आज जानकी पुल की विशेष प्रस्तुति मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा-
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यूरी बोत्वींकिन मेरे फ़ेसबुक मित्र काफी समय से रहे हैं, मगर वैयक्तिक परिचय वातायन के एक लाइव के दौरान हुआ। बातों-बातों में तब उनके लेखन से परिचय हुआ तो मैं चकित रह गई, भारतीय दर्शन को में उनकी गहरी पैठ देखकर।
विदेशी होने के कारण किसी की अच्छी हिन्दी पर चौंकना मैंने बहुत पहले बंद कर दिया था जब विश्वहिंदी सम्मेलनों में मेरा परिचय विश्व-भर के हिन्दी मर्मज्ञों से हुआ। लेकिन किसी ने असंख्य हिन्दी कविताएं लिखी हों और एक अनूठा नाटक ‘अंतिम लीला’ भी यह अभिभूत करने वाली बात है।
प्रस्तुत नाटक दो संस्कृतियों के मेल से बना है। ईसाई धर्म से प्रभावित होने से पहले स्लाविक जन-संस्कृति सूर्योपासक थी। वहाँ भी कृष्ण जैसा एक देवता हुआ है लेल। जो बसंत और प्रेम का देवता है, बाँसुरी बजाता है, लड़कियों में लोकप्रिय है। लेल की बहन लेल्या हुई। इन दोनों के नामों की उत्पत्ति कुछ स्लाविक विद्वान संस्कृत शब्द ‘लीला’ से मानते हैं।
यूरी लिखते हैं यह नाटक एक प्रतीक है, मुझे यह प्रतीकों का, मिथकों का, भारतीय दर्शन का वैश्विक विस्तार लगा। नाटक की कथा में कृष्ण भटकते हुए एक स्लाविक पवित्र उपवन में पहुंचते हैं। वहाँ उनकी कुछ युवतियों और युवक देवता लेल से मुलाकात होती है, वे कृष्ण की सुंदर आँखों में उदासी की छाया देख लेते हैं।
प्रश्न उठते हैं – कृष्ण उत्तर देते हुए प्रेम और मृत्यु की अनूठी व्याख्या करते हैं। प्रेम में उन्हें इस बात की पीड़ा है कि जिसने चाहा मोहपाश में बांधना चाहा।
यूरी बताते हैं यह नाटक उन्होंने सोलह वर्ष पूर्व उक्राइनी में लिखा था। हिन्दी में पिछले बरस। यूरी बोत्वींकिन भाषा में हिन्दी नाटक की नब्ज़ बखूबी पकड़ते हैं, संवादों में कमाल की शास्त्रीय लय महसूस होती है। कृष्ण के प्रेम और युद्ध पर उत्तरों, अनुत्तरित सवालों, तर्कों से इस नाटक में कुछ अनूठे निष्कर्ष निकाल कर आते हैं। जिन्हें मैंने कहीं नहीं पढ़ा।
“ब्रह्मांड का बोझ जिसको उठाना हम जैसों के भाग्य में तो है ही, मानवीय दुख-उदासी में कहाँ दिखता है वह… सुनने में तो विचित्र लग सकता है पर दुख जितना अधिक वैश्विक हो जाता है, हलका भी होता है उतना ही…”
यूरी निश्चय ही भारतीय और उक्राईनी संस्कृति के गहन अध्येता रहे हैं, हिन्दी और उक्राईनी भाषा में जिस तरह उनकी आवाजाही है वह विरल है। वे हिन्दी में बहुत सुंदर कविताएं लिखते हैं।
रसातल में गिरते समय तुम्हें साथ लेने का इरादा नहीं था…
वह बस गलती से हाथ पकड़ लिया था प्यार से…
पर जब गिर ही रहे हैं तो क्षितिज की ओर
अपनी आनंद-भरी दृष्टि रखना टिकाए…
कितना जीवन-भरा है यह सूर्यास्त…
एक कवितांश
हम सत्य को तलाशते हैं उतनी लगन से
मानो उसके सिवा कुछ और भी हो सृष्टि में
अंतिम लीला को यूं तो समग्र तौर पर पढ़ा जाना चाहिए और उस पर भव्य नाटक भी होना चाहिए। मगर अभी तो मैं यूरी की सहमति से ‘अंतिम लीला’ का यह अंश और उनका परिचय आप जानकी-पुल लिए प्रस्तुत कर रही हूँ- मनीषा कुलश्रेष्ठ
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अंतिम लीला
यूरी बोत्वींकिन (युक्रैन)
भूमिका
