ज्ञानपीठ-गौरव प्रकरण में खूब बहस चली, आज भी चल रही है. आशुतोष भारद्वाज ने उस प्रकरण के बहाने हिंदी लेखक समाज की मानसिकता, उसके बिखराव को समझने का प्रयास किया है. आशुतोष स्वयं कथाकार हैं, अंग्रेजी के पत्रकार हैं, शब्दों की गरिमा को समझते हैं, लेखन को एक पवित्र नैतिक कर्म मानते हैं. मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित यह लेख यहां बहस के लिए रख रहा हूँ. आशा करता हूं आपकी प्रतिक्रियाएं भी इस पर आएँगी और आशुतोष की बात दूर तलाक जायेगी- जानकी पुल.
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पिछले सवा दो वर्षों में हिंदी के मसलों पर रिर्पोटिंग का पहला त्रासद अनुभव यह रहा कि बुजुर्ग और नामचीन लेखकों को फोन कर उनका वक्तव्य मांगा जाये तो अधिकांश ‘अब इस पर क्या कहा जाये, रहने दें… ‘ की मुद्रा में फोन रख देते हैं। दिलचस्प कि बंगला या कन्नड़ के वरिष्ठ लेखक मुद्दे से अनजान होने के बावजूद न सिर्फ फोन पर पूरी बात पूछते-सुनते हैं बल्कि अपनी बेबाक राय भी देते हैं।
हिंदी के वरिष्ठ लेखक सार्वजनिक बयान देने से क्यों बचते-डरते है? क्या किसी अन्य क्षेत्र में ऐसे विषेषज्ञ होंगे? क्या अर्थशास्त्री, राजनेता या पुलिस अधिकारी मसलन कोई प्रश्न पूछे जाने पर किसी रिपोर्टर से कहेंगे — ये सब छोडि़ये, बाकी सब ठीक है? क्या कर रहे हैं इन दिनों…आइये कभी।‘
दूसरा त्रासद अनुभव, यह सम्मानीय बुजुर्ग जवाब तो नहीं देते लेकिन फोन रखते वक्त हौले से सरका देते हैं— वैसे हमें मालूम है किसके कहने पर आप यह लिख रहे हैं। अगले दिन खबर छपने पर युवा लेखक मित्र खुद को आपका स्वयंभू और एकमात्र हितैषी मान आपको तिकड़मी सलाह देते हैं– क्यों कर रहे हैं यह सब? क्यों किसी को हीरो बना रहे हैं? आप अच्छा लिख रहे हैं, अपना काम करिये न।
यह दिलचस्प है। अपनी भाषा यानी अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण मसले पर एक कायर-कातर और शातिर-शायराना चुप्पी, अगर कोई दूसरा बोले तो उस पर निहित स्वार्थ और किंचित षड्यंत्र का ठप्पा, इसके कोई मायने नहीं कि रिपोर्टर फोन के उस ओर खड़े व्यक्ति से कभी नहीं मिला है।
अगर आदर्श चुनाव कोड, चिकित्सक का हिपोक्रैटिक हलफनामा, सांसद की संवैधानिक शपथ हैं तो लेखकीय आचार संहिता भी होनी चाहिये। निजी जीवन से हमें सरोकार नहीं, लेकिन उन सार्वजनिक लम्हों में जब आप बतौर लेखक अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं आपसे अपेक्षित है कि जो मूल्य आपके शब्द प्रस्तावित करते हैं उनके लिये आप कुर्बान होने की कुव्वत रखेंगे। अपने शब्द पर न्यौछावर होने की बेझिझक और बेखौफ हुंकार लेखक होने की अनिवार्य शर्त। मसलन आपका शब्द अगर सत्ता विरोधी है तो आप लेखकीय जीवन में सत्ता की चाकरी नहीं करेंगे। वह न कहें-लिखें जिसे आपका आचरण अवैध बना दे। जो सत्यापित कर सकें सिर्फ वही लिखें। बस।
इस संहिता की ललकार पर हमारे कई सम्मानित बुजुर्ग और युवा लेखक अपनी हस्ती लुटा चुके मिलेंगे। वह वयोवृद्ध आलोचक मसलन जिनके द्वारा सराही और प्रकाशनार्थ संस्तुत की गयी किताब एक बड़ा प्रकाशन छापने से मना कर देता है। यह उस किताब से कहीं अधिक ज्यूरी के अध्यक्ष का तिरस्कार है। क्या आलोचक का काम महज किताबों का लोकार्पण और मंच से बोलना ही है? अपने कहे-लिखे शब्द के सम्मान की रक्षा कौन करेगा? क्या उनसे यह अपेक्षा न हो कि वे किताब पर होता हरेक वार सबसे पहले अपनी काया पर सहेंगे?
