श्री अशोक वाजपेयी का यह ईमेल हमें प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने ‘प्रतिलिपि बुक्स’ को लेकर कुछ बातों को स्पष्ट किया है. प्रतिलिपि के निदेशक युवा कवि-कल्पनाशील संपादक गिरिराज किराडू हैं. यह लोकतांत्रिकता का तकाजा है कि हम वरिष्ठ कवि-आलोचक-संपादक अशोक वाजपेयी के उस ईमेल को अविकल रूप से सार्वजनिक करें. पिछले इतवार को ‘जनसत्ता’ संपादक ओम थानवी ने रजा फाउंडेशन से वित्तीय मदद को लेकर कुछ बातें लिखी थी. यह मेल एक तरह से उन बातों की पुष्टि करता है. फिलहाल अशोक वाजपेयी का ईमेल- जानकी पुल.
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श्री ओम थानवी से सुनने-समझने में चूक हुई है. श्री गिरिराज किराडू ने रजा फाउंडेशन से वित्तीय सहायता मांगी थी पर अपनी पत्रिका के लिए नहीं. वे अपने प्रकाशन से कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के लिए फाउंडेशन से वित्तीय सहायता का आग्रह करने के लिए मुझसे मिले थे. हम उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर सके. फाउंडेशन ने इण्डिया हैबिटेट सेंटर द्वारा आयोजित भारतीय भाषा साहित्य समारोह ‘समन्वय’ को तीन लाख रुपये की मदद उनके और श्री सत्यानन्द निरूपण के आग्रह पर की. इसके अलावा फाउंडेशन ने दिल्ली विश्वविद्यला के हिंदी विभाग को रामविलास शर्मा जन्मशती पर परिसंवाद के लिए एक लाख रुपये, खोज इंटरनेशनल को युवा कला-छात्रों को आवास वृत्ति के लिए तीन लाख रुपये, पटना में आलोचना पर दो दिनों के परिसंवाद के लिए ‘पुनश्च’ को एक लाख रुपये, नाट्यकुल जयपुर को काव्लम नारायण पणिक्कर पर परिसंवाद के लिए एक लाख रुपये, कलालोचक रिचर्ड बार्थोलोम्यु की अंग्रेजी कला समीक्षा के संचयन ‘द आर्ट क्रिटीक’ के प्रकाशन के लिए पांच लाख रुपये, सीगल कोलकाता द्वारा प्रकाशित लिंडा हेस की कुमार गन्धर्व के कबीर गायन पर पुस्तक ‘सिंगिंग एम्प्टीनेस’ में उनके गायन के सीडी के लिए एक लाख रुपये, ओसियान फिल्म समारोह में मणि कॉल की फिल्मों के पुनरावलोकी खंड के लिए पांच लाख रुपये, ‘सहमत’ को मंटो-कैलेण्डर के लिए एक लाख रुपये, कृत्या न्यास त्रिवेंद्रम को अंतर्राष्ट्रीय कविता समारोह के लिए एक लाख रुपये, बंगलौर के ‘बार १’ को रेजीडेंसी के लिए एक लाख रुपये, शिल्पकार शक्त मैरा के अंतरराष्ट्रीय परिसंवाद के लिए ढाई लाख रुपये की यथासाधन सहायता दी है. रजा फाउंडेशन अपने महान कलाकार-संस्थापक की इच्छा के अनुरूप अपनी विचार दृष्टि पर निष्ठा रखते हुए उसके एकाधिपत्य के, किसी वैचारिक या दृष्टिगत छुआछूत के विरुद्ध है: उसका वैचारिक बहुलता में गहरा और अटल विश्वास है. उसने सारी सहायता बिला शर्त और बिना किसी वैचारिक आग्रह के सहज भाव से दी है. भविष्य में भी उसका यही करने का इरादा है.
श्री गिरिराज किराडू और श्री अशोक कुमार पाण्डेय के निमंत्रण पर मैं ग्वालियर में उनके द्वारा आयोजित ‘कविता समय’ में भाग लेने गया था. उनके उत्साह और वहां उपस्थित युवा लेखकों को देखकर मैंने फाउंडेशन की ओर से एक लाख रुपये की सहायता देने का प्रस्ताव किया था जिसे उन्होंने वहीं अस्वीकार कर दिया था. ‘कविता समय’ के दूसरे अधिवेशन में इन्हीं बंधुओं ने फिर जयपुर आमंत्रित किया जिसमें मैं नहीं जा पाया. याद यह भी आता है कि वर्षों पहले उस वर्ष के निर्णायक के रूप में मैंने ही श्री गिरिराज किराडू की कविता भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए चुनी थी.
10 Comments
अशोक वाजपेयी साहब से एक सवाल
ओम थानवी- गिरिराज किराड़ू लंबी बहस प्रकरण में रज़ा फ़ांउडेशन, अशोक वाजपेयी का नाम आने पर अशोक वाजपेयी ने जानकीपुल को भेजे अपने ई मेल में अपने द्वारा लाभान्वित, उपकृत किए गए कुछ चुने हुए नाम, संस्थाओं की सूची जारी की। वाजपेयी साहब बरसों से जिन संस्थाओं,संस्थानों के आका रहे हैं, मनचाहा देने का अधिकार रखते थे, उसे देखते हुए यह सूची उनके कद- पद को देखते हुए बहुत ही छोटी लगती है।
सवाल यह है कि इस प्रकरण में प्रकरण से जुड़े पक्ष के अलावा अन्य नामों को गिनाने की आवश्यकता क्या थी..तो क्या सूची में उल्लेखित नाम, संस्थाएं भी गिरिराज की तरह उनके कुछ खिलाफ़ हो गए थे, अगर नहीं तो वे उन सारे नामों को सामने क्यों नहीं लाए जिन्हें उन्होंने आज तक किसी न किसी रूप लाभ पहुंचाया या पुरस्कार दिलाया है………..क्या इससे नहीं लगता कि ईमानदारियों और बेईमानियों दोनों के ही अपने- अपने दिखाने- छिपाने वाले सच- झूठ होते हैं 🙂
kya ye aisa nahi lagta ki hamare sarvjanik jeevan me jo bhratachar ka samavesh hua hai , ye usi ka sahityik kshetra me EXTENTION hai .puraskar anudaan vittiya sahayata ye sab pratyaksh ya paroksh roop se rishvat nahi hai kya !
kya ye aisa nahi lagta ki hamare sarvjanik jeevan me jo bhratachar ka samavesh hua hai , ye usi ka sahityik kshetra me EXTENTION hai .puraskar anudaan vittiya sahayata ye sab pratyaksh ya paroksh roop se rishvat nahi hai kya !
वीरेंद्र यादव, मोहन श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, शिरीष कुमार मौर्य, सत्यानन्द निरुपम रह गये … यदि उनका नैतिक समर्थन भी मिल जाये?
यह वक्तव्य अखबार में लगाए गए आरोप का स्पस्ट रूप से खंडन करता है .न की पुष्टि . अशोक जी इस साफगोई के लिए बधाई के पात्र है।रज़ा फ़ाउन्देश्न के कुछ वैचारिक आग्रह हों भी ,जैसे कि सब के होते हैं , तो भी उस की धर्मनिरपेक्षता पर संशय नहीं है . यह संस्था संविधान के स्वीकृत मूल्यों के दायरे के बाहर नहीं है . लेकिन मनसे से सम्बन्धित किसी संस्था के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती . 'कभी कभार 'में अशोकजी ने यह भी माना है कि अगर उन्हें किसी संस्था के साम्प्रदायिक चरित्र की जानकारी हो तो वे उस के कार्यक्रमों में शरीक होने से परहेज करंगे . इस से जाहिर है कि ''परचम '' में उनकी भागीदारी को ले कर जो सवाल उठाये गए थे , वे निराधार न थे . यानी उन्हें पता होता कि परचम का मनसे से कोई सम्बन्ध है तो वे शायद वहाँ न जाते !कभी कभार की उन की टिप्पणी में विरोधाभास यह है कि वे यह भी कहते हैं कि कहीं जाने से पहले वे उस संस्था के चरित्र की खोजबीन नहीं करते .लेकिन अगर वे साम्प्रदायिक sansathaaon से parhej करते हैं तो उन्हें खोजबीन क्यों नहीं करनी , चाहिए यह समझ में नहीं आता.
जब तक कोई 'आग्रह' औपचारिक प्रस्ताव या आवेदन के रूप में किसी पंजीकृत संस्थान के समक्ष प्रस्तुत नहीं होता, तब तक उस संस्थान से जुडे किसी व्यक्ति का उस पर सार्वजनिक रूप से बयानबाजी करना अपने आप मे बहुत गैर-जिम्मेदाराना बरताव है और इससे साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के गिरते नैतिक स्तर को ही उजागर करता है। वैसे भी अशोक जी जिस तरह रजा फाउंडेशन की ओर से सहायता बांटने का जिक्र किया है, उसमें उनका 'दाता भाव' और लाभान्वितों की 'दीनता' ही उजागर होती है, क्या जरूरी है भाई, अगर आर्थिक जुगाड़ नहीं है तो मत करो आयोजन, जितना गांठ में है उसी से काम चलाओ, इस तरह सार्वजनिक रूप से लज्जित होने से तो बेहतर है, चन्दा करके रजा फाउण्डेशन की इस दातारी से उॠण हो लें।
जानकीपुल पर अशोक वाजपेयी का यह जो ईमेल छपा है उसने यह तो सिद्ध कर दिया कि ओम थानवी ने 'थोक खरीद के लिये आवेदन करने' का जो आरोप लगाया था वह गलत था। अगर उनमें कोई नैतिकता हो तो उन्हें अपने अख़बार में भूल सुधार और खेद व्यक्त करना चाहिये। इस ईमेल में अशोक वाजपेयी ने जो कहा है कि 'वे अपने प्रकाशन से कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के लिए फाउंडेशन से वित्तीय सहायता का आग्रह करने के लिए मुझसे मिले थे. हम उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर सके.' वह भी गलत है। प्रमाण मैं जारी करूंगा। इंतजार कीजिये क्यूंकि जनसत्ता के कारण यह मामला एक ऐसे पाठक समूह के भी सामने है जो सब यहाँ इंटरनेट पर नहीं है। जिन मित्रो ने मुझपे भरोसा जताया है वे बनाये रखें उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।
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