विभा रानी की कहानी ‘सीता के सकल देखी’
आज विभा रानी की कहानी पढ़िए। विभा रानी हिन्दी और मैथिली की लेखक, अनुवादक, नाट्य-लेखक, नाट्य व फिल्म कलाकार व फोक प्रेजेंटर हैं। सत्रह नाटक, तीस किताबें (कविता, कहानी, नाटक, अनुवाद, लोक साहित्य, स्त्री विमर्श की), दो फिल्में, एक टीवी सीरियल लिखे हैं। गायक के रूप में फिल्म ‘भोर’ के लिए स्वर दिया है। दो फिल्मों के गीत लिखे हैं। एक्टर के रूप में आप इन्हें फिल्म ‘लाल कप्तान’ (अमेज़न प्राइम) और वेब सीरीज ‘महारानी’ (सोनी लिव) में विमला देवी के रूप में देख सकते हैं। हीलिंग वर्कशॉप, नाटक ‘पॉपकॉर्न ब्रेस्ट्स, कविता-पाठ व काउंसिलिंग के जरिए कैंसर जागरूकता अभियान। सत्ताईस से अधिक सम्मान – साहित्य व रंगमंच के लिए, जिसमें 2021 में मिला अद्यतन सम्मान है- नेमिचन्द्र जैन नाट्यलेखन सम्मान, 2020 (नाटक- प्रेग्नेंट फादर) व किरण कथा सम्मान, 2021 (मैथिली कथा संग्रह- रहथु साक्षी छठ घाट)। डहकन यानी गाली- गीत को ‘नमक: स्वाद– गाने और खाने का’ और ‘खिस्सा कहे खिसनी’ (किस्सागोई) के द्वारा मिथिला की लोक-संस्कृति को देश-विदेश में परफ़ोर्मेंस के माध्यम से पहुंचाना। अवितोको के माध्यम से हर कलात्मक क्षेत्र को प्रस्तुति मंच उपलब्ध करवाना और ‘बड़ी बिंदी’ फेसबुक ग्रुप द्वारा नारी सशक्तिकरण पर काम। यूट्यूब चैनल ‘बोले विभा’ द्वारा सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक विषयों पर कार्यक्रम व ‘BB का Male किचन’ द्वारा पुरुष रसोई को बढ़ावा। मुंबई में निवास। संपर्क-avitokobooks@gmail.com
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कहते हैं, सीता द्वारा अपने में समा लेने के अनुरोध पर धरती बोलीं- “विदेह के नाम से जाने जानेवाले राजा जनक की बेटी, कण-कण में व्याप्त कला, संस्कृति, रीति-रिवाजवाली मिथिला की भूमि-पुत्री! तुम्हें पिता ने अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र, तकनीक जैसे बाहरी लोकाचार की शिक्षा दी और माता ने घर-गृहस्थी और लोक-जीवन में काम आनेवाले रीति-रिवाजों की। इन सबसे भरी-पूरी तुम अपने-आप में एक शक्ति स्वरूपा बनी। फिर ऐसा क्या हुआ कि तुम इतनी कमजोर हो गई कि मुझमें समाना चाहती हो? ….आत्महत्या?”
सीता ने कहा- “माँ! मैं आपके इन प्रश्नों के उत्तर संभवत: न दे पाऊँ।“
“कारण?”
“क्योंकि तब यह समाज और विशेषकर मेरे पति राम बहुत से प्रश्नों के घेरे में आ जाएंगे।“
“परंतु, तुम्हें तो अपना पक्ष रखना चाहिए। वरना, लोग तुम्हें ही जन्म-जन्मांतर तक दोषी मानते रहेंगे। ध्यान रखो कि निरपराध सजा भुगतना सही राह नहीं है। यह भावी पीढ़ी के लिए भी घातक है। क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारे मौन से आनेवाला समाज और उसमें रह रही स्त्रियॉं की जीवन-गति और भी मंद पड़ जाए और वे भी तुम्हारी तरह सब कुछ सहें और जब सह ना पाएँ तो धरती में समा जाएं? और मैं? मैं जो रत्नगर्भा हूँ, धारण करनेवाली हूँ, फल-फूल, अनाज, पानी देकर लोगों को जीवन देनेवाली हूँ, लोगों के जीवन लेनेवाली के रूप में जानी जाऊँ?”