इस नाटक के पात्रों में हिंदू देवी-देवताओं के साथ कुछ स्लाविक पौराणिक ईसाईपूर्व देव-देवता भी हैं, जिनका ऐतिहासिक आधार हिंदू चरित्रों की तुलना में कहीं कम प्रमाणित किया गया है, यहाँ तक कि कुछ वैज्ञानिक इन चरित्रों को नवरचित भी मानते हैं। कारण यह है कि ईसाई धर्म आने के बाद पुराने रूस (जो कि अधिकतर आधुनिक युक्रैन का ही नाम हुआ करता था) में पुराने धर्म-सिद्धांतों का नामोनिशान मिटाने का पूरा प्रयास किया गया था। फिर भी स्लाविक सनातनी परंपराओं की कुछ बची हुई झलकें आजकल एक नई परंपरा में विकसित हो रही हैं और इसके कार्यकर्ताओं की मूल प्रेरणा वैदिक सानातनी संस्कृति से ही आ रही है। ऐतिहासिकता का कोई दावा न लगाते हुए स्लाविक मिथकीय चरित्रों को इस नाटक में मात्र प्रतीकवादी रूप में लाया गया है।
पात्र –
कृष्ण
लेल – कुछ लोककथाओं के अनुसार पौराणिक स्लाविक वसंत और प्रेम का देवता, जो कृष्ण की भांति एक चरवाहा था और मुरली या वीणा बजाकर लड़कियों-महिलाओं को मोहित करता था। उन्हीं कथाओं के अनुसार उसकी बहन लेल्या वसंत की देवी होती थी। दोनों के नामों को संस्कृत “लीला” शब्द से जोड़ा जाता है।
रुसावा, ज़्लाता, होर्दाना – स्लाविक जनजाति की युवतियाँ।
प्रिलेस्ता – स्लाविक वैद्य महिला।
ज़ोर्याना, क्विताना – प्रिलेस्ता की दो चेलियाँ (निःशब्द)
भारतीय नर्तकियाँ (निःशब्द)
शक्ति देवी (काली और लक्ष्मी के रूप में)
यमराज
स्लाविक मृत्यु देवी (निःशब्द)
गायन दल
दृश्य 1
एक “पवित्र उपवन”, पेड़ों के बीच एक छोटा खुला मैदान, ऐसे स्थान स्लाविक जनजातियों के पूजा–स्थल हुआ करते थे।
संगीत बजने के साथ रुसावा, ज़्लाता और होर्दाना पुरानी शैली की लंबी, कढ़ाई से सजी सफ़ेद कमीज़ें पहने और हाथों में जलते दीप लिए मंच पर निकलती हैं। दीपों को केंद्र में फ़र्श पर ऱखकर, घुटने और माथा टेककर अग्नि को प्रणाम करती हैं, फिर उठकर अग्नि–आराधना का नृत्य करती हैं। नृत्य पूरा होने के बाद फिर से दीपों को प्रणाम करती हैं। फिर ज़्लाता और होर्दाना उठकर जाने को तैयार होती हैं, किंतु रुसावा बैठकर दीपों की लौ को घूरे जा रही हैं मग्न दृष्टि से, अपने में खोई… यह देखकर उसकी सहेलियाँ वापस आकर फिर बैठ जाती हैं उसके साथ।
ज़्लाता – प्रसन्नता की बात है यह तो! रुसावा पर तो हावी हो गया है अग्नि देव, अब इसकी आंखों में भी नाच रहा है…
रुसावा – ह्दय में भी… शरीर और आत्मा की जो सीमा है उसको पिघालकर…
होर्दाना (मुस्कुराकर) – इस सुंदर भाव को न भी लाना चाहोगी शब्दों में तो चलेगा। बस यह बताओ, ह्दय में जो दीपक जल उठा है उस पर किसी का नाम भी चित्रित होगा न?
रुसावा (आँखें बंद करके) – निश्चय! पढ़ने दो तो… अरे अनजानी सी है भाषा!
तीनों हँसती हैं।
ज़्लाता – वह तो होगी ही, यहाँ की भाषा थोड़ी न आती है उसको।
होर्दाना (नाटकीय ढंग से) – किसको?
ज़्लाता (उसी ढंग से) – अरे सुना है लेल का कोई मित्र आया है बहुत दूर से। उसी के दिव्य सांवले रूप और रात्रि से गहरे नैनों में मोहित हो गई है अपनी भोली सी सखी!
रुसावा – मैं तो नहीं समझी हूँ अब तक कि वह किस काम से आया है हमारे देश में उतने दूर से… मिलते ही लेल का भाई बन गया। दोनों में जो भरा है प्रेम का रस…अब दोनों मिलकर जब नाद-यंत्र बजाएँ तो… मानो एकसार -संतुलन सा फैल जाता है तन-मन में, प्रकृति में… अद्भुत लगता है। पर उसके आगमन में एक रहस्य है…
होर्दाना (आँख मारकर) – कहीं सपना तो नहीं देखा था उसने जिसमें तुम जैसी कोई उसे अतिदूर से आने के लिए बुला रही थी !
रुसावा (मुस्कुराकर) – पागल नहीं लगता है वह।
ज़्लाता – पर तुम लगने लगी हो, बहन!
