मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी ने दिल्ली प्रेस की प्रसिद्ध सांस्कृतिक पत्रिका कारवां(the caravan) पर मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है, वह भी पूरे ५० करोड़(500 मिलियन) का. कारवां के फरवरी अंक में सिद्धार्थ देब ने एक स्टोरी की थी अरिंदम चौधरी के फिनोमिना के ऊपर. अरिंदम iipm जैसे एक बहुप्रचारित मैनेजमेंट संस्थान चलाते हैं, अरिंदम चौधरी फ़िल्में बनाते हैं, अरिंदम चौधरी कई भाषाओं में संडे इंडियन मैग्जीन निकालते हैं(हालाँकि आज तक यह समझ में नहीं आया कि क्यों निकालते हैं), जिसके तेरह संस्करण निकलते हैं, अरिंदम चौधरी टीवी पर विज्ञापन में आते हैं और समाज को बदलने का आह्वान करते…
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ओरहान पामुक का प्रसिद्द उपन्यास \’स्नो\’ पेंगुइन\’ से छपकर हिंदी में आनेवाला है. उसी उपन्यास के एक चरित्र \’ब्लू\’, जो आतंकवादी है, पर गिरिराज किराड़ू ने यह दिलचस्प लेख लिखा है, जो आतंकवाद, उसकी राजनीति के साथ-साथ अस्मिता के सवालों को भी उठाता है- जानकी पुल. 1 ओरहान पामुक के उपन्यास स्नो के आठवें अध्याय में कथा का प्रधान चरित्र (प्रोटेगोनिस्ट) का (काफ़्का के का से प्रेरित) एक दूसरे चरित्र ब्लू से मिलने जाता है; ब्लू का प्रोफाईल दिलचस्प है – उसकी प्रसिद्धि का कारण यह तथ्य है कि उसे ‘एक स्त्रैण, प्रदर्शनवादी टीवी प्रस्तोता…
आज मोहन राणा की कविताएँ. विस्थापन की पीड़ा है उनकी कविताओं में और वह अकेलापन जो शायद इंसान की नियति है- कहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँशहर के किस कोने में कहाँदो पैरों बराबर जमीन परवो भी अपनी नहीं हैदो पैरों बराबर जमीन परकहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँशहर के किस कोने में कहाँदो पैरों बराबर जमीन पर वो भी अपनी नहीं हैदूरियाँ नहीं बिफरा मन भी नहींतुम्हें याद करने का कोई कारण नहींभूलने का एक बहाना है खराब मौसम जोसिरदर्द की तरहसमय को खा जाता है खाये जा रहा हैफिर भी भूखा है…
दिलनवाज़ जब फिल्म-गीतकारों पर लिखते हैं तो हमेशा कुछ नया जानने को मिलता है. इस बार उन्होंने हिंदी सिनेमा के कुछ ऐसे गीतकारों को याद किया है जिनको या तो हम भूल गए हैं या जिनके बारे में जानते ही नहीं हैं. पहले जब रेडियो का ज़माना था तो गीतों को सुनवाने से पहले उद्घोषक/उद्घोषिका गीत के साथ गीतकारों के नाम भी बताते थे. जिससे लोगों को उनके नाम याद रह जाते थे. अब तो लोग बिसरते जा रहे हैं. ऐसे में इस लेख के माध्यम से दिलनवाज़ ने उन गीतकारों तथा उनके लिखे गीतों को याद करने का बड़ा अच्छा…
अज्ञेय के जन्म-शताब्दी वर्ष में प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी ने यह याद दिलाया है कि १९४६ में अज्ञेय की अंग्रेजी कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ था ‘प्रिजन डेज एंड अदर पोयम्स’. जिसकी भूमिका जवाहरलाल नेहरु ने लिखी थी. लेकिन बाद अज्ञेय-विमर्श में इस पुस्तक को भुला दिया गया. इनकी कविताओं का खुद अज्ञेय ने भी कभी हिंदी-अनुवाद नहीं किया. समकालीन भारतीय साहित्य के अंक १५४ में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने इस पुस्तक की विस्तार से चर्चा की है. और पहली बार उस संकलन की कुछ कविताओं का हिंदी-अनुवाद भी किया है. यहाँ हरीश त्रिवेदी द्वारा अनूदित अज्ञेय की कविताएँ प्रस्तुत…
