आज पढ़िए किन्फाम सिंग नांकिनरिह की कविताएँ। वे कविता, नाटक तथा कहानियाँ ख़ासी (मातृभाषा) तथा अँग्रेज़ी में लिखते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ हैं- द इयर्निंग ऑफ सीड्स (2011), टाइम्स बार्टर: हाइकू एंड सेंरयु (2015) तथा अराउंड द हर्थ: ख़ासी लेजेंड्स (2011)। नेहू विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में कार्यरत प्रोफेसर किन्फाम शिलांग में रहते हैं।
इन कविताओं का अनुवाद किया है कंचन वर्मा ने। वे नाटक, कहानी तथा कविता का अनुवाद अँग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं में करती हैं। अभी तक इनके आठ अनूदित संग्रह तथा कई शोधपत्र संपादित पुस्तकों तथा विभिन्न जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। फिलहाल वह लेडी श्री राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं- मॉडरेटर
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आसमान के नाम चिट्ठी
लाइउमखरा का पागल
अपनी चिट्ठी आसमान के नाम भेजने के लिए
स्थानीय डाकखाने में जाकर पूछता है-
‘आसमान को भेजनी है चिट्ठी, कितना पैसा?’
उसका मज़ाक उड़ाते हुए वे कहते हैं
एक रुपया….एक रुपया इस आसमानी ख़त के नाम
बड़ी ही कोमलता से वह उस ख़त को डालता है
एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में
और उस पर लिख अपना पता
डाल देता है उसे डाक-वाले लाल डब्बे में
इस विश्वास के साथ
कि, आसमान में पहुंचा दिया जाएगा ख़त उसका।
कुछ दिनों बाद वह जाता है डाकघर दोबारा
‘अब तलक ख़त का जवाब घर पर नहीं आया
क्या यहाँ कोई जवाबी ख़त आया है?’
मुसकुराते हुए क्लर्क ने कहा
‘अब तक तो कुछ नहीं, पर शायद, अब आ जाए।’
अपने सहकर्मियों से कहती है वह,
‘आसमानी ख़त के जवाब का करता है
बेसब्री से इंतज़ार
बेवकूफ़ बेचारा! पागल है पागल, बेचारा !!
इस तरह जी भरकर
सब हँसते हैं उस पागल पर,
दया दिखाते उस पागल पर,
और वे जाते हैं अपने पूजास्थलों पर
और, वे पूजते हैं
आसमान में रहने वाले
अपने, उस ईश्वर को
हाँ, उसी आसमानी ईश्वर को !!
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माँ के लिए तिरस्कारपूर्ण पंक्तियाँ
आर. के नारायण स्वर्ग सिधार गए।
आज वे उदासीन
अपनी बांस की कुर्सी पर बैठे,
बातें करते हैं किसी ‘विरले आत्मा की’।
अकस्मात, इच्छाओं में ज़ब्त हो
मैं भी चाहता हूँ चीर-फाड़ करना
स्वयं अपने ‘विरले आत्मा की’
प्रारम्भ से अंत तक।
शुरुआत करना चाहता हूँ मैं इसकी, यह कहते हुए कि माँ मेरी, नारायण के बरक्स थी अत्यंत साफ दिल और सत्यवादी। विरत, टूटी दांतों वाली, मधुमेह से पीड़ित, सिर दर्द से सताई और मोतियाबिंद से अंधी- हो गई है मेरी माँ। कुछ शब्दों में, वह है एक झगड़ालू बूढ़ी औरत।
याद है मुझे वह समय जब हुआ करती थी वह एक झगड़ालू जवान औरत। दिन को दो घड़ी के लिए जब आँखें झपकती उसकी तो हो जाया करती अक्सर बाघिन : ‘चूतिए की औलाद !’ गरज उठती वे, ‘तुम मुझे घड़ी दो घड़ी चैन भी नहीं लेने देते। ‘प्रेत की औलादों!’ राक्षस के बच्चों इधर आओ! अगर मैंने तुम्हें पकड़ लिया तो तोड़ दूँगी टांगें तुम्हारी। काट डलूँगी तुमको !! ….चिल्लर की औलादों! जिस मांस पर पलते- बढ़ते हो, उसे ही नोचे जा रहे हो तुम! मेरे सोने पर ज़रा एक बार फिर से शोर मचा कर तो देखो, दर्द से बिलबिला न उठो जब तलक, इस कदर कुत्ते की तरह पीटती रहूँगी तुम्हें। ‘तुम लापरवाह निकम्मों!’ ‘अंकों का खेल खेलूँगी कैसे, ’गर देखूँ नहीं सपना सुहाना?* आखिर तुम्हें खिलाऊंगी कहाँ से? नीच नस्ल की पैदाइशों!’