सीता सोच में पड़ गई। …वह कहाँ मरना चाहती है! दुनिया में ऐसा कौन है जो अपने ही हाथों अपने प्राण लेना चाहता हो? कितनी मिन्नतों से तो एक मानुष तन मिलता है।
सीता ने एक ओर असहाय खड़े लव-कुश और दूसरी ओर याचक बने राम की ओर देखा। लव-कुश के प्रति वे मोहार्त हो गईं। वहीं राम को देख उनका आक्रोश बढ़ता गया। ओह! पुरुष अपने अहम में किसी स्त्री का विनाश कैसे कर सकता है, राम इसका जीवंत उदाहरण हैं। भले वे दुनिया के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम हों, मेरे लिए तो वे मेरी अस्मिता, मेरी गरिमा को मिटानेवाले रहे हैं। किस मुंह से मैं इन्हें अपना आदर्श पुरुष मानूँ?
सीता का मुंह जैसे सदियों से जकड़े कपाट पर से हटे किल्ले की तरह खुल गया। बाढ़ के पानी की तरह आंसुओं की धार बह निकली। उत्तेजना, दुख और किंचित असहायता में स्वर काँपने लगे- “मैं धरती की बेटी! पिता जी कहते, मैं ही उनकी बेटी और बेटा हूँ। मुझे ही उनका राजपाट संभालना है। लेकिन, पिता भी कहाँ निष्पक्ष निकले? स्मरण है मुझे वह दिन! दौड़ती हुई पिता जी के पास पहुंची थी और कहा था-
“मैंने आज धनुष उठा लिया पिता जी!”- प्रसन्नता और उत्तेजना से मेरा स्वर काँप रहा था। यद्यपि, वह कोई चमत्कार नहीं था। विशेष तकनीकी ज्ञान के सहारे मैंने शिव-धनुष उठाने की कला जानी थी और तनिक अभ्यास के बाद उसे उठा लिया था। परंतु, पिता जी तो किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गए। उनको तो यही बहाना मिल गया एक वीर योद्धा जामाता पाने के लिए, जो उनके बाद उनके राजपाट को संभालता। क्या बेटियाँ राजपाट नहीं संभाल सकतीं? पूजा करने के लिए सभी को दुर्गा और काली चाहिए, शेष समय के लिए बेटियाँ लाजवंती!
गृह जामाता! पिता जी भी कभी कभी कैसे भोले बन जाते हैं! स्त्रियाँ वधू बनती आई हैं, बनती रहेंगी। यह उनकी नियति बना दी गई है। परंतु, कौन पुरुष गृह जामाता बनना चाहेगा? पुरुषों को तो हर समय अपने तथाकथित मान-सम्मान की चिंता सताती रहती है। समाज में जाने कैसे मान लिया गया कि वधू बनकर ससुराल-गृह जाना सम्मान का विषय है, जबकि गृह जामाता अपमान का।
विवाह के समय नगर की स्त्रियाँ राम से परिहास करती रहीं-
सुनु सखि एक अनुपम घटना, अजगुत लागत भारी हे,
खीर खाए बालक जनमाओल, अवधपुर के नारी हे…
ये डहकन अर्थात गाली गीत मेरे कानों में पड़ते रहे। घूँघट के भीतर से मैं भी मुसकुराती रही थी। सही तो है। हम मिथिला की स्त्रियाँ! मैं राजा जनक जैसे ज्ञानी की बिटिया। और यह कैसी बात- यज्ञ से निकली खीर के खाने से तीनों माताएँ गर्भवती हुईं और चारों भाइयों का जन्म हुआ!
विदाई के समय स्त्रियाँ समदाओन गा रही थीं। माता सुनयना के आँसू थम न रहे थे। मेरा कलेजा चाक-चाक हुआ जा रहा था। अब कब अपनी प्यारी मिथिला को देख पाऊँगी? यहाँ की माटी छू पाऊँगी? यहाँ के गाछ- बिरीछ, खेत, पोखर, झूले, बगीचे, सखी- सहेलियाँ! क्या पिता जनक का मेरे ऊपर अब भी पहले जैसा ही अधिकार रह जाएगा? क्या माता सुनयना के सम्मुख हम जिसतरह से नखरे करते थे, वहाँ राम की माता के सम्मुख भी कर सकूँगी? ब्याह के बाद तो वे ही मेरी माता हुईं न माते! बस, थोड़े धीरज की बात यही थी कि हम चारों बहनें चारों भाइयों से ब्याही जा रही थीं। बहुत अकेलापन का अनुभव नहीं होगा। स्त्रियाँ गाती रहीं, मेरे नयन बहते रहे-
सीता के सकल देखी, झखथिन्ह जनक जी कि
आबे सीता रहती कुमारी गे माई!
