‘उमस के समीकरण’ कहानी लिखी है ज्योत्स्ना मिश्रा ने। ज्योत्स्ना मिश्रा पेशे से चिकित्सक हैं और कथाओं के रंगमंच की कलाकार भी। उनकी यह कहानी कई स्तरों की ओर इशारा करती है चाहे वो आज के जमाने में सोशल मीडिया का प्रभाव हो, विवाहेतर संबंध हो, प्रेम के नाम पर दिया जा रहा भ्रम हो या स्त्री को एक शरीर से इतर कुछ भी न देख पाने का मनोविज्ञान हो। आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी
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खिड़की खुली रखना मजबूरी थी, साँकल लगती ही नहीं थी। जून का महीना था पूरी-पूरी दोपहरी उमस ठिठकी खड़ी कुछ सोचती रहती। बस पेड़ो की फुनगियाँ हिलने से हवा का कुछ गुमान सा होता। बिजली आ रही होती तो खिड़की पर मोटा पर्दा डाल दिया जाता पर बिजली दो दिन से नहीं आ रही ।कोई बड़ा डिफ़ाल्ट हुआ है कहीं। सुधीर का मन किया खिड़की पूरी खोल कर देखे कि क्या बिजली विभाग के मैकेनिक काम कर रहे हैं। पर नहीं खोल सकता, बाहर वो होगा, वहीं उस औरत का पति। सड़क के उस तरफ चाय वाले की बेंच पर बैठा इतनी गर्मी में चाय पी रहा होगा ।
उसका फोन दो दिन पहले आया था। वो उससे मिलना चाहता है। पहले लगा शायद कोई ऑफ़िस का काम होगा पर जब उसने उस औरत का नाम लिया तो सुधीर ने कह दिया वो ऑफ़िस में नहीं है पर जब शाम को घर जाने को निकला तो वो सामने आ गया। सुधीर ने किसी तरह टाला उसे।
कल भी सारा दिन आफिस के सामने खड़ा रहा वो। कल तो सुधीर पीछे के दरवाजे से निकल गया। आज तो हद हो गई सुबह से ही मौजूद है। फोन नहीं उठाया तो पर्ची भिजवाई है। कुछ बेचैनी में या उसकी तरफ से ध्यान हटाने को सुधीर ने फेसबुक खोल लिया पर कुछ पढ़े बिना ही बंद कर दिया। न जाने कब तक वही तस्वीरें दिखती रहेंगी। मरी हुई औरत और उसका चार साल का बेटा।
आप उसे जानते थे आपकी ही गली में रहती थी न वो ? फिर किसी ने पूछा। उसने ज़बाब नहीं दिया। अलबत्ता खिड़की बंद करने की कोशिश में खिड़की के पास चला गया। उसका अंदाजा सही था वो वहीं खड़ा था उसी पेड़ के नीचे। वो उस औरत का पति देवेन्द्र भल्ला। वही शर्ट पहने जिसे धोने में घिस-घिस कर उस औरत की उँगलियाँ कट गई थीं।
देवेन्द्र भल्ला उससे मिलना चाहता था। उसने सोचा आज ये चैप्टर बंद करना चाहिए। उसने देवेन्द्र को पर्ची भिजवा दी, वो छुट्टी के बाद चार से साढ़े चार उसे आनन्दा रैस्टोरेंट में मिलेगा।
आनन्दा रेस्टोरेंट में समोसा अच्छा मिलता है पर उस औरत को पसंद नहीं था, न जाने क्यों ? समोसा तो हर औरत को पसंद होता है! पर वो ज़िद करती कि चाय मंगा ली जाए और टिफिन में साथ लाए पराँठों के साथ पी जाए।
उसने सोचा मैं ये क्या उस औरत उस औरत लगाए हूँ! ठीक सा तो नाम था उसका अमिता। मुस्कुराती तो सुंदर भी लगती थी।
वो यानी सुधीर शर्मा कोई ‘वूमेनाइज़र’ नहीं था पर अमिता से उसका संबंध था।
ख़ाक संबंध था! जानता ही कितना था उसे? बी. ए. पास करके एक कस्बे से दिल्ली में ब्याही मिडिल क्लास गृहणी, उन्नीस की उम्र में शादी, फिर तीन साल में लगातार तीन गर्भपात अब एक चार साल का बच्चा। कितना कहता सुधीर कि उससे मिलने आए तो बच्चे को न लाए पर वो कहती कहाँ छोड़ूँ इसे ?और कहती कि तुम्हारा भी तो मन करता होगा इसे देखने का ?
