जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज रंजिता सिंह ‘फ़लक’ की कुछ प्रेम कविताएँ प्रस्तुत हैं, जिनसे हमारा परिचय करा रहे युवा कवि आशुतोष प्रसिद्ध। यह देखना सुखद है कि स्त्री की प्रेम कविता पर एक पुरुष इतना सहज और सुलझी हुई टिप्पणी दे रहा है। आप भी पढ़िए- अनुरंजनी

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कामनाओं और इच्छाओं को पर्दे की ओट से महसूस करने वाला समाज यकायक किसी भी स्त्री स्वर की मुखरता स्वीकार करने में संकोच ज़रूर कर सकता है, पर उसे बेतर्क और अमर्यादित कहकर नकारने का समय अब बीत चुका है। स्त्रियां विचारों में खुल रही हैं, महसूस किया हुआ कह रही हैं। रंजीता सिंह ‘फ़लक’ इन्हीं विचारों में जन्मी एक स्वर हैं जिन्होंने स्वयं को बिना किसी ओट के देखना पसंद किया। जीवन और जीवन के अनेक रंग उनकी भाषा में रच-बसकर किसी रचयिता की तृप्त कामनाओं का गंभीर परिचय है, प्रेम की अतृप्त, आकुल पुकार नहीं! यह रचनाकार की कामनाओं के प्रति सचेत अभिव्यक्ति है, और वह अभिव्यक्ति इतनी मारक है कि कई कई दृश्य अपने शब्दों की सीमा तोड़कर मूर्त रूप में खड़े हो जाते हैं। यहाँ इच्छाओं की एक ईमानदार सच्चाई है, जिससे गुज़रने वाला कोई भी मनुष्य, उसके सहज अहसास से इत्तेफ़ाक रखता है। इनकी प्रेम कविताएं सिर्फ़ अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं हैं, बल्कि वह नैतिकता के तर्क का अतिक्रमण करती हुई स्त्री देह और उसकी कामनाओं के प्रति स्त्री मन में साहस भरने का काम करती हैं। उपर्युक्त टिप्पणी से यह न समझ लिया जाए कि ये कविताएँ ख़ालिस कामनाओं का मौन नाद हैं, यह नीरस नग्नता का नहीं उत्साहित खुलेपन की रणभेरी है। कविताएँ फैलते हुए कोटेशन का रूप लेती हैं पर यह रचनाकार की सीमा है। शायद आज की कविता की भी।

1. आख़िरी चाह

ये प्यार के उतराव वाले दिन थे
बिलकुल ऐसे दिन
जब हम प्रेम की व्यग्रताओं से
बहुत आगे निकल चुके थे और
शांत स्थिर चित्त होकर
जीवन को एक अलग सम्यक दृष्टि से
देख समझ रहे थे

उन्हीं दिनों की मुलाक़ात में
ऊँचे घुमावदार पहाड़ी रास्तों से
उतरते हुए
समस्त चेतना पर अंकुश रखते हुए भी
ढलान वाले रास्ते में
सुनसान दरख़्तों के बीच
एकाएक गाड़ी रोककर
बीच सड़क, शतांश भर के
उस चुम्बन में
आखिर ऐसा क्या था
कि महीनों बाद भी
मेरी बाई कनपटी सुलग रही है

हम शायद आखिरी फूँक की तरह
जिस प्रेम को हमेशा के लिए बुझा रहे थे
जाने कैसे एक आखिरी बची चाह ने
राख होती कामनाओं को लहका दिया ।

2. पावस ऋतु प्रेम की कराह है

कितना मुश्किल है
पीठ फेर कर रहना
और
मन को साधना,
बहुत मुश्किल है बच पाना
स्थिर रह पाना
जब प्रेम किसी आपदा सा
अवतरित हो

कितना मुश्किल है
सुने को अनसुना करना
जब हृदय की हर सांस तक
पहुँच रही हो प्रेम की आतुर पुकार