या वे लेखक जो ‘पुलिसिया बर्बरता’ के खिलाफ लिखते-बोलते हैं लेकिन चुपचाप उन भूतपूर्व पुलिस अधिकारी के दरबार में जा खड़े होते हैं जो भारत के इतिहास में शायद पहले ऐसे कुलपति हैं जिनके खिलाफ फर्जी प्रमाणपत्र बनवाने के सिलसिले में एफआईआर दर्ज हो चुकी है, जिन पर कई दलित छात्र उत्पीड़न का, स्त्री लेखिका अपमान का आरोप लगाती हैं। आपको अपने निजी जीवन में जिससे चाहे मित्रता, अंतरंगता रखने का पूरा अधिकार है लेकिन बतौर लेखक कहीं शिरकत करने से पहले यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिये कि आपकी उपस्थिति आपके शब्द और लेखक बिरादरी को तिरस्कृत तो नहीं करेगी?
और कुलपति? वे भूतपूर्व आईपीएस हैं, अतिवरिष्ठ पुलिस अधिकारी थे। उपन्यास भी लिखे. किसी सिविल सेवक के विरुद्ध अदालत के आदेश पर एफआईआर होने के क्या मायने हैं उन्हें पता होंगे. क्या उन्हें पुलिस विभाग और अपने लेखन की मर्यादा के मद्देनजर खुद ही यह पद नहीं छोड़ देना चाहिए था?
कोई प्रकाशक या संपादक अपनी अर्थवत्ता लेखक और उसकी रचना से ग्रहण करता है। अपने यहां उलट है। प्रकाशक मानते हैं उन्होंने लेखकों को खड़ा किया है — क्या था वह हमारे यहां छपने से पहले, हमने बनाया उसे। अद्भुत दंभ जिसे खुद लेखक की कातरता ने ही रक्तपोषित किया है। किसी पत्रिका के दफ्तर जाइये, लेखक अपनी रचना का रोली, चावल, कपूर बत्ती बना संपादक की आरती उतारते मिलेंगे — कल रात ही पूरी की है, देख लीजियेगा जरा। संपादक बतलायेगा स्वीकृत रचनाओं की कतार बहुत लंबी है, तो कहेंगे — थोड़ा जल्दी कर दीजियेगा न। एकाध कोई आगे पीछे कर दीजियेगा।
आपके भीतर लेखकीय संयम नहीं, आपको अपने शब्द की ताकत पर भरोसा नहीं तो फिर संपादक क्यों आपकी याचना का लुत्फ न ले। भले वह आपकी रचना जल्दी छाप दे लेकिन क्या आप इस मासूम भुलावे में है कि संपादक आपका सम्मान करेगा? आप जैसे ही दरबार से उठ कर जायेंगे, वह अन्य सभागणों के सामने तुरंत आपका और आपकी रचना का चीर हर लेगा। आपने अपनी गरिमा तो आरती की थाली में स्वाहा कर दी, जिसे आपने अनगिन जागती रातों में संजोया, जो घनघोर नाउम्मीदी-नाकामी के लम्हों में आपके साथ अंतिम स्वप्न की तरह जीती रही, कम से कम उस कृति को तो ऐसी सभाओं में दांव पर मत लगाइये। प्रकाशक को शक्तिमान किसने बनाया? लेखक की कायरता, अपने शब्द पर अविश्वास और छपास-ललक ने। अगर आप साल-छः महीने देर से छपेंगे या नहीं भी छपेंगे तो क्या आपकी कलम को लकवा मार जायेगा, लैपटाप कोमा में चला जायेगा?