भला कोई बताए सुधीर क्यों देखना चाहेगा उस बदशक्ल बच्चे को? उसका ऊपरी होंठ नाक के छोर तक कटा था। अमिता पहली ही मुलाकात में कहने लगी किसी डाक्टर से बात करो इसका ऑपरेशन करवाना है। सुधीर को अजीब लगा पर अमिता के साथ रिश्ते बढ़ सकने की संभावना सोचकर चुप रहा।
उससे परिचय तो फेसबुक से ही हुआ था। सुधीर जो भी लिखता उस पर वो बेहद पसंद का निशान बनाती। ऐसे तारीफें करती जैसे सुधीर को ज़माने से जानती रही हो। एक बार सुधीर ने हिम्मत करके मेसेंजर पर बात की तो अमिता की ओर से तुरंत जवाब आया। कुछ दिन में सिलसिला चलता रहा तब अमिता को लगा उन्हें मिलना चाहिए या सुधीर ने पहल की, अब याद नहीं।
तीन बार वो उसे आनन्दा रैस्टोरेंट में मिली दो बार तो पराँठे ही खाए पर तीसरी बार वो उसे एक होटल के कमरे में ले गया। बच्चा कुछ देर सो गया था ।
अगली बार के लिए उसने एक ‘चाइल्ड डे केयर सेंटर’ देख रखा था ।
अगली बार आने के पहले ही वो अपने बच्चे के साथ मर गई ।
सुधीर को तो उसके मरने के बाद ही पता चला कि वो उसके घर के बहुत पास रहती थी। एक ही गली में चार मकान छोड़ कर एक दो कमरों का फ्लैट था उसका। कमाल है न !
कमाल तो ये भी कि उसके पति ने पुलिस से सुधीर का कोई जिक्र नहीं किया।
गली में सब उसे एक चुप्पी, घर घुस्सू औरत की तरह जानते थे। उसे किसी ने कभी कहीं आते जाते नहीं देखा। बस कभी-कभी सब्जी लेने जाती अपने मुँह कटे बच्चे के साथ।
उसके बारे में सबसे ज्यादा बातें उसके मरने पर हुईं ।
उसका पति देवेन्द्र भल्ला भी कमोबेश भला आदमी था।
प्राइवेट नौकरी में घर चलाना आसान नहीं रहा होगा वो भी जब दो ब्याही और दो अनब्याही बहनों की शादी की जिम्मेदारी भी हो।
देवेन्द्र की तकलीफ़ समझता है सुधीर। शायद उसे अमिता से संबंध नहीं बनाने चाहिए थे पर ये सिलसिला अमिता की ओर से ही शुरू हुआ था।
सुधीर का मन कड़वा सा हो गया उसी साली ने उसे इस झंझट में डाला।
वही ज़िद करती थी मिलने को। कुछ करने-धरने तो देती नहीं थी बस उसका चेहरा देखते रहो और बेसिर-पैर की बातें सुनते रहो।
बचपन की बातें, न जाने कौन सा गाँव, कौन-सा जामुन का पेड़। सुधीर बेमन से सुनता कि उसे लालच था कि यह सिलसिला शरीर तक जा सकता है।
तीसरी बार मिलने पर वो होटल चलने को मान भी गई लेकिन जैसा सोचा था वैसा स्वाद नहीं था इस चोरी के फल में। जब तक बातें करती रही तब तक खिली-खिली रही जैसे ही सुधीर ने हाथ लगाया ऐसे बिदकी कि लगा जैसे जबरदस्ती कर रहा हो सुधीर।
कितना दुलराना-फुसलाना पड़ा फिर भी बिस्तर पर वो बिल्कुल ठंडी पड़ी रही थी। अब कमरे का किराया दिया था तो निपटाना पड़ा जैसे-तैसे।
आनन्दा रेस्टोरेंट आफिस के पास ही था बस दस मिनट पैदल का रास्ता। सुधीर ठीक चार बीस पर पहुँच गया। देवेन्द्र भल्ला वहीं मौजूद था।