कितना मुश्किल है
उन आँखों को अनदेखा करना
जो विदा के वक्त निर्मिमेष निहार रही हों
कैसे न डूब जाए कोई आकंठ
उन उदास, आप्लावित आँखों में

सच तो ये है कि
ज़िंदगी से मुँह मोड़ने से भी कठिन है
प्रेम से मुँह मोड़ना

नैतिकताओं और कामनाओं के मध्य हुए
हर आदिम युद्ध में
पराजित हुआ है सिर्फ़ और सिर्फ़
प्रेमाकुल हृदय

प्रेम की त्वरा को नैतिकता के
घोर हठ से परास्त तो किया जा सकता है
पर निषेध की गई समस्त कामनाएं
धंसी रह जाती हैं देह में शूल सी
आजन्म टीसता है हृदय

पावस ऋतु
प्रेम की चुप सी कराह ही तो है

सब भंगुर है, नश्वर है सब
फिर भी कैसे विस्मृत हो
तुम्हारी दैवीय मुस्कान

तुम्हें आँख भर भी तो देखा नहीं था
पर तुम्हारी निश्छल मुस्कान के बीच दिखती
त्रियक धवल दंत पंक्ति
मेरी निद्रा का अब भी मखौल उड़ाती है
स्मृतियों की गाढ़ी गेह से कैसे मुक्त ये मन प्राण

तुम्हें एकटुक देखने भर से
लगता है
देह पर अशुद्धि का दोष
तुम्हारी सुधि भर से
आ लगती हैं लांक्षनाएं

कल रात ही तो स्वप्न में
तुम्हें देखा था
वहीं उसी तकिए पर जहां
घोषित रूप से किसी और का सर था

लोकाचारों और मर्यादा के
असमंजस में डूबा हृदय
कहां विसर्जित करे
अपनी निश्चल चाहनाएं
किसे प्रेषित करे
सारी उलाहनायें

मृत्यु निश्चित छीन लेगी
मेरी आँखों के सारे स्वप्न
पर शेष तो रहेंगी
हृदय की अतृप्त कामनाएं

क्या ब्रम्हांड में नहीं गूंजेगी
मेरी आर्त पुकार
एक निष्कलुष हृदय की
निर्दोष कामना से
क्या खंडित नहीं होगा
नियति का दर्प।

3. वर्जित कामनाएं

वर्जित कामनाएं
एकाएक दाखिल होती हैं
और समूचे हृदय पर
कब्जा कर लेती हैं

लज्जा
एक हारी हुई साम्राज्ञी की तरह
सर झुकाए
खड़ी रहती है।

4.  प्रेमी की पूर्व प्रेमिका

मुझे आख़िर तक उसका नाम नहीं पता चला
जबकि हमारे प्रेम की सबसे सुंदर सपनीली
कामुक रात में ही
अचानक उसका ज़िक्र आ गया था
हमारे बिल्कुल नए नवेले
नवजात शिशु से प्रेम के सामने

उसका जिक्र
मेरे कोमल प्रेम के अबोध मुख पर लगा
सबसे जोरदार चांटा था

मैं देर तक स्तब्ध थी
शायद उस चोट से
उबर नहीं पा रही थी

मेरा प्रेयस
एक ऐसी फंसी हुई स्थिति में था
जहां से चाह कर भी न लौट पा रहा था
और न हीं ठहर पा रहा था

और मैं किसी डरे सहमे शिशु की तरह
उसकी उंगलियां छोड़ पाने में
असमर्थ थी

हम दोनों प्रेम की भीषणतम
यातनाओं से रोज-रोज गुज़र रहे थे
पर,अब हम तीन लोग एक ही धुरी से बंधे थे
मेरे प्रेमी ने मेरी गोद में सर रखकर
अपनी सजल आंखों से कहा था
उसका कोई नहीं है मेरे सिवा..

