आज कृष्णा सोबती के लेखन पर यह सुचिंतित लेख पढ़िए। लिखा है अनुरंजनी ने। अनुरंजनी दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और जानकी पुल की संपादक हैं। कृष्णा सोबती के लेखक के अलग अलग पहलुओं को लेकर वह लिखती रही हैं। यह लेख उन्होंने रज़ा न्यास द्वारा आयोजित ‘युवा’ में पढ़ा था। इस बार का युवा कृष्णा सोबती के लेखन पर एकाग्र था। यह लेख पढ़िए और बताइए कि कृष्णा सोबती विराट विजन की लेखिका थीं या नहीं- प्रभात रंजन
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‘भारत का सोबती आख्यान’ इस शीर्षक के तहत यह समझने की कोशिश की गई है कि उनके लेखन में भारत का कैसा रूप आ रहा है? उस भारत की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक परिस्थितियाँ क्या हैं?
‘भारतीय संस्कृति और मूल्य’ शीर्षक लेख में वे लिखती हैं कि – “हर किसी का देश उसके अंदर और उसके बाहर रहता है और निरंतर उसके भाव, उसकी दृष्टि, उसके कोण को अपनी चौखट में जुड़ाए रखता है। यही बंधन अपने-अपने देश-प्रदेश की गंध, गरिमा और गुण को अपने निवासियों में, नागरिकों में मुखरित करता रहता है । उजागर करता चला जाता है । हम नहीं भी रहते, नहीं भी होते, तो भी।”[1] स्वाभाविक रूप से यह उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट होता है।
सबसे पहले तो यही बात आती है कि सोबती जिस भारत में जन्मी थीं, वह आज का भारत नहीं था, वह विभाजन पूर्व का भारत था जहाँ उनके जीवन के शुरुआती 22 बरस बीते। इसलिए भी दो तरह के भारत की उपस्थिति उनकी रचनाओं में मिलती है। एक 1925 ई. से लेकर 1947 ई. तक का भारत और दूसरा 1947 ई. के बाद का भारत। निश्चित ही विभाजन-पूर्व भारत का क्षेत्रफल बड़ा था, जिसके नाम पर ही विगत कुछ वर्षों से ‘अखंड भारत’ का नारा, उसकी परिकल्पना भी आम जनमानस के बीच प्रचारित की जाने लगी है लेकिन यह सवाल पूछना चाहिए कि उनके अखंड भारत की योजना में वहाँ की संस्कृति, सामाजिक परिस्थिति सबको अपनाने की नीति है या नहीं ? उत्तर शायद हम जानते हैं कि क्या होगा!
कृष्णा सोबती के यहाँ विभाजन पूर्व की जो स्थिति है उसमें से कई बातें निकल कर आती हैं, एक तो यह कि कौन सी जगह कहाँ की मानी जाएगी, तब यह एक बड़ा सवाल था जिसका जवाब जनता के पास था ही नहीं, जवाब क्या, अनुमान भी नहीं। इसका जवाब क्या सत्ता के पास भी था? अगर था तो उसका स्पष्ट उल्लेख हमें कहाँ मिलता है? ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ में एक वाक्य है – “दिल्ली के अखबारों में उस विवाद की भी खबर छपती रही थी कि सिरोही राजस्थान में जाएगा कि गुजरात में।”[2] सिरोही को लेकर यह दुविधा भी इसलिए थी कि वहाँ अम्बा का प्राचीन मंदिर था। और विभाजन का मुख्य आधार धर्म तो था ही। यह कितना दुखद या हास्यास्पद है कि भारत और पाकिस्तान को जो रेखा विभाजित करती है, ‘रेडक्लीफ़ लाइन’, वह किसी पर्यवेक्षण के बाद नहीं बल्कि एक मनमानी लकीर थी जिसे जैसे मन हुआ वैसे रेडक्लीफ़ ने मानचित्र पर खींच दिया और 17 अगस्त 1947ई. को भारत-विभाजन हो गया। ‘बीबीसी’ के एक लेख में इसका उल्लेख मिलता है कि रेडक्लीफ़ ने अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा था, “मुझे 10-11 दिन मिले थे सीमा रेखा खींचने के लिए। उस वक़्त मैंने बस एक हवाई जहाज़ के ज़रिए दौरा किया। न ही जिलों के नक्शे थे मेरे पास ।”