वो बिल्कुल वैसा दिख रहा था जैसा अमिता ने बताया था। ईमानदार और शरीफ, तीस-पैंतीस साल, हल्की सी तोंद और चेहरे पर शिकन लिए निहायत शादीशुदा लगता मध्य वर्गीय व्यक्ति।
वो पहले से उसी टेबल पर बैठा था जिस पर सुधीर अमिता के साथ बैठता था। सुधीर सकपका गया। क्या इसे? नहीं इसे कैसे पता होगा ।
देवेन्द्र ने पानी पीने की कोशिश सी की पर एक घूँट पी कर गिलास रख दिया। सुधीर जानना चाहता था कि देवेन्द्र उससे क्यों मिलना चाहता है, कहीं कुछ लिख कर तो नहीं रख गई पागल औरत? कहीं कोई ब्लैकमेलिंग का चक्कर तो नहीं।
सुधीर ने सोच रखा था कि वो बिल्कुल मुकर जाएगा। सिर्फ एक बार दस मिनट की ग़लती वो हरगिज़ स्वीकार नहीं करेगा। साफ़ कह देगा कि यह सब उस औरत की मनगढ़ंत बकवास है।
शुरू के कुछ लम्हे दोनों के बीच एक बेचैन-सी चुप्पी रही फिर देवेन्द्र बोला – “आपको कुछ बताना था।”
सुधीर को अब ब्लैकमेलिंग वाली बात ज्यादा डराने लगी, बेमक़सद घड़ी देखते बोला – “कहिए क्या बताना है ?”
देवेन्द्र बोला – “वो बच्चा आपका नहीं है।”
“क्या मतलब?”
“डी.एन.ए. रिपोर्ट आ गई है, बच्चा मेरा ही था। वैसे भी उसकी आँखें!” देवेन्द्र फिर चुप हो गया।
“हाँ तो आपका बच्चा आपका ही तो होगा, मेरा क्या लेना-देना उस बच्चे से?” सुधीर ने कहा और न चाहते हुए भी उसे बच्चे की आंखें याद आ गईं बिल्कुल देवेन्द्र की जैसी गुमसुम बेपानी आँखें।
देवेन्द्र कह रहा था “अमिता कहती थी वो बच्चा आपका था पर सच यही है कि मुझे उसकी बात पर बिल्कुल यकीन नहीं था इसीलिए मैंने डीएन ए टेस्ट कराया था! टेस्ट उसकी मौत से पहले ही गया था रिपोर्ट अब आई है।”
सुधीर ने चीख कर कहना चाहा वो एक पागल औरत थी दिमाग खराब था उसका पर धीरे से बोला –
“मुझे नहीं पता उसने ऐसा क्यों कहा शायद किसी और से उसके संबंध रहे हों उसे बचाने को मुझे फॅंसा रही हो।”
देवेन्द्र ने कुछ तड़प कर उसे देखा जैसे उसे सुधीर से ऐसा कुछ सुनने की उम्मीद नहीं थी। नहीं ऐसा नहीं हो सकता, अमिता ऐसी औरत नहीं थी।
सुधीर को भी लगता था अमिता कोई बुरी औरत नहीं थी पर फिलहाल वो इस इल्ज़ाम से जल्द से जल्द बरी होना चाहता था।
“तो? वो बच्चा मेरा है ऐसा कैसे कहा उसने , मैं तो…”
मैं तो के बाद वो रुक गया, किसी भी हाल में उन दस मिनटों का जिक्र नहीं करना है उसने खुद को याद दिलाया।
देवेन्द्र दोनों हाथों में सिर पकड़ कर टेबल पर कोहनियाँ टिकाए बैठा था।
सुधीर को लगा, बात बढ़े इस से पहले मामला साफ़ कर लेना चाहिए। अगर इसे कुछ चाहिए तो बता दे, पता चल जाए तो अच्छा, हो सकता है रक़म बहुत बड़ी न हो।
“आप अब मुझसे क्या चाहते हैं?”
“जानना”
“क्या जानना चाहते हैं?”
“आप उससे पहली बार कब मिले? कहाँ-कैसे?