यही लालच आपको लोकार्पण मंडप ले जाता है, आप बड़े लोकार्पणकार का जुगाड़ करते हैं लेकिन यहां भी कुंठित होते हैं कि वरिष्ठ लेखक आपकी तारीफ में कुछ घिसे हुये जुमले तो मंच से बोला लेकिन बिना आपकी किताब पढ़े यूंही चला आया था, किताब के पन्ने मोड़ रास्ते में प्रकाशक की कार से आते वक्त नोट्स जैसा कुछ बना लाया था।
प्रचारलोलुप आप अब भी खैर नहीं करते, अपने शब्द को पोला-पोपला-पिलपिला बनाये जाते हैं। किताब आ गयी, लोर्कापण हो गया और बेमुरव्वत और बेनमक जंतु आप समीक्षक के दरबार पहुचते हैं — कहीं कुछ देख लीजियेगा हो सके तो जरा। ‘सुधी समीक्षक के श्रीचरणों में’ अपनी हस्ताक्षरित किताब भिजवाते हैं. भेजने से पहले दो, उसके बाद चार फोन करते हैं। कई सारी किताबें अन्य बुजुर्ग लेखकों को ससम्मान भेंट करते हैं — नयी किताब आयी है मेरी, आप देख लेते जरा।
जरा! कुछ और भी बाकी था या है? अपनी किताब बेइज्जत करने से बेहतर आप अपनी कलम तोड़, लैपटाप फोड़ फांसी क्यों नहीं लगा लेते? आप क्यों इस आत्मविश्वस्त दंभ में बेफिक्र हो नहीं जी पाते कि गर आपका शब्द सच्चा है तो आपको किसी समीक्षक-प्रचारक की दरकार क्यों। आपकी किताब पाठकीय चेतना को भेदती अपना रास्ता खुद बनायेगी।
मित्रो, बेवकूफी है संपादक/प्रकाशक के खिलाफ अभियान। भ्रष्ट आचार तो लेखक इस नामक जंतु का ही है जो स्वघोषित एंटी-एस्टाब्लिशमैंट है, अनाम, अज्ञात या दूर देश के दुश्मन गढ़ता है, बुश, सरकोजी से ले किन्हीं चेहराहीन प्राणियों पर दिन दोपहर फेसबुकिये मुक्के बरसाता है, प्रगतिवादिता, अन्याय, क्रांति जैसे मशहूर जुमलों की विराट इमला लिखता है, प्रेम, मानवता, सहिष्णुता का मंत्रोच्चार करता है, खुद को पृथ्वी का सबसे नैतिक, ईमानदार और संवेदनशील प्राणी प्रस्तावित करता है,, समाज के हर वर्ग राजनेता, फिल्मकार, व्यापारी इत्यादि पर अंतिम फतवा अपना स्वयंभू अधिकार समझता है लेकिन अपने गलीज़ कर्मों से पूरी लेखक बिरादरी को तिरस्कृत करता है।
विरोध इसी प्रजाति का होना चाहिये, भले वह कविता कहता, कहानी बोलता या आलोचना सुनाता हो। सबसे पहले इस जंतु को इस खुशफहमी से जुदा करें कि वह लेखक है। चार-छः कागज काले करने से कोई लेखक नहीं बनता। आप अच्छा लिख रहे हैं, लिखते होंगे, आपकी रचनायें नाना प्रकार की देशी विदेशी भाषाओं में अनुदित हो चर्चित हुई होंगी, हुआ करें, आपको समझना होगा लेखक होना एक अपूर्व नैतिक क्रिया है। लेखक कहलाये जाने की अर्हता कठोर है, बलिदान मांगती है। लेखक भाषा का सेनापति है, समाज और साहित्य का अनिवार्य और अंतिम प्रतिनिधि है, रचना उसे अधिकार और दायित्व सौंपती है कि वह अपनी भाषा और उसे बरतने वाले प्राणियों के सम्मान के लिये आंधी तूफान, घनघोर लालच और लिप्सा के लम्हों में भी सैनिक की माफिक मोर्चा बांधे मिलेगा। अगर आपका आचरण आपके शब्द का विलोम है, आप शब्द की रक्षा में असमर्थ हैं तो खुद तय करें आपको क्या कहा जाये।
आखिर आप भी तो स्कूल-कालेज के दिनों में पहली मर्तबा शब्द के पास अंतिम उम्मीद की भांति गये थे कि इसकी आंच में अपनी रूह और हड्डियां गलायेंगे, पिघले रसायन की ताप से एक बेहतर दुनिया रचेंगे। उम्र ने भले समझा दिया दुनिया शायद यों नहीं बदलेगी लेकिन खुद को स्वाहा करने का जज़्बा काहे भूल आये। डालर के बरअक्स रुपये की तरह शक्ति के समक्ष शब्द के अवमूल्यित होते जाने के दौर में इतना तो हम कर ही सकते हैं कि हर वह व्यक्ति जो लेखकीय आचार संहिता अ
6 Comments
कहते है साहित्यकार मानवीय मूल्यों का चौकीदार है जो दिन हो या रात अक्सर जागते रहो की हांक लगाता है .पर अब ऐसी "हांके "मुख्यधारा के सरोकारों से इतर दुनियादारी के दूसरे कई गैर जरूरी शोरो में धीमी पड़ गयी है या उलझ रही है .
