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1 प्रेम की अहर्ताएं
जो कभी फलित नहीं हुई
उन प्रार्थनाओं के चिह्न
मेरे माथे पर गहरे खुदे हुए हैं ।
तुम मुझसे बालिश्त भर की दूरी पर हो।
जानती हूं कि दोनो ध्रुव मिल जाएं फिर भी
हमारे मध्य की यह अलंघ्य दूरी नहीं पाटी जा सकती।
मन के कौमार्य से देह की तृष्णाओं तक
एक शोकागार इस अश्रव्य रुदन की
ध्वनियों से भरा हुआ है।
फिर यह क्या कि
सांत्वना की थपकियों से भी
तुम्हारी स्मृतियों के संताप नहीं जाते
आत्मा पर लगे घाव लोप नहीं होते ।
दुख सदा इतने अपने रहे कि साथ नहीं छोड़ते।
सुख ऐसा निर्दयी कि कभी हाथ नहीं आया।
तिस पर प्रेम की वे निगोड़ी दुष्कर अहर्ताएं
मुंह चिढ़ाती रहीं,
जो न मेरी अंकतालिकाओं में थीं
न मेरे हाथ की रेखाओं में ।
मेरे प्यार !
मेरा दोष बस इतना रहा कि
मैंने अयोग्य होते हुए भी तुम्हारी इच्छा की ।
और तुम तो जानते ही होगे
कि किसी के योग्य – अयोग्य हो कर सर उठाना
इच्छाएं कहाँ जानती हैं !
2. इमोजी
तुम कहते हो , खुश रहा करो।
जबकि जानते हो कि ख़ुशी बस
एक झूठ और छलावा भर है
तुम्हे मुस्कुराने की इमोजी भेजकर
निश्चिन्त हो जाती हूँ कि मेरे झूठमूठ हँस देने से भी
तुम्हारे भरे पूरे आंगन का हर फूल खिला रहेगा ।
पीछे पलट कर देखती हूँ तो पाती हूँ
एक लंबा समय ख़ुद से
झूठ बोलने में गंवा दिया ।
जाने किस से नाराज़ थी, ख़ुद से या दुनिया से।
ब्याह के बाद पिता ने पूछा
कि तू सुखी तो है न रे मेरी पोथली ?
माँ ने आंखे पोंछ कर मुझसे पहले उत्तर दे दिया
और क्या ! जमीन जायदाद, उस पर एकलौता लड़का
क्या दुख होगा ससुराल में !
मैंने पिता का हाथ, हाथों में लेकर कहा
तुम अब मेरे बोझ से मुक्त हो गए हो बाबा
मेरी चिंता मत किया करो।
मैं बहुत ख़ुश हूँ, देखो ये मेरे गहने।
पता नहीं पिता आश्वस्त हुए या नहीं,
उन्होंने आंख में तिनका गिरने की बात
कहकर मुंह फेर लिया था ।
मैंने फिर कभी अपना दुःख उनसे नहीं कहा।
अब जब बेटी पूछती है माँ !
आप अकेले इतनी दूर ।
कोई दुख तो नहीं है न आपको
मैं उसकी चिन्तातुर आंखें देखकर कहती हूँ
हां कोई दुःख नहीं। तू जो है मेरे पास ।
मैं अब पत्थरों पेड़ो और नदियों से
अपने दुःख कहती हूँ।
तुमसे कहना चाहा था, कभी कह नहीं पाई ।
क्योंकि तुम्हे सोचते हुए
मेरी इन आँखों मे तुम्हारा नहीं;
अपने अशक्त और बेबस पिता का
प्रतिबिंब चमक उठता है।
मैं घबराकर मुस्कुराने की इमोजी तलाशने लगती हूँ।
सुनो प्यार !
