आज युवा कवि अरुण देव की कविता. इतिहास, आख्यान के पाठों के बीच उनकी सूक्ष्म दृष्टि, बयान की नफासत सहज ही ध्यान आकर्षित कर लेती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि उनका मुहावरा, उनकी शब्दावली समकालीन कविता में सबसे अलग है. आज संयोग से अरुण का जन्मदिन भी है. इसी बहाने उनकी कविताओं का पाठ- जानकी पुल.
१
कहो कालिदास ::
उज्जयिनी का दिशाहीन मेघ
भटकते -भटकते थक गया है मल्लिका
वह भूल गया है अपनी गति
महानगर के चौराहे पर
सूझता नहीं कुछ उसे
दिशाएँ सब एक सी हैं
और रास्ते कहीं नहीं जाते
राजप्रसाद की रौशनी में कोई उत्सव है
पथ के एकाकीपन में
ऊंघते बूढ़े की आँखों में
भविष्य की लौ थरथरा रही है
यक्ष के रुदन से भर गया है आकाश
उसे कोई सुनता नहीं
कोई दुष्यंत नहीं जाता अब
किसी शकुन्तला के पास
चली गई हैं किताबों में
शौर्य और प्रेम की गाथाएँ
प्रतिनायकों की चालाकी के बीच
पराजित नायक लौट गया है अरण्य की ओर
मल्लिका !
इस सीलन भरे समय में
क्या करे तुम्हारा कालिदास !
२.
कस्बे के चौक की फीकी पड़ती मूर्ति
की अबूझ मुस्कान में
ढूंढ़नी थी लौटकर आने की विवशता
टूटे लैम्पपोस्ट के नीचे बिछी रात के
उत्सुक एकांत में करनी थी आदतन किसी की प्रतीक्षा
यादों के गलियारे में भटकना था दूर तक
कटी हुई पतंग के पीछे चलते जाना था
ले लेनी थी वह गेंद जो तबसे खोई पड़ी है
उस नदी को पार कर लेना था जो तब बहुत गहरी लगती थी .
पा लेना था किसी घुमाव पर
साक्षी स्मृति की किसी धुंधले पृष्ठ की वह शरारती मुस्कान
उसके बनते- बिगड़ते आशय में कौंधता कोई संकेत
और दीख जाती कोई पगडण्डी
जिसके सहारे पहुंचना था उस जंगल में
जहां किसी चिड़िया के पीछे
हम डुबो आते दिन के कुँए में सूरज को
धागे से लटकाकर
कस्बे की तंग गलियों में चलते हुए
मिलाना था हाथ कलम पर चिपक गए हाथों से
और मिलाना था सरकारी कागजों के किसी तिल्लिस्म में कैद हो गई
उन आँखों से
जो कभी हंसतीं थीं कुछ परिचित चेहरों पर
उस स्त्री के लिए ढूंढ़कर लाने थे कुछ शब्द
जो जब अपनी विपदा सुनाती
तब डकरने लगती थी एक गाय
और जिबह किये बकरे का बहता रक्त
उसकी आँखों से टप-टप टपकने लगता
एक मेरी मुश्किल थे मौजम मियाँ
जो मशीन पर झुके सिलते रहते थे
किसी पुरानी बुनावट का कोई हिस्सा
जब वे मुझे बेटा कहते तब मुझे किसी गुम्बद के ढहने की
आवाज़ आती
और मुख़्तसर -सी गुफ़्तगू में फ़ैल जाता कर्फ्यू -सा सन्नाटा
प्रवास से लौटते पक्षी की भी क्या कुछ होती होंगी विवशताएँ
ख़ुशबू की कौन-सी मजबूरी कि वह लौट आये फूल पर
अनाज धरती की ओर
स्त्रियाँ माँ के नजदीक
नदियाँ सागर के पास
वृक्ष की जड़ों पर बिखरे रहते हैं क्यों फल
कस्बे की शब्दावली का जीवन की किताब से क्या रिश्ता !
नैतिकताएं कैसे बदल रही हैं विवशताओं में !
३.