[3] कुछ वर्ष पहले एक शॉर्ट फिल्म भी आई थी ‘द ब्लडी लाइन’। इसमें भी यही उल्लेख मिलता है कि सिरिल रेडक्लीफ़ जो पहले कभी भारत आया ही नहीं था, को यह काम सौंपा गया था। इसके बाद कितनी व्यापक हिंसा हुई इससे सब परिचित हैं। इसलिए दंगे का उल्लेख भी उनकी किताबों में मिलता है, मुख्यत: ‘ज़िन्दगीनामा’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ में। उस स्थिति की कल्पना भी हमारे लिए पीड़ादायक है कि हमें अपने घर से निकलते ही डर लगे लेकिन भारत के ‘आज़ाद’ होने पर ही ऐसा हो रहा था। ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ में वे लिखती हैं कि “लौटकर फाटक पर पहुँची तो लगा वह कमरा हमेशा के लिए दूर जा चुका था। कुरेशी अंकल ने पुचकार कर सिर पर हाथ रखा और कहा, जाओ बिटिया जाओ – बाहर खड़े रहने का वक़्त नहीं ।”[4] जब माहौल दंगे का हो तो ज़ाहिर है कि वह आमजन की बातचीत में भी शामिल होगा, लेकिन वही आमजन जिनका जीवन उससे प्रभावित होगा जैसा कि ज़िन्दगीनामा के पुरुषों की बातचीत में शामिल है नहीं तो बाकी को क्या पड़ी है? आज भी इतनी हिंसा हो रही है, चाहे अपना देश हो या विदेश, लेकिन वह आमजन के बीच शामिल नहीं है, वह केवल कुछ खास वर्ग तक ही सीमित है। लेकिन जिनका जीवन प्रभावित हो रहा था उनमें स्त्रियाँ भी शामिल थीं और सबसे ज्यादा युद्ध या दंगे में प्रभावित तो वही होती हैं लेकिन लेखिका ने इस किताब में एक जगह भी ऐसा नहीं लिखा है जिससे पता लगे कि स्त्रियों की बातचीत में भी दंगे का विषय शामिल हो। अगर ऐसा होता तो वह कृत्रिम ही लगता क्योंकि जिस परिवेश की उपस्थिति वहाँ है उसमें स्त्रियाँ घरों तक ही सीमित रह सकती थीं। कृष्णा सोबती उनका उल्लेख करती हैं एक-दूसरे के बालों में घी रचाते हुए, ओढनियों को रंगते हुए, बर्तनों की लिपाई-पुताई करते हुए। यह सारे काम लगभग समूह में हो रहे हैं और समूह में जो बातें हो रही हैं उससे भी यह ज़ाहिर होता है कि स्त्रियों के जीवन के क्या-क्या अंग हैं ? उनमें शामिल है – उम्र के साथ लड़कियों को पहनावे का ध्यान रखना, विवाह, बच्चे, उसमें भी पुत्र की चाह।
भारत का ही एक रूप यह भी है कि यहाँ पाखंड का कितना विस्तार है और उसमें महिलाएँ आसानी से फँस जाती हैं। ज़िन्दगीनामा का यह उद्धरण यहाँ देख सकते हैं –
“वराहमिहिर बोले – आज ग्रहों का योग ऐसा है कि मैं अगर अपने घर-परिवार में होता तो मेरी पत्नी को एक बड़ा विद्वान पुत्र कोख में पड़ता। समय-स्थान के अन्तर ने यह घड़ी इस गाँव में नियत कर दी।
रात खू पर पड़ी झुग्गी में ज्योतिषीजी की मंजी बिछ गई। दूध पिला लोग प्रणाम कर बिदा हुए ।”[5] इसके बाद वहाँ की एक महिला आती है और कहती है कि “महाराज, आपके कहे अनुसार आपके नच्छत्रों में आज पुत्रदान का योग है। मेरे पुत्र की भार्या से मेल कर लो महाराज ! अपना कुल तर जाएगा।
वराहमिहिर ने उंगलियों पर कुछ हिसाब-किताब लगाया और उठ खड़े हुए – चलो माते, तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य है ।”[6] उस ज्योतिष ने यह तो नहीं कहा कि आज जिस किसी स्त्री से उसका संबंध बनेगा तो उसकी कोख में विद्वान पुत्र पड़ेगा और उसपर से चालाकी यह कि उस वृद्धा को कह रहा कि तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य है। यहाँ एक सहज सवाल मन में आता है कि क्या इसके अलावा कुछ और जैसे कि उसकी संपत्ति माँगी जाती या आज्ञा ही दी जाती तब भी क्या इसी तत्परता से शिरोधार्य किया जाता? इस तरह की माँग करने वाली वृद्धा को भी समझा जाना चाहिए, जहाँ शुरुआत से ही स्त्री को पुत्र प्राप्ति, कुल-रक्षा का दायित्व दिया जाता है वहाँ इस तरह का मनोविज्ञान निर्मित होना कोई अचरज की बात नहीं है। लेकिन क्या ऐसा हो सकता था कि विद्वान पुत्र पाने का कारण न हो और ऐसे ही, उसकी बहू प्रेमवश उस ज्योतिष से संबंध बनाने को कहती और उसकी बात मान ली जाती। यहाँ बिहारी का एक दोहा उल्लेखनीय है –