रुसावा (गंभीर होकर) – उसकी मगन कर देनेवाले नैनों से मस्ती तथा संगीतमय ध्यान की झलकें बरस रही हैं… किंतु उन्ही नैनों में किसी दुख की गंभीर छाया भी दिखी मुझे … इस लंबी यात्रा का कोई गहरा-सा कारण होगा…
मुरली की धुन सुनाई देती है।
होर्दाना – लेल की मुरली! लगता है वह अकेला है अभी, पूछ लेती हैं उससे…
लेल आता है मंच पर। लंबे बाल, स्लाविक शैली के प्राचीन कढ़ाई वाले वस्त्र, हाथ में मुरली।
ज़्लाता – देर से क्यूँ आए हो, हमारे प्यारे लेल? हमारा नृत्य नहीं देखा तुमने! रुसावा तो विलीन ही हो गई प्रेम-अग्नि की आराधना में…
लेल – जय हो! यही विलीनता सर्वश्रेष्ठ आराधना है, सुंदरियो। (रुसावा को ध्यान से देखकर मुस्कुराते हुए) किंतु तुम्हारे हृदय में यह इतना विशेष प्रेम-अगन किसने लगवाया है?
रुसावा (बेझिझक, सहज भाव से) – उसी ने, जिसकी बांसुरी की संगति में तुम्हारी इस मुरली का जादू दोगुना बढ़ा है… तुम्हारे भाई ने जो बोलता कम है, मात्र अपनी उपस्थिति से अपनी अभिव्यक्ति को संप्रेषण की सब से बड़ी उंचाई तक ले जाता है…
रुसावा की बातों से लेल के चेहरे पर आश्चर्य और आनंद की मुस्कुराहट खिल जाती है।
होर्दाना – क्या नाम है उसका?
लेल – वह कृष्ण है…
रुसावा – कृष्ण… जितना रहस्यपूर्ण व्यक्तित्त्व है, उतना ही नाम भी…
होर्दाना – पर आया क्यों है? वह कौनसी खोज है जो यहाँ तक लेकर आई है उतने अद्भुत चरित्र को?
ज़्लाता – विलास-देवता लगता है, वह तो कई बार… (हँसकर) स्त्रियों पर हावी भी तुम्हारी भांति! फिर भी उतने गहरे स्वभाव को देखकर कदापि यह नहीं लगता कि बस अपने आस-पास की देवियों के प्रेम से ऊबकर विदेश के हृदयों को भी मोहने निकला हो… बात तो गंभीर ही होगी न?
लेल – वह बात तुम लोगों को बताने के लिए उसने मना किया है।
होर्दाना–ज़्लाता (एक स्वर में) – क्यों?!
लेल (हँसकर) – यह कहकर कि तुम लोग अज्ञानता में अधिक सुंदर लगती हो।
होर्दाना – लो, कर लो बात!
लेल मुस्कुराकर और होंठों से मुरली लगाकर एक सुंदर धुन बजाते हुए मंच से चला जाता है। तीनों युवतियाँ आपस में कुछ फुसफुसाकर अपने दीप लिए उसके पीछे भाग निकलती हैं।
दृश्य 2
वही “पवित्र उपवन”।
लेल और कृष्ण मंच पर आते हैं। कृष्ण अपने पारंपरिक ढंग से सज्जित हैं , पर राजकीयता का कोई लक्षण नहीं है, मुकुटहीन, खुले बाल, कम आभूषण…
कृष्ण (मोहित भाव से दृष्टि घुमाते हुए) – यहाँ की प्रकृति की शांत और नरम सुंदरता से अभिभूत रहता है मेरा मन…
लेल – फिर तो वातावरण सही ही होगा, भाई। हमारा जो संवाद अभी शब्दों में व्यक्त नहीं हुआ है, उसको इस शांति और नरमता में आज उतार ही लेते हैं… तुम जैसे अतिथि का स्वागत करने योग्य होना एक सौभाग्य है जिसका हम लोगों को यह सुख मिला है। तुम कुछ गंभीर कहे बिना भी रहना चाहो, तो रहो न, युगों तक यहाँ, हमें तो सुख ही होगा। सच पूछो तो मस्ती भरी तुम्हारी चिंताहीन छवि जो इधर की सभाओं-खेलों में प्रकट हुई है वही यहाँ की युवतियों को सर्वश्रेष्ठ लगती है, वे स्वयं जो रहती हैं वैसी ही… किंतु उन्होंने भी यह भांप लिया है कि कृष्ण चिंता-मुक्त नहीं है… रोमांचकता, युवावस्था का जोश, प्रेम-रस और सौदर्य के दर्शन – इसके सिवा कुछ औऱ भी है, गहरा और पीड़ा से भरा, जो यदि तुम न भी बताना चाहो, तुम्हारी आँखों एवं बांसुरी की धुन में झलकता है स्पष्ट। अपने प्रिय अतिथि से मिलकर जो आनंद मिलता है, उस आनंद में डूब हम तो आने का कारण भी पूछते नहीं… पर कृष्ण जैसा सब का प्यारा किसी गहरी सोच में जब डूबे आए, वह भी अकेला…तो …..