क्या बताए सुधीर? यहीं इसी टेबल पर या वो सामने वाले इंपीरियल होटल में?
“देखिए डरिए नहीं मैं आपका नाम पुलिस में देने नहीं जा रहा। ऐसा कुछ करना होता तो आज दस दिन हो गए उसे गए, पहले ही कर देता।”
सुधीर ने कहा – “हम बस फेसबुक मित्र थे । मैं उससे कभी मिला नहीं।”
देवेन्द्र हल्का सा मुस्कुरा दिया। “अमिता और फेसबुक? उसे कहाँ फुरसत थी इन सब की? सुधीर जी! वो मुझे सब कुछ बता चुकी थी मरने से पहले। आपका पता, आपका नाम और आपका वो नाम जो सिर्फ आपके उसके बीच था।”
सुधीर को याद आया अमिता उसे आकाश कहती थी, फेसबुक पर चैट के दौरान ही वो उसे इस नाम से बुलाने लगी थी।
सुधीर ने पूछा भी था, क्यों? वो बोली यूँही! अजीब ही थी और यह आदमी भी निरा घामड़ है इसे पता ही नहीं कि इसकी बीबी इसके घर से निकलते ही फेसबुक खोल लेती थी।
देवेन्द्र ने चाय का घूँट लिया और आगे बोला – “आप जब गाँव में उसके पड़ोसी थे तब की बातें भी बताई थीं उसने।”
“क्या बात कर रहे आप!” सुधीर घबरा गया, “मैं दो महीने पहले तक उसे जानता भी नहीं था। कभी कहीं देखा तक नहीं था।”
“तो उसने ये क्यों कहा कि बच्चा आपका है?”
“ये मैं कैसे बताऊँ? आपकी बीवी थी, आपको बेहतर पता होगा, मार-पीट कर उगलवाने की कोशिश कर रहे होंगे तो उसने बौखला कर जो पहला नाम जेहन में आया कह दिया।”
देवेन्द्र ने फिर सर हाथों में थाम लिया, “मुझे उसे मारना नहीं चाहिए था पर यकीन जानिए अनचाहे ही हाथ उठ गया मेरा। रोकते-रोकते भी एक थप्पड़ जड़ दिया उसे। वो इतनी नायक़ीनी से देख रही थी मुझे। उफ्फ़!”
“पर शक हुआ कैसे आपको उस पर?” सुधीर ने सोचा उसकी बीवी तक पहुँच सकने वाला कोई सूत्र तो नहीं?
“नहीं शक नहीं ।शक की वजह से नहीं मारा मैने।”
“तो?”
“मेरे पास तो शक करने को भी वक्त नहीं। मैं दिन के दस घंटे काम पर रहता हूँ, रात नौ बजे जब घर में घुसता हूँ तो सिवाय दो टूक रोटी के कुछ नहीं सूझता और फिर अमिता इतनी शरीफ औरत! शादी को सात साल हो गए, कभी ऊँची आवाज़ में बोली भी नहीं। मेरे स्कूटर की आवाज़ सुनते ही खाना गर्म करने लगती, मुझे तह लगे धुले कपड़े निकाल कर देती, मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि वो किसी दूसरे मर्द से कोई रिश्ता रख सकती है।”
अब सुधीर को दिलचस्पी होने लगी। आखिर अमिता ने उसे इस बच्चे का बाप क्यों कहा होगा ?
“तो मारा क्यों ?”
