढ़ाते रहने का तुझे अमु। इन लड़कियों को शिक्षा के द्वारा जीवन के मायने समझाने का। कितना कुछ समाज को वह इस तरह से वापस कर सकती है। तेरा जो कुछ अलग करने का सपना था वह यूं भी तो पूरा हो सकता है। पढ़ाने-लिखाने से अधिक रचनात्मक क्या हो सकता है भला।”
पर यह बूँदें कुछ दिनों तक ही मन की सतह पर टिकतीं, भीतर का सूखापन बरकरार रहता। “हूँह, अलग करने का सपना। यहाँ कुछ अलग करने का ठेका लेना ही कौन चाहता है।” याद नहीं उस दिन जब वह ठंड के नाम पर बच्चों को लॉन में ले जाकर पढ़ा रही थी। पास से गुज़र रही प्रिंसिपल ने उसे यूँ घूरा था मानो कोई अनर्थ कर दिया हो। मानती है कि इस नौकरी ने जीवन में एक बड़ा उद्देश्य दिया है उसे। पर फिर भी तो दुविधा उसके मन को उसी तरह धुँधलाए रखती है जैसे पुस्तकालय में पीछे की शेल्फ पर गर्द खाती किताबें।
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स्टाफ रूम में किसी छात्रा से सर खपाती कृति ने उसे देख कर राहत की सांस लेते हुए कहा “भला हुआ जो तुम आ गईं। यह लड़की तो मानो पीछा ही नहीं छोड़ रही थी। क्लास के समय एक्स्ट्रा करिक्यूलर कामों के नाम पर नदारद रहेंगी और फिर बाद में अटेंडेंस के लिए तबाह करती हैं।” आवाज़ में चिड़चिड़ाहट थी।
उसके मन का भूचाल फ़िलहाल शांत था। मुस्कुराते हुए बस इतना भर कहा “ ठीक है। बेकार में खून मत जलाओ। दे दो न अटेंडेंस। ई.सी.ए भी तो कॉलेज का ही काम है।”
यह सुनना था कि पीछे से एकदम ही आ गए डॉ आरिफ़ ने दोनों का अभिवादन किया। हिम्मत करते हुए उसने कृति की तरफ मुखातिब होते हुए पर आँखें उस पर जमाए बेधड़क पूछ लिया “ क्लासेस तो सारे खत्म हो गए होंगे। जाने से पहले कॉफी हो जाए चल कर कैन्टीन में?”
नया-नया ही अंग्रेजी विभाग में आया था आरिफ़। हमउम्र था। लंबी कदकाठी। चौड़ा माथा। चाय की रंगत लिए तन-बदन पर कॉर्डरॉय का ढीला बिन बाहों का जैकेट खासा जँचता। हाल ही में किसी प्रतिष्ठित पत्रिका का सहायक संपादक भी चुना गया था। शेक्सपियर पर खासी पकड़ के बावजूद मिजाज़ से फ़ैज़ और फ़राज़ का मुरीद। वह कुछ उत्तर देती कि ज्योति आमंत्रण स्वीकार कर मानो बांह से उसे धकियाते स्टाफ रूम से बाहर निकल आती है। “उफ्फ़! अब ये नया बखेड़ा। यह कृति भी न। चाशनी बनने का कोई मौका नहीं छोड़ती।” मन ही मन कृति को सौ-सौ कोसने देती हुई वह उनके साथ चल पड़ती है। कैन्टीन कॉलेज के नाम के अनुरूप तो नहीं पर, कामचलाऊ था। अलबत्ता कॉफी वाकई अच्छी थी। कई-कई दिन तो वह बस कॉफी पर ही गुज़ारा किया करती। स्टाफ रूम में चिकनाहट भरा समोसा जरूर मँगवाया जाता पर वह भी पहले-पहल भाया करता था। अब तो वह प्रायः घर से ही अपना खाना लाती।
ढलती हुई सर्दियों की यह शाम हवा के साँय-साँय से थरथरा रही थी। सूरज मानो कोई शरारती बच्चा हो। कैंपस में लगे मौलसिरी के पत्तों पर उसके दिन भर अठखेलियाँ करते रहने के निशान छूट गए थे। पतझड़ ने लाल-पीले पत्तों से मोटा दरीचा-सा ही बिछा दिया था। उसकी पुरानी हो गयी कोल्हापुरी चप्पलों तले करकराती पत्तियों में एक अनोखा सुर था। “पता है अमू, डॉ. आरिफ़ न तुम्हें बहुत पसंद करते हैं! बेचारा बोल नहीं पाता पर तुम तो उनकी तरफ देखती तक नहीं। देखती तो पता चलता उन आँखों की शिद्दत का।” कृति मेट्रो तक जाने वाली ऑटो के इंतज़ार में उसका सर खा रही है। “सही है। अब तुम भी उसी की तरह शायरी करने लगो। कुछ और बांकी नहीं रहा करने को तो इश्क फ़रमाती फिरूँ अब से।” वह उसे झिड़कती नज़रों से कहती है।
“अरे, मैं बना नहीं रही। वह वाकई बड़ी हसरत लिए तुम्हें देखता है। आँखें झूठ नहीं बोलतीं। और बुरा ही क्या है इसमें। देखो, तुम्हारा नाम भी अमृता है। कविताएँ तो तुम भी लिख लेती हो। चलो…मतलब…. नाम को ही सही। तुम इधर अपने ही ख़यालों में लापता और उधर इन जनाब का मिजाज़ भी शायराना। साहिर न सही आरिफ़ ही सही। खूब छनेगी दोनों में।” बाँहों पर ज़ोर की चिकोटी काटते हुए कृति उससे और ठनती है।