कृष्ण (हँसकर) – अपनों से कुछ नहीं छुपता है न? युग बदलते निकल रहे हैं, वह भी प्रलय की ओर… युग-परिवर्तन का मैं साक्षी बन गया था, मेरी आँखों के सामने लाखों मर गए, ब्रहमांड के युग करवट की भांति बदलने भर में… और दोषी किस को था ठहराया गया, जानते हो ?
लेल (आह भरकर) – उस महायुद्ध के बारे में सुना है… यह भी पता है, भाई, कि तुम्हारा कोई दोष नहीं था उस में। और होता भी तो तुम दोष-भाव को अंदर लेकर इस प्रकार कहाँ फिरते… एकांत में चले जाते पर्वतों-वनों में… या फिर, अधिक स्वाभाविक, उसके परे हो जाते प्रलय को अनिवार्य समझकर…
कृष्ण – एकदम सही तुम बोल रहे हो, भाई। संसार के सर्वनाश का उत्तरदायित्त्व मैं ले सकता हूँ अपने ऊपर, उन पीड़ितों के लिए दोषी बन सकता हूँ जिन्हें आवश्यकता होती है दोषी की, श्राप ले सकता हूँ, बस उनका मन थोड़ा हलका हो जाए… पीड़ा से तंग आकर बच्चा जब रुठकर उगलता हो क्रोध तो कौनसा है वह बुद्धिमान बड़ा जो भागे दोष मान लेने से ? बच्चे को सांत्वना मिल जाए बस… पर वह सब है ब्रह्मांड का बोझ जिसको उठाना हम जैसों के भाग्य में तो है ही, मानवीय दुख-उदासी में कहाँ दिखता है वह… सुनने में तो विचित्र लग सकता है पर दुख जितना अधिक वैश्विक हो जाता है, हलका भी होता है उतना ही…
लेल – सत्य! मुझे भी तो वही लगा कि यदि बात बस कलियुग-प्रलय की होती तो उसकी छाया को मुख पर कृष्ण क्यों आने देता!
कृष्ण – भीतर के द्वंद्वयुद्ध से ही वह छाया आती है… (हँसता है) अब यह समय आया है, भाई, कि अहंकार को भी श्रेय देना होगा यह सत्य मानकर कि दुख वही होता है सब से भारी जो व्यक्तिगत हो…
लेल (हँसकर) – तो फिर रुक जाओ एक-आध सहस्राब्दी और। उसी व्यक्तिगत दुख से भी बचाने वाला आएगा इस युग में, मैं ने भविष्यवाणी जो सुनी है। तुम्हारे देश का ही महात्मा होगा। नाम क्या था…
कृष्ण – सिद्धार्थ… गौतम बुद्ध भी लोग कहेंगे उसको। हाँ, वह तो स्वयं जीवन को ही दुख की परिभाषा देगा… (हँसता है) पर जब तक नहीं आया है बचाने इस जीवन नाम के दुख को भोगना है मुझे !
लेल (हँसकर) – अकेले भोगोगे? यह कैसी मित्रता!
कृष्ण (नाटकीय भाव से) – भ्रम में नहीं पड़ना है, वत्स। अकेला कैसा हो सकता है वह जिसमें पूरा ब्रह्मांड पच्चीकारी बनके सजा हो… हाँ, इस सत्य का यह भी एक पक्ष है कि कौन हो सकता है इस ब्रह्मांड से भी अधिक अकेला!
लेल (हँसकर) – अब उन सन्यासियों की टांग खींच रहे हो न, जो पर्वतों में जाकर ध्यान को प्राप्त हो जाते हैं संसार को त्यागकर! सुना है कि अद्भुत शक्ति आ जाती हैं उन में, अद्भुत वरदान तथा क्षमताएँ… बस व्यक्तिगत दुख का क्या होता है उधर, वह नहीं पता…
कृष्ण (अचानक गंभीर होकर) – एक ऐसे योगी को मैं जानता हूँ… उस जैसा अब तक कोई भी नहीं बना है। त्रिलोक टूटने लगता है कांपकर उसके मात्र नृत्य से… क्षमताएँ वास्तव में अद्भुत ही हैं… मेरे एक प्रिय प्राणी को जिसको आध्यात्मिक भाई मानता हूँ उस योगी ने अपनी मात्र दृष्टि से राख कर दिया है… (जैसे गहरी सोच से निकलकर) किंतु हम उसकी बात नहीं करेंगे… (फिर मुस्कुराकर) हम बात करेंगे… (लेल के साथ एक स्वर में) देवियों की! (दोनों हँसते हैं)
दोनों की हँसी बुझ जाने के साथ धीमे से ध्यानात्मक संगीत बजने लगता है। एकदम शांत होकर लेल सुनने की अवस्था में नीचे धरती पर बैठ जाता है। कृष्ण धीरे–धीरे चलता है इधर–उधर कुछ सोचते हुए। फिर बोलने लगता है।