सभ्यता :: १
स्त्री के बालों से डरती है सभ्यता
उसकी हंसी से
उसकी देह की बनावट से
उसके होने भर से थरथराने लगती
सभ्यता का अर्थात
स्त्री की पीठ है ज़ख्मों से अटी
२
शब्द उच्चरित हुए
एक स्वर्गीय संगीत में लिपटी थी उसकी आत्मीयता
छंदों में छिपी थी क्रूरता
उन्हें याद किया गया मन्त्रों की तरह
बड़े जतन से लिखा गया उन्हें
पत्थर की किताब ठहरीं
पुरानी किताबों ने बनाई सभ्यता
सभ्यता पर भारी हैं अब किताबें
४.
एक दिन ::
किसी दिन प्रेम आएगा
ईश्वर की तरह
पुरोहित और प्रवचनों के बीच फंसे हम
पहचान भी नहीं पायेंगे उसे
भय से घिरी होंगी दिशाएँ और
अविश्वास के कीचड़ में गहरे धंसे हम
दरवाज़े पर उम्मीद की दस्तक को भी अनसुना कर देंगेarun dev
कहो कालिदास ::
उज्जयिनी का दिशाहीन मेघ
भटकते -भटकते थक गया है मल्लिका
वह भूल गया है अपनी गति
महानगर के चौराहे पर
सूझता नहीं कुछ उसे
दिशाएँ सब एक सी हैं
और रास्ते कहीं नहीं जाते
राजप्रसाद की रौशनी में कोई उत्सव है
पथ के एकाकीपन में
ऊंघते बूढ़े की आँखों में
भविष्य की लौ थरथरा रही है
यक्ष के रुदन से भर गया है आकाश
उसे कोई सुनता नहीं
कोई दुष्यंत नहीं जाता अब
किसी शकुन्तला के पास
चली गई हैं किताबों में
शौर्य और प्रेम की गाथाएँ
प्रतिनायकों की चालाकी के बीच
पराजित नायक लौट गया है अरण्य की ओर
मल्लिका !
इस सीलन भरे समय में
क्या करे तुम्हारा कालिदास !
२.
कस्बे के चौक की फीकी पड़ती मूर्ति
की अबूझ मुस्कान में
ढूंढ़नी थी लौटकर आने की विवशता
टूटे लैम्पपोस्ट के नीचे बिछी रात के
उत्सुक एकांत में करनी थी आदतन किसी की प्रतीक्षा
यादों के गलियारे में भटकना था दूर तक
कटी हुई पतंग के पीछे चलते जाना था
ले लेनी थी वह गेंद जो तबसे खोई पड़ी है
उस नदी को पार कर लेना था जो तब बहुत गहरी लगती थी .
पा लेना था किसी घुमाव पर
साक्षी स्मृति की किसी धुंधले पृष्ठ की वह शरारती मुस्कान
उसके बनते- बिगड़ते आशय में कौंधता कोई संकेत
और दीख जाती कोई पगडण्डी
जिसके सहारे पहुंचना था उस जंगल में
जहां किसी चिड़िया के पीछे
हम डुबो आते दिन के कुँए में सूरज को
धागे से लटकाकर
कस्बे की तंग गलियों में चलते हुए
मिलाना था हाथ कलम पर चिपक गए हाथों से
और मिलाना था सरकारी कागजों के किसी तिल्लिस्म में कैद हो गई
उन आँखों से
जो कभी हंसतीं थीं कुछ परिचित चेहरों पर
उस स्त्री के लिए ढूंढ़कर लाने थे कुछ शब्द
जो जब अपनी विपदा सुनाती
तब डकरने लगती थी एक गाय
और जिबह किये बकरे का बहता रक्त
उसकी आँखों से टप-टप टपकने लगता
एक मेरी मुश्किल थे मौजम मियाँ
जो मशीन पर झुके सिलते रहते थे
किसी पुरानी बुनावट का कोई हिस्सा
जब वे मुझे बेटा कहते तब मुझे किसी गुम्बद के ढहने की
आवाज़ आती
और मुख़्तसर -सी गुफ़्तगू में फ़ैल जाता कर्फ्यू -सा सन्नाटा
प्रवास से लौटते पक्षी की भी क्या कुछ होती होंगी विवशताएँ
ख़ुशबू की कौन-सी मजबूरी कि वह लौट आये फूल पर
अनाज धरती की ओर
स्त्रियाँ माँ के नजदीक
नदियाँ सागर के पास
वृक्ष की जड़ों पर बिखरे रहते हैं क्यों फल
कस्बे की शब्दावली का जीवन की किताब से क्या रिश्ता !
