प्रदीपिका सारस्वत की कहानी ‘घर-घाटी-सुरंग’
युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत को इस कहानी के लिए रमा महता लेखन अनुदान मिला था। आप भी पढ़ सकते हैं-
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दूसरी बार मैसेज आया था कि श्रीनगर से दिल्ली जाने वाली उड़ान संख्या एबीसीडी खराब मौसम के चलते अपने सही समय से एक घंटे की देरी पर उड़ान भरेगी. बोर्डिंग गेट के पास बैठी कल्याणी ने गहरी साँस ली. अब बहुत उम्मीद नहीं थी कि आज वह दिल्ली पहुँच सकेगी. ज़्यादातर उड़ानें एक-एक कर रद्द हो चुकी थीं. देर से आसमान पर छाया धुँधलका अब और गहरा होने लगा था. चार बजने में अब भी कुछ देर थी और मौसम ठीक होने के कोई आसार नहीं लग रहे थे. कल्याणी का मन तो किया कि बैग उठाए और सीधे टीआरसी पहुँच जाए. शायद अभी कोई गाड़ी मिल ही जाए जम्मू तक.
पर उसकी फ़्लाइट अब तक कैंसल नहीं की गई थी. उसकी नज़रें कभी कांच की दीवार के बाहर आसमान को टटोलतीं तो कभी दाईं तरफ की दीवार पर लगे डिसप्ले पर टिक जातीं. फ़्लाइट एबीसीडी- डिलेड बाइ 2 आवर्स. ये दो घंटे थे कि ख़त्म नहीं होने पा रहे थे. अगले आधे घंटे में वह छोटा-सा एयरपोर्ट लगभग ख़ाली हो गया. बाहर बर्फ़ के छोटे-छोटे फाहे साइप्रस की क़तारों को सफेद टोपियों से ढक रहे थे. आख़िरकार कल्याणी अपने रकसैक को एक कंधे पर टाँगे, रुआँसा चेहरा लिए बाहर निकली. एग्ज़िट के पास खड़े बूढ़े पुलिस वाले ने उसका चेहरा देखा तो उसने दिलासा दिया, “मैडम अब आप कश्मीर की बर्फ़ देखिए.” कल्याणी ने एक पल रुककर उस पुलिसवाले को देखा. इसे क्या खबर थी कि इस बार बर्फ़ गिरने से पहले ही उसने यहाँ कितनी बर्फ देख ली थी. एक फीकी-सी मुस्कान देकर वह टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गई.
टीआरसी पर एक ही गाड़ी थी. अंदर पाँच-छह लोग थे और ड्राइवर निकलने के लिए तैयार था. कल्याणी अकेली लड़की थी, उसे आगे वाली सीट दे दी गई. जो ड्राइवर उसे एयरपोर्ट से लाया था वो अब भी समझाने में लगा हुआ था कि मैडम आप अकेले जा रही हो, इस खराब मौसम में इस बखत सफ़र मत करो. पर कल्याणी को किसी भी तरह बस घाटी से बाहर निकलना था.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ था उसके साथ. सीट को थोड़ा और पीछे रीक्लाइन करने के बाद, वह आँखें बंद करके सीट से टिक गई. उसे हर बार इस तरह सब छोड़कर क्यों निकल जाना पड़ता है? गाड़ी जब टीआरसी से डल गेट की तरफ बढ़ी तो कल्याणी ने अपने आपको इस सवाल का सामना करते हुए पाया. क्या वह भाग रही थी? क्या वह अब तक बस भागती रही है? उफ़! इतने सर्द मौसम में अपने आप को कटघरे में खड़ा करना आसान होता है कहीं! उसकी बाईं आँख से एक आँसू निकलकर गर्दन तक ढलक आया. गति की दिशा के उलट चलते पॉपलर के पेड़ों की बदरंग हो चुकी पत्तियों पर बर्फ़ अब और तेज़ी से गिर रही थी.
उसकी हथेलियाँ मुट्ठियों में भिंची हुईं थीं. दाईं मुट्ठी ऊपर उठाकर उसने गाल और गर्दन पर खिंच आई गीली लकीर मिटा दी.