“तुम नहीं मानोगी। बड़ी बेशरम लड़की हो। क्या है ये सब। ऐसे यूं लोगों की सिर्फ शायरी के भरोसे छनने लगी न तो सब ही लैला-मजनूँ हो जाएँ। बड़ी आई मैच मेकिंग करने। तुम ही बन जाओ उसकी अमृता ” वह उसकी चोटी खींचती है। ठंड में माथे पर पसीने की बूँदें हालाँकि उसके भी उभर आयीं थीं।
कलाई में बंधी घड़ी में शाम के पाँच बज गए हैं। वह अब मेट्रो में बैठी आस-पास खड़ी भीड़ पर टकटकी लगाए हुए है। मन में आरिफ़ के साथ पीई गई कॉफी के क्षणों को दुहरा रही है। “मैं तो बस चाहता हूँ कि लिट्रेचर चाहे किसी भी भाषा का हो उसके पाठक बने रहें। भाषा आख़िरकार भाषा है। है न अमृता?” आरिफ़ ने जब अचानक बात का रुख उसकी तरफ़ किया तो वह इसके लिए तैयार न थी।
“उम्म, हम्म……। पर…….दिन-ब-दिन इस यूटोपिया से हम दूर नहीं हो रहे हैं? यहाँ तो बस अब वह चीज़ पढ़ायी जाएँगी जिनसे पैसे मिलने की गारेंटी हो। भला भाषा और साहित्य को पूछता ही कौन है। वह अब इन विभागों में फ़क़त चंद दिनों की मेहमान है।” तल्ख़ी को छुपाते हुए जब उसने जवाब दिया तो जाने क्यों आरिफ़ उसकी तरफ़ देखता ही रहा। वाक़ई आँखें झूठ नहीं कहतीं।
कुछ देर और फिर उसका स्टेशन आ जाएगा। वह एक बूढ़े व्यक्ति को अपनी सीट देती हुई उठ खड़ी होती है। पर खुद से सम्वाद जारी है। “हूँह। पसंद करता है। करे अगर करता है तो। उसे क्या।” पर अगले ही पल थोड़ा नरम पड़ती है “ वैसे कितना ज़हीन है। किस तरह से हमसे हमारी भी पूछ रहा था। ये नहीं कि बस अपनी शेखी बघारते रहे। और एक कॉफी से तो मानो मन ही नहीं भरता उसका। बिल्कुल मेरी तरह। कैसे हम दोनों ने ही दो-दो कॉफ़ियाँ मँगवाईं। कहीं उसे शक तो नहीं हुआ कि मैं भी न देख कर भी उसे ही देख रही थी? वो गले पर दायीं तरफ़ निशान किसी चोट का था?” वह अनायास मुस्कुराती है। “उफ्फ़ इस कृति ने बोल-बोल कर मानो मुझे भी पागल कर दिया है। ऐसा सम्भव भी है भला। इतना सहज होता है क्या कि बस चाहने भर से कुछ मिल जाए।” भुनभुनाती-सी वह मेट्रो की सीढ़ियाँ चढ़ बाहर निकल आती है।
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अब वह मुख्य सड़क को छोड़ अपनी उस गली में आ चुकी है। गहराते अंधेरे ने शाम में मानो ठंडाई घोल दी हो। चौकीदार उसे देखते हुए ही दूर से चीख पड़ता है “ आ गई बिटिया। आज पेपर में तो बताय रहे कि बहुत ट्रैफिक रहा रोड पर। दिक्कत तो नहीं भई रस्ते में।” उसे उन बूढ़ी नज़रों की चिंता दिन भर के थकान के बाद बेहद भाई। “नहीं चचा। मेट्रो लेती हूँ न तो ट्रैफिक का पता ही नहीं चला। आप ठीक हैं ?” बूढ़ा चौकीदार मानो जवान हो आया “ हाँ-हाँ बिटिया। हम त एकदमे ठीक हैं। ई दिन भर न्यूज पढ़े रहत न, इसीसे पूछे रहल।”
जिस स्थान पर सुबह वह उन बड़ी-बूढियों को छोड़ आई थी, अब उनकी जगह पर मुँगौड़ी-अदौड़ी सूख रहे थे। वह मन-ही-मन मुस्कुराती हुई सोचती है। ओह हो। आज तो काफ़ी काम किया है दादियों ने। कल कनफूसियाँ करती हुई कहेंगी “ इन बहुओं को तो हम बैठे-ठाले ठीक ही नहीं लगते। कुछ-न-कुछ में उलझाए रखती हैं। है कि नहीं बिट्टू की दादी।” वह खुली गली में खिलखिला उठती है।
दिन भर काम से तपे-खपे मज़दूर अब शाम ढले मकान के बाहर लगे पानी के मोटे पाइप से अपने हाथ-पाँव धो रहे हैं। औरतों ने लकड़ियों और गोयठे से सुलगाई आंच पर तवे चढ़ा दिए थे। केरोसिन और धुएं की महक से लदी रोटियों की मिठास को वह अपने जीभ पर महसूसती है। कुत्ते भी बस इसी मिठास की आस में चूल्हों के इर्द-गिर्द मंडराते हैं। वह जाने क्यूँ उमगती-सी घर की सीढ़ियाँ चढ़ती है। “आरिफ़-अमृता, अमृता-आरिफ़, उफ्फ़ निरी सरफिरी, निरी सरफिरी।”
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