और मैं छन्न-से तपते तवे पर गिरी बूंद सी जल उठी थी
अपने बेहद लाचार ,कमज़ोर और बेअवाज़ स्वर में
मैंने उससे पूछा
-और ,मेरा कौन है?

वह देर तक अपनी पनीली आखों से
मेरी आंखों में डूब जाने की हद तक देखता रहा
और बहुत तेजी से अपनी बाहों में भींच
एक गहरा तप्त चुंबन मेरे माथे,मेरी आखों,और होठों पे धरता हुआ
गले तक पहुंच
प्रेम,उन्माद और व्यग्रता के अतिरेक में
मेरी कानों में फुसफुसाया
मैं क्या करूं ?

उसे मेरी जरूरत है
और मुझे शायद तुम्हारी!

5.  प्रेमिकाएं चुप रहीं

प्रेमिकाएं चुप रहीं
क्योंकि चुप्पी प्रेम की चहेती भाषा है

प्रेमिकाएं प्रेम के अतिरेक में भी चुप रहीं
प्रेमी के स्नेहिल उद्दाम स्पर्शों से कमनित होती
स्वांस-स्वांस विसर्जित होती
कण-कण विगलित होती
चाहनाओं की ऊष्मा में धधकती
प्रेमिकाएं चुप रहीं

प्रेमिकाएं तब भी चुप रहीं
जब उनका प्रेमी
किसी और को आंख भर देखता हुआ
किसी और देह की लालसा करता हुआ
खुद से झुंझलाता हुआ
ग्लानि भरी नज़रों से
उनकी व्यथित आत्मा
और शांत-क्लांत
चेहरे को देखता रहा

वो चाहता रहा कि
अपमान, तिरस्कार, भर्त्सना के कुछ कठोर शब्द
उसके कानों में गर्म शीशे की तरह उड़ेल दिए जाएं
जिससे उसके अंदर का मलबा साफ़ हो सके
पर प्रेमिकाएं चुप रहीं
न चीखीं, न चिल्लाईं
…बस चुप रहीं

दुःख किसी मियादी बुखार सा
आ टिका उनके जीवन में
विरह के स्वेद कणों से भीगे
विश्वास की काया को
विरक्ति के आँचल से पोंछ
उन्होंने सहलाया
प्रेमी का माथा

मोह, पीड़ा, उद्विग्नता और
घोर विवशता के ताप से
जब धधकने लगा उनका अशांत मन

तब उन अतिशय बीमार, लाचार पलों में
प्रेमिकाओं ने
ज़ोर-ज़ोर से
बहुत ज़ोर से चीखना चाहा
चिल्ला-चिल्ला कर
रोना चाहा
और किसी भूकंप में ढह रहे मकान की तरह
प्रेमी की बाहों में बिखरकर
उनके सीने में जमींदोज हो जाना चाहा

ऐन उसी वक्त
प्रेमियों के एक
बस एक स्नेहसिक्त चुम्बन ने
सिल दिए उनके होंठ
और
घुल गया सारा विषाद
गुम गया सारा विलाप
घुटी रह गईं सारी शिकायतें
उतर गया हर मियादी बुखार
और प्रेमिकाएं चुप रहीं।

6. प्रतीक्षा और मिलन

तुमसे मिलने की उत्कंठा ने
योजन के फसलों को जैसे
कदम भर का कर दिया है
मैं कहाँ हूँ, किधर हूँ
मेरी दिशा बता सकने वाला
कंपास जैसे थम गया है

प्रतीक्षा मुझे ढूंढ रही हैं
और मिलन के रास्ते
मेरा मुख तक रहे हैं
प्रतीक्षा और मिलन के बीच
मैंने अपनी आत्मा को
एक पंख दे दिया है