उसने महसूस किया कि ड्राइवर ने एक बार उसकी तरफ देखा था. उसने अपना चेहरा खिड़की की तरफ मोड़ लिया. श्रीनगर में बर्फ़ गिरती थी तो कितनी खुश होती थी वह, लेकिन आज वही ख़ूबसूरती उसे चुभ रही थी. वे जल्दी-जल्दी सड़क पार करती हुई औरतें और मर्द, वे सफेद होती जाती घरों की छतें, वे दरख़्त और वो हवा जिनके लिए वह जान देती थी, सब के सब उसे बेहद अजनबी लग रहे थे. सिर्फ़ अजनबी नहीं, कुछ और. कुछ और, जो अपने और पराए होने से अलग था, दोस्त और दुश्मन होने से भी अलग. उससे कुछ ज़्यादा गहरा. कुछ ऐसा जो उसकी पहुँच से बाहर था. कल्याणी फूट-फूट कर रो देना चाहती थी. वह जल्दी से कहीं पहुँच जाना चाहती थी, जहाँ अकेले बैठकर रो सके.
बीबी कैन्ट के पास से गुज़रते हुए उसने दो बच्चों को एक घर के लॉन में दौड़ते देखा. उनकी माँ उनके पीछे, उन्हें पकड़ने दौड़ रही थी. न जाने उन बच्चों के चेहरों में ऐसा क्या था कि वो फूट-फूट कर रोने को हो आई.
चार साल पहले की वो शाम किसी किताब की तरह उसके सामने खुल पड़ी थी, वो शाम जब उसका रोका हुआ था. घर में अब भी मेहमान बाकी थे. लड़के वाले जा चुके थे, पर दीदियाँ-फूफियाँ अब भी दादी के साथ बैठी न जाने कौन-से दिनों की बातें कर रही थीं. एक लड़की की शादी तय होती है, तो ब्याही हुई लड़कियाँ भी कुछ देर के लिए कुवाँरी हो जाती हैं. उन सब ने कल्याणी को दबोच कर वहीं बैठा रखा था. पर वह जैसे उनकी कोई बात सुन नहीं पा रही थी.
उसे लगा था कि वे सब लोग उसे जानते ही नहीं थे. उन सबके लिए वह उतनी ही अजनबी थी जितनी कि सवेरे आने वाला दूधवाला या महीने में एक दिन आनेवाला बिजली दफ़्तर का कारिंदा. वह उन्हें बताना चाहती थी कि वह उनमें से एक नहीं थी. उसने कभी उनके जैसे सपने नहीं देखे थे, उनके जैसे गीत नहीं सीखे थे, उनके जैसे बचपन नहीं गुज़ारा था.
वक्त ने उसे बहुत जल्दी सिखा दिया था कि ज़रूरी नहीं कि दूसरों का ग़लत उसका भी ग़लत हो और दूसरों का सही उसका सही. बहुत जल्दी ही सही-ग़लत की वो रस्सी उसके पाँवों से खुल गई थी जो उस घर की हर लड़की को पैदा होते ही पहना दी जाती है. वहां सही और गलत की परिभाषाएँ इतनी गड्ड-मड्ड थीं कि उनमें अपने-आप को खपाने के बजाय कल्याणी ने उनसे दूरी बनाना बेहतर समझा था.
बिन माँ की लड़की को कौन सिखाता कि दूरियाँ बनाने से उलझनें सुलझती नहीं, और उलझ जाती हैं. जाने-पहचाने उन अजनबियों के बीच वह अकेली पड़ जाती, डरती, पर हर दिन एक-एक तिनका डालकर अपने भीतर किसी आँच को तेज़ करने में लगी रहती. एक उम्मीद बनी रहती कि एक दिन इतना उजाला हो जाए कि आगे का रास्ता ठीक-ठीक दीख पड़े और वो उस तंग, अँधेरी कोठरी से आज़ाद हो जाए जिसे सब घर कहते थे. लेकिन इससे पहले कि कल्याणी वहां तक पहुँच पाती, एक दिन अचानक उसे कस कर बांध देने की तैयारी शुरू हो गई.
मौक़ा मिलते ही कल्याणी उन औरतों की भीड़ से निकलकर छत पर चली गई थी. बेचैनी से आसमान तकते हुए उसे लगा था कि उसके चारों ओर एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गई थी, जिसके भीतर रहते हुए भी उसे जलना था और बाहर निकलते हुए भी. समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करे, कहाँ जाए? किससे मदद माँगे? पापा से बात उसने लड़के वालों के आने से पहले ही करके देख ली थी. वे कुछ समझने को तैयार नहीं थे. जिस तरह गुस्से में उठकर चले गए थे, वह जानती थी कि अब उनसे दोबारा बात करने का कोई मतलब नहीं. उसे सबके बीच से उठकर जाते देख, विमाता ने जिन आँखों से उसे देखा था, उसे डूबकर मरने जितनी घुटन हो आई थी.
