प्रियदर्शन मूलतः कवि हैं और हाल के दिनों में कविता में जितने प्रयोग उन्होंने किए हैं शायद ही किसी समकालीन कवि ने किए हों. प्रचार-प्रसार से दूर रहने वाले इस कवि की कुछ नई कविताएँ मनोभावों को लेकर हैं. आपके लिए- जानकी पुल.
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कुछ मनोभाव
प्रेम और घृणा
प्रेम पर सब लिखते हैं,
घृणा पर कोई नहीं लिखता,
जबकि कई बार प्रेम से ज्यादा तीव्र होती है घृणा
प्रेम के लिए दी जाती है शाश्वत बने रहने की शुभकामना,
लेकिन प्रेम टिके न टिके, घृणा बची रहती है।
कई बार ऐसा भी होता है
कि पहली नज़र में जिनसे प्रेम होता है
दूसरी नज़र में उनसे ईर्ष्या होती है
और
अंत में कभी-कभी वह घृणा तक में बदल जाती है।
यह तजबीज कभी काम नहीं आती
कि सबसे प्रेम करो, ईर्ष्या किसी से न करो
और घृणा से दूर रहो।
हमारे समय में नहीं, शायद हर समय
प्रेम की परिणतियां कई तरह की रहीं
कभी-कभी ईर्ष्या भी बदलती रही प्रेम में
लेकिन ज़्यादातर प्रेम बदलता रहा
कभी-कभी ईर्ष्या और घृणा तक में
और अक्सर ऊब और उदासी में।
हालांकि कामना यही करनी चाहिए
कि इस परिणति तक न पहुंचे प्रेम
और कई बार ऐसा होता भी है
कि ऊब और उदासी और ईर्ष्या और नफऱत के नीचे
भी तैरती मिलती है एक कोमल भावना
जिसे ज़िंदगी की रोशनी सिर्फ प्रेम की तरह पहचानती है।
चिंता
चिंताएं कभी ख़त्म नहीं होतीं
नींद में भी घुसपैठ कर जाती हैं
धूसर सपनों वाले कपड़े पहन कर
जागते समय साथ-साथ चला करती हैं
कभी-कभी उनके दबाव कुछ कम हो जाते हैं
तब फैला-फैला लगता है आकाश,
प्यारी-प्यारी लगती है धूप
नरम-मुलायम लगती है धरती।
लेकिन जब कभी बढ़ जाती हैं चिंताएं
बाकी कुछ जैसे सिकुड़ जाता है
हवा भी भारी हो जाती है
सांस लेने में भी मेहनत लगती है
एक-एक क़दम बढ़ाना पहाड़ चढने के बराबर महसूस होता है।
कहां से पैदा होती है चिंता?
क्या हमारे भीतर बसे आदिम डर से?
या हमारे बाहर बसे आधुनिक समय से?
या हमारे चारों ओर पसरी उस दुनिया से
या हमारे चारों ओर पसरी उस दुनिया से
जो दरअसल टूटने-बनने के एक न ख़त्म होने वाले सिलसिले का नाम है?
क्या निजी उलझनों के जाल से
या बाहरी जंजाल से
हमारे स्वभाव से या दूसरों के प्रभाव से?
कभी-कभी ऐसे वक़्त भी आते हैं जब बिल्कुल चिंतामुक्त होता है आदमी,
एक तरह के सूफियाना आत्मविश्वास से भरा हुआ- कि जो भी होगा निबट लेंगे
एक तरह की अलमस्त फक्कड़ता से लैस कि ऐसी कौन सी चिंता है जो ज़िंदगी से बड़ी है,
कभी इस दार्शनिक ख़याल को जीता हुआ कि चिंता है तो ज़िंदगी है।
लेकिन ज़िंदगी है इसलिए चिंता जाती नहीं।
कुछ न हो तो इस बात की शुरू हो जाती है कि पता नहीं कब तक बचा रहेगा ये चिंतामुक्त समय।
बस इतनी सी बात समझ में आती है, आदमी है इसलिए चिंता है।
उम्मीद
यह उम्मीद है जो हमें बचाए रखती है
हालांकि यह बहुत पुराना वाक्य है, बहुत बार लगभग इसी तरह, इन्हीं शब्दों में दुहराया हुआ
लेकिन यह वाक्य पीछा नहीं छोड़ता, जैसे उम्मीद पीछा नहीं छोड़ती।
चिंता के अंधे कुएं में भी किसी हल्के कातर उजाले की तरह बची रहती है।
कहां से पैदा होती है यह उम्मीद
जब आप किसी अंधे कुएं में गिरे पड़े हों
कोई रस्सी, कोई सीढ़ी, कोई ईंट, कोई रोशनी
आपको दिखाई न पड़ रही हो
कोई हाथ बढ़ाने वाला न हो, कोई देखने वाला न हो, कोई सुनने वाला भी न हो
तो भी एक कातर सी लौ जलती रहती है,