देवेन्द्र बोला – “तीन दिन से लगी थी आपसे एक बात बतानी है । मैं कब सुनता? सुबह वैसे ही रोज़ देर हो जाती थी और रात को बिल्कुल थका हारा रहता हूँ, खा-पी कर सोने के सिवा कुछ नहीं सूझता।
रविवार को समय मिला तो पूछा बता अमिता क्या परेशानी? बिना किसी भूमिका के कहने लगी मुन्ना आकाश का बेटा है। आकाश जिसका दूसरा नाम सुधीर शर्मा है जो सेल्स टैक्स में अफ़सर है।
सच मानिए मुझे तब भी लगा ये मज़ाक कर रही है, पर वो लगी ही रही… मैं सालों से उसे जानती हूँ, मेरे गाँव का है, हम प्यार करते थे पर शादी आपसे हो गई।”
सुधीर भौंचक्का रह गया – “ कमाल है यह झूठ क्यों बोला उसने,मैं अपने बच्चों की कसम खाता हूँ, मैं उसे केवल दो महीनों से जानता हूँ। गाँव तो मुझे अब भी नहीं पता कहाँ उसका? मैं तो राजस्थान का रहने वाला हूँ।”
देवेन्द्र कुछ सोच कर बोला – “हाँ उसने सात सालों में कभी आपका जिक्र नहीं किया। किसी पुराने प्रेमी का भी नहीं बल्कि हमने तो पता कराया था गली, टोले, सहेलियों-रिश्तेदारों से, सबसे पूछा था। पूरी तहक़ीक़ात की थी कि कहीं, कभी कोई चक्कर-वक्कर न चला हो। आपको बताऊँ मेरी माँ ने गाँव की लड़की से इसीलिए मेरी शादी कराई कि दिल्ली की लड़कियाँ तो… आप जानते ही होंगे।”
सुधीर को कुछ बुरा सा लगा उसकी बीबी दिल्ली की थी ।
देवेन्द्र कहता रहा – “शादी में भी बड़ी खुश लग रही थी। हर समय खिलखिलाती रहती। बड़े-बुज़ुर्ग डाँट भी देते पर वो चहकती रहती। वो तो पिछले चार-पाँच सालों से ऐसी चुप, गुमसुम हो गई थी।”
“क्यों ?” – सुधीर ने उत्सुकतावश पूछा।
“कौन जाने! मुझे लगा घर-बच्चे की फ़िक्र करती होगी, वो तो खुद ही वो सब बताने लगी तो जाना।”
“तो आपने पूछा नहीं कि ये बातें अब क्यों बता रही हो?”
“पूछा न! बोली बस अब मैंने आपके साथ नहीं रहना।”
यानी मेरे साथ रहना था उसे। सुधीर ने सोचा बेवकूफ औरत! ऐसा सोच भी कैसे सकती थी वो – यह बातें सुधीर के मन में ही रहनी थीं।
“आगे वो बोली मैं अकेली रहूँगी अब। किसी के साथ नहीं बस अपने बच्चे के साथ।
मैंने पूछा – “कैसे रहेगी तू ? न कमाती है, न मायके में कोई पूछता है तुझे!”
“वो बोली मैं कुछ भी कर लूँगी बस अब इस बच्चे को आपकी कमाई पर नहीं पालना। आपके ऊपर बहुत जिम्मेदारी है। माँ बैठी, बहनें बैठीं आपके आगे फिर पराए बच्चे का बोझ क्यों डालूँ?”
“मुझे तब भी यकीन नहीं हुआ मैंने बच्चे को बार बार देखा मुझे हरगिज़ नहीं लगा कि वो मेरा नहीं। मेरा कलेजा फुँकने लगा। मुझे लगा मेरी किस्मत में यही है तो यही सही, ये जाए जहाँ जाना हो बच्चे को नहीं ले जाने दूँगा। वो बच्चा ले जाने को तुली थी, बताइए अपना ठौर नहीं बच्चे को कहाँ ले जाती?”
“फिर?”
“फिर आप बताइए आप लोगों का क्या तय हुआ था। कहाँ रखते आप उसे। मुझे पता है वो कुछ भी कहती रही हो, आती वो आपके पास ही।
और वो मरी क्यों? क्या तुम उसे अपनाने से मुकर गए थे?”
सुधीर हड़बड़ा गया। ये अचानक आप से तुम पर आ गया, अपने को संयत करते हुए बोल – “मैं उसे कैसे रख लेता? मेरी बीवी है, बच्चे हैं, समाज में मेरी इज्जत है।”
देवेन्द्र चीखने लगा – “बीवी-बच्चे की फ़िक्र, एक शरीफ़ औरत को बरगलाते समय नहीं हुई तुझे मादरचोद!”