कृष्ण – संसार का अंत… प्रलय… सर्वनाश… यह सब तो होना ही है, क्या करें… अब मानव-इतिहास पढ़ाया जाएगा बस युद्धों के आधार पर, न कि महात्माओं की सीखों के… जैसे किसी की जीवनी लिखी जाए उसके स्वयं व दूसरों से झगड़ों के क्रम से, न कि उपलब्धियों, शुभ अवसरों के… कभी कभी समझ में नहीं आता कि दोनों में से किसके बढ़ते जाने से अधिक होता है दुख, क्रूरता के या फिर मूर्खता के… संभवतः ये बस दो पहलू हैं “पुरुष” नाम के इस खोटे होते जा रहे सिक्के के… पर ऐसा क्यों कि लालच, स्वार्थ, हिंसा जन्मने लगे हैं उस पुरुष के अंदर जो प्रकृति-सी पवित्र स्त्री का जीवन-साथी होता है? क्या माँ, बहन, पत्नी का प्रेम पर्याप्त नहीं है कि पुरुषों का मानसिक पतन संभव ही न रहे?.. गलत मत समझना मुझे , लेल भाई, इस वैश्विक दुर्घटना का दोष नर-नारी में से किसी एक को नहीं सौंपना चाहता… मैं असमंझस में हूँ बस… पुरुष को देखकर आश्चर्य कम होता है, वह है ही मूर्ख… अन्यथा “महान” बनने-कहलाने की इच्छा क्यों होती उसको अपनी आदिमहानता को भुलाकर… प्राकृतिकता, स्वाभाविकता, सहजता, दिव्यता – इस सब के पतन से उठते हैं असंतोष तथा घमंड, फिर युद्ध… साक्षी बनकर कड़वी मुस्कान के साथ वह सब निहारने की क्षमता है मुझमें… बस प्रेम का पतन नहीं देखा जाता!.. (थोड़ा चुप रहकर) आंधी जितनी भी हो भयनक चारों ओर से, अपने आंगन में खिले सुंदर से निर्दोष पुष्पों को देखकर मन झूम उठता है नई प्रेरणा और आशा से… किंतु वे भी दिखें मुरझाते तो मन कहाँ उर्जा-संतुलन पाए, स्वयं की सकारात्मकता को फिर बचाए कैसे रखें?.. (फिर चुप रहकर) प्रेम ही रहा है मेरा सार सदा से, उसी में मैं पला-बढ़ा हूँ, वही बांटता गया अपने प्रियजनों में… मवेशियों, खेतों, वनों के बीच युवतियों के साथ। तुम्हारे ये खेल देखकर मुझे अपनी युवावस्था स्मरण हो आती है… और तुम तो जानते हो कि प्रेमिका की आँखों में आनंद की चमक देखने से बड़ा नहीं है कोई सुख… स्वयं को भूलकर जब जी भर देते हो प्रेम तो मानो जीवन देते हो, उतना नवीन और पूर्ण कि कोई भी शक्ति फिर उसकी आत्मा को बंदी नहीं बना सकती… जब प्रेम बंधन न होकर एक चेतनावस्था बनती है तो ध्यान-तपस्या में प्राप्त किए प्रबोधन से कदापि कम नहीं है वह… ऐसा ही मैंने प्रेम किया है, अहंकारहीन, स्वामित्व-भाव से मुक्त… इसी स्वभाव के कारण फिर “नारायण” समझ बैठे लोग मुझे… मैंने कभी मना नहीं किया उनकी आवश्यकता को भांपकर… पर दुख हुआ इस बात का कि अपने अंदर के नारायण को जगाने के बजाय सब बाहर वाले की भक्ति में लग गए… कोई कहेगा बात बुरी नहीं है… क्या पता… उतना मैं जानता हूँ कि शांति बहुतों को मिल गई है उससे… “नारायण वह है, मैं बस भक्त हूँ, उस जैसा थोड़े ही मैं बन सकता हूँ!”… शिष्य या भक्त होने में सुविधा है न? उसमें संसार की छोड़ो, अपने जीवन का उत्तरदायित्व कहाँ है!.. पर मानव सोच तथा आध्यात्मिकता की इस दिशा से जो झटका लगा वह फिर भी उस झटके से कम ही था जो प्रारंभ में लगा था… जब मैं अनजान था इन सब बातों से और स्वयं को दूसरों से भिन्न सोच भी नहीं सकता था… जब मस्त यौवन की रास-लीला के चरम-बिंदु पर अचानक कुछ विचित्र-सा भाव छा गया प्रेमिका की मग्न आँखों में… जब बोले उसके होठ : “तुम केवल मेरे हो! मैं जी नहीं सकती बिना तुम्हारे! अब देखना, यदि तुमने हृदय तोड़ दिया, मर जाऊंगी! ”… (फिर थोड़ी देर चुप रहकर, आह भरकर) यहाँ तुम लोग बड़े सुंदर, प्रतीकात्मक प्रकार से सूर्य को पूजते हो जीवन-उर्जा के स्रोत के रूप में… कोई इस ग्रह पर जी नहीं सकता उसके