आज प्रसिद्ध कवयित्री सुमन केशरी की एक लंबी कविता \’बीजल से एक सवाल\’. बीजल से उसके प्रेमी ने छल किया था. उसे अपने दोस्तों के हवाले कर दिया. उसने आत्महत्या कर ली. बीजल के बहाने स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को उद्घाटित करती यह कविता न जाने कितने सवाल उठाती है और एक लंबा मौन- जानकी पुल.बीजल से एक सवाल कैसेट तले बेतरतीब फटा कॉपी का पन्ना कुछ इबारतें टूटी-फूटी शब्द को धोता बूँद भर आँसू पन्ने का दायाँ कोना तुड़ा़-मुडा़ मसल कर बनाई चिन्दियाँ फैलीं इधर-उधरकुछ मेज पर कई सलवट पड़ी चादर पर तो बेशुमार कमरे मेंफर्श पर इधर-उधरटूटे बिखरे…
हाल में ही अमेरिका के प्रसिद्ध और विवादास्पद लेखक फिलिप रोथ को मैन बुकर अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिला है. उनके लेखन को लेकर प्रस्तुत है एक छोटा-सा लेख- जानकी पुल.फिलिप रोथ निस्संदेह अमेरिका के जीवित लेखकों में सबसे कद्दावर और लिक्खाड़ लेखक हैं और शायद सबसे विवादास्पद भी. उनकी विशेष पहचान बनी अमेरिकी-यहूदी समुदाय के जीवन को लेकर लिखे गए उपन्यासों से. उनका पहला लघु-उपन्यास ‘गुडबाई कोलंबस’ भी उनके जीवन पर ही आधारित है. इसी उपन्यास से उन्होंने लेखन की एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें व्यंग्यात्मक ढंग से गंभीर बातों का वर्णन होता था, जिसकी बाद में उत्तर-आधुनिक उपन्यासों की शैली…
आज दुष्यंत की कुछ गज़लें-कुछ शेर. जीना, खोना-पाना- उनके शेरों में इनके बिम्ब अक्सर आते हैं. शायद दुष्यंत कुमार की तरह वे भी मानते हैं- ‘मैं जिसे ओढता-बिछाता हूँ/ वो गज़ल आपको सुनाता हूँ.1\’\’मेरे खयालो! जहां भी जाओ। मुझे न भूलो, जहां भी जाओ।थके पिता का उदास चेहरा,खयाल में हो, जहां भी जाओ।घरों की बातें किसे कहोगे,दिलों में रखो, जहां भी जाओ।कहीं परिंदे गगन में ठहरे!मकां न भूलो, जहां भी जाओ। \’\’2\’बडे शहरों अक्सर ख्वाब छोटे टूट जाते हैं बडे ख्वाबों की खातिर शहर छोटे छूट जाते हैं सलीका प्यार करने का जरा सा भी नहीं आता हवाओं को मनाता…
आज मिलते हैं हाल में ही कांस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई विवादस्पद फिल्म ‘माई फ्रेंड हिटलर’ के डायरेक्टर राकेश रंजन कुमार से, जिनको दोस्त प्यार से महाशय बुलाते हैं. मुंबई में रहने वाले महाशय वैसे तो रहने वाले बिहार के हैं, लेकिन उनके सपनों की उड़ान में दिल्ली शहर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है- जानकी पुल.जबसे ‘हिटलर माई फ्रेंड’ फिल्म की घोषणा हुई है किसी न किसी कारण से वह लगातार चर्चा में बनी रही है. फिल्म के युवा निर्देशक हैं राकेश रंजन कुमार. दरभंगा के मनीगाछी के रहने वाले इस निर्देशक को लंबे संघर्ष के बाद यह अवसर…