“चित पितमारक-जोगु गनि भयौ, भयै सुत, सोगु।
फिरि हुलस्यौ जिय जोइसी समुझैं जारज-जोगु।।”[7]
जिसका तात्पर्य यह है कि एक स्त्री को पुत्र हुआ है, उसका पति ज्योतिषी है, जब वह नवशिशु की कुंडली देखता है तो जान जाता है कि यह अपने पिता की मृत्यु का कारण बनेगा, इससे उसे अत्यंत क्रोध होता है लेकिन फिर आगे पता चलता है कि यह तो उसका बेटा ही नहीं है। यह जानकर उसका क्रोध खुशी में तब्दील हो जाता है। यहाँ पितृसत्ता कैसे चालाकी से काम करती दिखती है। निश्चित है कि उस ज्योतिषी की अपनी मृत्यु होनी होती तो वह कभी भी खुश नहीं होता, पर अब अपनी जान बचाने और उस ‘पर-पुरुष’ की जान जाने की स्थिति पर वह खुश हो रहा है साथ ही यह एक सवाल भी छोड़ जाता है कि यदि ज्योतिषी यह नहीं जानता कि यह पुत्र अपने पिता की मृत्यु का कारण बनेगा, जो कि कोई और पुरुष है, क्या तब वह अपनी पत्नी को स्वीकार करता? हालाँकि इस दोहे में यह नहीं संकेत है कि इसके बाद उस स्त्री का क्या किया उसके पति ने? लेकिन शायद स्वीकार कर ली गई हो, इस तसल्ली के साथ कि जिस पर-पुरुष से इसका संबंध बना, वह मारा जाएगा।
स्त्री के मामले में समाज हमेशा से निर्दयी रहा है। दंगे में सबसे अधिक वे प्रभावित, शोषित तो हुईं ही लेकिन उसके बाद भी घरवालों ने उनकी ही उपेक्षा की, उनका ही दोष माना, उन्हें अशुद्ध माना। कृष्णा सोबती यह लिखती हैं कि “भारत से मुक्त करवाकर पाकिस्तान भेजी गई औरतों को ज़्यादा सहजता से अपना लिया गया। किसी तरह समाज में उसका पुनर्वास हो गया। हिन्दुओं ने अपनी औरतों को स्वीकार नहीं किया । कुछ ऐसे परिवार थे जो ऐसी औरतों को गहरी चुप्पी के साथ घेरे रहते थे।”[8] क्या तब इससे भी ज़्यादा संवेदनहीनता होगी!
इसी तरह शिक्षा के मामले में भी यह संकेत मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में शिक्षा तक स्त्रियों की पँहुच नहीं थी। ज़िन्दगीनामा में ही मदरसे का उल्लेख जहाँ है वहाँ सारे विद्यार्थियों के नाम लड़कों के हैं, मसलन दामोदर, फत्ते, हबीब, केशोलाल। एक भी फातिमा, राबया या महविश वहाँ नहीं है।
सोबती के भारत में धर्म की क्या स्थिति थी इसके भी कई संकेत मिलते हैं। उन संकेतों से यह साफ पता चलता है कि विभाजन-पूर्व भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता अधिक थी जो विभाजन होने की खबर मात्र से प्रभावित होने लगी थी और विभाजन के बाद एक-दूसरे के मन के भीतर तक घृणा भर चुकी थी। तब अगर हिन्दू-मुस्लिम के त्योहार आस-पास पड़ रहे थे तो सभी लोग खुश हो रहे थे –“ईद और दशहरे की तिथियाँ अग्गड़-पिच्छड़ निकलीं तो छोटे-बड़े हियरों में हुलास उमड़ने लगा।”[9] और पूरा गाँव तैयारी में लग गया। क्या ऐसी स्थिति आज है? नहीं, सबसे पहला भय यही होगा कि कहीं दंगा न हो जाए। पिछले कुछ वर्षों में रामनवमी के नाम पर जो हुड़दंगई होती है वह हम देख ही रहे हैं। लोग पूछ सकते हैं कि हिन्दू-त्योहार का उदाहरण ही क्यों? मुसलमानों के त्योहार का क्यों नहीं? जुलूस तो मुहर्रम में भी निकलता है। हाँ, निकलता है लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि ऐसे तमाम प्रचार करने के बाद भी कि ‘हिन्दू खतरे में है’, वास्तविकता इससे उलट है?
