मारियो वर्गास योसा के उपन्यास ‘बैड गर्ल’ की नायिका पर यह छोटा-सा लेख मैंने ‘बिंदिया’ पत्रिका के लिए लिखा था. जिन्होंने नहीं पढ़ा है उनके लिए- प्रभात रंजन.
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करीब छह साल पहले मारियो वर्गास योसा का उपन्यास पढ़ा था ‘बैड गर्ल’. पेरू जैसे छोटे से लैटिन अमेरिकी देश के इस लेखक को कुछ साल पहले साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला. कहा जाता है कि गाब्रियल गार्सिया मार्केस के बाद लैटिन अमेरिका के जीवित लेखकों में योसा का नाम सबसे कद्दावर है. इस लेखक को जिन उपन्यासों के कारण महान बताया जाता है ‘बैड गर्ल’ की गिनती उन उपन्यासों में नहीं होती है. मुझे खुद उस लेखक से प्यार हुआ था उनके उपन्यास ‘आंट जूलिया एंड द स्क्रिप्ट राइटर’ को पढ़कर. उसी उपन्यास की तरह ‘बैड गर्ल’ भी मूलतः आत्मकथात्मक उपन्यास जैसा लगता है. योसा ने १८-१९ साल की उम्र में अपनी करीब १२ साल बड़ी आंटी से शादी कर ली थी, जल्दी ही शादी टूट गई, ‘आंट जूलिया’ के रूप में योसा ने उसे विश्व साहित्य का एक अमर पात्र बना दिया. ‘बैड गर्ल’ भी एक आत्मकथात्मक उपन्यास जैसा लगता है. ‘आंट जूलिया की तरह इसकी कहानी भी शुरू होती है 1950 के दशक में पेरू की राजधानी लीमा से, जब ‘बैड गर्ल’ के नायक रिकार्डो की तरह लेखक मारियो वर्गास योसा भी जवान थे, जब उनकी मुलाकात हुई थी लिली नाम की उस लड़की से जो जब नाचती थी तो लीमा के युवा हैरत से देखते थे, लड़कियां ईर्ष्या से. ‘आंट जूलिया’ की तरह यह ‘लिली’ भी याद रह जाती है, जिसे लेखक उपन्यास में आगे चलकर बैड गर्ल के नाम से याह करता है.
आखिर में जब वह रिकार्डो के पास आती है और बताती है कि नाइजीरिया के जेल में उसके साथ बहुत बुरा हुआ. वह टूट चुकी है तो रिकार्डो उसे सहारा देता है. और लगने लगता है कि इस प्रेम की कहानी ख़त्म होने वाली और जीवन शुरू होने वाला है कि बैड गर्ल टॉलस्टॉय की नायिका अन्ना करेन्निना की तरह ग्लानि का अंत चुनती है. एक नजर में देखने पर यह उपन्यास स्त्री विरोधी प्रतीत होने लगता है. एक ऐसी स्त्री जो अति महत्वाकांक्षा से ग्रसित है, जिसे भौतिकता के अलावा कुछ भी नहीं पसंद. जो जीवन में भौतिक सुख को पाने के लिए समाज के सारे बन्धनों को तोड़ती चली जाती है, उनसे मुक्त होती चली जाती है.
लेकिन यह सवाल मेरे मन में बना रह जाता है कि आखिर वह रिकार्डो से मुक्त क्यों नहीं हो पाती है, एक साधारण अनुवादक, लेखक रिकार्डो से. असल में मुझे लगता है कि इसी सवाल के जवाब में इस उपन्यास की प्रासंगिकता छिपी हुई है. यह अलग बात है कि उपन्यास में बैड गर्ल बार-बार पुरुष क्रूरता का शिकार होती है, लेकिन यह स्त्री मुक्ति या पुरुष दमन की कहानी नहीं है. असल में मुझे लगता है कि इस कहानी के माध्यम से योसा समकालीन समय में स्त्री का जीवन और संबंधों की सार्थकता पर विचार करना चाह रहे हैं. असल में लिली के लिए रिकार्डो वह आईना है जिसमें वह अपनी सच्ची छवि देखती है. वह छवि जिसे वह खुद भी भूल चुकी है, और चूँकि लिली को वह सच दिखाई दे जाता है जिसे वह पा नहीं सकती, यही छटपटाहट उसे बार बार रिकार्डो से दूर ले जाती है.
वह जानती है कि इतने पुरुषों में एक रिकार्डो ही है जो उससे सच्चा प्यार करता है, जो उससे प्यार के बदले में कुछ चाहता नहीं है. बाकी सभी पुरुषों के लिए वह उपभोग का ‘सामान’ है, जबकि एक रिकार्डो ही है जो उसे प्यार करता है. भौतिकता के इस उत्तर आधुनिक चरण में सच्चा प्यार गुम होता जा रहा है. सच्चे प्यार की तलाश है लिली का चरित्र और सच्चा प्यार हमेशा आदर्श होता है, कभी उसे पाया नहीं जा सकता, तभी तो रिकार्डो और बैड गर्ल बार-बार मिलकर भी नहीं मिल पाते. आखिर में सहारा देकर उस लड़की के प्रति रिकार्डो अपना सच्चा प्यार दिखाता है, और बैड गर्ल अपने जीवन के आखिर में सब कुछ उसके नाम कर देती है.
समकालीन जीवन सन्दर्भों में अपनी पहचान तलाशती यह नायिका याद रह जाती है. समाज में जब कोई औरत अपनी पहचान बनाने निकलती है तो उसको बैड(बुरी) ही कहा जाता है. बैड गर्ल तुम भुलाये नहीं भूलती हो!
5 Comments
aaj ke jeevan sandarbhon me bahar nikalne wali her ladki ko apni aazadi aur anusasan swayan chunana hoga.
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