तुम तक मेरा सुख, पहुंचता तो होगा न।
3 मनुहार
इधर इनदिनों जब व्योम में
हाहाकार करता हैं मेघ,
ज्यों उसका भीषण गर्जन
अनवरत तोड़ता हो कोई अदृश्य पत्थर।
चहुँओर गिरता है श्रावण धाराशार
बह जाती हैं सड़के, पुल और खेत
ढहते हैं पेड़, खिसकती हैं चट्टानें।
अब जब ‘जलकुर’ वेगवती होकर किनारे तोड़ने लगी है ।
चुभती सर्द हवाएं हाड़ कँपाती हैं , देह ठिठुराती हैं;
मैं रह रह कर तुम्हारे शहर के मौसम का हाल देखती हूँ,
हर दो घण्टे के अंतराल पर ।
मौसम के पूर्वानुमानों से घबराती हूँ
संशय और चिंताओं में घिरती जाती हूँ कि
तुम भी तो पहाड़ी रास्तों से होकर गुजरते होगे।
हमारे बीच कोई संवाद नहीं,
तुम्हारी कुशलता जानने का कोई सूत्र भी नहीं ।
आश्वस्ति बड़ी चीज़ है, पर वह मिले तो सही।
बस इसलिए मन के आकुल बेतार पर
भेजती हूँ एक चिंतातुर मनुहार
सुनो ! अपना ख्याल रखना….
यह कोई कविता वविता नहीं
प्रेम है…
बस इतना समझना ….
4 मनोरोगी
डोले से उतर, तुम्हारे आंगन में पग धर
देहरी पर अक्षतों की बौछार की।
तुम हर्षित हुए
तुमने मुझे लक्ष्मी कहा।
तुम्हारी रसोई के धुंधुआते चुल्हे पर
पकाई खीर, परोसी सबको
तुम तृप्त हुए
तुमने मुझे अन्नपूर्णा कहा।
बच्चे अपनी कोख में रख
किये भीतर बाहर के सारे काम
जने तुम्हारे बच्चे, दांत और मुठ्ठियाँ भींचकर
तुम्हे वारिस मिले
तुमने मुझे पूतों वाली कहा।
तुम्हारी गृहस्थी में जोता खुद को
तुम्हारे कर्ज़ स्वयं पर फ़र्ज़ किये
तुम्हारी गाड़ी को खींचने में दो नहीं
तीन पहिये, मेरे खून पसीने के रहे
तुम उपकृत हुए
तुमने मुझे कमाऊ कहा।
फिर एक दिन आधी उम्र ढलने पर
मैंने पंख देखे अपने, नुचे और फटे हुए
पैर देखे लहूलुहान और कमज़ोर
कोख देखी क्षत विक्षत
छातियाँ देखीं ढांचे में बदली हुई।
तुम ने कहा इतना मत सोचो
देखो ये घर,ये बच्चे, ये जायदाद, ये ऐशो इशरत
और क्या चाहिए एक औरत को
जीवन मे भला !
मैंने सोचा…
कि यह सब ही चाहिए था क्या मुझे !
यही सुख है क्या सबसे बड़ा!
तब क्यों
मेरी आलमारी में किताबे कम
दवाएं,एक्सरे और अल्ट्रासाउंड फ़ोटोज़ अधिक हैं।
तब क्यों मन हमेशा डूबा रहता है!
किसी से पूछ नहीं पाती
बस कभी कभार आवाज़ आती है
“तुम बहुत सोचने लगी हो, सोचना औरतों का काम नहीं है।”
मैं सोचती हूँ कि सोचना नहीं सोचना क्या अपने वश मे होता है!
अब वे मुझे मनोरोगी कहते हैं।
5. पुस्तकालय में स्त्री
दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य है
पुस्तकालय में अपनी धुन में डूबी और
तन्मय होकर पढ़ती हुई एक स्त्री को देखना ।
मन पसन्द किताब ढूंढती हुई स्त्री को
दुनिया के किसी मानचित्र की आवश्यकता नहीं।
वह स्वयं को ही पढ़ने और गढ़ने की नीयत से
अपने ज़हन-ओ-दिल को वर्क दर वर्क खोलती है