कुछ ऐसा हो जाने की उम्मीद
जो आपके खींच लाएगी कुएं से बाहर।
फिर पूछता हूं,
कहां से पैदा होती है उम्मीद
यह नासमझी की संतान है
या बुद्धि की विरासत
या उस अबूझ जिजीविषा की देन
जिसमें थोड़ी सी नादानी भी होती है थोड़ा सा विवेक भी
थोड़ा सा डर भी, थोड़ा सा भरोसा भी
थोड़ी सी नाकामी भी, थोड़ी सी कामयाबी भी
दरअसल यह उम्मीद ही है
जिसकी उंगली थामे-थामे इंसान ने किया है अब तक का सफ़र तय।
डर
डर भी होता है
कई रूपों में दबा हुआ
कई बार वह जमता-जमता ढीठ हो जाता है कुछ अमानवीय भी
और निकलता भी है उसी तरह
हमारे भीतर की बहुत सारी क्रूरताएं
हमारे डरों की ही संतान होती हैं
डर हमें कमज़ोर करता है
डर से आंख मिलाने से भी हम डरते हैं
चाहते हैं, बसा रहे हमारे भीतर, हम ही उससे बनें रहे बेख़बर
लेकिन हमारे पीछे-पीछे चलते रहते हैं हमारे डर
जिनसे बचने के लिए हम खोजते हैं कोई ईश्वर
फिर ईश्वर से डरते हैं
इसके बाद डर भी बना रहता है
ईश्वर भी बना रहता है।
लालच
जिसने भी कहा
लालच बुरी बला है,
बिल्कुल सही कहा
इसलिए ही नहीं कि लालच के नतीजे बुरे होते हैं
इसलिए कि लालच बिल्कुल पीछा नहीं छोड़ता
डर और ईर्ष्या की तरह इससे भी आप जितना बचना चाहते हैं,
उतना ही यह आपके पीछे लगा रहता है।
इस लालच को साधने में जैसे बीत जाता है सारा जीवन
उम्र बीत जाती है लालच नहीं बीतता.
बस कुछ मुखौटे पहन लेता है
कुछ मद्धिम पड़ जाता है
बहुत छिछली किस्म की कामनाओं से ऊपर उठ जाता है
दरअसल लालच की भी होती हैं किस्में
पैसे का लालच सबसे बड़ा दिखता है, लेकिन सबसे कमज़ोर साबित होता है
प्रेम का लालच सबसे ओछा दिखता है, लेकिन कई बार सबसे मज़बूत साबित होता है
शोहरत का लालच आसानी से नहीं दिखता, लेकिन जड़ जमाए बैठा होता है हमारे भीतर
और
अच्छा दिखने, माने जाने और कहलाने का लालच तो जैसे लालच माना ही नहीं जाता।
शायद इन्हीं आखिरी दो श्रेणियों की वजह से बचा रहता है कविता लिखने का भी मोह,
कवि कहलाने का भी लालच।
12 Comments
मनोवैज्ञानिक कवितायेँ.सच है घृणा प्रेम से अधिक स्थायी है. मन के अधेंरे पक्षों की गहनता से पड़ताल की गयी है.सब कवितायेँ कभी न कभी हम सबके विचारों में टुकड़ों में प्रकट हुई हैं.
प्रियदर्शन जी की इन कविताओं में ही नहीं उनकी कवि दृष्टि में की उस सहजता की धार है जो हमारे आपके मन में उतर का न जाने क्या क्या छुपा हुआ टटोल लाती है. उनकी कविताएं रू-ब-रू सुनना एक अद्भुत अनुभव है. कविताएं सुनाने के बाद आप वहाँ नहीं रह जाते जहाँ आप थे.
अशोक गुप्ता
यूं अक्सर प्रेम से तीव्र होती है घृणा। प्रेम का अंकुर कभी कभार फूटता है लेकिन घृणा और ईष्र्या तो हर समय मनुष्य के अंदर रहती है। प्रेम किसी मानदंड को नहीं मानता और घृणा भी।
लाजवाब कविताएं हैं प्रियदर्शन जी। अच्छी कविताएं पढ़ाने के लिए आभार।
अच्छा हो गया दिन।
शुक्रिया निलय जी
बड़े सपाट ढंग से कह कर सामने ला दीं प्रियदर्शन जी ने हमारे भीतर की वो सब बातें, जो हम खुदसे कहने से भी बचते फिरते हैं, सामना करना तो बाद की बात है। अभी आपकी 'नष्ट कुछ भी नहीं होता' पढ़ रही हूं। शीर्षक कविता के अलावा 'तोड़ना और बनाना' और 'गुस्सा और चुप्पी' भी इसी क्रम की हैं। धनुर्धर और पन्ना धाय के बहाने आपकी नजर से इतिहास पढ़ना भी दिलचस्प है।
bahut achchi kavitaye hai
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