गुलजार शायद ऐसे अकेले लेखक-कलाकार हैं जिनसे हर उम्र, हर सोच के लोग गहरे मुतास्सिर हैं. जीते जी वे एक ऐसे मिथक में बदल गए हैं सब जिनके मानी अपन अपने ढंग से समझना चाहते हैं. यकीन न हो तो इस युवा लेखक अंजुम शर्मा का लेख पढ़ लीजिये और देखिये एकदम टटकी पीढ़ी उनको कैसे देखती है. उनके जन्मदिन पर विशेष- मॉडरेटर
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गुलज़ार साहब से मेरी पहली मुलाक़ात राष्ट्रीय बाल भवन के बारहमासा कार्यक्रम में हुई थी. सफ़ेद कुर्ता, चौड़े पायचे वाला पैजामा, पैरों में क्रीम मोजरी और शायद कुछ इसी रंग की शॉल. आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा जिसके लेंस पर मानो प्रोमप्टर की तरह कोई नज़्म चल रही हो, होठों पर हल्की सी हँसी और शायरी में डूबा चेहरा. जब भी उनके बारे में कुछ लिखने बैठता हूँ यह तस्वीर बार बार सामने आ जाती है. उनका गला उनकी कलम का क्या बखूबी साथ देता है, सुनने वाला सोचता रह जाए की उनकी आवाज़ और कलम दोनों में क्या भारी है.
गुलज़ार के लेखन का फलक गीत, शायरी, फिल्म निर्देशन, पटकथा संवाद लेखन, कहानी से लेकर बाल साहित्य और अनुवाद तक विस्तृत है. पिछले छः दशक उनकी कलम के निब के नीचे से गुज़रे हैं और उनके गीतों का काजल लगातार गाढ़ा होता रहा. अपने समय के यथार्थ को पकड़ने की चुनौती उनको उनके ‘अदीब’ होने से मिली जिसका असर उनके गीतों और फिल्मों पर साफ़ देखा जा सकता है. गुलज़ार की सबसे बड़ी खासियत उनका नए और पुराने का संधि पसंद होना है. शुरू से अब तक परंपरा को उन्होंने अपने हाथ से कहीं फिसलने नहीं दिया और वैचारिक परंपरा को वे नएपन के साथ आगे बढाते रहे.
बिमल रॉय की उंगली पकड़कर फिल्मी दुनिया की बारीकी सीखने वाले इस मक़बूल शायर ने जब फिल्म निर्देशन में क़दम रखा तो अपने गुरु की संजीदगी को खोने नहीं दिया. बिमल रॉय का हाथ छूटने का दर्द गुलज़ार की किताब ‘रावी पार’ के पन्नों में सुना जा सकता है. ख़ुद को ग़ालिब का मुलाज़िम बताने वाले गुलज़ार, ग़ालिब का पता पूछने वालों को हाथ पकड़ कर बल्लीमारान की पेचीदा दलीलों सी गलियों में घुमाते हुए ‘गली क़ासिम जान’ तक ले जाते हैं और ग़ालिब की हवेली के भीतर तमाम क़िस्सों के साथ दाखिल करा देते हैं. उनका मानना है की वे ग़ालिब की पेंशन खा रहे हैं. ग़ालिब से उनका यह लगाव ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ टीवी धारावाहिक निर्देशन के अतिरिक्त उनके कई गीतों में हमें दिखाई सुनाई देता है. मसलन, ‘जी ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन’ का इस्तेमाल गुलज़ार ने फिल्म मौसम के गीत ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन’ के तौर पर किया. इसी तरह अमीर खुसरो की ग़ज़ल का मतला ‘जिहाले मिस्कीं मुकुन तगाफुल दुराए नैना बनाये बतियां’ को आधार बना कर गुलामी फिल्म में ‘जिहाले मिस्कीं मुकुन ब रंजिश बहाले हिज्र बेचारा दिल है’ लिखा. ऐसे कई अज़ीम शायरों के मिसरे गुलज़ार के गीतों और नज्मों में जगह जगह बिखरे पड़े हैं जिन्हें गुनगुनाते हुए लोग जाने अनजाने अपने समृद्ध लेखन इतिहास को गुनगुनाने लगते हैं.