कुछ घटनाएं रूमानी लगती है पर अपने सामाजिक संदर्भो को लेकर वे कितनी मौलिक है कितनी ईमानदार है इसका उस वक़्त में कहना मुश्किल होता है . आने वाला वक़्त उनकी सही रूप रेखा उनके सन्दर्भ तय करता है पर अपने समांनातर वे कई अच्छी बुरी चीज़े लेकर चलती है ,किसी भी बहस में शामिल होने का "अतिरिक्त आग्रह " किसी भी बहस के लोकतान्त्रिक पक्ष को मजबूत नहीं करता .इस बहस में जो सहमति रखेगे वही लेखकीय आचार सहिंता का पालन करेगे ऐसा भी नहीं है .. किसी भी घटना को देखने की हर व्यक्ति की अपनी समझ अपनी दृष्टि होती है .अपने पास उपलब्ध तथ्यों ओर सूत्रों से वो किसी घटना की विवेचना करता है फिर अपनी राय देता है .वो सहमति में भी हो सकती है असहमति में भी .
. "पक्षधरता" के आधार सिर्फ सिर्फ नैतिक ओर साहित्यिक माप दंड नहीं होते है .कभी कभी "लेखकीय सरोकार" पीछे हो जाते है है दोस्तिया फ्रंट पे आ जाती है .जाहिर है यही नियम असहमतियो पर भी सामान रूप से लागू होता है .तटस्थता के भी कई पक्ष होते है .एक वो जो किसी भी बहस के मूल बिंदु को लेकर संदेह में रहता है दूसरा वो जो किसी भी बहस के व्यक्तिपरक केन्द्रित होने के खिलाफ होता है तीसरे वे लोग हमेशा तटस्थ भूमिका में रहे है ,रहते आये है वे क्यों चुप है इसका जवाब शायद वही जानते है .असहमत होने वाले व्यक्ति तटस्थ रहने वाले तबके से ज्यादा ईमानदार होते है क्यूंकि वे स्पष्ट तो है .
पर कुछ चीज़े ओर भी है जिन पर गौर किया जाना चाहिए
लेखक जब लेखकीय सरोकारों को लेकर सार्वजानिक मंच पर विरोध दर्ज करता है उसमे असहमतिया व्यक्त करने का एक" लेखकीय आचरण "होता है .सूचना क्रान्ति के इस युग में जाहिर है उस पर इसे निभाने की एक अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है ,भावावेश में भी इस संतुलन का इस गरिमा की क्षति हुई है ओर लगातार हुई है
कहानी की रचनात्मक गुणवत्ता पे अब ईमानदार बातचीत नहीं होती . दोस्त लेखक कहानी की बुनावट पर कुछ असहमतिया व्यक्त करने से बचते है . लेखक में भी आलोचना के प्रति सहिष्णुता लुप्त हो रही है .कहानी की आलोचना को लेखक पर्सनल अटैक की मार्फ़त लेने लगे है . ऐसा क्यों है के कहानिया अब स्मर्तियो में नहीं रह पाती है ? .भाषाई जाल अचानक इतने महत्वपूर्ण हो गए है. कथा का कोनटेक्स्ट ,चरित्र ,मेसेज अस्पष्ट होने लगे है .भाषाई कौशल के अस्पष्ट से कई टुकडो में कही कहानिया खो तो नहीं रही है ?? कहानी कहाँ है ? क्या इन सबमे लेखक की ही भागेदारी नहीं है .
ये बहस आलोचक की भी विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में लाती है .वे ऐसी कहानीयो को फ्रंट पर क्यों रख रहे है जो शायद गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट नहीं है . क्या प्रकाशक का दबाव है या दोस्तिया निभाने की कुछ कवायादो में से एक . क्या आलोचकों ओर प्रकाशको का ये गठजोड़ पाठको के साथ छल नहीं है ?
उम्मीद करता हूँ
किसी दिन कोई अनजान बिना छपा लेखक अपनी असहमतिया दर्ज कराये तो उसे भी इन सब खानों में जगह मिलेगी ,उसके पक्ष में बड़े लेखक अपनी किताबे वापस लेगे या किसी पुरूस्कार को ग्रहण करने से मना करेगे ( वही असल क्रान्ति होगी .)
अगर आप किसी कला से जुड़े हैं तो तटस्थता आपके लिये आपके कला अभ्यास की तरह है
जम के करिये अभ्यास और गोली मारिये दुनिया को
हरमुनिया बजाकर
…
विमल चन्द्र पाण्डेय की कविता का एक अंश …
सवाल जायज हैं. इनका सामना किये बिना बात कुछ बनने वाली नहीं. बस यह कि यह मर्ज़ बुजुर्गों तक नहीं. कुछ वक्त से पहले मैच्योर हो गए युवा इस मामले में बुजुर्गों के भी कान काटते हैं.
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