इन आँखों को अब और नहीं देख सकती थी वह. उनमें भरी नफ़रत, नहीं नफ़रत नहीं, कुछ और था वो. जैसे दीवार पर चिपकी मकड़ी को देखा जाता है कि यह लिजलिजी, डरावनी चीज़ यहाँ क्यों है – वैसा कुछ. वे आँखें कल्याणी से कहतीं कि तुम ज़िंदा क्यों हो, तुम हो ही क्यों, तुम्हारे होने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं. जब उसने पिता से कहा था कि वह अभी शादी नहीं करना चाहती, तो पिता की आँखें भी विमाता की आँखों में बदल गई थीं. बस, उस पल के बाद उस घर के भीतर साँस लेना इतना तकलीफ़देह मालूम हुआ था कि अब अगर वह यहां से नहीं निकली तो मर जाएगी.
अब उसे दीवार पर चिपकी हुई लिजलिजी मकड़ी से वापस कल्याणी होना था, तो दीवार का सहारा छोड़ने का ही रास्ता बचता था. उसने अपने कमरे में जाकर अपने काग़ज़-पत्तर निकालकर एक झोले में डाले. अपनी डायरियाँ रखीं, दो जोड़ी कपड़े और बस. इतनी ही मिल्कियत थी कल्याणी की उस घर में. उसी रात घर छोड़ दिया था उसने.
आज श्रीनगर छोड़ते हुए बिल्कुल वही घुटन महसूस हो रही थी उसे.
उस रात घर से निकलते हुए उसने इस बात की परवाह नहीं की थी कि वह कहां जाएगी, कहां रहेगी. बस निकल गई थी कि इतनी बड़ी दुनिया में कहीं तो ठिकाना बना ही लेगी अपने लिए. दिल्ली की ट्रेन में बैठने के बाद उसने दीपेन चटर्जी को फ़ोन किया. दिल्ली में वही एक शख्स था जिसका फ़ोन नंबर उसके पास था; जिससे काम की कोई उम्मीद हो सकती थी. कुछ महीने पहले उसने एक पत्रिका के लिए आवेदन भेजा था. इंटर्नशिप के लिए बुला भी लिया गया था उसे, पर पापा ने साफ़ मना कर दिया. वे सब काम लड़कियों के लिए नहीं थे.
“इम्तिहानों पर ध्यान दो और रोटियाँ बनाना सीखो, एक तरफ़ से कच्ची रह जाती हैं.”
कल्याणी ने फ़ोन करके सीधे कहा था कि उसे नौकरी की बहुत ज़रूरत थी. उस तरफ से दीपेन ने तुरंत पूछा था कि घर छोड़कर आ रही हो? उस अनजान आदमी से भी वह झूठ नहीं बोल पाई. दीपेन उसे लेने स्टेशन आया था. रास्ते में ही बता दिया था कि वह एक कमरे में रहता है, लेकिन उसे फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है. उसे कमरे पर छोड़कर, ख़ुद अपने दोस्त के घर सोने चला जाएगा. अगले दिन उसकी नौकरी के लिए कुछ सोचा जाएगा.
उसका कमरा देखकर हैरान रह गई थी कल्याणी. एक बिस्तर, एक टेबल, एक छोटी-सी अलमारी, जिसमें कपड़े रहे होंगे, ज़रा से किचेन में गिनती के दस से ज़्यादा बर्तन न होंगे. इतनी नामी पत्रिका का एडिटर इतने कम सामान के साथ रहता होगा, देखकर खूब हैरानी हुई थी उसे. पर हिम्मत भी मिली थी. जीने के लिए कितना कम चाहिए होता है!
जाने से पहले दीपेन ने ध्यान से बता दिया था कि बिस्तर पर चादरें धुली हुई हैं. किचेन में खाना रखा है, खाकर सो जाए. उसने कुछ भी नहीं पूछा. उसके साथ क्या हुआ था, अब क्या सोच रही है वो – कुछ भी नहीं. किचेन में रखा टिफ़िन भी शायद उसके ख़ुद के लिए आया था, जो वह कल्याणी के लिए छोड़ गया था. इसी तरह की दुनिया के लिए तो कल्याणी ने घर छोड़ा था – जहाँ उसके लिए साँस लेने की खुली जगह थी, थोड़ी सी ही सही.