1963 में बंदिनी फिल्म के गीत ‘मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई दे’ से अपने गीति सफ़र की शुरुआत करने के बाद गुलज़ार ने ‘कोई होता जिसको अपना..’, ‘मुसाफिर हूँ यारो…’, ‘इस मोड़ से जाते हैं….’, हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू….’, ‘दिल हूम हूम करे…’, ‘नाम गुम जायेगा…’, ‘यारा सीली सीली विरह की रात का जलना…’, ‘मेरा कुछ सामान…’, ‘छैयां छैयां…’, ‘चप्पा चप्पा चरखा चले…’, ‘एक सूरज निकला था…’, ‘ओ हमदम सुनियो रे…’ और ‘कजरारे कजरारे….’(जिसे ट्रकों के पीछे लिखे जुमलों को ध्यान में रखकर लिखा गया) जैसे एक से बढकर एक सदाबहार गीत लिखे. एस डी बर्मन, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, मदन मोहन, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, शंकर जयकिशन जैसे दिग्गज संगीतकारों से लेकर शंकर एहसान लॉय, विशाल भरद्वाज तक की धुनों पर गुलज़ार के अलफ़ाज़ उनके चाहने वालों को रुलाते, हंसाते, और नचाते गए. पंचम(राहुल देव बर्मन) गुलज़ार की जोड़ी अपने दौर में ‘हिट’ शब्द का पर्याय बन चुकी थी. घूमते फिरते कहीं भी पंचम धुन तैयार कर देते और गुलज़ार उस पर बोल चढ़ा दिया करते थे. अपने संस्मरण ‘पिछले पन्ने’ में संकलित ‘पोर्ट्रेट्स और मर्सिये’ में पंचम को याद कर गुलज़ार लिखते हैं-
याद है, बारिश का दिन पंचम
जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झाँक कर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थी
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
…….मैं धुंध में अकेला हूँ पंचम.
ऐसी ही जोड़ी नए दौर में ए.आर रहमान के साथ बनी और ‘जय हो..’ ने उन्हें ऑस्कर और ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित कराया. गुलज़ार के गीत अपने दौर की कहानी कहते हुए स्थायी से अंतरे की ओर बढ़ते हैं, यही उनकी विशेषता भी है. सिनेमा की इमेजिनरी भाषा में गुलज़ार ने अपने गीतों को कभी किरदार से बाहर नहीं निकलने दिया. उर्दू-हिंदी मिश्रित ‘हिन्दुस्तानी’ में गुलज़ार शब्दों को ऐसे घोल देते हैं मनो वे अभी भी वही कार मैकेनिक हैं जो जानता है कि एक्सीडेंटल कार को रंगने के लिए कितनी कितनी मात्र में किन किन रंगों का मिश्रण करने से कार की चमक लौट आएगी. दरअसल गुलज़ार शैलेन्द्र को गीतकारों में सर्वश्रष्ठ मानते हैं. इसलिए नहीं कि शैलेन्द्र के कारण गुलज़ार फ़िल्मी गीतों की तरफ आए थे बल्कि इसलिए कि शैलेन्द्र के गीतों की आमज़बानी का कोई सानी था. बड़ी से बड़ी बात शैलेन्द्र रोज़मर्रा की भाषा में कह जाते थे. जैसे- ‘दिल का हाल सुने दिल वाला, मीठी सी बात न मिर्च मसाला’. शैलेन्द्र गीतों में पोलिटिकल कमेन्ट भी बड़ी सरल भाषा में कर देते थे. गुलज़ार आज भी कहते हैं वे शैलेन्द्र की कुर्सी के बगल में खड़े हैं, उस पर बैठने की हिम्मत आज तक उनकी नहीं हुई. लेकिन फिर भी मानवीकरण की जो शैली गुलज़ार अपनाते हैं वे उनके नाम के साथ एक औहदा लगा देती है. गीतों में बिम्ब लगातार बोलते चले जाते हैं. ख़ासकर उनकी नज़्में, जो इस मामले में लाजवाब हैं. ज़रा इसे देखिये-
सरहद के रेगिस्तानों में
सांस दबा कर चलती है खामोश हवा
रेत ज़मीं से गर्दन घिस कर उडती है
सरहद पर सकता तारी है
सरहद की बर्फ़ाब सी ख़ामोशी से डर लगता है.
गुलज़ार के यहाँ ख़ामोशी की गूँज बहुत गहरी होती है. वे ख़ुद कहते हैं कि गीतों में मैं ख़ुद रोता हूँ, किसी को रुलाने के लिए नहीं लिखता. इसका कारण शायद मीरासी होने के कारण परिवार से उनकी बेदख्ली और फिर वैवाहिक रिश्ते की असफलता से पसरा अकेलापन है. यही अकेलापन उन्हें सालता है जिसका ज़िक्र उनकी कई नज्मों में मिलता है. जैसे-
जीने की वजह तो कोई नहीं
मरने का बहाना ढूंढता हूँ.
गुलज़ार ‘रात’ को बेहद अहम मानते हैं क्योंकि उनका मानना है कि आदमी रात में सबसे ज्यादा अकेला होता है. शायद इसी कारण उनके अधिकाँश गीतों और नज्मों में ‘रात’ के साथ दिल, चाँद, और धुंए से उनकी मोहोब्बत महसूस की जा सकती है. यहाँ तक की उनके प्रमुख संग्रहों में से कई नाम भी इन्हीं पर आधारित है- ‘रात पश्मीने की’, ‘चाँद पुखराज का’, ‘धुंआ’, ‘चौरस रात’ आदि.
