हाल में ही वाणी प्रकाशन से एक पुस्तक आई है ‘भैरवी: अक्क महादेवी की कविताएँ’. वीरशैव संप्रदाय की अक्क महादेवी की कुछ कविताओं का बहुत सुन्दर अनुवाद युवा कवि-संगीतविद यतीन्द्र मिश्र ने किया है. मैंने पढ़ा तो सोचा कि आपसे साझा किया जाए- जानकी पुल.
वीरशैव सम्प्रदाय, जिसे प्रचलित अर्थों में ‘लिंगायत-सम्प्रदाय’ भी कहते हैं, ढेरों ऐसे सन्तों का हार्दिक प्रदेश रहा है, जो शैव आराधना में समर्पित साधकों का पन्थ है। ये वीरशैव मुख्यतः कर्नाटक प्रान्त से सम्बन्धित थे एवं इनका समय मुख्यतः बारहवीं शताब्दी का माना जाता है। इस सम्प्रदाय में प्रमुख रूप से आने वाले सन्तों-कवियों-कवयित्रियों में बसवेश्वर या बसवण्णा, अल्लम प्रभु, देवरा दासीमैय्या एवं अक्क महादेवी का नाम आता है। लिंगायत सम्प्रदाय की ज्यादातर प्रार्थनाएँ, धार्मिक गीत एवं कविताएँ वचन कहलाती हैं।
(1.
भूख के लिए
भिक्षा-पात्र में समाया है
नगर भर का अन्न
प्यास के लिये
सोते, कुएँ और तालाब हैं यहाँ
नींद के लिये
भग्न मन्दिर हैं
आत्मा के संलाप के लिये
तुम हो
मेरे मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
२.
भटकने दो मुझे
एक घर से दूसरे घर तक
हाथ फैलाये भीख माँगने को
और अगर माँगूँ भीख
तो देने मत देना उन्हें
अगर वे दे ही पड़ें
तो गिरा देना उसे नीचे धरती पर
और अगर वह गिर ही पड़े
तो मेरे उठाने से पूर्व
ले जाने देना उसे एक कुत्ते को
मेरे मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
३.
नील पर्वतों पर सवार
पैरों में चन्द्रशिला पहनकर
लम्बे श्रृंगों को बजाते हुए
हे शिव!
मैं कब तुम्हें
अपने पयोधरों के प्रति
आसक्त करूँ?
हे मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
देह की लाज
और
मर्यादा हृदय की
उतारकर
मैं कब तुमसे मिलूँ?
४.
अगर चिनगारी उड़ी
तो समझूँगी
मिट गयी है मेरी भूख-प्यास
अगर फट पड़ा आसमान
तो समझूँगी
मेरे नहाने के लिये तिर आया वह
अगर फिसल पड़ी पहाड़ी मुझ पर
तो समझूँगी
मेरे बालों के लिए फूल है वह
जिस दिन गिरेगा मेरा सिर
मेरे कन्धों से कटकर
समझूँगी
तुम्हें अर्पित हुआ
मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
५.
किसे चिन्ता है
कौन तोड़ता है पेड़ से पत्ती
एक बार फल टूट जाने के बाद?
किसे दिलचस्पी है
कौन सोता है उस औरत के साथ
जिसे तुमने छोड़ दिया?
किसे परवाह है
कौन जोतता है ज़मीन
जो तुमने त्याग दी?
एक बार
अपने स्वामी को जान लेने के बाद
किसे इस बात से सरोकार है
इस देह को कुत्ते खाते हैं
या सड़ती है यह पानी में?
६.
हाथ में आया हुआ धन
तुम छीन सकते हो
पर क्या तुम कर सकते हो हरण
देह के असीम वैभव को?
छीलकर उतार सकते हो
परत दर परत
जो कुछ भी पहना है तुमने?
क्या तुम नग्नता को
छीलकर उतार सकते हो?
उतार सकते हो
कुछ नहीं को?
जो ढकती है तुम्हें
करती है खुद से आच्छादित
रे मूर्ख!
लाज का बन्धन त्याग चुकी
बाला के लिए
रूप-सम्भार के किसी आवरण की
जरूरत क्या है?
और न ही जरूरत है
किसी भी गहने की
श्रृंगार-आभरण के वास्ते
जब उसने पहन लिया है
मल्लिकाशुभ्र स्वामी से दीप्त
भोर के उजाले का आवरण।
७.
जिस तरह
अपनी ही मज्जा से
बुनती हैं खुद का घर
प्रेम में भरकर
और स्वयं के रूप धागों में
उलझकर जाती हैं मर
वे रेशम की कीट-पतंगे
लिप्साओं को जलाती हूँ मैं
जो भरी हैं
अन्तरतम में
चीर दो
मेरे हृदय की वासना
और झलको मुझमें
मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
८.
हर क्षण मिलन
केलि
हर क्षण
से बेहतर है
बहुत दिनों के
विरह उपरान्त
एक बार का रति-आनन्द
जब वे दूर होते हैं
उनकी एक झलक पाने के लिये
नहीं कर सकती मैं प्रतीक्षा
मित्र!
कब होंगे मेरे पास
दोनों मार्ग
मल्लिकाशुभ्र स्वामी!
साथ हूँ
फिर भी साथ नहीं हूँ।
९.
उनके आगमन का पथ
निहारती हूँ
यदि नहीं आये वे
मुरझाती हूँ मैं
क्षीण हुई जाती हूँ
अगर विलम्ब हुआ उन्हें
छीजती है मेरी काया
माँ!
रात भर के लिये भी अगर
दूर होते हैं वे
मैं प्रेम में डूबी
उस चकोर की तरह हूँ
रिक्त है जिसका
आलिंगन।
१०.
देह का जल
जैसे शुरू होता है भरना
मन वैसे ही
नाव बन जाता है
हे नाविक!
मुझे पार उतार दो
निर्विघ्न
ओ खेवैया!
अटूट है मेरा विश्वास
कि मैं उतरूँगी पार
इस ज्वार से
धीरे-धीरे पार ले चलो
सौभाग्य के शिखर
मल्लिकाशुभ्र स्वामी तक
प्रिय कैवर्त!
9 Comments
kamaal ka rupaantar hai–yatindra kii rachnadharmita ka yah vistaar unke srijan ko or pukhta, gahra v ghanisth bana raha hai.
piyush daiya
मल्लिकाशुभ्र का अर्थ समझाइए।
प्रथम अन्श मे आपकी इस कविता से निराला कि भिक्षुक कविता कि याद आ गयी ।विरह और समर्पण का चित्रण मार्मिक है। कविता अच्छी है ।
अपने इष्ट के प्रति प्रेम,उसे पाने की आदमी लालसा,और विरह की तीव्र पीड़ा को सुन्दर शब्दों में ढाला है कविताओं में ! अनुवाद सुन्दर और स्वाभाविक है ,बहुत बहुत आभार ,प्रभात जी !
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