अगले हफ़्ते उसे नौकरी मिल गई और अगले महीने घर. उस एक महीने वह दीपेन के घर ही रही. दीपेन हर सुबह आता, नहाता-धोता, दोनों के लिए नाश्ता लेकर आता, उसे अपने साथ दफ़्तर लेकर जाता, लौटकर उसके लिए टिफ़िन लाकर रखता, और खुद अपने दोस्त के घर सोने चला जाता. एक-दो बार कल्याणी ने उसे रात का खाना साथ खाने के लिए कहा भी, लेकिन वह हर बार ‘फिर कभी’ कहकर टाल गया.
दीपेन उसके लिए न दोस्त बना, न परिवार. ज़िंदगी की न जाने कौन-सी हक़ीक़त जान गया था वह कि अपने-आप को उसने इन दायरों से दूर ही रखा.
कल्याणी अक्सर दीपेन के बारे में सोचती कि वह इस तरह सबके साथ रहकर भी सबसे दूर कैसे रहता है. उसके अपने मन में हमेशा कोई न कोई तूफ़ान घिरा रहता पर दीपेन उसे हमेशा शांत ही दिखता. कभी यह-कभी वह, न जाने कितनी तरह की परेशानियाँ लेकर वह दीपेन के पास जाती. दीपेन सबकुछ तसल्ली से सुनता. उससे बात करके जब वह अपनी डेस्क पर लौटती तो कुछ देर के लिए उसे सबकुछ पहले से कम मुश्किल लगने लगता. कितना कुछ सीखना था उसे दीपेन से, वह मन ही मन सोचती.
पर उसे यह मौक़ा भी नहीं मिला. कुछ समय बाद दीपेन का तबादला मुंबई हो गया.
दफ़्तर में वह अच्छा कर रही थी. उसके काम की तारीफ़ें होतीं, पर वही एक-सा काम रोज़-रोज़ करना उसे थकाने लगा था. घर की तरफ से भी तनाव बढ़ने लगा था. यहाँ आने के बाद उसने पापा से बात करने की कोशिश की थी. उन्हें बताने की कोशिश की थी कि उसे नौकरी मिल गई है, वह अच्छा कर रही है. पर उन्होंने बात करने से ही इनकार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि वे अब उससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते.
कल्याणी ऊपर-ऊपर अपने आप से कहती कि उसे इस बात का दुख नहीं होना चाहिए, आख़िरकार वह अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले खुद ले रही है. पर भीतर यह दुख उसकी ज़मीन को काट रहा था. वह सोचती कि उसकी जड़ें उससे छूट गई थीं. वे जड़ें जो शायद कभी उसकी थी ही नहीं. जब भी वह घर के बारे में सोचती, फिर से वही दीवार से लगी मकड़ी में बदलने लगती. वह भाग जाना चाहती, कहीं दूर, बहुत दूर. अपने अतीत-अपने वर्तमान से भी दूर.
एक साल की नौकरी के बाद जब अप्रेज़ल होने को ही था, कल्याणी इस्तीफ़ा देकर श्रीनगर चली आई. बच्चों को पढ़ाने वाले एक एनजीओ के लिए काम करने. पिछले दो साल से वह यहीं रह रही थी. इस जगह की अनिश्चितता भरी ज़िंदगी में अपने भीतर की अशांति कुछ कम लगने लगती थी उसे. अपने साथ के लिए एक नया सहारा भी तलाश लिया था. वह स्कूल के दिनों से ही फ़ोटोग्राफ़ी करने की सोचा करती थी. एक दिन लालचौक बाज़ार जाकर कैमरा ले आई. इस नए शौक़ के ज़रिए वह अपने अंदर-बाहर के उजले-अँधेरे कोनों को देखने लगी थी. जब वह कैमरा लेकर बाहर निकलती, उसे लगता कि वह अकेली नहीं है. उसके पास घर से निकलने की कोई वजह है.
घर से इतनी दूर आने के बाद भी जब काम के घंटों के बाद वह घर से निकलती थी, तो उसे लगता कि विमाता की आँखें उसका पीछा कर रही हैं. वे आँखें किसी भी राहगीर की आँखों से होकर उसे देखतीं, उसके वज़ूद को नकारने लगतीं.