कुमारी गे माई! बेटियों के लिए सभी माता-पिताओं का अंतिम लक्ष्य उनका ब्याह ही क्यों होता है? पिता जी ने मेरे लिए स्वयंवर रचाया। सुनने में यह शब्द कितना अच्छा लगता है न! स्वयंवर- अर्थात, कन्या अपना वर स्वयं चुन सके। परंतु, यह तो आप भी जानती होंगी माता कि सशर्त स्वयंवर में अपनी इच्छा- अनिच्छा का क्या स्थान! स्त्रियॉं के जीवन में राजनीति इसतरह प्रवेश करा दी जाती है माते!
मेरे ससुर की तरह ही मेरे पिता भी बूढ़े हो रहे थे। परंतु, पिता ने जिस कामना के साथ मेरा ब्याह राम से कराया, वह धरी की धरी रह गई। मुझे अपने सास-ससुर और ससुराल के धर्म के पालन की शिक्षा दी गई। यह शिक्षा वरों को भी दी तो जानी चाहिए न माता! अपने सास-ससुर के प्रति क्या उनका कोई कर्तव्य नहीं? …मेरे कहने पर कि “मिथिला का भार भी हम पर ही है”, राम हँसकर टाल गए। उन्हें अयोध्या याद रही, मिथिला नहीं। ब्याह के बाद कभी वे दुबारा अपनी ससुराल नहीं गए।
पिता के घर में सदैव अपने अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र-ज्ञान का अभ्यास करती रहनेवाली मैं! यहाँ अभ्यास न होने से इन सबके भूल जाने का डर था। और क्यों भूल जाऊं मैं? मैंने पिता-गृह की तरह ही यहाँ भी अभ्यास करना चाहा, परंतु, मुझे इसकी अनुमति नही दी गई। एक आदर्श बहू के सारे लक्षण गिनाते हुए कहा गया कि माँ-बाप के घर के खेल-कूद को अस्त्र-शस्त्र या शास्त्र-ज्ञान का नाम न दूँ। पता नहीं, माता कैकेयी ने किस तरह से अपने कौशल व ज्ञान को अद्यतन बनाए रखा होगा?
अयोध्या में मुझे याद आते रहे- अपने खेत, बगीचे, पोखरे, झूले, अमराई, मखाना और मिथिला की शुभ प्रतीक मछली। बंद महल में रहने का मुझे अभ्यास न था। उस बंद महल में मेरा दम घुट रहा था। इसलिए, जब राम के वन गमन की बात आई तो मुझे एक प्रकार से प्रसन्नता ही हुई। और संभवत: इसीलिए, हठ करके मैं राम के साथ वन आ गई। सोचा, यहाँ खुले में सांस ले सकूँगी। जंगल के पेड़-पौधों के साथ अपना नाता जोड़ सकूँगी। नदी की धार की कल- कल में अपनी प्यारी मिथिला के गीत गाऊँगी- सोहर, झूमर, कजरी, चैती, फगुआ। पहाड़ों से भी ऊंची अपनी तान छेडूंगी और वन के पंछियों की तरह पंख पसारकर मैं भी हवा में उड़ सकूँगी।
यह जानकर कि लक्ष्मण भी राम के संग वन जा रहे हैं, मैंने उर्मिला को भी संग लेना चाहा। सोचा, वे दोनों भाई रहेंगे उधर, हम दोनों बहनें रहेंगी इधर। साथ खेलीं, साथ बढ़ीं, साथ-साथ ब्याही भी गईं तो अब निपट जंगल में भी साथ रह लेंगी। और सबसे बड़ी बात तो यह कि मेरी ही तरह ऊर्मिला भी अपने पति के साथ रह पाएगी। पर, लक्ष्मण इसके लिए तैयार नहीं हुए और ऊर्मिला मेरी तरह हठ ना कर सकी! रात में लक्ष्मण हमारी रक्षा के लिए जागते या ऊर्मिला को स्मरण करते, पता नहीं। परंतु, रात्रि के एकांत में निकली एक अर्थहीन तीव्र सांस भी मुझे गहरे संकोच में डाल जाती। जागे हुए लक्ष्मण पता नहीं, क्या सोचें! हर रात मैं एक ग्लानि भाव से सोती और उसी भाव से जगती। इस ग्लानि-भाव को मैं किसके साथ बाँटती!