तब, लकड़ी के स्टूल, लोहे के चिमटों और कांसे की धौंकनी के रूप में होता यह उग्र धमाका। और हम, सिर पर पैर रख भाग खड़े होते बचाने अपनी जान और वो दौड़ाती हमे हाथ में लिए बांस की संटी; साथ जलावन की लकड़ी लंबी। उसके उड़ते –बिखरे बाल, जलती आँखें और गुस्से से पागल चाबुक चलती ज़ुबान। और हम, थे तो आखिर बच्चे ही! कुछ बेहतर कभी सीख न पाए; अलावा उसकी गैर- पारंपरिक शस्त्रों से बचने के दांव-पेंचों के; हो गए थे निष्णात जिसमें!!
याद है मुझे अब भी, कोई बेटी न होने के कारण, धुलवाती थी मुझसे ही अपने खून से लथ-पथ वस्त्र-खंड। मना करने का तो सवाल ही कहाँ था! इसलिए एक-एक कर चुनता उन वस्त्र-खंडों को डंडियों से हर-बार, और ठूंस पुरानी लोहे की बाल्टी में रगड़ता तब तक, साफ पानी गिरने न लगे बाल्टी से दुबारा, जब-तक! लेकिन ध्यान रहे, चालाकी से करना होता था यह सब! बिना हाथों का इस्तेमाल किया गया यह काम; सिर्फ देख लिए जाने पर हो सकता था सिद्ध जानलेवा!
चेरा में उन दिनों पता ही नहीं था हमे दरअसल शौचालय होता किस चिड़िया का नाम है! सेप्टिक टैंक या लैटरीन तो था नहीं हमारे यहाँ। तो इस नित्य क्रिया को दिया जाता अंजाम अपने ‘पवित्र उपवन’ में हमारे द्वारा। लेकिन मेरी माँ इस काम को कचरे के डिब्बे में ही कई बार अंजाम दे दिया करती और ऐसी हालत में इस सामान को उस ‘पवित्र उपवन’ तक पहुँचाने की ज़िम्मेवारी मेरी बन जाती। मना करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। इसलिए, हमेशा मैं इसके ऊपर राख़ छिड़क, सुपारी के छिलकों और अन्य चीजों से ढँक भांजीमार पड़ोसियों तथा सहपाठियों की निगाह से बचाने की कोशिश करता भरसक। जिन्होने कमल हसन को देखा है ‘पुष्पक ’ में, समझेंगें वे ही मेरे इस छल-बल को!
मेरी माँ असमान रूप से थी कलहप्रिय; यह साबित करने के लिए दे सकता हूँ मैं एक हज़ार एक उदाहरण; और उसके बारे में तुम्हें कुछ अच्छा बताना अस्वीकार करता हूँ मैं। मैं कोई नारायण नहीं हूँ; और मैं अस्वीकार करता हूँ बताना कि किस तरह मेरे पियक्कड़ बाप के रहते हुए भी उसने दुख झेले; या फिर उसके गुज़र जाने पर उसने कैसे दुख झेले; या फिर अपने दो बेटों और मृत बहन के छोटे बच्चों का ठीक से पालन पोषण किस प्रकार से किया। उसके बारे में केवल एक ही चीज़ सरहनीय है जिसे करता हूँ मैं पूर्णतः स्वीकार : कर ली होती यदि उन्होने शादी दुबारा और नहीं होती कलहप्रिय जैसी कि थी, तो शायद खड़े हो आपके सामने इस तरह कविता नहीं पढ़ रहा होता मैं आज !!
[ *तीरंदाज़ी का जुआ जिसमे कुछ लोग उन अंकों पर दांव लगते हैं जो सपने में देखते हैं।]