अनुकृति उपाध्याय के उपन्यास ‘नीना आंटी’ का एक अंश
अनुकृति उपाध्याय का उपन्यास आया है ‘नीना आंटी’। यह एक ऐसी किरदार है जिसको लेकर आजकल ख़ूब लिखा जा रहा है। अपनी शर्तों पर जीने वाली, समाज के क़ायदों को न मानने वाली। राजपाल एण्ड संज से प्रकाशित उपन्यास में कैसी हैं नीना आंटी, इस छोटे से अंश में जानते हैं-
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नीना आँटी इस छोटे से पहाड़ी क़स्बे में अपने छः कमरों वाले बड़े-से बँगले में रहती हैं. ‘धुर अकेली,’ जब भी नीना आँटी का ज़िक्र आता है, सुदीपा की मम्मी और मौसियाँ, मामा, दूर-पार के रिश्तेदार, यहाँ तक कि पुराने परिचित-पड़ोसी भी भौहें उठाकर, आँखे चढ़ाकर, होंठ बिचका कर कहते हैं.
“एकलखोरी है नीना, और बिल्कुल बावली.” मामा का स्वर एकदम सख़्त-करख़्त हो जाता है, “बेवजह सबसे दूर जा कर बसी है, घर-शहर का कोई साथ नहीं, नौकर भी सब वहीं आस-पास के रखे हुए हैं. दुनिया भर की चीज़ें अलग जमा कर रखी हैं, एक दिन कुछ अनर्थ हो जाएगा तो दुनिया हमें कहेगी. सब चुरा ले जाएँगे, एक तिनका तक नहीं बचेगा…”
अनर्थ की ये भविष्यवाणी चोरी-चकारी तक ही सीमित नहीं रहती. “बीच रात गला काट कर भाग जाएँगे, हमें खबर भी नहीं होगी.”
“देखना एक दिन वह माली ही कोई कांड करेगा, शक्ल से ही गलकट जरायमपेशा दिखता है.”
“और उसका ड्राइवर! मैं भरी दुपहरी बीच शहर में भी उसको गाड़ी के पास फटकने न दूँ और नीना पहाड़-घाटी सब जगह उसके साथ अकेली घूमती है …”
सुदीपा समझ नहीं पाती कि सब को नीना आँटी के साथ दुर्घटना घटने का डर है या दुर्घटना घटने की प्रतीक्षा.
ऐसी भीषण भविष्यवाणियों के बावजूद नीना आँटी बरसों से पहाड़ के इस अलग-थलग शांत कोने में निर्द्वन्द्व रह रही हैं. उनके घर में काम करने वाली दाई से लेकर दूध-अख़बार लाने वाला लड़का तक उनके प्रति समर्पित हैं. उन्हें अपने छोटे से दल की पूरी वफ़ादारी हासिल है. सुदीपा ने देखा है कि उन्हें छींक आने पर आभा ताई कहने से पहले काढ़ा बनाने लगती हैं, ड्राइवर डॉक्टर को बुला लाता है, माली अदरक-तुलसी और छत्ते का ताज़ा शहद दे जाता है और दूध-अख़बार लाने वाले लड़के का मुँह कुम्हला जाता है. नीना आँटी के भीतर जैसे सुखों का कोई गुप्त सोता है, हमेशा मुस्कुराती रहती हैं, झूठमूठ की मजबूरी वाली मुस्कान नहीं, कि दुखी होने का कोई कारण नहीं सो मन मसोस कर टेढ़ा-तिरछा मुस्कुराओ, बल्कि खुले, खिले दिल वाली मुस्कुराहट. “नीना आँटी की स्किन कितनी सुंदर है न? और उनकी स्माइल…” सुदीपा और उसके भाई-बहन उनके मोती-से दाँत सराहते नहीं अघाते – सम, कतार में खिले मोगरा फूलों सी दन्त-पंक्ति, उनके गहरे रंग के भरे-भरे होंठों में सदा झलकती.
“सिगरेट पी-पी कर होंठ काले कर लिए उसने, ऐसी बुरी लत… कमज़ोर चरित्र का लक्षण होती हैं ये लतें …” मम्मी कहतीं.
“पापा और सारंग भाई और टुन्नू मामा भी सिगरेट पीते हैं.”
“हर बात में बराबरी नहीं होती, दीपू. अगला कुएँ में गिरे तो हम भी गिरें?”
“वे सब कुएँ में गिर रहे हैं तो आप उन्हें कुछ क्यों नहीं कहतीं?”