“हरामजादे, खबरदार जो गाली दी तूने, जनखा कहीं का अपनी बीवी सम्भली नहीं, दोष मुझ पर लगाता है।” सुधीर की आवाज भी ऊँची हो गई।
आनन्दा रेस्टोरेंट के बेयरों के लिए कस्टमर्स के बीच गाली-गलौज होना नई बात नहीं थी इसलिए उन्होंने लात-घूँसे चलने तक का इंतजार किया।
बीच बचाव होते-होते देवेन्द्र की आँख के नीचे नील पड़ चुका था और सुधीर की शर्ट के दो बटन टूट चुके थे।
रेस्टोरेंट में बैठे बाकी लोगों को इस दृश्य से शहर की किसी गुमनाम गली में हुई एक औरत और उसके चार बरस के होंठ कटे बच्चे की याद नहीं आई, उन्हें यह आम-सा झगड़ा लगा, शायद दो दोस्तों में कुछ लेन-देन का मसला रहा हो या दो रिश्तेदारों में प्रापर्टी का।
दोनों को रेस्टोरेंट से निकाल दिया गया था ।
दोनों बाहर निकल कर कुछ समय यूँही खड़े रहे, जैसे समझ न पा रहे हों रास्ते का सिरा कहाँ छूट गया? फिर वहीं फुटपाथ पर पड़ी बेंच पर बैठ गए। जून की उतरती शाम ने सड़क पर परछाइयाँ बिछा दी थीं। सुधीर को पता था कि उसे उठकर घर की तरफ़ चलना चाहिए पर वो चुपचाप बैठा आती-जाती गाड़ियाँ देखता रहा।
देवेन्द्र अचानक सुबकने लगा। धीरे धीरे सिसकियाँ बढीं और वो फूट-फूट कर रोने लगा। वहीं बेंच पर वो घुटने ऊपर कर बैठा सिर झुकाए रोए जा रहा था।
सुधीर की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे उठकर चल देना चाहिए या उसे सांत्वना देनी चाहिए।
देवेन्द्र कहने लगा – “मैंने मार दिया उसे, वो अच्छी औरत थी मेरे घर रुल गई। लड़के के होंठ की वजह से परेशान थी। मैंने पता कर रखा था बच्चे के ऑपरेशन के लिए पर उसके पहले ही ये हो गया।
आँसू पोंछ कर आगे बोला पर आप ये बताओ आदमी क्या करे ! मैं किस हैसियत का आदमी हूँ? क्या शादी के पहले उसके बाप को पता नहीं था? मेरी जिम्मेदारियाँ हैं। मैं हर समय जोरू के आगे-पीछे डोलता तो नहीं रह सकता न!”
सुधीर को बात चुपचाप सुन लेनी चाहिए थी पर न जाने क्यों वो पूछ बैठा, “आप लोगों में क्या कभी प्यार नहीं था?”
देवेन्द्र का रोना बिल्कुल रुक गया – “प्यार? क्यों नहीं था प्यार? बच्चा है हमारा, वो इतनी सेवा करती थी मेरी, व्रत उपवास रखती मेरे लिए। घर देखिए चल कर मेरा इतने कम पैसों में कितने सलीके से सजा रखती थी।”
“नहीं वो तो ठीक है पर प्यार”, सुधीर कहने को हुआ फिर चुप हो गया।
उसे अपनी पत्नी याद आ गई । अमिता को प्यार करके पत्नी के साथ ठीक नहीं किया उसने।
पर क्या अमिता को प्यार किया था उसने? वो जो इंपीरियल होटल के कमरे में अनमनी सी पड़ी अमिता पर अपना पौरुष उतारा था वो दस मिनट का संबंध प्यार था क्या?
देवेन्द्र उठकर चल पड़ा था। रास्ते में उसे याद आया शादी के बाद शुरू-शुरू में अमिता ने उसे एक-दो बार आकाश कह कर बुलाया था।
देवेन्द्र ने पूछा आकाश कौन? तो मुस्कुराती बोली “आप ही तो हैं आकाश।”
“मैं कैसे, मैं कोई आकाश-वाकाश नहीं। मेरा नाम मेरे बाबा ने रखा था देवेन्द्र,वहीं ले अगर लेना है तो।”
उसके बाद याद नहीं पड़ता अमिता ने कभी उसे नाम से पुकारा हो न आकाश न देवेन्द्र। सुनो, ओजी वगैरह बेमानी संबोधनों में सात साल पार हो गए।
शायद सुधीर ने सही कहा था ये आकाश उसका कोई पुराना यार था या वो तलाशती थी कोई आकाश मुझमें और फिर सुधीर में!