और एक दिन स्वयं को पा लेती है।
जीवन की घनघोर विसंगतियो में
कोई सहारा हो न हो।
घने अंधकार में कोई दीपक जले न जले;
फिर भी उसकी हथेलियों से फूटता है
किताबों से झरता प्रकाश।
उसके मार्ग में झिलमिलाते हैं
असंख्य इल्म के जुगनू।
जानती हूं कि
स्त्रियों के हाथों को चूड़ियां दरकार नहीं ।
चाहती हूं कि
उन्हें किताबों का उपहार मिले।
किताबें ही उनका श्रृंगार,
उनका सबसे बड़ा हथियार हों।
कोई ठगे नहीं, कोई हक़ न मारे
इसके लिए औरतों को वकीलों न्यायालयों को नहीं,
किताबों को साथी करना होगा
किताबें जीवन के घटाटोप से
स्वतः ही बाहर निकलने का रास्ता दिखाती हैं।
निर्भय और निष्कम्प होकर जीना सिखाती हैं।
एक स्त्री के हाथ मे किताब
एक निर्भार अवलम्ब है कठिन परिस्थितियों में ।
सर पर एक भरोसेमंद सायबान है,
आंधी पानी के झंझावातों में।
जब मति विलुप्त और चेतना शून्य हो
मन मे गहराता हो तमस हरदम
किसी इष्ट देवता या पितरों को पुकारने की नौबत आए
तो मन को धीरज देना
और स्वयं को साहस बंधाकर
बस यह दोहराना कि
कि मेरे पास अंधेरे से लड़ने को
मशाल नहीं है;
किताबें हैं।
जो हज़ार मशालों को लौ देती हैं।
6औपचारिकता
घाट पर
एकत्रित हैं कुल जमा ग्यारह लोग
रंगीन साड़ी में लिपटी है एक लाश
माथे तक सिंदूर रचाए
कलाइयों में चिट्ट लाल चूड़ियां सजाए।
मैं उसे जानती हूं
अक्सर देखा है उसे धारे पर गागर भरते
घास काटते, लकड़ियां ढोते
उसकी एक बच्ची मेरे स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ती है।
देखती हूँ कि
उसकी आँखों मे पथराया हुआ हैं
तुलसी का चौरा
आंगन में खेलते नौनिहाल
और मां बाप का उदास राह तकता चेहरा।
बरखा आने को है
नदी का उफ़ान कलेजा कंपाता है।
पति अनमना होकर अपने पिता को देखता है
पिता गूढ़ दृष्टि से पंडित जी को ।
पंडित जी सब समझते हैं
उनकी आंखों ने कई मातम देखें हैं
वे एक झलक में समझ जाते हैं
किस नज़र का क्या अर्थ है।
जल्दी जल्दी तीन मंत्रों में
करते हैं आख़िरी रस्म पूरी..
अगले ही क्षण फूटती है मटकी
चिता की लपट में धूँ-धूँ जल उठती है
लछमा की कृशकाय देह ।
वर्षा शुरू होने से पहले
क्रियाकर्म की औपचारिकता निपटा कर
सब अपने-अपने घर लौट रहे हैं।
मैं उफनती ‘जलकुर’ किनारे अवाक बैठी
ईश्वर से मनाती हूँ
कि काश !
इसकी देह के राख होने तक वर्षा न हो।
तभी प्रधान जी की आवाज़ सुनती हूँ
कि आप यहां क्या कर रही हैं बहन जी?
जानती नहीं कि औरतों का
मृतक घाट पर प्रवेश वर्जित है।
“औरतें यहां जीते जी नहीं आ सकतीं”
यह सुन कर मन पिराता है और
मैं लछमा का आधा जला शव छोड़कर
घर को चल देती हूं।
जीवन इतना ही भंगुर है
इतना ही अनिश्चित और क्रूर भी ।
मन में असीम दुःख लिए सोचती हूँ कि
क्या राम नाम सच मे सत्य है ?