नैतिकताएं कैसे बदल रही हैं विवशताओं में !
३.
सभ्यता :: १
स्त्री के बालों से डरती है सभ्यता
उसकी हंसी से
उसकी देह की बनावट से
उसके होने भर से थरथराने लगती
सभ्यता का अर्थात
स्त्री की पीठ है ज़ख्मों से अटी
२
शब्द उच्चरित हुए
एक स्वर्गीय संगीत में लिपटी थी उसकी आत्मीयता
छंदों में छिपी थी क्रूरता
उन्हें याद किया गया मन्त्रों की तरह
बड़े जतन से लिखा गया उन्हें
पत्थर की किताब ठहरीं
पुरानी किताबों ने बनाई सभ्यता
सभ्यता पर भारी हैं अब किताबें
४.
एक दिन ::
किसी दिन प्रेम आएगा
ईश्वर की तरह
पुरोहित और प्रवचनों के बीच फंसे हम
पहचान भी नहीं पायेंगे उसे
भय से घिरी होंगी दिशाएँ और
अविश्वास के कीचड़ में गहरे धंसे हम
दरवाज़े पर उम्मीद की दस्तक को भी अनसुना कर देंगेarun dev
14 Comments
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाउंगी ….
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा …..
मित्रों विचारों की दुनिया में पुरुष की स्थापना व्यक्ति के रूप में हुवी ,और हम स्त्रियों की वस्तु के रूप में
हम उनके सन्दर्भों से परिभाषित होती रहीं वो व्यक्ति हम वस्तु ,
वो तर्क हम भावना
वो ज्ञानी हम अज्ञानी वो पंडित हम अबोध ….यही कारण होगा पुरुषों द्वारा निर्मित संस्थाएं फिर चाहे वो संसद हो,…
चाहे नौकरशाही चाहे पुलिस उन्होंने हमे व्यक्ति के स्तर पर महत्व देने से इंकार कर दिया जरुरत सोच में परिवर्तन लाने की है
आपको अचम्भा होगा महादेवी वर्मा भी जूझ रही थीं इन्ही बिभिन्नाताओं से तभी तो मै नीर भरी दुःख की बदली लिखने वाली ने लिखा
"जब ज्वाला से प्राण तपेंगे
तभी मुक्ति के स्वप्न ढलेंगे
उसको छूकर मृत साँसे भी ,होंगी चिंगारी की माला
मस्तक देकर आज खरीदेंगे ,हम ज्वाला " आह ……
देश- देशावार जाना पर साथ में रखना
धरत की महक
नींद में घर का सुख
आना तो लाना तीर्थों की धुल
किसी दिन नदियों को घर लाना
अनुभव की पिटारी में लाना महर्षियों को
जिनकी चदरिया मैली न हो
उन्हें देना आसान घर के आले में
परखना कुछ दिन फिर रोप देना धरती में
जड़ें दूर तक जायें …………अरुण देव हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं . अरुण देव भाषा में चित्रों को रचाते हैं और रचते हुए अपनी जड़ो और लोक को उतनी ही सहजता से कविता में बचाए रखने जो उपक्रम करते हैं वह उन्हें अपने काव्य समय का अनूठा कवि बनाती है .कितने ऐसे युवतर कवि हैं जो वैचारिकता ,भाव ,संवेदना की गर्माहट को बचाकर ऐसी जीवंत भाषा को साध पाते हैं ?भाषा और संवेदना का यही वैशिष्ट्य कविता को कृत्रिम होने से बचाता है और उसे नई जीवन्तता देता है …जानकी पुल का बहुत धन्यवाद .
behad pasand aai kavitaayein….