पर अब वह घर से निकलने लगी थी. बच्चों को पढ़ाने के बाद जो वक्त अपार्टमेंट में किताबें पढ़ते हुए बीतता था, अब उसका एक बड़ा हिस्सा श्रीनगर की गलियों में घूमते हुए गुज़रने लगा. वह जगह-जगह रुकती, लोगों से बात करती. हर एक के पास बताने के लिए बहुत-सी कहानियाँ होतीं, ग़म, ग़ुस्से, और बेचारगी से भरी कहानियाँ, एक खास क़िस्म के ग़ुरूर से भरी कहानियाँ, बहुत कुछ खो देने के क़िस्सों से बनी कहानियाँ. वे कहानियाँ उसे बेचैन कर जातीं. अपनी खुद की कहानी से दूर होने की उसकी ख़्वाहिश इतनी गहरी थी कि वह उन कहानियों को सुनते हुए उनका हिस्सा होने लगती.
उसकी सुपरवाइज़र ने उसे कई बार इशारों में उससे कहा था कि श्रीनगर कोई आम जगह नहीं थी. उसे ज़्यादा लोगों से घुलना-मिलना नहीं चाहिए. कल्याणी ने अपनी सुपरवाइज़र की बात को हलके में नहीं लिया था. उसने सोचा था कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा. पर उसे लोगों से मिलने-जुलने में कोई बुराई नज़र नहीं आई. कितने प्यारे तो लोग थे, इतनी मीठी ज़ुबान. सारी लड़कियाँ कितने लाड़ से उसे अपने घर ले जातीं. लड़के इतनी इज़्ज़त से बात करते. बड़ी-बूढ़ियाँ इतनी मुहब्बत से उसका माथा चूम लेतीं. इतनी मोहब्बत तो किताबों के बाहर उसने देखी ही नहीं थी.
सब कुछ किसी सपनीले गीत की तरह गुज़र रहा था. कल्याणी सोचने लगी थी कि अब शायद इस शहर से वह कभी नहीं जा पाएगी, कि शायद उसे घर मिल गया था. लेकिन यह सपना भी काँच का निकला. उसे नहीं पता था उसके भीतर अब भी कुछ ऐसे अँधेरे बाकी थे जिन्हें वो देख नहीं पा रही थी.
कल सवेरे-सवेरे उसके मकान मालिक ने दरवाज़ा खटखटाया था. उतने सवेरे तो वह सोकर भी नहीं उठती. खुर्शीद अंकल तो यह बात जानते भी थे. दरवाज़ा खोलते हुए उसे अजीब-सी घबराहट हुई. खुर्शीद अंकल पहले तो कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे, फिर हिचकते हुए उन्होंने बताया था कि उसे यह अपार्टमेंट खाली करना होगा. कल्याणी का चेहरा सफेद पड़ गया. इतने वक्त से वो इस घर में रह रही थी फिर अब अचानक क्या हुआ.
किसी ने अंकल खुर्शीद के घर चिट्ठी लिखकर भेजी थी. लंबी-सी चिट्ठी, उर्दू में लिखी हुई. लिखा था कि ये हिंदुस्तानी लड़की जो यहाँ रह रही है उसे यहाँ से जाने को कहना होगा. उसके पास कैमरा है, अकेले रहती है. हमारे लड़के-लड़कियों से दोस्ती है उसकी. हम नहीं जानते कि वो क्या चाहती है. अगर उसे जाने को नहीं कहा, तो मसला मस्जिद कमेटी में जाएगा.
दिल धक्क से रह गया था कल्याणी का. अगर वह एक लड़की न होती, तब भी कोई ऐसी चिट्ठी लिखी जाती उसके लिए? चौखट पर खड़े खुर्शीद अंकल के सामने उसकी ज़ुबान ही नहीं खुली थी. उसे लगा था जैसे वह फिर से एक छोटी, लिजलिजी मकड़ी बन गई थी.
उसी वक्त उसने अपना सामान बाँधना शुरू कर दिया. मौसम तब भी खराब था, सवेरे से ही बूँदाबाँदी हो रही थी. वह बारिश में ही बाहर निकल गई. शाम होते-होते दूसरे मोहल्ले में घर मिल गया था उसे. जवाहर नगर में. यहाँ हिंदुओं और सिखों के परिवार रहते थे. खुर्शीद अंकल ने कहा भी कि वह एक-दो दिन में चली जाए. पर वह उसी शाम चली गई. किसी की मदद लिए बिना. उसने किसी को नहीं बताया कि क्या हुआ था.