7 . पुकारो के असह्य घाव
जीवन की अंत्याक्षरी में
एक ही वर्ण की बेमेल और विवश
आवृत्तियों की टेक सरीखे लौटते रहे आभाव बारम्बार
सुख छुटपन की
किसी श्याम श्वेत तस्वीर सा
कबाड़ में बदल चुके पुराने संदूक में दुबका रहा
स्वाद रस गन्ध और स्पर्श में
छटाँग भर कम रही तृप्ति
राग रंग और नेह नातों में
सूत भर कम रही आश्वस्ति
मेरे मन के
चिर अनिमेष कोने में न्यस्त
तुम्हारी उद्दीप्त प्रतीक्षा की लौ
अंधियारे से लड़ती ही रही हरदम
किसी दुःखान्त प्रेम कथा के
उदास अध्याय में गूंजते
“ओ प्यार ! मेरे प्यार! ” सा अकुलाया सम्बोधन
फांस सरीखा गड़ता ही रहा मन में
तुम ठहरे जोगी
तुम्हारी गर्व से फूली
चौड़ी पाषाण छाती देखती है यह पृथिवी
जबकि
किसी रीती सूनी चुप सड़क पर
चलते ही जा रहे हो तुम निर्लिप्त निर्वाक
तुम्हारी पीठ पर
मेरी असंख्य विह्वल पुकारों के घाव
बस मैं देखती हूँ।
8 . चाह का क्षणांश
उत्तप्त मन में
असंख्य ग्लानियों का डेरा है
अवांछित होने का खेद
मन की निरक्त धमनियों में
डोलते काष्ठ सा डूबता उतराता रहता है
मेरी देह छूकर गुज़रा समीर भी
जहां नहीं पहुंचता
ऐसी निषिद्ध ऋतु में बसेरा है उसकी आत्मा का
उस पूस माघ की कोई ख़बर नहीं मिलती
जहां कोमल आश्वस्ति
तप्त माथे पर शीतल उंगलियाँ फेरती थी
अब सामने ऐसी कोई ऋतु नहीं
जिसकी मर्मर ध्वनि
क्षणिक ही सही पर हिय को सम्बल दे
वो जानता है कि
मेरे हिस्से के तमाम उत्सव
उसके चित्त की निस्संग चुप के मारे हैं
प्यार की अश्रव्य स्वीकारोक्तियाँ
प्रमेय की तरह सिद्ध करने बैठती हूं
तो मेरे कथन सहसा मेरे ही अंतरिक्ष से
गिर कर छन्न से टूट जाते हैं
यह अजब नहीं है क्या !
कि इसी पृथ्वी पर मिल जाता है
मरुथल को पानी
दोषियों को क्षमा
और लापता मृतकों को अग्नि
किन्तु चाह कर भी
मुझे उसकी चाह का क्षणांश नहीं मिलता …
9 .निद्रा
निद्रा
दयार्द्र ईश्वर का
सबसे करुण उपहार है
जो मैं बेध्यानी में कहीं रख कर भूल गयी हूँ ।
पुरानी स्मृतियाँ
आंखों को इस तरह काटती हैं
ज्यों काटता हो कोई नया जूता सुकोमल पांव को
मैं रात भर जागती हूँ
पलकों के क्षितिज पर
नींद का रुपहला तारा टिमटिमाता रहता है
किसी दिन
अचानक चौंकाती है यह बात
कि उसकी सूरत भूल रही हूं
लाज से गड़ती हूँ कि
अब स्वप्न में उसे नहीं
स्वयं ही को सुख से सोते हुए देखना चाहती हूँ
रोज़ रात गुलाबी पर्ची पर
लिखती हूँ अपनी एकशब्दीय कामना ‘नींद’
सुबह तक उसका रंग उड़ कर सफ़ेद हो जाता है
अपने खुरदुरे स्वर से
अपनी बंजर पलकों पर
बेग़म अख़्तर की ठुमरी का मरहम रखती हूं
“कोयलिया मत कर पुकार
करेजवा लागे कटार”
जब पूरा गांव
निस्तब्धता में खो जाता है
मैं उनींदी आत्मा लिए
मन ही मन बुदबुदाती हूँ एक निर्दोष प्रार्थना
कि हे ईश्वर !
मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले
मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो !
10 स्वीकारोक्ति
इससे पहले कि
साधारण इच्छाओं की
अदृश्य अलगनी में टँगी रह जाएं
प्रेम के अभीष्ट स्वीकार की असाधारण लालसाएँ
किसी अलसाई दोपहर में
देह के उत्सवों को धता बता कर
झर जाए यौवन का सुनहला पुष्प चुपचाप
इस गर्वीले अभिमान की ऐंठ
निश्चेष्ट लोच में बदल कर भूमिसात हो जाए
मेरी अस्थियां
निस्पंद ठूँठ होकर गल गल जाएं
तुमसे मुक्ति की
नीरस युक्तियां सुनते सुनते
किसी उकताए क्षण कहूँगी
कि खोखली हैं तुम्हारी सब आध्यात्मिक बहसें
कहूँगी कि
प्यार विमर्शों में नहीं
पगलाए हुए व्याकुल हृदय की स्मृतियों में फलता है
तुम्हारी आँखों में ढूँढूँगी
अपनी ही चम्पई परछाई
ध्रुवों से लौट लौट आएंगी
तुम्हारे नाम की काँपती हुई प्रतिध्वनियाँ मुझ तक
एक सदी में एक बार आने वाला वह क्षण
निमिष भर को जब ठिठकेगा कंठ में तुम्हारे
तभी तुम्हारे होंठों पर धर दूँगी
अपने तरसे हुए मन की इकलौती कामना
सगरी देह को कान बनाकर सुनूँगी
तुम्हारी आवाज़ में गूँजता मनचीता स्वीकार
कि सुन पगली
प्यार करता हूँ तुझसे !