जब तपते रेगिस्तान में जल रहा होगा हमारा कंठ
तरबूज में मीठे जल की तरह बैठा होगा प्रेम
हम भूल चुके होंगे कुछ भी परिश्रम से पाना
भूल चुके होंगे हम सहेजना , संभालना
प्रेम के हाथों से गिरता फूल हमें कहाँ दिखेगा
arunjii ko badhai…
jankipul ko tatha prabhat bhai ko sadar pranam,kyoki mujhe arun dev jaishe honhar kavi ki kavita parhne ko mila. pahali bar mai arun ji ko parha hu lekin mujhe bhitar tak prabhavit kar gai hai, samaya ki nabj ko pakarne ki jo bhashik muhabra garha hai wah kavile tarif hai.
हालाँकि आज के लेखन के सन्दर्भ में मुझे विधाओं के कम्पार्टमेंट समझ में नहीं आते, फिर भी मुझे अरुण देव की इन (या और भी) कविताओं को पढ़ते हुए बहुत साफ अहसास हुआ कि ये कवितायेँ हमें अपनी जातीय परंपरा के बीच ले जाकर अपने वर्तमान का हाथ थमाकर वहां बेहिचक छोड़ जाती हैं, स्मृतियों को मुक्त ढंग से महसूस करने, उनके बीच खुली साँस लेते हुए जीने के लिए. बेशक, यह स्मृति-परंपरा मेरी अपनी है, उसमें न अरुण देव हैं, न क्रोंच युगल के मित्र वाल्मीकि, न फकीर खुसरो, न श्रीकांत वर्मा, न उज्जयिनी का राज प्रासाद, न यक्ष का रुदन और न प्रेम की छतरी. हालाँकि इन्ही तमाम चीजों के साथ सौंपा था अरुण देव ने मुझे यह संसार, तब कहाँ चली गयी हैं वे ठोस वस्तुएं, शब्दों के पुल बन जाने के बावजूद, गीले कंठ की मानिंद? शायद वे बन चुकी हैं मेरी अपनी स्मृतियाँ… खास मेरी अपनी.
न जाने क्या कहा था हवा ने/ और क्या तो सुना बांस के उस खोखले टुकड़े ने/ जहाँ कब से बैठा था वह सघन दुःख/ जो इस धरती का है/ किसी दरवेश,फकीर,संत का है/ कि प्रेमरत जोड़ों के सामूहिक वध पर विलाप करते उस क्रोंच का है/ जो रो रहा है तब से/ जब अर्थ तक पहुँचने के लिए/ शब्दों के पुल तक न थे/ और तभी से भीगा है/ लय का कंठ.
कितना उर्वर और संभावनाशील है हमारा रचना-संसार! इसके सहारे तो हम कितने ही कल्प और जी सकते है! शायद यही है आज की कविता.
अरुण की कविताएँ अपनी अलग पहचान बनाती हैं . वे केवल समकालीन नहीं हैं बल्कि आने वाले समय और बीते समय को भी साथ में सहेजे -समेटे हैं . अरुण को जन्मदिन की असीम शुभकामनाएँ , blessings …और प्रभात का ख़ास शुक्रिया इन्हें साझा करने के लिए .
एक मेरी मुश्किल थे मौजम मियाँ
जो मशीन पर झुके सिलते रहते थे
किसी पुरानी बुनावट का कोई हिस्सा
जब वे मुझे बेटा कहते तब मुझे किसी गुम्बद के ढहने की
आवाज़ आती
और मुख़्तसर -सी गुफ़्तगू में फ़ैल जाता कर्फ्यू -सा सन्नाटा
अरुण देव की इन कविताओं को पढ़वाने के लिए जानकीपुल को धन्यवाद। अरुण देव को उनकी अपनी और अच्छी कविताओं के लिए बहुत बधाई। पहली कविता ही बाँध लेती है। अरुण देव की कविछवि के लिए मेरी ओर से बहुत शुभकामनाएँ। जन्मदिन के लिए बधाई।
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