लेकिन नए घर पहुँचकर भी वो घुटन दूर नहीं हुई थी. चिट्ठी में लिखी बातों ने उसे एक बार फिर वहीं ले जाकर खड़ा कर दिया था जहाँ से वह भाग आई थी. देर रात जब नींद लगी तो करीब दो साल बाद उसने फिर वही बुरा सपना देखा जो कई सालों तक उसे नींद से जगाता रहा था. विमाता और पिता आपस में झगड़ रहे थे. दोनों ने मिलकर उसके लिए कोई सज़ा तय की थी. जब से वह श्रीनगर आई थी, उसे यह सपना नहीं आया था. उसे लगने लगा था कि वह अपने घुटन भरे अतीत से आज़ाद हो गई है, लेकिन अभी वह सब छूटा नहीं था उससे. कुछ तो बाकी रह गया था भीतर जो वह बुरा सपना फिर लौट आया था.
सुबह उठते ही वह एयरपोर्ट पहुँच गई. उसे अब श्रीनगर में नहीं रुकना था, एक और रात नहीं. वह एक बार फिर घर से भाग रही थी, बिना यह जाने कि आगे कहां जाना है. इस बार उसके फ़ोन में ऐसा कोई नंबर भी नहीं था जिससे उसे किसी तरह की उम्मीद होती. अपना ठिकाना अब खुद ही तलाशना था.
गाड़ी जवाहर सुरंग के भीतर थी. वादी पीछे छूट चुकी थी. कल्याणी सोच रही थी कि यह सुरंग उसने पहले भी पार की है. कुछ साल पहले इस सुरंग से बहुत से लोग इसी तरह अपने घर छोड़कर निकले थे. उन्हें लौटने की उम्मीद थी क्योंकि वे अपने घर पीछे छोड़कर आए थे. पर कल्याणी का घर!
तय दूरी पर लगी पीली रौशनियों में सुरंग की ठंडी सलेटी दीवारों को देखते हुए उसने महसूस किया कि उसका तो कोई घर कभी रहा ही नहीं. फिर उसका छूटना कैसा? जो कभी था ही नहीं उसके प्रेत को खोजते फिरना कितना थकन भरा हो सकता है, उस लंबी सुरंग से गुज़रते हुए देख लिया था उसने. अगर कोई सुरंग से घर हो जाने की उम्मीद करने लगे, तो यह एक क़ैद से निकलकर दूसरी में जा गिरना ही हुआ. वह देख पा रही थी कि उस घर से निकलने के बाद भी वह आज़ाद नहीं हो सकी थी. अतीत की छायाओं से बचने के लिए कभी वह किसी दीपने की छाया में छिपना चाहती थी, तो कभी कैमरे के काँच के पीछे.
सुरंग के पार पहुँचकर उसे लगा कि उसके कंधों पर से कोई बोझ उतर गया था. साल-दर-साल वह अपने आप से पूछती आ रही थी कि तुम कहाँ जाना चाहती हो, लेकिन गाड़ी जब सुरंग से बाहर निकली तो क़ैद के उस अहसास को पीछे छोड़ते हुए उसने पहली बार अपने आप से पूछा था कि तुम्हें क्या चाहिए कल्याणी; तुम किस तरह जीना चाहती हो?
गाड़ी अब तेज़ रफ़्तार में थी. हाइवे के दोनों और लगी रौशनियों के बीच से गुज़रते हुए कल्याणी को ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी सुनहरे पुल से गुज़र रही हो. नींद और थकान से बोझिल उसकी आँखें अपने आप मुँदतीं चली गईं. गाड़ी की अगली सीट किसी लॉन में पड़े झूले में तब्दील हो गई थी और वो खुद एक छोटी बच्ची में. झूले के पीछे, कोई उसकी गर्दन में बाँहें डाले खड़ा था.
“घर आ गया.” उसने मीठी-सी, मद्धिम आवाज़ सुनी.
कल्याणी ने आँख खोलकर देखा और मुस्कुरा दी. यह कोई सपना नहीं था; कोई जादू भी नहीं. रात के दो बजे गाड़ी रुक गई थी. ड्राइवर कह रहा था कि वे जम्मू पहुँच चुके हैं.
नींद से अलसाई आँखों को उसने कुछ देर के लिए फिर से मूँद लिया. उसके पीछे कोई नहीं था. बस वह खुद अपने साथ खड़ी थी.