“बेकार की बहस मत करो. अनवुमनली है सिगरेट पीना, मुँह में अटका कर लुच्चों जैसे धुएँ के छल्ले उड़ाना…”
सुदीपा ने वह क़िस्सा कई बार सुना है – कैसे नीना आँटी को यूनिवर्सिटी के स्टाफ़ रूम की खिड़की के पास खड़े हो सिगरेट पीते देख कर लड़कों ने हड़ताल कर दी थी. “क्लासेज का बायकॉट. नौकरी छोड़ने की नौबत आ गई थी, वह तो उसके प्रोफ़ेसर ने बीच-बचाव कर दिया, इसे समझाया, लड़कों से बात की, मामला सुलटा. आख़िर को उस प्रोफ़ेसर की भी नाक ही कटाई इसने. समझ नहीं आता पूरे घर में यही एक ऐसी कैसे निकली…” मम्मी, मौसियाँ और मामा भर्तस्ना में सिर हिलाते. हर बार इस क़िस्से में नए ब्यौरे जुड़ जाते — बिना बाँहों का, खुले गले का ब्लाउज पहने थी, लड़कों को बोली – दम है तो रोक कर दिखाओ, विभाग की सीढ़ियों पर बैठी सिगरेट पीती रही, लड़कों ने घेर लिया, यहाँ-वहाँ हाथ लगा दिया, कुछ-का-कुछ हो जाता, बिल्कुल सिरफिरी…” हर बार सुनकर सुदीपा का ख़ून खौल जाता. “वे लड़के… उनकी हिम्मत कि नीना आँटी को मोलेस्ट करें…आप लोगों ने कुछ नहीं किया? क्या और कोई लेक्चरर सिगरेट नहीं पीता था यूनिवर्सिटी में?”
“हम क्या करते? दूध की धोई है क्या तुम्हारी नीना आंटी कि हम कुछ कह सकते? उसके ऐबों को कौन नहीं जानता ?”
सुदीपा ने नीना आँटी को कभी स्मोक करते नहीं देखा, अलबत्ता बचपन में उनकी कसैले धुएँ और गमकते पर्फ़्यूम और मिंट की गोलियों वाली मिली-जुली गंध उसे याद है. चकित करती गंध. परिवार की किसी और स्त्री से वैसी गंध नहीं आती थी, धुंआसी-भीनी, जैसी पुरानी लकड़ी, ताज़ा फूलों और ठंडी सुबहों की गंध होती है, बेहद मोहक. अब उनसे गुलाब-जल की ठंडी मीठी ख़ुशबू आती है. बाग़ के गुलाबों से गुलाबजल बनाती हैं नीना आँटी. सब भांजे-भांजियों में उनके गुलाब-जल, सूखी पंखुड़ियों और अगुरु से भरी मलमल की सुगन्धित थैलियों, रोज़-हिप के तेल और फूलों से बनी क्रीमों की धूम है. नीना आँटी परिवार के युवा दल में दूसरे कारणों से भी लोकप्रिय हैं. सभी उनके पास कभी न कभी आए हैं — जीवन की उलझनें, थके मन या दुखते अहम, कुढ़न, कुंठाएँ और क्रोध लेकर, चोटिल और पीड़ा से हाँफते. नीना आँटी ने उनसे कौंच-खरोंच कर कभी कुछ नहीं पूछा है, दुःख-तकलीफ़ बताने पर उन्हें उपदेश नहीं दिए हैं, उन पर दया नहीं दिखाई है और न ही उन्हें नासमझ क़रार दिया है. नीना आँटी ने उनके दुखते माथों पर गुलाब जल के फ़ाहे रखे हैं, उनके रोने-कराहने और ग़ुस्से से दाँत पीसने, कमरे का दरवाज़ा बंद कर घुटने-झींकने को सम भाव से लिया है. जब वे अपनी ही उलझाई गुत्थियों से जूझ कर हैरान-परेशान हुए हैं, तब उनके हाथों में टोकरी या ख़ुरपी या कैंची पकड़ा कर बाग़ में भेज दिया है. उन्हें गुलाबों से गुलाब-जल डिस्टिल करना सिखाया है, शाम को सूर्यास्त दिखाने सनसेट पोईंट ले गई हैं, और सारी रात बैठकर उनके दुखड़े सुने हैं. वह किसी बात से विरक्त या अचंभित नहीं हुई हैं, न बार-बार दोहराने से झुँझलाईं या ऊबी हैं. ‘जब भी कुछ सुलझाना हो तो धागों को खींचना नहीं चाहिए, हल्के हाथों अलगाना चाहिए.’ उनकी खसख़सी, आकर्षक आवाज़ में यह वाक्य सब ने सुना है, और यह भी – ‘सलूशन तो तुम्हारे ही पास है, लेकिन उसे समझने में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूँ.’ ‘नीना आँटी किसी बात से स्कैंडलाईज नहीं होतीं, बिलकुल जजमेंटल नहीं हैं,’ उनके भतीजे-भांजियाँ अक्सर कहते हैं. सुनकर सुदीपा की मौसियाँ-मामा मुँह बिचका देते हैं. ‘नीना कैसे स्कैंडलाईज होगी, उसने ख़ुद कैसे-कैसे कांड किए हैं. इतनी बदनामी, ऐसे चर्चे, शहर में लोगों को अभी भी याद है…”
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