जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

रतन टाटा के निधन की खबर सुनकर मुझे हरीश भट की किताब ‘टाटा स्टोरीज़’ का ध्यान आया। यह किताब हिंदी में भी अनूदित है और पेंगुइन स्वदेश से प्रकाशित इस किताब का अनुवाद किया है डॉ संजीव मिश्र ने। आइये इस किताब से एक अंश पढ़ते हैं जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह रतन टाटा ने इंडिका कार बनाने का सपना साकार किया था- मॉडरेटर

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प्रख्यात लेखक हरीश भट की किताब टाटा स्टोरीज़ का अनुवाद करते समय मुझे रतन टाटा को और गहराई से समझने का अवसर मिला। रतन टाटा भारतीय उद्यमिता को दुनिया में अव्वल साबित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। यहाँ प्रस्तुत है पुस्तक टाटा स्टोरीज़ का एक अध्याय, जिससे पता चलेगा कि कैसे रतन टाटा ने भारत की पहली अपनी कार बनाने के लिए अभिनव प्रयोग व प्रयास किए और सफलता पाई- डॉ संजीव मिश्र  

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कारें हमेशा देशभक्ति और गर्व का प्रतीक रही हैं। पूरी दुनिया के सभी राष्ट्रों में तेज आर्थिक प्रगति की संवाहक रही हैं। टोयोटा, रोल्स-रॉयस, मर्सिडीज-बेन्ज, फोर्ड, फिएट और हुंडई अपने-अपने देशों की ध्वजवाहक रही हैं। 1990 के दशक की शुरुआत तक भारत अंतरिक्ष यान और मिसाइल का प्रक्षेपण कर चुका था, किन्तु भारत के पास एक ऐसी कार नहीं थी, जिसे अपनी कार कहा जा सके।

1995 में टाटा समूह और टाटा मोटर्स के तत्कालीन अध्यक्ष रतन टाटा ने राष्ट्र के लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को जाहिर करने की पहल की। तमाम संशय करने वालों ने एक भारतीय कार पर विश्वास करने से इनकार कर दिया, किन्तु रतन टाटा दृढ़प्रतिज्ञ थे। वह और उनकी टीम इस भारतीय कार टाटा इंडिका के विचार को साकार करने के लिए आगे बढ़ने लगे। वस्तुतः इस कार का नाम, इंडिका, देश के प्रति गर्व की अनुभूति करने वाला था। यह कार भविष्य की उम्मीदों पर खरी उतरने के साथ चमकदार डिजाइन वाली तो होनी ही चाहिए थी, इसे भारतीय परिवारों के लिए पर्याप्त स्थान सृजित करने की रतन टाटा की चुनौती का सामना भी करना था। कार पूरी तरह से स्थानीय स्तर पर टाटा के प्रतिष्ठान में ही विकसित की गयी थी।

अब सवाल था कि कार उत्पादन की प्रक्रिया कैसे शुरू हो और कहां शुरू हो। उस समय एक नयी उत्पादन इकाई की स्थापना में दो अरब डॉलर से अधिक का खर्च आने वाला था। यह राशि इतनी बड़ी थी कि पूरी परियोजना की शुरुआत में ही बाधक बन सकती थी। यहां भी, रतन टाटा और उनकी टीम ने एक नया और सबसे अलग रास्ता पकड़ा, किन्तु इस रास्ते ने ही सारे बदलावों को जन्म दे दिया। उन्होंने पूरी दुनिया में तलाश शुरू की और उन्हें ऑस्ट्रेलिया में निस्सान कंपनी की एक  अनुपयोगी कार निर्माण इकाई के बारे में बता चला। यह इकाई उन्हें नई उत्पादन इकाई की तुलना में बीस फीसद मूल्य पर ही बिक्री के लिए प्रस्तावित की गयी। टाटा मोटर्स ने बहुत सावधानी पूर्वक ईंट से ईंट हटाकर इस इकाई को विघटित किया और फिर उसे सात समंदर पार लाकर पुणे में पुनः निर्मित किया। इस बड़े व दुरूह लक्ष्य की प्राप्ति में महज छह माह लगे और पुणे में नई कार के लिए निर्माण इकाई का सृजन हो चुका था।

