आज राजेंद्र यादव ८४ साल के हो गए. राजेंद्र यादव मूलतः कथाकार हैं, ‘नई कहानी’ आंदोलन के तीन सिग्नेचर कथाकारों में एक. जन्मदिन के मौके पर ‘नई कहानी’ आंदोलन के इस पुरोधा की एक पुरानी कहानी पढते हैं, जो संयोग से वर्षगाँठ के प्रसंग से ही शुरु होती है, और अपने इस प्रिय लेखक के शतायु होने की कामना करते हैं- जानकी पुल.
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I shall depart. Steamer with swaying masts, raise anchor for exotic landscapes.
– Sea Breeze, Mallarme
तुम्हें पता है, आज मेरी वर्षगाँठ है और आज मैं आत्महत्या करने गया था? मालूम है, आज मैं आत्महत्या करके लौटा हूँ?
अब मेरे पास शायद कोई ‘आत्म‘ नहीं बचा, जिसकी हत्या हो जाने का भय हो। चलो, भविष्य के लिए छुट्टी मिली!
किसी ने कहा था कि उस जीवन देने वाले भगवान को कोई हक नहीं है कि हमें तरह-तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरता देख-देखकर बैठा-बैठा मुस्कराए, हमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आपसे लड़ता रहूँ, छटपटाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चींटी छटपटाती है, और किनारे पर खड़े शैतान बच्चे की तरह मेरी चेष्टाओं पर ‘वह‘ किलकारियाँ मारता रहे! नहीं, मैं उसे यह क्रूर आनंद नहीं दे पाऊँगा और उसका जीवन उसे लौटा दूँगा। मुझे इन निरर्थक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में डालकर तू खिलवाड़ नहीं कर पाएगा कि हल तो मेरी मुट्ठी में बंद है ही। सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया था कि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता क्या है, और निकलने का तरीका मैं नहीं जानता था…. लेकिन निकल कर ही क्या होगा? किस शिव का धनुष मेरे बिना अनटूटा पड़ा है? किस अपर्णा सती की वरमालाएँ मेरे बिना सूख-सूखकर बिखरी जा रही हैं? किस एवरेस्ट की चोटियाँ मेरे बिना अछूती बिलख रही हैं? जब तूने मुझे जीवन दिया है तो ‘अहं‘ भी दिया है, ‘मैं हूँ‘ का बोध भी दिया है, और मेरे उस ‘मैं‘ को हक है कि वह किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ कर घुसने और निकलने से इंकार कर दे….. और इस तरह तेरे इस बर्बर मनोरंजन की शुरूआत ही न होने दे…..
और इसीलिए मैं आत्महत्या करने गया था, सुना?
क्योंकि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तुम्हें किसी अर्जुन ने नहीं बताया- इसीलिए मुझे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लौट आया- अपने लिए नहीं, परीक्षित के लिए, ताकि वह हर साँस से मेरी इस हत्या का बदला ले सके, हर तक्षक को यज्ञ की सुगंधित रोशनी तक खींच लाए।
मुझे याद है : मैं बड़े ही स्थिर कदमों से बांद्रा पर उतरा था और टहलता हुआ ‘सी‘ रूट के स्टैंड पर आ खड़ा हुआ था। सागर के उस एकांत किनारे तक जाने लायक पैसे जेब में थे। पास ही मजदूरों का एक बड़ा-सा परिवार धूलिया फुटपाथ पर लेटा था। धुआंते गड्ढे जैसे चूल्हे की रोशनी में एक धोती में लिपटी छाया पीला-पीला मसाला पीस रही थी। चूल्हे पर कुछ खदक रहा था। पीछे की टूटी बाउंड्री से कोई झूमती गुन-गुनाहट निकली और पुल के नीचे से रोशनी-अँधेरे के चारखाने के फीते-सी रेल सरकती हुई निकल गई-विले पार्ले के स्टेशन पर मेरे पास कुछ पाँच आने बचे थे।
घोड़ाबंदर के पार जब दस बजे वाली बस सीधी बैंड स्टैंड की तरफ दौड़ी तो मैंने अपने-आपसे कहा -“वॉट डू आई केयर? मैं किसी की चिंता नहीं करता!”