अच्छा किया डी.एन.ए. टेस्ट करा लिया नहीं तो ख़लिश रह जाती कि मुन्ना मेरा था या नहीं!
पर अगर न कराया होता तो शायद अमिता जिंदा होती। कमाल की औरत थी उसे तो पता होगा कि मुन्ना मेरा ही बच्चा है। इसके पहले तीन मिसकैरेज हो गए थे उसके। कितनी पूजापाठ दवा दारू कराया तब मुन्ना हुआ। चार साल कुछ नहीं बोली अब अचानक कहती है बच्चा किसी और का है। होना तो बल्कि यह चाहिए था कि देवेन्द्र शक करता और वो अड़ी रहती खुद को पाकदामन साबित करने में।
पर यह अजब उल्टी खोपड़ी थी खुद ही खुद को कुलटा साबित करने पर तुली थी, ऊपर से कह रही अलग रहेगी बच्चा भी ले जाएगी। इस पर देवेन्द्र को गुस्सा आ गया उसने बता दिया कि वो पैटर्निटी टेस्ट के लिए बच्चे का और अपना नमूना जमा कर चुका है।
बहुत गिड़गिड़ाई कि देवेन्द्र टेस्ट रुकवा दे पैर पड़ने लगी जब देवेन्द्र नहीं माना तो चीखने चिल्लाने लगी। तभी तो देवेन्द्र को गुस्सा आया और उसने उसे थप्पड़ मार दिया ।
इसी बात पर रोते-रोते उसने अंदर से कुंडी लगा ली थी। फिर भी देवेन्द्र को ये बिल्कुल नहीं लगा था कि वो आत्महत्या भी कर सकती है।
वो गुस्से में घर से निकल गया जब तक लौटा अमिता फाँसी पर लटक चुकी थी। खुद झूलने के पहले बच्चे को भी मार गई कमबख्त ।
पुलिस को यह सब कुछ नहीं बताया देवेन्द्र ने। बहनों की शादी में दिक्कत आ सकती थी। बात पति-पत्नी के झगड़े की ही रही।
थाने में लंच के समय दो महिला पुलिसकर्मी आपस में बातें कर रहीं थीं – “आजकल की औरतें बहुत बदमाश हो गई हैं, जीते जी आदमी को परेशान करेंगी मरने पर हम लोगों को।”
फेसबुक पर हफ्ते भर तक स्त्री विमर्श चला, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर आक्रोश जाहिर हुआ, शहर के कॉलेजों के मनोविज्ञान संभागों में स्त्रियों में बढ़ती आत्महत्या की दर पर सेमिनार हुए।
पड़ोसी आते-जाते दुख प्रकट करते, ताज्जुब करते, “अरे उसे तो हमने कभी आँखें उठाकर चलते भी नहीं देखा, अरे वो तो किसी से बोलती-बताती भी नहीं थी, इतनी सीधी-सरल महिला, आह, ओह, बुरा हुआ। वैसे दिमाग के डाक्टर को क्यों नहीं दिखाया भल्ला ने। कुछ तो पहले से ही लगा होगा न!”
घरों में काम करने वाली बाइयों की अमिता बहू जी की मौत पर मीटिंग हुई। परना बोली “मैडम का चक्कर था, साहब से कुछ होता-हवाता नहीं था।” निमिया बोली “चक्कर था तो मर काहे गई छोड़ देती इस आदमी को।”
एक बोली “नहीं ऐसी बात नहीं बहू जी तो बहुत सीधी सादी थीं अगर साहब से कुछ होता नहीं तो लड़का कैसे पैदा हो गया?”
दूसरी ने पल्ला मुँह में दबा खी-खी करते कहा- “लड़का पैदा करने को एक ठो मर्द ही तो चाहिए अपना हो चाहे पराया।”
रमा की सास फूलमती ने आखिर में कहा ये” सब कुछ नहीं बहू जी बहुत मुहब्बती रहीं। बात ये है कि इंसान को इतना मुहब्बती नहीं होना चाहिए, दुख पाता है।”
फूलमती की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वो कुछ देर अपनेआप ही बड़बड़ाती रही “दयू कितना खराब मौसम कर दिया बरसात होय तो निगोड़ी उमस कटे।”