11. स्त्रीगाथा
प्रार्थना सभाओ,
सामाजिक सभागारों और
न्याय पीठिकाओ में अलग अलग ईश्वर तैनात थे
हम सबके सम्मुख बारी बारी
आँख मूँद कर दोहराती थीं एक ही प्रार्थना
“इतनी शक्ति हमे देना दाता”
और प्रार्थना खत्म होते ही अशक्त होकर ढह जाती थीं
हम हल्की फब्तियों और
सस्ते जुमलों के बीच निबाह करना सीख रही थीं
कम खाकर अधिक सहना सीख रही थीं
हम कविताओं की डायरी में
हिसाब लिखना सीख रही थीं
साड़ी और दुप्पट्टे संभालते दौड़ती थीं
घर से दफ्तर, दफ़्तर से घर
घड़ी हमारे हाथ पर नहीं धमनियों में धड़कती थी
कभी गर्भ मे भ्रूण तो कभी
भरी छातियों में दुधमूहों की भूख सहेजे
हम बसों ट्रेनों में और पैदल भाग रही थीं
हम काम पर वक़्त से पहले पहुंचती थीं
घर के अवैतनिक काम के लिए
ज़रा देर से छूटती थीं
“हमारा काम पर जाना ज़रूरत नहीं
शौक़ हैं”
जैसी झूठी उक्तियाँ पीछा नहीं छोड़ती थीं
भीतर बाहर की जिम्मेदारियों के
अलग अलग खांचे थे
हमारी भूमिका में हमारी प्राथमिकताएँ
फिल्म के सेन्सर्ड और
मिसफिट हिस्से की तरह काट दी जाती थी
हमारे दमन का प्राचीन और अमोघ अस्त्र
हमारी ही माएँ और सासें जानती थीं
हमारे अन्तस् को बेधने का अर्वाचीन उपाय
हमारी प्रजाति ही अगली पीढ़ी के वर्चस्व को सौंपती थीं
हम ही समाज को अपनी पराजय के मंत्र देती थीं
हम अपनी ही झूठी अस्मिता
और मर्यादा की परछाई में बंदिनी स्त्रियां थीं
हमारी मुक्ति की चाबी
दूर खड़ी उस पौरुषयुक्त शक्ति के पास थी
जिसने हमारी परछाई को अपने खोखले पुंसत्व और
ग़ैरबराबरी के दोमुंहे खंडित संस्कारों से बांध रखा था।
12 स्वप्न में माँ पिता
पिता स्वप्न में दिखते हैं।
मायके के तलघर में रखी
उनकी प्रिय आराम कुर्सी पर
बैठकर सिगरेट पीते हुए,
कभी कोई फ़िल्म या क्रिकेट देखते हुए
या कोई अंग्रेज़ी किताब हाथ में थामे
शराब के घूँट भरते हुए।
उन्हें स्वप्न में देख आश्वस्त रहता है मन
कि वे वहां भी सुख से ही होंगे।
माँ जैसे कभी जीते जी
एक जगह टिककर नहीं बैठी;
स्वप्न में भी कभी एक दृश्य में नहीं बंध पाती।
दिखती है कभी गौशाला में गोबर पाथती हुई।
कभी पशुओं की सानी पानी करती हुई।
जंगल से धोती के छोर में काफ़ल बांध कर लाती हुई।
जलती दुपहरी चूल्हे पर दाल सिंझाती,भात पसाती हुई
निष्कपट पिता को दुनियादारी समझाती हुई।
बेटियों को जिम्मेदार और
सुघड़ होने की तरकीबें सिखाती हुई
पराए घर मे बाप की इज़्ज़त
रखने की हिदायतें करती हुई।
मैं स्वप्न से जागकर सोचती हूँ
कि दुनियादारी में असफल अपनी
बेटियों के दुःख जानकर
क्या माँ अब भी चैन से बैठ पाती होगी
और उदास हो जाती हूँ।
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परिचय:
सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं।
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि ।
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
पहला कविता संग्रह ‘ चुप्पियों में आलाप’ 2022 में बोधि प्रकाशन से प्रकाशित।
सम्पर्क cbhatt7@gmail.com