यहाँ दोनों भाइयों के लिए मैं बोझ बनी रही। ये दोनों बाहर निकलते और लक्ष्मण मेरे लिए एक रेखा खींच जाते। वन में भी मैं घर में बंद! मुझे क्रोध आता। मेरी रक्षा का भार! पिता से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त मैं अपनी रक्षा में सक्षम थी। लेकिन, तब मेरे घर के पुरुषों का अहम कैसे संतुष्ट होता! दिन भर ये दोनों बाहर रहते और रात में लक्ष्मण जागकर पहरेदारी करते। किसलिए? क्या राम इतने अक्षम थे?
अपने स्त्री होने का सबसे अधिक क्षोभ तो मुझे तब हुआ, जब दोनों भाइयों ने सूर्पनखा के प्रणय निवेदन का उपहास उड़ाकर उसके नाक-कान काट लिए। क्या स्त्री को अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का कोई अधिकार नहीं? एक स्त्री के प्रणय निवेदन के लिए उसे इतनी बड़ी सज़ा? और, उसपर आप यह भी चाहेंगे कि सभी इसपर सहमति जताएँ और इसके विरुद्ध कोई स्वर भी न निकाले?
रावण ने अपनी बहन का बदला लिया। मेरी दृष्टि में वह बहुत सही था। एक भाई द्वारा अपनी बहन की अस्मिता की रक्षा! पीड़ा मात्र इतनी हुई कि हर बदले में हम स्त्रियॉं अकारण ही घसीट ली जाती हैं। एक स्त्री के अपमान का बदला दूसरी स्त्री के अपमान से। रावण ने अपनी बहन का बदला मेरे अपहरण से लिया। बताइये तो माते! अन्य समय तो हम स्त्रियाँ निर्बुद्धि, निर्बल, असहाय होती हैं। किन्तु, इस तथाकथित मान-मर्यादा के समय हम अचानक इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो जाती हैं कि प्रतिष्ठाओं की सारी नौका-पतवार हमें थमा दी जाए?
आज राम यहाँ याचक की तरह खड़े हैं। परंतु, इनसे पूछिए कि इन्होने मेरे साथ क्या किया? एक धोबी के कहने पर मुझे त्याग दिया। वह धोबी भी तो पुरुष ही था न! पुरुष सत्तात्मक संसार में हम स्त्रियॉं की यही नियति है माते, चाहे वह सीता हो या सूर्पनखा।
साधु वेशधारी रावण को लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलकर भिक्षा देना! इसे मेरा विद्रोह ही समझिए माते, उस लक्ष्मण रेखा के विरुद्ध। यदि यह रेखा खींची नहीं जाती तो संभवत: मेरा विवेक अपना निर्णय लेता। संभवत: तब मैं बाहर निकलती ही नहीं। एक साधु दरवाजे से लौट जाए तो लौट जाए! भीख मांगनेवाले की अपनी कोई पसंद-नापसंद नहीं होती माते! लेकिन, एक सुशिक्षित स्त्री की छठी इंद्रिय पर भी पहरा बैठा दिया जाए तो वह जाग्रत कैसे होगी! रावण से तो मैं भी भिड़ सकती थी। अंतत: मैं भी तो शस्त्र-अस्त्र में निपुण थी। लेकिन, अभ्यास छूट जाने और बंधन में बांध दिये जाने से सब छूट गया।
हंसी आती है माते! भोजन बनाना ही हम स्त्रियॉं का मूलभूत दायित्व बना दिया गया है। मेरे माता-पिता की दी हुई सारी शिक्षा ससुराल में भात-दाल राँधने और हर दिन नवीन व विविध पकवान का नेयार करने में निकल गई और शेष जंगल में कोमल, सुकुमार और आज्ञाकारिणी पत्नी बनी रहने में। हम स्त्रियाँ, चाहें लाख विरोध करें, रहती वे अपने पति की ही हैं। रावण ने मुझे अशोक वन में डाल दिया। वहाँ भी मैं राम को ही