और जब बस अंतिम स्टेज पर आकर खड़ी हो गई तो मैं ढालू सड़क पार कर सागर-तट के ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर उतर पड़ा। ईरानी रेस्त्रां की आसमानी नियोन लाइटें किसी लाइटहाउस की दिशा देती पुकार जैसी लग रही थीं,…. नहीं, मुझे अब कोई पुकार नहीं सुननी…. कोई और अप्रतिरोध पुकार है जो इससे ज्यादा जोर से मुझे खींच रही है। दौड़ती बस में सागर की सीली-सीली हवाओं में आती यह गंभीर पुकार कैसी फुरहरी पैदा करती थी। और मैं ऊँचे-नीचे पत्थरों के ढोकों पर पाँव रखता हुआ बिल्कुल लहरों के पास तक चला आया था। अँधेरे के काले-काले बालों वाली आसमानी छाती के नीचे भिंचा सागर सुबक-सुबककर रो रहा था, लंबी-लंबी साँसें लेता लहर-लहर में उमड़ा पड़ रहा था। रोशनी की आड़ में पत्थर के एक बडे से टुकड़े के पीछे जाने के लिए मैं बढ़ा तो देखा कि वहाँ आपस में सटी दो छायाएँ पहले से बैठी हैं ‘ईवनिंग इन पेरिस‘ की खुशबू पर अनजाने ही मुस्कराता मैं दूसरी ओर बढ़ आया। हाँ, यही जगह ठीक है, यहाँ से अब कोई नहीं दीखता। धम से बैठ गया था। सामने ही सागर की वह सीमा थी जहाँ लहरों से अजगर फन पटक-पटक फुफकार उठते थे और रूपहले फेनों की गोटें सागर की छाती पर यहाँ-वहाँ अँधेरे में दमक उठती थीं। पानी की बौछार की तरह छींटे शरीर को भिगो जाते थे और पास की दरारवाली नाली में झागदार पानी उफन उठता था।
सब कुछ कैसा निस्तब्ध था! कितना व्याकुल था! हाँ, यही तो जगह है जो आत्महत्या-जैसे कामों के लिए ठीक मानी गई है। किसी को पता भी नहीं लगेगा। सागर की गरज में कौन सुनेगा कि क्या हुआ और बड़े-बड़े विज्ञापनों के नीचे एक पतली-सी लाइन में निकली इस सूचना को कौन पढ़ेगा? इस विराट बंबई में एक आदमी रहा, न रहा। मैंने जरा झाँककर देखा- मछुओं के पास वाले गिरजे से लेकर ईरानी रेस्त्रां के पास वाले मंडप तक, सड़क सुनसान लेटी थी। बंगलों की खिडकियाँ चमक रही थीं और सफेद कपड़ों के एकाध धब्बे-से कहीं-कहीं आदमियों का आभास होता था। रात का आनंद लेने वालों को लिए टैक्सी इधर चली आ रही थी।
असल में मैं आत्महत्या करने नहीं आया था। मैं तो चाहता था कोई मरघट-जैसी शांत जगह, जहाँ थोड़ी देर यों ही चुपचाप बैठा जा सके। यह दिमाग में भरा सीसे-सा भारी बोझ कुछ तो हल्का हो, यह साँस-साँस में रड़कती सुनाई की नोक-सा दर्द कुछ तो थमे। लहरें सिर फटककर-फटककर रो रही थीं और पानी कराह उठता था। घायल चील-सी हवा इस क्षितिज तक चीखती फिरती थी। आज सागर-मंथन जोरों पर था। चारों ओर भीषण गरजते अँधेरे की घाटियों में दैत्यवाहिनी की सफें की सफें मार्च करती निकल जाती थीं। दूर, बहुत दूर, बस दो चार बत्तियाँ कभी-कभी लहरों के नीचे होते ही झिलमिला उठती थीं। बाईं ओर नगर की बत्तियों की लाइन चली गई थी। सामने शायद कोई जहाज खड़ा है, बत्तियों से तो ऐसा लगता है। इस चिंघाड़ते एकांत में, मान लो, एक लहर जरा-सी करवट बदलकर झपट पड़े तो…? किसे पता चलेगा कि कल यहाँ, इस ढोंके की आड़ में, कोई अपना बोझ सागर को सौंपने आया था, एक पिसा हुआ भुनगा। मगर आखिर मैं जियूँ ही क्यों? किसके लिए? इस जिंदगी ने मुझे क्या दिया? वहीं अनथक संघर्ष स्वप्न भंग, विश्वासघात और जलालत। सब मिलाकर आपस में गुत्थम-गुत्था करते दुहरे-तिहरे व्यक्तित्व, एक वह जो मैं बनना चाहता था, एक वह जो मुझे बनना पड़ता था…
और उस समय मन में आया था कि, क्यों नहीं कोई लहर आगे बढ़कर मुझे पीस डालती? थोड़ी देर और बैठूँगा, अगर इस ज्वार में आए सागर की लहर जब भी आगे नहीं आई तो मैं खुद उसके पास जाऊँगा। और अपने को उसे सौंप दूँगा….. कोई आवेश नहीं, कोई उत्तेजना नहीं, स्थिर और दृढ़… खूब सोच-विचार के बाद….
