अल्पना मिश्र समकालीन हिंदी कहानी की जानी-पहचानी हस्ताक्षर हैं. हमारे लिए उन्होंने अपनी रचना-प्रक्रिया पर लिखा है- जानकी पुल.
बिल्कुल सीधा न तो जीवन होता है, न अनुभव और न ही किसी रचना की प्रक्रिया। रचना प्रक्रिया एक बेहद जटिल स्थिति है,जैसे जीवन। केवल किसी घटना या स्थिति को देख कर, सुन कर भावुक हो जाना ही पर्याप्त नहीं होता, होता यह है कि वह घटना या वे स्थितियाँ आपको कितना विचलित करती हैं, कितना सोचने पर मजबूर करती हैं, कितने प्रश्न आपको मथते हैं, कितना गुस्सा और दुख आपको बेचैन बनाता है और अंततः आप अपनी बात कहने के लिए एक माध्यम चुनते हैं,‘रचना’। वह कविता,कहानी,उपन्यास आदि कोई भी माध्यम हो सकता है। कभी कभी रचना सर्जन का यह समय बहुत लम्बा भी हो जाता है,फल पकने की प्रक्रिया की तरह। सोचिए कि कितना तकलीफदेह है किसी दुख को लम्बे समय तक जीते रहना, किन्हीं बेचैन करने वाले प्रश्नों से लम्बे समय तक जूझते रहना, किन्हीं परिस्थितियों से असहमत होना,किन्हीं समस्याओं से टकराते रहना और अंततः बहुत कम किसी कहानी में कह पाना। कम इसलिए कि कहानी जैसी विधा में सारा कुछ एक साथ कहना न तो संभव है, न ही उचित। कहानी का पाठक पर वांछित प्रभाव लेखक का उद्देश्य होता है। वह जो कह रहा है, उसे पाठक समझे और गुने। तभी तो उस लिखे की सार्थकता है। दरअसल लेखक का उद्देश्य उसकी रचना का प्राणतत्व है।
बहुत बचपन में प्राइमरी पाठशालाओं की जो स्थिति मैंने देखी थी, वे अपनी विद्रूपता के साथ मेरे मन में अंके रहे और जब बड़े हो कर भी देखा कि आम आदमी के जीवन की परिस्थितिया वैसी की वैसी ही हैं या बिगड़ कर और कठिन ही हुई हैं तो मन बहुत विचलित हुआ। बचपन में स्कूल न जाने की मेरी जिद से हार कर मेरे पिता जी कुछ दिनों तक, कुछ देर के लिए मुझे जिस खड्डहिया स्कूल या सरकारी प्राइमरी पाठशाला में खड़ा कर जाते थे, वहां आज ही की तरह सरकारी योजना के तहत दोपहर का भोजन बना करता था। वहां की गंदगी, वहां के बच्चों की तन्मयता,घर से लाए बरतन और टाट, तरह तरह के कीड़े,अमरुद तोड़ने की कोशिशें, मरकहे मास्टर साहब,बहुत भले से मौलवी मास्टर साहब……। आज भी बस्ती जाने पर, रास्ते में खड्डहिया स्कूल की पहले से भी खराब हालत देखती हॅू तो आम आदमी के लिए देश की शिक्षा व्यवस्था पर मन खिन्न हो उठता है। बचपन के इस अनुभव ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा और कई सालों बाद,लिखने के प्रयत्न में अंततः ‘मिड डे मील’नाम से यह कहानी ‘हंस’ के अगस्त 2006 अंक में आई। अपनी कहानियों के संदर्भ में कहूँ तो लम्बा समय लेने वाली दो कहानियों का जिक्र जरूर करूंगी। ‘मिड डे मील’और ‘छावनी में बेघर’।
मेरे भी मन में था बहुत सा गुस्सा, थोड़ी सी खीझ, बेचैन कर देने वाले प्रश्न। आखिकार कुछ बताना था। बहुत वर्षों से थोड़ा थोड़ा कुछ जोड़ा जा रहा था, उन सबके दुख,उन सबके प्रश्न रखने की कोशिश कर रही थी, जो खुद नहीं कह सकते थे। तभी ‘ज्ञानोदय’से युवा पीढ़ी विशेषांक मई 2007 के लिए कहानी मांगी गयी तो इतने वर्षों का संचित सब एक बहाव में तीन दिन और तीन रातों के अनवरत झक में कहानी ‘छावनी में बेघर’के रूप में सामने आया।