बिना… उस के प्रति कृतज्ञ होकर मैं भी प्रत्येक सूर्योदय का करता हूँ स्वागत बांसुरी की धुन से… उसकी किरणों में तृप्त रहता है मेरा मन… पर यह कितना विचित्र होता न, यदि मैं सोचूँ कि सूर्य देव का जीवनदायक यह उजाला मेरे लिए है बस!.. यदि चेहरा वह फेर भी ले पृथ्वी से और मृत्यु हो जाए मेरी भी , मर जाऊंगा मैं यह सुख लेकर कि उजाले-धूप का अनुभव मैं ने जिया है! उस पर आरोप लगाने की तो सोच कैसे सकता हूँ! “तुम्हारे बिना जी नहीं सकूँगी” – यह है प्रेम?! इंद्र भी तो जी नहीं सकता बिना सोमरस के… काली रक्त-बलिदान भर से जीवित रहती है… किंतु प्रेम?.. अब खाद्य-पेय पदार्थ से भी इसकी तुलना करें?? अब सूर्य को भी बांधके रखा जाए?! आशीष के रूप में दिया जाने पर प्रेम स्वयं में ही क्यों हो जाता है बंदी? प्रेम पाकर भी यह ईर्ष्या, डर और पीड़ा क्यों?? इस सब में विवश होकर प्रेम यदि स्वयं को ही खो बैठे तो?!.. प्रेम से स्वतंत्रता छीन लो और प्रेम रह जाए, यह एक भ्रम है! एक ही है दोनों!.. (फिर चुप रहकर आह भरता है) मेरी प्रेम-लीलाएँ प्रसिद्ध हुई हैं इसका मुझीको आश्चर्य हुआ सब से बड़ा… क्योंकि असीमता तथा मुक्ति के सिवा प्रेम का कोई अन्य रूप मेरी कल्पना को भी उपलब्ध नहीं था, यही लगता था फिर कि इसमें ऐसा क्या है जो अद्भुत लगता है!.. चेतनावस्था तथा प्रेमावस्था का एक ही होना अचानक क्यों दुर्लभ हुआ है इस संसार में!.. स्वर्ग की परी सी सुंदर राधा से जो प्रेम किया था, उसमें मैं पूर्ण था और मस्त… उसी के साथ बनी फिर जुगल-मूर्ति लोगों के हृदय तथा गीतों में… कैसे कहूँ कि उसके भी कमल-से नैनों में मैंने भांपी थी तिरस्कार की छाया… बस इसलिए कि मैंने दूसरी गोपियों से मुंह नहीं फेरा था… कैसे फेरता! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं सांस लूँ बस किसी एक के सामने और दूसरी कोई हो तो बंद करूँ!.. जब प्रेम ही मेरी जीवन दायिनी वायु है जनम से!.. प्रेम में कूटनीति नहीं आती है मुझको… जिस महिला ने भी कभी ईर्ष्या दिखाई मुझसे प्रेम करके उसने कभी यह सोचा भी नहीं था कि क्या झटका लगा होगा मुझे उससे हर बार? … यही सोचा होगा कि इस विलासी प्रेमी का बस मन बहका रहता होगा, कि इसका हृदय ही भरता नहीं होगा प्रेम-संबंधों में, कि अब इसको ठिकाने पर ले आने के लिए कांड ही रचाना चाहिए, तभी भला कुछ हो सकता है इस अपरिपक्व का!.. (मुस्कुराकर)
मेरा विवाह कैसे हुआ, पता है? राजा बनकर भी कुछ समझ मुझ में कहाँ आई… एक प्रेम-चिट्ठी मिली एक राजकुमारी से जिससे मैं मिला भी नहीं था कभी… उसको किसी अप्रिय के साथ विवाह करने को विवश कर रहा था परिवार… एक प्रेम-विलाप था उस संदेश में, घोर निराशा… और भावों की उतनी गहराई थी कि क्षण भर भी नहीं लगा मुझे निर्णय लेने में… विवाह के दिन ही इकट्ठे हुए अतिथियों, सब राजा-राजकुमारों की आँखों के सामने उसका अपहरण करके निकल गया मैं… दांव पर प्राण लगाकर! स्तब्ध रह गए सब उस दुस्साहस से… अब तुम बताओ, भाई – जिसको बस खेलना होता है स्त्रियों के भावों से वह ऐसा कभी कर सकता है? या फिर तुम्हें भी उन सब पुरुषों की भांति यह लगता है कि उस दुस्साहस में स्वयं को उनसे अधिक योग्य वीर प्रमाणित करने की इच्छा थी मेरी, या “महान योद्धा एवं प्रेमी” की “अमर जीवनी” में एक “उज्ज्वल” अध्याय जोड़ने की मेरी चाह? (लेल “ना” में सिर हिलाता है, उसका चेहरा गहरे भावों से चमक रहा है) नहीं… मेरी आँखों के सामने उस चिट्ठी में व्यक्त किए गए