मैं देर रात चाँद की आंखों से तुम्हें तक रही हूँ
निहार रही हूँ
तुम्हारे घर को जाती
किसी षोडशी की क्षीण कटि सी राह
देख रही हूँ टुकड़ा भर बादल
जो पिछले बरस मेरे हाथों में किसी बर्फ सा था
शाम के डूबते सूरज की उतरती
शोखी भी देख रही
तुम्हारी भूरी आँखों में

छली होता है भूरी आँखों वाला पुरुष
माँ बार-बार अपनी कहावत में दोहराती
तुम्हारी आँखों में पहली बार गौर से देखने के बाद
इसीलिए तो इतनी जोर से धड़का था मेरा मन
क्या करूँ, कैसे यकीन करूँ?
इन भूरी-कंजी आँखों पर

पर तभी तुम्हारी मासूम हँसी
हरसिंगार सी बरस गई
और मैंने देखा
मन का आँगन पूरा का पूरा भर गया है

एक मादक सी गंध ने बेसुध कर दी
मेरी सारी इंद्रियां
और नीम बेहोशी में मुझे
उस सच्ची मुस्कुराहट के सिवा कुछ न दिखा

मैं खुशबुओं की गिरफ़्त में थी
उस कैद में होना था
जैसे पिता का दुलार
और माँ की पुचकार
मैं अपनी रिहाई नहीं चाहती थी

पहली बार मैंने चाहा
पूरे दिल से चाहा
कि इस मुस्कुराहट की दहलीज से बाहर न जाऊँ
मैंने चाहा था मुझे तलाशने वाले तमाम लोग
मेरी गुमशदगी को स्वीकार लें

मैं आवाज़ों की दुनिया से बाहर आना चाहती थी
हमने ख़ामोशी की नई भाषा इजाद की

हम अपनी चुप्पियों में
दुनिया के सुंदरतम प्रेम गीत रचने लगे
हम बेआवाज एक दूसरे को पुकारने लगे
हमने सबके कानों को महरूम रखा
हमारे किस्से से
हमारी किस्सागोई के गवाह रहे
ऊँचे देवदार के पेड़, सर्पीली सड़कें,
डूबता सूरज, चाँदनी रातें,
और सुनहरी सुबहें
बस इन्होंने हीं हमें एक साथ देखा

हमने प्रतीक्षा को ही
मुक्ति का मार्ग बना लिया
हम अपनी प्रतीक्षा के आलोक में
प्रतिष्ठित करते रहे
प्रेम के अनेकानेक रूप
हमने अपने मिलन को वरीयता क्रम में
सबसे पीछे रखा।

7.  स्मृति

तुम्हारे
चले जाने के बाद भी
मेरे दाहिने पैर के अंगूठे में
फंसा हुआ है
तुम्हारे
आतुर होठों का वलय।

8. तुम्हारा नाम

तुम्हारा नाम लेते हीं
त्वरित तड़ित सी
उद्दीप्त कामनाएं
दौड़ जाती हैं
शिराओं में

महीनों सालों से जमा
रक्त प्रवाह
ऋषिकेश की गंगा की तरह
हाहाकार करने लगता है

प्रेम सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर अग्रसर होता है
तुम्हारी चाहना के अग्निकुंड में
किसी इच्छित समिधा सा मेरा आहूत होना
कितना अदभुत ,अलौकिक
और मोक्षमय है

जलती, बुझती राख होती मैं
कितनी प्रेममय
स्थितप्रज्ञ,शांत और संपूर्ण
हुई जाती हूँ
तुम्हारी स्मृति हीं
मेरे प्रेम की पराकाष्ठा है

कामना और प्रेम के ठीक
मध्य और चरम पर
जागृत कुंडलिनी अवस्था में
ध्यानमग्न जोगी की तरह
तुम्हारी सुध में
बेसुध होना हीं
प्रेम का चरमोत्कर्ष है।