इसी तरह हर एक कहानी पर खूब काम करना पड़ा, तब कहीं जा कर कुछ सार्थक जैसा बन पाया। यही हाल ‘मुक्ति प्रसंग’कहानी का भी रहा। उसके तो एक वर्ष तक लगभग पचास डाफ्ट तैयार करने पड़े। लिखने के झोंके में खूब लम्बी लिखी गयी थी, पर जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि लेखक का उद्देश्य केवल मनोरंजन के लिए कथा कहना भर नहीं होता,मुझे भी इस कहानी में बड़ी काट छांट करनी पड़ी। यह कहानी ‘कथादेश’के पहले नवलेखन अंक जून 2001 में प्रकाशित हुई और पत्रों के ढेर लग गए। इतने पत्र आज तक किसी कहानी पर नहीं आए। युवा वर्ग से आए पत्र बड़े उत्साह से भरे हुए और मुझसे बहुत अपेक्षा लिए पत्र थे,इससे मुझे बहुत बल मिला। महिला जगत से भी खूब प्रतिक्रियाएं आईं। कुछ बहुत अच्छे पत्र,कुछ संवेदनशील, कुछ बड़े लेखकों के उत्साहवर्धक पत्र,कुछ तीखे, कुछ कटु और कुछ धमकी भरे भी। यह भी हुआ कि विपरीत और कटु प्रतिक्रियाओं ने जता दिया कि स्त्री जीवन के बिल्कुल सही यथार्थ को उसी तरह कह देने की कोशिश अभी भी अस्वीकृत है। ‘मुक्ति प्रसंग’पर आई इस व्यापक प्रतिक्रिया से यह भी हुआ कि जो काम महीनों से पूरा नहीं हो पा रहा था,उसे चार रात जग कर मैंने पूरा कर डाला। ‘भय’ नाम से यह कहानी ‘इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी’ 2002 में आई। कुछ कहानियों ने कम समय लिया, पर यह सच है कि कहीं न कहीं उनकी पृष्ठभूमि पहले से ही दिमाग में थी।
और जो मेरी कहानियों की स्त्रियां हैं, वे हमारे ही आस पास की स्त्रिया हैं। हमारे बहुत नजदीक की स्त्रियां हैं, इन्हें बड़े गझिन हालात में संघर्ष करते, रास्ता तलाशते,तड़पते,टूटते–बिखरते इस हद तक देखा है कि उन्हें अपने से बाहर नहीं मान सकती। इसी के साथ अपने उस संघर्ष को भी देख रही हॅू, जहाँ स्त्री जीवन के दुखों-तकलीफों की साक्षी-सहभागी होते हुए भी, समझते-बूझते हुए भी अपने आप से लड़ रही थी कि यह सब कैसे कहॅू कि समूचा भी कह पाउं और अर्थवान भी हो सके। मैं यातना को महिमामंडित कर के नहीं देख सकती। जबकि साफ देख रही हॅू कि अभी भी स्त्रियां यातना को महिमामंडित कर के जी रही हैं। इस यातना को वे अपनी नियति मान रही हैं। देखना यह भी था कि क्या यह उनकी नियति है या गुलामी? इसे समझने और समझाने के लिए फिर उसी सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ स्त्री की दिमागी कंडिशनिंग को देखना जरूरी है। यह दिखती हुई गुलामी नहीं है। आत्मा की गुलामी है। ऐसी बड़ी और बारीक गुलामी,जिसे गुलाम ही न समझे। और नौकरीपेशा स्त्री, जो सामंती ढांचे से किसी प्रकार निकलती हुई फिर सामंती ढांचे के भीतर ही आती है। दिखती हुई रत्ती भर स्वतंत्रता के भीतर कई गुना उसका संघर्ष बढ़ता है। इस तरह इस छोटी सी दुनिया की बहुत बड़ी समस्याएं हैं। बल्कि कहना यह चाहिए कि इस पूरी दुनिया में जो कुछ भी है,वह सब किसी न किसी रूप में स्त्री से भी जुड़ा हुआ है, इसलिए इस दुनिया की सारी समस्याएं स्त्री से जुड़ी समस्याएं भी हैं। शायद इसीलिए मुझे ‘बेतरतीब’,‘मुक्ति प्रसंग’,‘बेदखल’, ‘कथा के गैर जरूरी प्रदेश में’
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