सुमिरती रही। संभवत: वे भी मेरे वियोग में व्याकुल रहे हों। लेकिन, क्या मैंने सपने में भी सोचा कि मेरे बिना राम कहीं किसी अन्य स्त्री के संपर्क में आ गए होंगे? स्त्रियॉं का यह सहज विश्वास उन्हें जीने का संबल देता है। परंतु, पुरुषों में इसी का अभाव उन्हें सदैव असुरक्षित बनाए रखता है, जो अंतत: हमें ही अनंत वेदना की अतल गहराई में धकेल देता है। बताइये माते, किस आधार पर राम ने मेरी अग्नि परीक्षा करवाई? क्यों मुझ पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया? क्यों मेरा त्याग किया? अपनी जनता को संतुष्ट कर राजधर्म में उत्तीर्ण हो गए। और पति धर्म? जंगल के जानवर भी किसी गर्भवती स्त्री की रक्षा करते हैं। इन्होने तो मुझे भारी गर्भावस्था में त्याग दिया! एक बार भी न सोचा कि इस बीहड़ जंगल में मैं कैसे इनकी संतान को जन्म दूँगी? कैसे उन्हें पालूँगी- पोसूंगी?
आज ये याचक भाव से मेरे सम्मुख खड़े हैं। विनती कर रहे हैं कि पिछली सारी बातें भुलाकर मैं इनके साथ लौट जाऊँ। कह रहे हैं, मेरे सिवा किसी अन्य स्त्री की कल्पना तक न कभी की। अश्वमेध यज्ञ मे मेरी स्वर्ण-प्रतिमा बनाकर इनके बगल में बिठाई गई। पूछिएगा माते, वह मूर्ति घूँघटवाली थी या बिना घूँघट की?
चलिए, आज मैं लौट भी जाऊँ इनके संग! परंतु, …माँ! इस बात की क्या आश्वस्ति कि कल इनकी जनता फिर से मुझ पर यह आरोप ना लगा दे कि मेरे ये बच्चे राम के नहीं या जंगल में इतने दिनों तक मैं बिना पति के कैसे रही? यह तो आप भी जानती होंगी माँ कि पुरुष का मुंह या हाथ एक बार खुला तो खुला ही रह जाता है।
मुझे क्षमा करें माते! अब अपनी गोद में ले लें। बहुत दिन हो गए आपके स्पर्श का सुख पाए हुए। आज फिर से आपकी नन्हीं बिटिया बन जाना चाहती हूँ- बचपन की सारी निश्चिन्तताओं के साथ। आज मुझे अपना निर्णय लेने दें माते! पहली बार यह अवसर आया है। यह भी जान और सुन लें माते कि आप यदि नहीं लेंगी अपनी गोद में तो मैं अग्नि, जल, पहाड़ या किसी भी हिंस्र जानवर की शरण ले लूँगी, परंतु लौटकर न अयोध्या जाऊँगी, न राम के पास, बस! हाँ, यह अवश्य चाहूँगी अपने पुत्रों से कि भले मेरी स्थिति देखकर आज वे अपनी माँ के प्रति द्रवित हो रहे हैं। पिता के प्रति उनका क्रोध जाग रहा है। परंतु ऐसा न हो कि पति बनते ही वे भी राम बन जाएँ।“
कहते हैं कि सीता इतनी विह्वल हो गईं, उनकी आँखों से इतने अश्रु बहे कि जल-प्लावन की स्थिति आ गई। मन का दाह दावानल बन गया। मन का क्षोभ मेघ की गर्जना में बदल गया। धरती माता यह देख सहम उठीं- संसार में प्रलय ना आ जाए! एक को बचाने के पीछे कहीं पूरी सृष्टि ना नष्ट हो जाए! अंतत: वे धरती हैं। उनका काम है धारण करना- जीवित और मृत, सुन्दर और असुंदर, हर्ष और विषाद – सबकुछ। यह सोचकर उन्होने झट से सीता को अपनी गोद में उठाया और पल भर में विलीन हो गईं। पानी फिर भी बरसता रहा। बादल फिर भी गरजते रहे। धरती फिर भी सूखी रही। ###
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