गीतों के बाद फिल्म निर्देशन में जब गुलज़ार ने क़दम रखा तो सबको चौंकाया. इसकी प्रमुख वजह पूर्व में उनका बिमल रॉय और हृषिकेश मुख़र्जी जैसे निर्देशकों (जो स्वयं में संस्थान थे) का सहायक होना था. बेरोज़गारी के दर्द को उकेरती फिल्म ‘मेरे अपने’ से गुलज़ार ने फिल्म निर्देशन में अपने पाँव जमाए. अपने साहित्यिक लगाव को गुलजार ने फिल्मों के बीच छूटने नहीं दिया और शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ़ एररर्स’ पर आधारित ‘अंगूर’, क्रोनिन के उपन्यास पर आधारित ‘मौसम’ शरतचंद्र के ‘पंडित मोशाय’ पर ‘ख़ुशबू’ और राजकुमार मोइत्रा के बांगला उपन्यास पर ‘परिचय’ जैसी साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों के साथ आंधी, किनारा, नमकीन, माचिस, हूँ तू तू जैसी संजीदा फिल्में भी बनाई. ‘आनंद’ ‘गुड्डी’, ‘बावर्ची’ ‘नमक हराम’, ‘दो दूनी चार’ ‘ख़ामोशी’ जैसी फिल्में लिखकर गुलज़ार ने नया मुक़ाम हासिल किया. संजीव कुमार उनके पसंदीदा अभिनेता थे जिन्हें लेकर उन्होंने सर्वाधिक और यादगार फिल्में बनाई.
फिल्म निर्देशन से संन्यास के बाद ‘त्रिवेणी’ विधा के इस सर्जक ने गीतों के बदलते ट्रेंड में बड़ी आसानी से ख़ुद को उसका हिस्सा बना लिया. उनकी कलम का यही लचीलापन उनसे ‘बीड़ी जलई ले’ और हनी सिंह के लिए ‘रैप’ तक लिखवा लेता है. नई पीढ़ी संग काम करते हुए अपने गीतों में अदब के हिस्से को उन्होंने हमेशा बनाये रखा और फूहड़ता को कहीं आस पास भटकने तक नहीं दिया. शायरी, नज़्म को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर लोगों तक पहुँचाने वाले इस फ़नकार ने अपने दिल को बच्चा करके जब बच्चों के लिए लिखा तो ऐसा लिखा कि वे गीत पीढ़ी दर पीढ़ी धरोहर की तरह आगे बढ़ते गए. गुड्डी फिल्म का गीत ‘हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करे’ आज भी देशभर के विद्यालयों की प्रार्थना सभा में बच्चों को शक्ति देता है और मकड़ी फिल्म के ‘ओ पापड़ वाले पंगा न ले’ में यह शक्ति बच्चों को कमतर आंकने वालों को अंगूठा दिखाती है. मेरा दावा है कि मेरी पीढ़ी के युवा आज भी ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’ गीत नहीं भूले होंगे और न ही ‘लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा’ जैसा गीत ज़बान से उतरा होगा जिसे हम बड़ों के मुंह से सुनते और ख़ुद गुनगुनाते हुए बड़े हुए हैं. गुलज़ार भारतीय भाषाओँ में बच्चों के लिए बहुत बड़ा संसार देखते हैं. उनका कहना है कि हमारी भाषाओँ में जितना बाल सहित्य लिखा जाना चाहिए था उतना नहीं लिखा गया, बच्चों को उनकी दुनिया का साहित्य देना बेहद ज़रूरी है. शायद इसीलिए पिछले कुछ वर्षों से गुलज़ार की सक्रियता बच्चों के बीच में बढ़ी है. यह सच है कि बच्चों के लिए साहित्य सृजन सबसे मुश्किल और चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन जिस किसी ने गुलज़ार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, पटना लिटरेचर फेस्टिवल या अन्यत्र कहीं बच्चों संग बात करते देखा होगा वह बता सकता है कि कैसे उन्हें बौद्धिक मसालों की जटिल दीवारें तोड़कर बच्चों की काल्पनिक दुनिया में खेलने का हुनर आता है. अनेक सृजनात्मक कार्यों सहित विज्ञान के ‘चकमक’ जहान में ‘साल चढ़ने का ज़ीना है, पांव में पहला महिना है’ जैसी दो पक्तियां देकर बच्चों की जादुई नज़र बचाए रखने प्रयास वे लगातार कर रहे हैं. दरअसल गुलज़ार ने अपनी उम्र और काम के बीच कोई सरहद नहीं बनाई. शायद इसीलिए वे हर पीढ़ी के चहेते भी हैं. साहित्य समाज भले गुलज़ार को अपनाने में नाक भौं सिकोड़ता हो लेकिन आम जन ने उन्हें उनके सृजन के लिए ऐसी इज़्ज़त बख्शी कि गुलज़ार ‘गुलज़ार’ से ‘गुलज़ार साहब’ कहलाने लगे. गुलज़ार ने वीरान सफ़र में, आबाद नगर में, हर शहर में, हर पीढ़ी के लोगों के दिलों को अपने लेखन की रेंज से लगातार छुआ है और उम्मीद है ऐसे ही छूते रहेंगे. उन्हीं जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं.