आज मैंने तहलका.कॉम पर युवा लेखक गौरव सोलंकी का ‘पत्र’ पढ़ा. पढकर दिन भर सोचता रहा कि आखिर हिंदी के एक बड़े प्रकाशक ने, जिसने पिछले ७-८ सालों से हिंदी की युवा प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रशंसनीय अभियान चला रखा है, युवा लेखकों की पहली पुस्तकों को न केवल प्रकाशित करता है बल्कि उनको ‘नवलेखन’ पुरस्कार भी देता है, क्यों एक युवा लेखक की प्रतिभा को सुनियोजित रूप से ‘क्रश’ करने का सुनियोजित षड्यंत्र किया? यह एक छोटी-सी घटना लग सकती है जो संयोग से हिंदी समाज के एक बड़े ‘संकट’ की ओर इशारा करती है. आज भी हिंदी में न सम्मान प्रतिभा से मिलते हैं न ही पुस्तकें अपने ‘मेरिट’ पर छपती हैं. गौरव सोलंकी के साथ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा किया गया व्यवहार इसका सबसे ताजा उदाहरण है. पहले संस्थान उसे ‘नवलेखन पुरस्कार’ देती है कविता के लिए, उसके कथा-संग्रह को प्रकाशित करने के लिए ज्यूरी संस्तुत करती है, लेकिन बाद में उसका कहानी संग्रह इस आधार पर नहीं छापा जाता है कि उसमें कुछ ‘अश्लील’ है, कि वह अश्लील लिखता है. गौरव सोलंकी ने अपने पत्र में वाजिब सवाल उठाया है कि आखिर अश्लीलता को लेकर ज्ञानपीठ का दोहरा मानदंड क्यों है. जब संस्थान की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में लेखिकाओं के बारे में ‘छिनाल’ शब्द छपता है तब भारतीय ज्ञानपीठ के आकाओं को उसमें कोई अश्लीलता नहीं दिखती, दिखाई देती है गौरव सोलंकी की कहानी में, जो पहले नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हो चुकी है. शायद भारतीय ज्ञानपीठ के लिए नया ज्ञानोदय के लिए अश्लीलता के मानदंड अलग हैं और पुस्तकों के लिए अलग!
यह घटना इस बात का उदाहरण भी है कि पुरस्कार देने वाले संस्थान ज्यूरी का कितना सम्मान करते हैं? गौरव ने अब ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार की बात उठा ही दी है तो लगे हाथ चर्चा इस पर भी हो जानी चाहिए कि हिंदी में लेखन के नाम पर पुरस्कार कितने मनमाने ढंग से दिए जाते हैं. एक तरफ यह कहा जाता है कि यह हिंदी में युवा प्रतिभाओं के विस्फोट का काल है दूसरी ओर एक ही लेखक को एक ही संस्थान से कई-कई पुरस्कार मिल जाते हैं. एकाध नामों का उल्लेख गौरव ने अपने तथाकथित पत्र में किया भी है. खुद गौरव को भी कविता संग्रह पर ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिला और उसके कहानी संग्रह को ज्यूरी ने छापने के लिए संस्तुत किया. वह भी एक ही साल. नहीं, मैं गौरव की प्रतिभा पर संदेह नहीं कर रहा, न कुणाल की प्रतिभा पर मैंने कभी संदेह किया. और तो और कभी उस पंकज सुबीर की प्रतिभा पर भी कभी संदेह नहीं किया जिनको भी यह पुरस्कार दो बार मिल चुका है. सच कहूँ तो मैंने उनको कभी पढ़ने लायक भी नहीं समझा. न, यह मेरा अहंकार नहीं है, पसंद-नापसंद का मामला समझ लीजिए. मुझे ऐसे लेखक अधिक नहीं सुहाते जो अपने लिखे एक-एक शब्द को स्वर्णाक्षरों में दर्ज किए जाने लायक समझते हैं, और इसलिए हमेशा अपने प्रचार-प्रसार में लगे रहते हैं.
नहीं मैं मूल विषय से भटक नहीं रहा हूं, बल्कि यह लिखने का प्रयास कर रहा हूं कि पिछले ५-६ सालों में भारतीय ज्ञानपीठ का संस्था के रूप में कितना पतन हुआ है. कभी भारतीय ज्ञानपीठ को भारतीय साहित्य का मानक माना जाता था, अब वह ‘साधकों’ की शरणस्थली बनता जा रहा है. जिन प्रसंगों की तरफ भाई गौरव सोलंकी ने इशारा किया है वह उसके पतन की शर्मनाक होती जाती गाथा का एक छोटा-सा नमूना भर है.
बहरहाल, गौरव सोलंकी ने अपनी किताबें वापस लेने के साथ नवलेखन पुरस्कार भी लेने से मना कर दिया है. ऐसे समय में जब हिंदी के छोटे-छोटे पुरस्कारों के लिए हमारे बड़े-बड़े लेखक छोटे-छोटे तिकडमों में लगे रहते हैं, एक युवा लेखक ऐसा है जो उसको ठुकराने का साहस रखता है. जिस भाषा में युवा लेखक अपनी किताबें छपवाने के लिए तरह-तरह के पापड़ बेलने को तैयार रहते हैं, उसी भाषा में एक युवा लेखक है जो अपनी किताब वापस लेने से तनिक गुरेज नहीं करता, २५००० का पुरस्कार ठुकरा देता है. भाई गौरव अपने साहस से डिग मत जाना. तुम्हारे इस साहस में हिंदी समाज की बेहतर संभावनाओं के बीज छिपे हैं.
23 Comments
gaurav facebook par kunal ke khilaf aaye har comment ko like kar rahe hain, lekin jab unse ye saawl poocha jata hai ki pehle jab kunal aur unki dosti ki gaatha jagjahir thi aur jab ye unke naam par khel rahe the tab ye puraskar kyon nahi thukraya gaya. ab ye kaisi kranti hai, ye to swarth hua. aur dekha jaye to dono swarthi hain, niji ranjish nikalni thi to koi naya tareeka ijaad karte. ye koi tareeka nahi, dono hi doshi hain is mamle mein aur log ise tool de kar in dono doshiyon ko badhava de rahe hain.
Ayn Rand- "Individual rights are not subject to a public vote; a majority has no right to vote away the rights of a minority; the political function of rights is precisely to protect minorities from oppression by majorities (and the smallest minority on earth is the individual). | The Virtue of Selfishness.
Gaurav has returned his prize not of society and it was to save his self-respect and for his truth. Think about it would you ever be able do this to save your self-respect. There are two types of selfish people. One is like Gaurav who did this to show the world that i am writer not because of anyone of the society but for myself and I feel that any honest artistic person always write for himself. You ask any great writer (Answer will be same "he writes for himself. You just happen to like him).
Second types of selfish persons are who can do anything to get fame. Gaurav could have just pampered them and could have got his two book published and “Nav lekhan Purskar” and what else you could ask but he returned the Purskar because in the course of time he found the authority is not just.
Do you know about this person? He is an IIT graduate and was considered as one of the best minds in the class (an IIT class). Left the plush job against his family wishes where he could have been earnings in lacs (per month), Now a full time writer (It was not done for you and not for anyone in the society, he did for himself.)
Mr Pushkar find any person of this caliber who has achieved so much in his age (25 years). Leave this find any person who is in full time writer in Hindi (Ohh you are reader only how you can bother how much any person can earn from Hindi writing).
I feel pity on you that you have said this about a person who has given so much to Hindi literature.
Salute to Gaurav who has always followed to his heart.
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व्यक्तिगत लालसा को क्रांति का नाम न दें
मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं. लेकिन साहित्यिक विषयों में थोड़ी बहुत अभिरूचि है. यदि मेरी जानकारी ठीक है तो क्या आपलोग उसी गौरव सोलंकी को क्रांतिकारी घोषित तो नहीं कर रहे हैं जिन्होंने साल 2010 में विभूति छिनाल मामले में संबंद्ध लेखिका का साथ न देकर माननीय कालिया जी और भारतीय ज्ञानपीठ का साथ दिया था जहां से उन्हें साहित्य का सितारा बनाया जाना था.
यदि मेरी जानकारी और यादाश्त सही है तो उस समय गौरव ने पूरे मामले पर चुप्पी साध ली थी. और न केवल चुप रहे थे बल्कि कालिया जी के राजकुमार कुणाल सिंह द्वारा बनाए गए ब्लॉग 'भाषा सेतु' पर उनके पक्ष में हस्ताक्षर भी किया था. अगर उस पुरानी पोस्ट को आप देखेंगे तो हकीकत सामने आ जायेगी.
मेरा सवाल इतना भर है कि इस बाल निर्मल बाबा को मंटो औऱ क्रांतिकारी का तमगा देने के लिए आपलोग क्यों व्याकुल हो रहे हैं. क्या वाकई में आपलोगों की यादाश्त इतनी कमजोर है ?
गौरव सोलंकी ने अपने पत्र में सवाल उठाया है कि जब छिनाल अश्लील नहीं है और उसे छापने पर ज्ञानपीठ को अफसोस नहीं है तो प्रश्न तो ये भी है कि उस समय आपने लेखिका का साथ न देकर, नारीवादी विचारों का साथ न देकर कालिया का साथ क्यों दिया ? उस समय आपकी सोच कहाँ चली गयी थी ?
मेरा मानना है कि गौरव सोलंकी ने कभी भी मुद्दो पर आधारित विरोध और समर्थन का साथ नहीं दिया है, सिर्फ अपने स्वार्थ की चिंता की है और अब भी वो वही कर रहे हैं.मेरी आपलोगों से विनती है कि ऐसे महानुभाव की व्यक्तिगत लालसा को क्रांति का नाम न दें.
मेरा सवाल है कि क्या इतने सालों से मुंह में दही जम गयी थी.अगर भारतीय ज्ञानपीठ ने यह काम पहली बार नहीं किया है तो गौरव सोलंकी ने भी कोई पहली बार स्वार्थी होने का परिचय नहीं दिया है. इस लेख में ही देखिए नामवरजी की कैसी मालिश की गयी है. जानकी पुल में आयी कई टिप्पणियों में से एक टिप्पणी में सही ईशारा किया गया है. (shashiMay 13, 2012 1:34 PM. कुनाल का मामला इस आधार पर भी उठाया जाना चाहिए कि वो ज्ञानपीठ में काम करते हैं. फिर उन्हें पुरस्कार कैसे मिला. इसके लिए पूरी जूरी दोषी है और उसे बर्खास्त किया जाना चाहिए. एक बात और इस मामले में कवियत्री अनामिका को भी बोलना चाहिए. उनकी किताब से तीन कविताएँ इस आधार पर हटा दी गईं कि वे कथित रूप से अश्लील थीं.)
नया ज्ञानोदय का पुराना पाठक
गौरव भाई के स्टैंड का समर्थन करता हूँ। उन्होंने ऐसा करके साहस दिखाया है और उन्हें इस पर कायम रहना चाहिए। पर यहाँ मैं इस ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसी संस्थाओं ने किस प्रकार के और किस प्रवृत्ति के साहित्य को प्रोत्साहित किया है। कैसे लोग ये संस्थाएं चला रहे हैं। कौन लोग चंद रुपयों के लिए सेठों की हाँ में हाँ मिला रहे हैं और उनके फैसलों को साहित्यिक जूरियों का फ़ौसला बता रहे हैं। जिस बाज़ारवाद का-जिस प्रचारवाद का साहित्य में सिरे से विरोध किया जाना चहिए क्या वही साहित्य पूँजी पतियों की गोद में बैठ कर लिखा जा सकता?
गौरव कि भाषा और प्रस्तुति से बेहद प्रभावित था मैं , बहुत अच्छा लिखते रहें हैं ये …… लेकिन जब से लोधी-रोड ने इन्हे अपनी "जन्नत" मे शामिल किया है तब से बहुत कम लिखना हो रहा था ….. अब इस मुद्दे का असल कारण तो नहीं पता लेकिन फ़िलहाल गौरव को बधाई …वापस आ जाओ … नवलेखन का मालिश-लेपन बहुत हुआ …. मठ तोड़ने ही होंगे
Prem Chand Gandhi ke bayan par mere bhi hastakshar…
गौरव का पत्र अभी पढ़ा. तीन दिन से मेरा कंप्यूटर ख़राब था, इसलिए इस प्रकरण पर अपडेट नहीं था. कालिया का यह व्यवहार तो अपराध है, जिसकी न केवल भर्त्सना की जानी चाहिए, उन्हें दंड दिया जाना चाहिए. ये वही कालिया हैं जिन्होंने इलाहाबाद में धर्मवीर भारती के खिलाफ शैलेश मटियानी को लड़वाया, जब कि मटियानी जी ने ही उन्हें आड़े समय में मदद की थी. मटियानी जी जब मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गए तो यही कालिया भारती से मिल गए. अंतिम दिनों में मटियानी जी की स्थिति के लिए कालिया भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. कौन नहीं जानता कि कुणाल सिंह क्या हैं ? अच्छी कहानियां लिखना एक संयोग हो सकता है. मगर बेहतर इन्सान संयोग से नहीं बन सकता. कहानी भी आदमी क्यों लिखता है? क्या सिर्फ साहित्यिक कलाबाजी के लिए? साहित्य अगर आपको एक अच्छा इन्सान बनाने की दृष्टि नहीं दे सका है तो उसमें और एक गंदे कागज के टुकड़े में क्या फर्क है ? जरा-सा स्वार्थ के लिए अपनी आदमियत की बलि दे दोगे तो कितने दिन टिक पाओगे भाई, साहित्य में ही नहीं, जिंदगी में भी. गौरव सोलंकी को मैं दिल से सलाम करता हूँ. उनके पत्र को पढ़कर लगा, एक भव्य साहित्यिक संसार उनके स्वागत के लिए खड़ा है.