वे पीड़ा तथा प्रेम थे बस… सहज रूप से हृदय भरा था पूरा प्रेम से… उस प्रेम से जिसके वास्ते प्राण भी दे सकता हूँ निस्संकोच… जो प्रेम भरपूर दिया भी उसको ब्याह करके… फिर और राजकुमारियाँ महल में आईं, जो राजनीति का भी होता है भाग… फिर ज्ञात हुआ एक दिन कि मेरी रुक्मिणी उलझ गई शेष रानियों के साथ विचित्र विवाद में कि उन में से मुझे किससे सब से अधिक लगाव है!.. (फिर थोड़ा चुप रहकर) कभी कभी मुझे लगता है, भाई, कि मेरी चेतना किसी भूल से सत्य-युग से निकलकर यहाँ टपक पड़ी है, इसीलिए ठेस खाती है बार बार… (हँसकर) लोग भी विचित्र हैं, देखो! मेरी चेतनावस्था अपनाने से डरते हुए भी मुझे भगवान बना दिया! (जैसे कुछ याद करके) पर हाँ, अपनेपन की गहरी झलक एक देवी में मिली थी… उसके लिए भी बंधन होने के बजाय प्रेम शुद्ध मनोस्थिति ही थी… तभी वह हलके हृदय से पांच भाइयों की पत्नी बनकर उन में समा सकी बिना स्वयं को बांटे… पर उसके भाग्य में कहाँ था समझा जाना… उसके पति भी आपस में जलते रहे… हम दोनों को कोई संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं थी, पहले से एक आयाम में जो जुड़े थे… एक दूसरे को पहचाना गहरे मौन में… बस आश्चर्यचकित होते रहे सब इस बात से कि जब भी कोई संकट उस पर आता था तो पतियों से शीघ्र मैं पहुंचता था उसकी सहायता करने… (थोड़ा रुककर, आह भरकर) फिर महायुद्ध… और मृत्यु चारों ओर… और फिर अपनों के बीच में रहकर भी यह घोर अकेलेपन का भाव… अपनों में भी फिर युद्ध और सर्वनाश!.. फिर ऐसे ही निकल गया मैं भटकते हुए… एक ओर से मेरी यात्रा लक्ष्यहीन है… पर दूसरी ओर कहीं गहरे में एक जिज्ञासा फिर भी जागी है कि आगे क्या है इस संसार के भाग्य में… और प्रेम के भाग्य में… तुमसे मिलकर मैनें स्वयं की चिंताहीन युवावस्था पहचानी तुम में, प्रसन्न हुआ है हृदय… ऐसा ही अनुभव मैं चाहता था, संभवतः… रुसावा भी… मोतियों जैसे चमकते हैं उसके नैन और चिड़ियों की चहचहाहट से भरे उपवन जैसा है उसका मन… बस घबरा जाता हूँ पुरानी आदत से… मेरा तो जाने का समय अब आ रहा है… क्या हल्के हृदय से विदा कर पाएगी ? या वह भी बोलेगी वह वाक्य जिसे अभी तक मैं नहीं समझा हूँ, जिससे डरता हूँ मृत्यु से कहीं अधिक : “तोड़ा है तुमने मेरा हृदय!” ?.. क्या ऐसा हो सकता है, भाई, कि मदिरा डालने से स्वर्ण पात्र टूट जाए या सूर्य-किरण के पड़ने से टूटे हीरा?!… (हँसकर) विचित्र हूँ, न?.. युद्धों के संकटों तथा प्रलय के अनुभवों से गुज़रकर भी अटक गया हूँ फिर प्रेम-लीला के इस असमंजस में!.. वैश्विक से व्यक्तिगत अधिक दुखता है… और जब व्यक्तित्व ही हो प्रेम तो कैसे न दुखे?..
कुछ समय तक सन्नाटा फैल जाता है। लेलध्यानावस्था में बैठे आँखें बंद करके मानो कृष्ण के वचन पर विचार रहा हो। कृष्ण टहलते हुए आस्मान को देख रहा है।
लेल (आँखें खोलकर) – मैं खो ही गया, भाई, तुम्हारे भावों में, अपने से जो लगे… अब चाहकर भी नहीं जोड़ पाता कुछ तुम्हारी इस विवेचना में। प्रलय की छाया इधर भी दिखाई देती है समय समय पर किंतु तुम्हारी भांति उसकी गहराई को कहाँ जिया है मैं ने… तुम ने सही कहा, अभी मैं उस चंचल विलासी अवस्था में हूँ जिस में तुम भी हुआ करते थे राज करने से पूर्व… (हँसकर) संभावना भी तो कम ही है कि इस में कुछ बदलेगा। (गंभीर होकर) किंतु प्रेम संबंधों में नकरात्मकता आने से जो झटका लगता है वह अनुभव किया है मैं ने भी…
कृष्ण (हँसकर) – तुमको दुखी किया है तो नहीं इस वृद्ध ने ?