9. तुम्हें प्रेम करते हुए

बहुत दिनों बाद मैंने अपने पैर के नाखूनों को
ठीक से नेल फाइलर से घिसा
इससे पहले जिंदगी की भाग दौड़ में
अपने ही पैरों को ठीक से देखने
निहारने या संवारने के मौके बहुत कम मिले
इतने कम कि
ढेर सारी मौसमी
और कुछ कलात्मक जुराबें हीं
पांव छिपाने के बेहतर विकल्प लगे

और शायद ये भी लगा कि
रोज की भागमभाग
और रूटीनी जिंदगी में
कहां किसे इतनी फुरसत है जो
मेरे पांव को आंख भर देखे
खासकर तब जब मेरे पांव
मीना कुमारी की तरह
नाजुक, गुदाज और गोरे नहीं

पर फिर भी
पिछली मुलाकात में तुम्हारी कहीं वो बात
एकदम से याद आ गई
कि तुम्हारे पैर की उंगलियां भी हाथों की तरह
लंबी और पतली हैं
मैं थोड़ा झिझकी थी और पांव समेटे थे
क्योंकि मेरे पूरे बदन में मेरे पांव मुझे हमेशा से नापसंद थे
उन्हें अक्सर मैंने ढक कर ही रखा था

पर तुमसे मिलने के बाद जाने क्यों
मुझे ऐसा लगने लगा कि सच में मेरे पैर की
उंगलियां थोड़ी कलात्मक हैं
शायद करीने से कटे नाखून और नेल पॉलिश में
मैं बिना जुराबों के भी कहीं जा सकती हूं

बड़ी बात ये नहीं थी कि तुम्हें मेरी उंगलियां पसंद आई
बड़ी बात ये थी कि तुमसे मिलने के बाद
पहली दफा मैंने
अपने पैरों को इंसानी नजर से देखा
उन्हें तवज्जो दी
और बिना जुराबों के
खुली सांस लेने की इजाजत भी

तुम्हारे प्रेम में मेरे अंदर की स्त्री ने भी
ठीक ऐसे ही भरपूर सांस ली और
खुद के प्रति आश्वस्त हुई

तुम्हें प्रेम करते हुए
मैंने अपनी आंखों से देखा वो सब
जिन्हें पूरी जिंदगी
अपने साथ रहते हुए भी कभी नहीं देख पाई थी।

 

10. एक उत्कट प्रेम कविता

किसी आदिम वनकन्या की तरह
कभी कभी देखती हूं
खुद को
इच्छाओं के पारदर्शी ताल में

इकहरी अर्ध निर्वसन कमनीय काया
और लंबी सर्पीली लटों में
बेतरतीब लगे पलाश या बुरांश के
कुछ सुर्ख फूल

किसी लोकगाथा के नायक से
अवतरित होते हो तुम
और मेरी अधखुली पीठ पर
धर देते हो हजारों चुंबन
तुम्हारे चुंबनों के
थोड़े गुलाबी ,थोड़े स्याह ,मुहर से
मेले में गुदाये गोदने की तरह
सज उठती है
मेरी अधखुली पीठ

तुम्हारे आलिंगन के कसाव में
किसी वेगवती नदी की तरह
कसमसाता है मेरा समूचा जिस्म
और
तुम्हारे पहाड़ से सीने पर
सर टकराती हैं
मेरी उद्दाम और अतृप्त कामनाएं

तुम्हारे बाहों की मछलियों के मध्य
किसी चतुर मल्लाह के फेंके गए
जाल सी मेरी जुल्फें
तुम्हें खींच लाती है
प्रणय तट तक

दूर तक फैले चमकीले रेत पर
औंधे मुंह पड़ी मैं
देर तक सुनती हूं
तुम्हारे अनियंत्रित श्वासों
के आलाप

ध्रुपद, पहाड़ी या कहरवा राग सी
प्रतिपल बदलती तुम्हारी
उतप्त सांसे

अक्सर दूधिया चांदनी रातों में
मेरी कंचुकी के मध्य
तुम टाँक देते हो
गोल बटन की तरह
पूनम का चाँद