और हाँ कुनाल का मामला इस आधार पर भी उठाया जाना चाहिए कि वो ज्ञानपीठ में काम करते हैं. फिर उन्हें पुरस्कार कैसे मिला. इसके लिए पूरी जूरी दोषी है और उसे बर्खास्त किया जाना चाहिए. एक बात और इस मामले में कवियत्री अनामिका को भी बोलना चाहिए. उनकी किताब से तीन कविताएँ इस आधार पर हटा दी गईं कि वे कथित रूप से अश्लील थीं.
गौरव ने साहस दिखाया है, लेकिन मैं वही कहूँगा जो रामजी यादव ने कहा, आप किसी की गोद में बैठते हैं तो आपको शिकायत करने का भी अधिकार नहीं है. फिर भी मामला चूँकि लेखक की अस्मिता और स्वाभिमान का है इसलिए मैं गौरव के साथ हूँ. गौरव कुनाल के गहरे दोस्त रहे हैं, रात में दारु पीकर गाली देना अब उन्हें बुरा लग रहा है, पहले नहीं लगा, जहाँ तक अशलीलता का सवाल है तो मुझे नहीं लगता की मामला वो है. इसके पीछे कहानी कुछ और है जिसे समझना पड़ेगा. गौरव खुद कह रहे हैं की जिस कहानी को अश्लील बताया गया वो उन्होंने हटा दी थी. फिर दिक्कत क्या थी? गौरव अभी बनते हुए लेखक है, वे अभी ठीक से लेखक बने भी नहीं हैं. बड़बोलापन भी उनमे बहुत है. इस सबके बावजूद इस मामले में मैं उनका समर्थन करता हूँ.
बस ये कहूंगा कि गौरव सोलंकी ने खुश कर दिया है।
भाई प्रभात इतना गुस्सा और उम्मीद दोनों ही आगे चलकर अर्थहीन होने लगते हैं । लेकिन यह देखे जाने की ज़रूरत है कि ऐसे संस्थान किस तरह के लेखन को बढ़ावा दे रहे हैं और किस तरह के लेखन को नकार रहे हैं ? और इसके पीछे उनके निहितार्थ क्या हैं ? मुझे याद है पिछले एक-डेढ़ दशक में इन संस्थानों ने ऐसे युवा लेखकों के क्लोन तैयार किए हैं जो राजनीति और विचार विरोधी हैं और अपने नाम के लिए कुछ भी कर सकते हैं । वास्तव में ये लोग अपने पूर्ववर्तियों की महत्वाकांक्षाओं के शिकार बनाए गए और इनका आधा-अधूरा विकास हुआ । स्वयं गौरव भी इसी का नमूना है । उसने उनको रास आनेवाली भाषा और कथानकों को अपने लिए मुफीद माना और सराहना पाई । जिन्हें भी हिन्दी कहानी का इतिहास और विस्तार पता है वे जान सकते हैं कि उसका मूल स्रोत कहाँ है । फिर भी ज्ञानपीठ का व्यवहार उसके प्रति अपमानजनक है और मैं इसकी भर्तस्ना करता हूँ । लेकिन एक बात ध्यान रखिए कि जब एक बार आप किसी की गोद में जाकर बैठते हैं तो उसका व्य्वहार आप नियंत्रित नहीं कर सकते । बेहतर यही है कि अपने पाँवों पर ही खड़े रहिए ।
यह मामला कम से कम अश्लीलता का तो नहीं है, कहना चाहिये कि मसला कुछ और है, जिसे अश्लीलता के नाम पर निपटाया जा रहा है। यह बेहद दुखद है और इससे आने वाले समय की भयावह आहटें सुनाई दे रही हैं।
प्रभात जी,सच तो ये है कि आज पुरूस्कार एक मजाक सा हो गए हैं इन लेखकों और रचनाओं को प्रकाशक ,स्वयं पुरूस्कारदेयक संस्थाएं और उनके कुछ 'प्रसंशक भले ही महिमा मंडित कर दें,लेकिन जैसे मन्नू जी,कृष्णा सोबती,आदि के समय में पुरुस्कारों का जो महत्व और गरिमा थी आज नहीं है |जहाँ तक गौरव सोलंकी का सवाल है सच ये है कि लेखकों की भीड़ में गौरव सोलंकी उन पांच दस लेखकों में स्थान रखते हैं जिन्हें वास्तव में नई पीढ़ी के लेखकों में पाठक ही नहीं बल्कि नामी लेखकों द्वारा भी पसंद किया जाता है |वे स्वनाम धन्य लेखकों की जमात से अलग हैं |गौरव सोलंकी का लेखन किसी पुरूस्कार का मोहताज नहीं ,बगैर पुरूस्कार और महिमा मंडन के भी उनकी किताबें,रचनाएँ भविष्य में ''बेस्ट सेलर''होने का माद्दा रखती हैं |