लेल ( उठकर) – अरे नहीं! तुमने तो जागृत की जिज्ञासा! मुझे भी जानने की इच्छा है अब कि आगे इस संसार में होगा क्या… इस बात को लेकर एक विचार भी आया है। अपनी बस्ती में एक अद्भुत वैद्य महिला रहती है, जिसको कुछ लोग तो “डायन” भी कहते हैं, प्रिलेस्ता नाम की… हमारी मृत्यु देवी “मरा” ने उसको विशेष वरदान दिया है… भविष्य के वह दर्शन कर सकती है! घबरा गया था मैं पहले भी कई बार जब उसने मुझे ध्यान से देखकर यह कहा था कि कुछ भयानक सा दिखता है उसको इस भूमि के भविष्य में… फिर भी अपने में होकर मस्त कुछ अधिक ध्यान नहीं दिया था मैंने उसकी बात पर… मुझे भविष्य में तो झांकना ही नहीं था, भाई, सदा से जो लगा था कि एक सूर्यास्त के सौंदर्य को जी लो खुले-खिले हृदय से तो वह भी है पर्याप्त कि यह संसार तथा यह जीवन चिरकाल का स्वर्ग रह जाए मन में… किंतु तुम्हारी बातों से लगा कि कुछ तो है जो जानने योग्य है… चलो, मिल लेते हैं उससे! आज पूर्णिमा की रात है न। आज अपनी चेलियों के साथ “गंजी पहाड़ी” पर वह आएगी मरा से बात करने… वह ऐसा स्थान एक है हम लोगों का जहाँ डायनें-जादूगर मिलकर अपनी सभाएँ, पूजाएँ व नृत्य करते हैं। तुम्हें अच्छा लगेगा वह सब देखकर!
कृष्ण – निश्चित! भविष्यवाणियों में अपनी शांति खोजनेवालों में से मैं नहीं हूँ। पर पूजा-नृत्य के दर्शन सहित कुछ बातें भी हो जाएँ ज्ञानियों से तो भला ही होगा। (हँसकर) हमें तो अंततः मनोरंजन की ही पड़ी है न!
लेल (हँसकर) – एकदम सही! चलो!
दोनों मंच से चले जाते हैं। थोड़ी देर बाद मंच पर निकलती है रुसावा। उसका चेहरा एक ही समय घबराया हुआ और आनंदित भी लग रहा है। भावुक से ढंग से अपने आप से ही बोलने लगती है।
रुसावा – अब कोई कह भी दे कि छुपकर दूसरों की बातें सुनना सुशीलता के विरुद्ध है तो वह भी मैं हँसके सुन लेती! क्योंकि मुझे सुशील नहीं बनना है, कृष्ण… बनना है बस तुम्हारे जैसी… अपने भावों में, अपने प्रेम में पूर्ण! और जाने क्यों लगता है कि तुम्हें यह मेरी गुप्त उपस्थिति पता थी, कि केवल लेल को तुम अपनी व्यथा नहीं बता रहे थे! किंतु एक बात का आश्चर्य हुआ मुझे … जिन देवियों के तेवरों से तुम दुखी हुए थे उन से इस भांति हृदय खोलकर क्यों नहीं की बात? अपने ही अंदर क्यों रखा है सब? कौन जाने, संभवतः शांति कब की मिल गई होती… मुझसे भी बोलोगे नहीं, मुझे पता है… किंतु आवश्यकता भी तो नहीं है अब… बिजली के वार की भांति मेरे हृदय पर तुम पड़े… पर वह टूटा नहीं, चमक उठा!.. इस बात को लेकर तुम घबरा रहे हो कि हलके हृदय से तुम्हें विदा नहीं कर पाऊंगी तुम्हारी यात्रा के लिए … घबराना मत! विदा करने आऊंगी ही नहीं… मेरे लिए जा ही कहाँ रहे हो, कृष्ण!.. (संगीत बजने के साथ नृत्यात्मक ढंग से मंडराते हुए मंच से चली जाती है)
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लेखक परिचय
यूरी बोत्वींकिन
जन्मतिथि 16 मई 1978
शैक्षणिक योग्यता
हिंदी में एम. ए. (तारास शेवचेंको कीव राष्ट्रीय विश्वविद्यालय) (2000), हिंदी में डिप्लोमा कोर्स (केंद्रीय हिंदी संस्थान, नई दिल्ली) (1999), इतिहास में एम.ए. (जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर) (2004) , पीएचडी इतिहास में (कीव इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज,) (2007)। तरास शेवचेंको कीव राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी और भारतविद्या का शिक्षक (2006 से)।
पीएचडी इतिहास में (कीव इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज, विषय: XIV-XVIII सदियों में उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का विकास) (2007)
लेखन
तीन कविता संकलन प्रकाशित
अन्य उपलब्धियाँ
उक्राइनी शास्त्रीय साहित्य की प्रसिद्ध कवियत्री लेस्या उक्राईंका के प्रसिद्ध नाटक \”वन-गीत\” का हिंदी में अनुवाद (2016),
विश्व में पहला उक्राइनी-हिंदी शब्दकोश (2018)
मॉरीशस (2018) में 11 वें विश्व हिंदी सम्मेलन
भोपाल (2019-2020) में कला और साहित्य के \”विश्व रंग\” समारोह में भाग लिया
ई-मेल ybotvinkin@yahoo.com