टाटा इंडिका का उत्पादन सिर्फ तकनीकी सूक्ष्मता व विलक्षणता के साथ नहीं हुआ, बल्कि इसके उत्पादन में अत्यधिक स्नेह व गर्व की अनुभूति भी थी। रतन टाटा स्वयं इंडिका के उत्पादन केंद्रों का बीच बीच में दौरा करते रहते थे। ऐसे ही एक दौरे के दौरान उन्होंने देखा कि कर्मचारी कार के पिछले स्ट्रट को हाथों से लगा रहे थे। एक स्ट्रट के लिए कर्मचारी को दो बार पूरी तरह झुकना पड़ता था। इस तरह दिन में 300 कारों के लिए उन्हें छह सौ बार घुटनों के बल मुड़ते हुए झुकने की मजबूरी का सामना करना पड़ रहा था। रतन टाटा ने तुरंत अपने प्रबंधकों को बुलाया। उन्होंने सवाल उठाया, हम अपने कर्मचारियों से पूरे जीवन यह काम कराने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। निश्चित रूप से ऐसा करने के कारण उनकी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। हमें वरीयता के आधार पर इस समस्या का एक स्वचालित समाधान तलाशना होगा। अब अभियंत्रण विभाग पुनः सक्रिय हुआ और जल्द ही एक ऐसी प्रक्रिया का विकास कर लिया, जिससे पूरी प्रक्रिया आंशिक रूप से स्वचालित हो गयी। आज भी कर्मचारी गर्व के साथ रतन टाटा के उस दौरे को याद करते हैं, जिसने उन्हें बार-बार झुकने से बचा लिया था।

जबर्दस्त माँग के साथ टाटा इंडिका 1998 में बाजार में उतारी गयी। यह कार बाजार में आते ही छा गयी किन्तु इस कार को जल्दी ही कई इंजीनियरिंग और गुणवत्ता संबंधी समस्याओं का सामना भी करना पड़ा। ग्राहकों की शिकायतें बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की जाने लगीं और प्रतिस्पर्धी कंपनियों ने तो मानो इंडिका के समयपूर्व समापन की घोषणा कर श्रद्धांजलि तक लिखनी शुरू कर दी थी। निश्चित रूप से भारत व पश्चिमी जगत सहित पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो भारत या अन्य विकासशील देशों को आड़े हाथों लेने का कोई मौका छोड़ना चाहते हों। इंडिका के साथ भी यही हो रहा था। फिर पूरी टीम ने बहुत मेहनत से काम किया और यह मेहनत सफल भी हुई। वर्ष 2001 में एक नई, मजबूत इंडिका तैयार थी, जिसमें पुरानी इंडिका में सामने आई सभी समस्याओं का समाधान किया जा चुका था और संकट के बिन्दु पूरी तरह समाप्त हो चुके थे। अब ‘हर कार में कुछ ज्यादा कार’ पंचलाइन के साथ एक नई कार टाटा इंडिका वी2 के रूप में बाजार में प्रस्तुत की गयी थी।

इंडिका वी2 का प्रभाव तात्कालिक व असाधारण था। इसने न सिर्फ इंडिका को पुनर्जीवन प्रदान किया, बल्कि जबर्दस्त सफलता भी पाई। 18 महीने से भी कम समय में एक लाख कारें बेचकर यह भारतीय इतिहास में सबसे तेज बिकने वाली कार बन गयी थी। 2001 में राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक सुस्ती के बावजूद इंडिका वी2 ने इस वर्ष 46 प्रतिशत से ऊपर विकास दर सृजित की थी। प्रतिष्ठित टेलीविजन कार्यक्रम बीबीसी व्हील्स ने तीन लाख से पाँच लाख रुपये मूल्य की श्रेणी में टाटा इंडिका को सर्वश्रेष्ठ कार घोषित किया था।

अब यह सवाल भी मन में उठता है कि रतन टाटा ने भारत की अपनी कार बनाने की चुनौती क्यों स्वीकार की। इसका जवाब उनके ही शब्दों में सुनिए। वे कहते हैं, ‘मेरी मजबूत धारणा थी कि हमारे इंजीनियर अंतरिक्ष में उपग्रह भेज सकते हैं, तो अपनी कार भी बना सकते हैं। …और जब हमने यह चुनौती स्वीकार की, हम बाहर निकले और जहां से भी जरूरी लगा, विशेषज्ञता अर्जित की। इस कार में जो भी था, हमारा था। इस कारण मेरे लिए इंडिका एक राष्ट्रीय उपलब्धि का महत्वपूर्ण पल भी बनी।’

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