यह व्यक्ति बनाम व्यक्ति का मामला तो निस्संदेह नहीं है. पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि इस संस्था में किसी पद पर बैठा कोई व्यक्ति इतना प्रभावशाली है, जो तमाम तरह की गडबडियां करने/करवाने में समर्थ है. यह पूरी कथा सामने आनी चाहिए. पहले भी इनके पुरस्कारों को लेकर कुछ दुरभिसंधियों की दुर्गंधभरी ख़बरें चलती रही हैं. गौरव ने हिम्मत दिखाई है, उतनी जितनी के लिए आम तौर पर हिंदी का लेखक नहीं जाना जाता. इस नौजवान लेखक को सलाम !
मुझे इस पूरे घटनाक्रम के बारे में कुछ नहीं पता था..इसके बारे में पता चलना फिर से उसी समस्या की तरफ ध्यान जाना है जिसे बहुत समय से मैं प्रकाश में लाने का सोच रही थी हिंदी लेखक, उनकी स्थिति और पुरस्कारों की राजनीति। गौरव का ये कदम बेशक स्वाभिमान की कसौटी पर खरा उतरता हो लेकिन हिंदी के लेखकों को खासकर युवा लेखकों को किस तरह इससे मुक्ति मिलेगी इसके बारे में हमें तत्काल क्रिया से सोचना होगा…लेखक इतने भी व्यर्थ नहीं है जितना कि कभी समाज और कभी राजनीति उन्हें बना देती है
गौरव सोलंकी बनाम भारतीय ज्ञानपीठ प्रकरण में 'क्या सही, क्या गलत' का मामला आगे जो भी मोड़ ले, मैं सिर्फ यह समझना चाहता हूँ कि आखिर एक लेखक जिसे प्रकाशन पहले भरपूर मौके उपलब्ध कराता है, बाद में उसे इस हाल में क्यों ला खडा कर देता है कि वह लेखक पुरस्कार लौटा देता है और अपनी छपी- अनछपी (दोनों अनुबंधित) किताबों का प्रकाशनाधिकार वापस लेने की सार्वजानिक घोषणा करता है.
मैं इस मामले को व्यक्ति बनाम व्यक्ति के रूप में नहीं देख पा रहा. मैं इसे प्रकाशन संस्था बनाम लेखक के रूप में समझना चाहता हूँ.
प्रभात भाई आपकी यह टिप्पणी पढकर हमारे उच्च मूल्यों के पोषक समझे जाने वाले हिन्दी साहित्य समाज पर की गई इसी समाज के एक महत्त्वपूर्ण लेखक संजीव का एक बयान स्मरण हो आया है,"अब चूंकि ज्यादातर पुरस्कार पद, पहुंच और संभवत: पार्टी(दारु आदि की भी, राजनीति की भी) और अन्य कारणों से अंजाम पाते हैं, मात्र उत्कृष्ट लेखन से नहीं। सो गांव, देहात, छोटे कस्बे और शहरों के लेखक या बिना पहुंच के लेखक उस सूची में आ ही नहीं पाते। दूसरी ओर ढेरों पुरस्कारों के घूरे पर बैठे महालेखकों का लेखन आज कहां है, पता भी नहीं चलता।" -संजीव(समकालीन साहित्य समाचार- जन.98-)
गौरव एक जागरूक और सवेंदनशील रचनाकार है, प्रकाशक जिस तरह युवा लेखकों की प्रतिभा का दोहन करते हैं वह किसी से छिपा नहीं है पर आगे आ कर आवाज़ उठाने की हिम्मत विरले ही कर पाते हैं, मैं पिछले कई सालों से गौरव के रचनाशीलता की गवाह रही हूँ और आज उसकी इस आवाज़ में उसे साथ हूँ
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