तो कभी किसी स्याह
अमावस्या की
मदिर रात्रि में
आधे हँसिये से उग आए
चाँद को उठा
खोंस देते हो मेरे जूड़े में

रात भर चमकीले रेत पर
मेरे अंग प्रत्यंग पे तुम बनाते हो
जाने कैसे -कैसे भित्ति चित्र
और रचते हो जाने
कौन-कौन से सानेट

और सुबह की पहली किरण
की नोक से
देते हो एक पूर्ण विराम ,

मैं सारा दिन अलसाई सी पड़ीं
ऊँघती रहती हूँ
जैसे ढेर सारे मदिरापान के बाद
बेसुध हो जाती है इंद्रियाँ

या फिर भटकती रहती हूँ
किसी शापग्रस्त यक्षिणी की भांति
किसी ऐसे लोक में
जहाँ सिर्फ मैं और तुम होते हैं

और मेरी अधखुली आंखों में
किसी स्वप्न की तरह
आ विराजती है
तुम्हारी सुदर्शन छवि
तुम्हारी आंखों की पुतलियों
की नीलाभ आभा के बीच
रक्ताभ होते मेरे कपोलों पर
थिर आता है
एक असीम सुख

मेरी धवल दंत पंक्तियों के बीच
तुम्हारी उंगलियां
मेरी कामनाओं को धार चढ़ाती
और
वर्जनाओं को रेतती हुई
सीधे-सीधे छाती तक उतर आती है

और अकुलाई
बौराई, पगलाई, पस्त सी
पसीने से तर
तुम्हारे सीने में मुंह छिपाए
नाखूनों से उकेरती रहती हूं
मैं किसी अबूझ भाषा में
एक उत्कट प्रेम कविता।

11. हम आम प्रेमी प्रेमिकाओं से बडे़ अलग थे

हम आम प्रेमी प्रेमिकाओं से बड़े अलग थे
हमने प्रेम की सपनीली रातों में
उत्तेजक फिल्मों और गानों की क्लिप भेजने की बजाय
ढूंढ-ढूंढ कर भेजी पुरानी गजलों की ऑडियो/वीडियो
म्यूजिक ऐप पे रोज सुने पचासों गाने
और फिर
दो दूर शहरों में बैठे सुनते रहे वो तमाम गाने
जो बचपन से जवानी तक हमारे पसंदीदा थे

हमने विरह की रातों में देर रात
या कभी पूरी-पूरी रात सुनी
मेंहदी हसन ,गुलाम अली ,जगजीतसिंह, इकबाल बानो,मुन्नी बेगम ,बेगम अख्तर की ग़ज़लें
और पढ़े
जान एलिया,परवीन शाकिर, फैज़, कैफ़ी,साहिर,खुमार,मजाज़,मीना कुमारी के
अनगिनत शेर

हम अलग तरीके से पढ़ रहे थे प्रेम का ककहरा
हमने कामुक करने वाली रातों में एक दूसरे को सुनाए
रसायन शास्त्र के पीरियोडिक टेबल
और कई केमिकल इक्वेशन
और फिर खूब जोर-जोर से,ठहाके लगाते हुए
निकाली एक दूसरे की गलतियां

हम घंटों-घंटों बिना ऊबे करते रहे चैट
एक बार शायद सोलह घंटे तक
हमने एक दूसरे से लगातार चैट किया
और फिर आपस में पूछा कि क्या ये चैट हिस्ट्री किसी वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज की जा सकेगी
और फिर खूब हंसे
हमने किए वो तमाम खिलवाड़ जो शायद
असल जिंदगी में कभी न किए थे

