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कल कुंदनलाल सहगल की पुण्यतिथि थी. इस मौके पर उनको एक नई पहचान देने वाले न्यू थियेटर्स पर एक दिलचस्प लेख लिखा है दिलनवाज़ ने- जानकी पुल.—————————————————बिरेन्द्र नाथ सरकार द्वारा स्थापित ‘ न्यु थियेटर्स’ की कहानी ग्रीक अख्यानो के ‘फ़ीनिक्स पक्षी’ से मेल खाती है| फ़ीनिक्स के बारे मे ‘ राख की ढेर से फ़िर से खडा उठने’ की कथा प्रचलित है| न्यु थियेटर्स का उदभव एवं विकास समकालीन फ़िल्म कम्पनियों की तुलना मे मर कर फ़िर जीने जैसा रहा। एक बार भीषण आग से लगभग खाक हो चुकी कम्पनी का कारवाँ मिश्रित अनुभवों के साथ लम्बे सफ़र पर निकला|…
हिंदी गज़लों का अपना मिजाज रहा है, उसकी अपनी रंगों-बू है और उसकी अपनी \’रेंज\’ भी है. वह जिंदगी के अधिक करीब है. श्रद्धा जैन की गज़लों को पढते हुए इसे महसूस किया जा सकता है- जानकी पुल.————————–1.जब हमारी बेबसी पर मुस्करायीं हसरतेंहमने ख़ुद अपने ही हाथों से जलाईं हसरतेंये कहीं खुद्दार के क़दमों तले रौंदी गईंऔर कहीं खुद्दरियों को बेच आईं हसरतेंसबकी आँखों में तलब के जुगनू लहराने लगेइस तरह से क्या किसी ने भी बताईं हसरतेंतीरगी, खामोशियाँ, बैचेनियाँ, बेताबियाँमेरी तन्हाई में अक्सर जगमगायीं हसरतें मेरी हसरत क्या है मेरे आंसुओं ने कह दिया आपने तो शोख रंगों से बनाईं हसरतेंसिर्फ…
स्वदेश दीपक पिछले आठ साल से लापता हैं. अभी कुछ लोगों ने फेसबुक पर उनको ढूंढने की मुहिम चलाई है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. युवा कवयित्री विपिन चौधरी ने स्वदेश दीपक को याद करते हुए यह संस्मरणात्मक लेख लिखा है. आपके लिए – जानकी पुल ————————————————————————————————– इस दौर- ए- हस्ती में हमारा क्या ठिकाना एक राह पर चलना दूसरी से लौट आना कभी सही दिशा न मिल पाने पर गायब हो जाना एक जीता जागता इन्सान हमारे बीच से अचानक कहीं चला जाता है, बरसो उसकी कोई खोज खबर नहीं मिलती और इधर हम अपने रोज़ के कामों मे गले…
आज हिंदी कहानियों को नया मोड़ देने वाले निर्मल वर्मा का जन्मदिन है. प्रस्तुत है उनके मरणोपरांत प्रकाशित पुस्तक \’प्रिय राम\’ से एक पत्र. यह पुस्तक उनके और उनके भाई प्रसिद्ध चित्रकार रामकुमार के बीच पत्राचार का संकलन है. वैसे यह पत्र रामकुमार ने निर्मल जी के मरने के बाद उनके नाम लिखा था. निर्मल जी की स्मृति को प्रणाम के साथ- जानकी पुल. ——————————————-(25.12.2005)प्रिय निर्मल ,इस बार इतनी लंबी यात्रा पर जाने से पहले तुम अपना पता भी नहीं दे गए.यह सोच कर मुझे आश्चर्य होता है कि तुम्हारे पैदा होना का दिन भी मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है, जब…
शास्त्रीय /उप शास्त्रीय संगीत के अंगों में जीवन रहस्य तलाशती वंदना शुक्ल की इन कविताओं की प्रकृति काफी अलग है. इनमें संगीत की आत्मा और मनुष्य के जीवन का संगीत साथ-साथ धड़कता सुनाई देता है. तुमुल कोलाहल कलह में- जानकी पुल. ———————————————————-अलंकार (गंतव्य की ओर)- सांस जीती हैं देह को जैसेस्वरों में धडकता है संगीत.एक यात्रा नैरत्य की…थकना जहां बेसुरा अपराध हैयात्रा…\’सा\’ से \’सां\’ तकया ज़न्म से मृत्यु तकआरोह से अवरोह तकस्वर-श्वांस के ऑर्बिट में…जीवन की सरगम उगती हैउन रेशेदार जड़ों के सिरों से जिनके चेहरे परपुते होते हैं अंधेरों के रंगऔर गहरी भूरी राख के कुछ संकेत.रंग…घूँघट खोलती है सांसों की दुल्हनउँगलियों…
समकालीन लेखकों में जिस लेखक की बहुविध प्रतिभा ने मुझे बेहद प्रभावित किया है उसमें गौरव सोलंकीएक हैं. गौरव की कहानियां, कविताएँ, सिनेमा पर लिखे गए उनके लेख, सब में कुछ है जो उन्हें सबसे अलग खड़ा कर देता है. वे परंपरा का बोझ उठाकर चलने वाले लेखक नहीं हैं. उन्होंने समकालीनता का एक मुहावरा विकसित किया है. अभी हाल में ही उनका कविता-संग्रह आया है ‘सौ साल फ़िदा’. उसी संग्रह से कुछ चुनी हुई कविताएँ- जानकी पुल.———————————————————————–देखना, न देखनादेखना, न देखने जितना ही आसान थामगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी परएक भी कोना ऐसा नहीं थाजहाँ दृश्य को…
शहीदी दिवस पर विपिन चौधरी की कविताएँ- जानकी पुल. ————————————————————- १.शहीद–ए-आज़म के नाम एक कविता उस वक़्त भी होंगे तुम्हारी बेचैन करवटों के बरक्स चैन से सोने वाले आज भी बिलों में कुलबुलाते हैं तुम्हारी जुनून मिजाज़ी को \”खून की गर्मी” कहने वाले तुमने भी तो दुनिया को बिना परखे ही जान लिया होगा जब कई लंगोटिए यार तुम्हारी उठा-पटक से परेशान हो कहीं दूर छिटक गए होंगे तुम्हारी भीगी मसों की गर्म तासीर से शीशमहलों में रहने वालों की दही जम जाया करती होगी दिमागी नसों की कुण्डी खोले बिना ही तुम समझ गए होगे कि इन्सान- इन्सान में जमीन आसमान…
भगत सिंह की शहादत को प्रणाम के साथ कुछ कविताएँ युवा कवि त्रिपुरारि कुमार शर्मा की- जानकी पुल.——————————–भगत सिंह के लिए भगत सिंह! कुछ सिरफिरे-से लोग तुमको याद करते हैं जिनकी सोच की शिराओं में तुम लहू बनकर बहते हो जिनकी साँसों की सफ़ेद सतह पर वक़्त-बेवक़्त तुम्हारे ‘ख़याल की बिजली’ कौंध जाती है मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ भगत! जो तुम्हारी जन्मतिथि पर, ‘इंक़लाब-इंक़लाब’चिल्लाते हैं और आँखों में सफ़ेद और गेरुआ रंगों की साज़िश का ज़हर रखते हैं जिसकी हर बूँद में अफ़ीम की एक पूरी दुनिया होती है जिसके नशे में गुम है आज सारा भारत…