मुझे लगता है एक छोटी-सी डोंगी अभी जहाज से नीचे उतार दी जाएगी और मुझे अपनी ओर आती दिखाई देगी…बस, उस लहर के झुकते ही तो दीख जाएगी। उसमें एक अकेली लालटेन वाली नाव! कहाँ पढ़ा था? हाँ याद आया, चेखव की ‘कुत्तेवाली महिला‘ में ऐसा ही दृश्य है जो एक अजीब कवित्वपूर्ण छाप छोड़ गया है मन पर…..गुरोव और सर्जिएव्ना को मैं भूल गया हूँ (अभी तो देखा था उस पत्थर की आड़ में) मगर इस फुफकारते सागर को देखकर मेरा सारा अस्तित्व सिहर उठता है। यह गुर्राते शेर-सी गरज और रह-रहकर मूसलाधार पानी की तरह दौड़ती लहरों की वल्गा-हीन उन्मत्त अश्व-पंक्तियाँ। मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस ‘सिम-सिम खुला जा‘ मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आई थी?
दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहज
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"मुझे लगता है एक छोटी-सी डोंगी अभी जहाज से नीचे उतार दी जाएगी और मुझे अपनी ओर आती दिखाई देगी…बस, उस लहर के झुकते ही तो दीख जाएगी। उसमें एक अकेली लालटेन वाली नाव! कहाँ पढ़ा था? हाँ याद आया, चेखव की 'कुत्तेवाली महिला' में ऐसा ही दृश्य है जो एक अजीब कवित्वपूर्ण छाप छोड़ गया है मन पर…..गुरोव और सर्जिएव्ना को मैं भूल गया हूँ (अभी तो देखा था उस पत्थर की आड़ में) मगर इस फुफकारते सागर को देखकर मेरा सारा अस्तित्व सिहर उठता है। यह गुर्राते शेर-सी गरज और रह-रहकर मूसलाधार पानी की तरह दौड़ती लहरों की वल्गा-हीन उन्मत्त अश्व-पंक्तियाँ। मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस 'सिम-सिम खुला जा' मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आई थी?
दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहजादी के महलों में जा पहुँचा। सारे दरवाजे खुद-बखुद खुलते गए। आगे झुके हुए ख्वाजासराओं के बिछाए ईरानी कालीन और किवाड़ों के पीछे छिपी कनीजों के हाथ उसे हाथों-हाथ लिये चले गए; और नौजवान शाहजादी के सामने था….ठगा और मंत्र-मुग्ध.."……….!!!
bhai yeh kehna ki rajendr yadav nai kahani ke teen singnature kathakaron me se ek hain meri samajh se bahar hai nai kahani mein amarkant,sekhar joshi nirmal verma ,markendeya, usha priyamvada mannu bhandari ka nam liye kisi tarah ka singnature pura nahi hota hai .han yeh jarur hai ki in teenon ne nai kahani me ek vyvsayik safalta jarur prapt ki thi uske liye jo tikreme aur mera hamdam mera dost sarikhe tarkibe bhi apnaye thi inhe dohrane ki awashykta nahi .prntu mai bus ye kahna chata hun ki aisa likh ker hum us tikram ko sahi sabit karte hain .naye logo ko lagta hai ki shahitya mein age badhne ka yahi rashta hai .
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