हम बहुत झिझके थे प्रेम के शुरुआती दिनों में
बहुत संकोच के बाद
मैंने उसे पहली बार भेजी
हार्ट वाली इमोजी
और मुझे लगा
मैं शर्म से मर हीं जाऊंगी
जवाब में आए उसके चुम्बन वाले इमोजी को देख
मैंने तेजी से रजाई में मुंह ढक लिया
उन शदीद बर्फीले दिनों में भी मैं
पूरी की पूरी
पसीने से भीगी जा रही थी
जैसे कोई देख न ले
मेरे चेहरे पर उसका भेजा हुआ चुम्बन

हम रोज-रोज अपनी उमर पीछे छोड़
प्रेम में बढ़ते जा रहे थे
हमने प्रेम की शुरुआती सर्दियों में
एक साथ चखे सड़कों पर बिछे कपास से सफेद बर्फ
ठीक वैसे जैसे आदम और हव्वा ने चखा था
पहला वर्जित फल
मैंने लिखी खूब सारी प्रेम कविताएं और उसने हंसकर कहा – तुम बदनाम हो जाओगी

पचास सालों के छोटे-बड़े अफेयर और
कुछ वन नाइट स्टैंड जैसे कुल जमा दस या ग्यारह शारीरिक संबंधों की बात
उसने जिस रात बताई थी
मन जाने कैसा-कैसा हुआ था
पर उस कसैलेपन को अगले हीं पल
उसकी शिरीन हंसी ने धो दी

हमारी पहली मुलाकात में
बहुत सकुचाते हुए
उसने सबसे पहले
मेरे माथे पर धरा
एक स्नेहसिक्त चुम्बन
और मैं उस अनोखे प्रेम में भींग सी गई
उस निपट एकांत में हम कामनाओं से ज्यादा
भावनाओं के ज्वार में बहे

उसने मेरे माथे से पांव तक
इंच-इंच की जगह पर धरे बेशुमार चुम्बन
और कमरे की बत्ती बुझाए हम
बस गूंधे रहे एक दूसरे में
उस रात हम सिर्फ प्यार में थे
उस रात
फिर से बहुत याद आई थी मां
बचपन में जब भी वो मेरी मालिश करती थी
मैं इतने हीं सुख और संतोष से भर उठती थी

हम दोनों ने एक वर्जित दुनिया में
आहिस्ते से कदम रखा
और अपने हीं प्रेम से अचंभित हुए
हमने अपनी हर मुलाकात को
किसी मधुमास की तरह जिया

सुबह का सूर्योदय उसने मेरे सीने पे सर रखकर देखा तो शाम का सूर्यास्त मैंने उसके चौडे़ कंधे पर
सर टिकाकर
आधी-आधी रात तक हमने लांग ड्राइव की
और खुले टेरिस पर सितारे गिनते रहे

फिर एक दिन मैंने
उसके इक्यावनवे साल की उमर को
शरारत से पलट कर दिया पंद्रह
वो हंसता हुआ,झेंपता हुआ सा आ गया
अपने पंद्रहवें साल में
उसने भी मेरी चालीस पार की
उमर की सूई घुमा दी वापिस
चौदह पर
अब हम हमवयस किशोरों की तरह
जीने लगे थे नया जीवन

हम अचानक इतने परिचित हो उठे
कि एक दूसरे के घर परिवार,नौकरी ,
मित्र,रिश्तेदार, पसन्द-नापसंद
इन सबका इंसेसाईक्लोपीडिया बन गए

हम आम प्रेमी प्रेमिकाओं से अलग थे
वो किसी चोर बच्चे की तरह
हजार जुगत करके मुझे भेज हीं देता था
कोई न कोई प्यार भरा मैसेज
एक बार तो उसने अपने बॉस के सामने हीं
म्यूट पर कर दी थी वीडियो काल
अपने इस दुस्साहस पर हम देर तक हंसते रहे और
यूं हीं बेमकसद प्रेम करते रहे

हमने कभी नहीं सोचा कि हम आगे क्या करेंगे
हम सिर्फ और सिर्फ प्रेम करते रहे
क्योंकि हम आम प्रेमी-प्रेमिकाओं से बड़े अलग थे ।

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