न सिर्फ़ त्योहारों में बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में भी वह एकता दिखती थी। उनके कुछ उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है, मसलन – “घर में काम करनेवाले मुसलमानों को हम लोग मामू कहकर पुकारते थे”[10], “आशीर्वाद लेने के लिए हिन्दू हमेशा ही मुसलमानों के पवित्र स्थलों पर जाते थे। गर्भवती स्त्रियाँ पीरों के मज़ारों पर जाती थीं ”[11], “राजनीतिक रंगत के बावजूद लोग मिल-जुलकर रहते थे। हर कोई दूसरे के ‘दूसरेपन’ का सम्मान करता था। दोनों ही उस सूत्र को लेकर आश्वस्त थे जो उन्हें जोड़ता था। यह सूत्र एक भाषा, बोली और जीवन शैली का था और धार्मिक पहचान से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था।”[12] इनमें से पीरों के मज़ारों पर जाना आज भी दिख जाएगा लेकिन बाक़ी दोनों बातें आज के समय में शायद नामुमकिन ही लगती है। वहीं जब विभाजन हो गया तब वस्त्र के स्तर पर भी भेद करने लगे थे, इसका उल्लेख भी मिलता है – “मौसी ने तालियों का छल्ला कमर में खोंसा और कहा – तुम क्या मुसलमानी कपड़े पहने रहती हो । गरारा कमीज। जहाँ तुम्हारा काम लगा है, उन्हें यह पसन्द नहीं आएगा। वह हिन्दू रियासत है। बँटवारे के बाद भला हम भी क्यों पहने उनकी पोशाकें!”[13]
कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि वहाँ सबकुछ उनका अपना है और यह संभव है भी नहीं। भारत भी चाहे वो तब का हो या अब का, यहाँ भी दूसरे देश शामिल हैं ही, इसका उल्लेख ज़िन्दगीनामा के पात्र कर रहे थे– “सुनते हैं क़ाबुल में भी पंजाब अपना गज्ज-बज्ज के बैठा हुआ है। छोटा-मोटा शहर तो नहीं, दिसावर हुआ। रेशम दरियाई, पट्ट-गलीचे, फल-मेवे सारे हिन्दोस्तान को वहीं से।”[14] आमजन की बातचीत में यह स्वीकारोक्ति उस सहजता को ही बताती है जिसकी जरूरत हमें आज भी लगती है। सिर्फ़ वस्तुएँ ही क्यों, वह संस्कृति भी सबसे मिल कर बनी है, हमारे यहाँ रची-बसी है, जैसा कि कृष्णा सोबती कहती भी हैं कि “नानक, बाबा फ़रीद, अमीर खुसरो, जायसी, बुल्लेशाह, वारिसशाह, शाह लतीफ़ – क्या हम इन कवियों को हमारे-तुम्हारे में बाँट सकते हैं ? इसमें शक नहीं है कि हमने धरती का बँटवारा कर लिया है, लेकिन परम्परा, संगीत, कला और साहित्य भौगोलिक क्षेत्र नहीं हैं – वे अविभाजित रहे और अविभाज्य रहते हैं।”[15] यह कृष्णा सोबती का विश्वास ही था लेकिन अब उसे पराया माना जाने लगा है। हाल के कुछ वर्षों में ऐसी स्थितियाँ पैदा की गईं कि पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में काम करने से मना कर दिया गया।
हम ऐसा भी नहीं कह सकते कि सोबती अपने उपन्यासों में भारत का जो रूप लेकर आ रही हैं उसमें सब अच्छा-अच्छा ही था, तब भी कुछ लोग ऐसे लोग थे जो यह मानते थे और खुश होते थे कि भारत हिंदुओं का ही देश है(उसमें भी खास तौर से ब्राह्मण का), वह तो सौ-दो सौ साल पहले मुसलमानों ने कलमा पढ़ा है। इसका एक संकेत ज़िन्दगीनामा में चाची महरी करती हैं – बच्ची, मनुक्ख सोचने पर आ आए तो नौशहर वाले शेख़ कौन से बग़दादी सैयद हैं । अरी कलमा पढ़े होंगे सौ-दो सौ साल ! ब्राह्मण ही होंगे या मच्छीखाने या खीरखाने, जो भी समझ लो !”[16]
धर्म के साथ ही जाति भी एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जो भारत में व्यापकता से लोगों के जीवन को घेरे है, उसे प्रभावित करता है लेकिन कृष्णा सोबती केवल उसकी उपस्थिति को दर्ज़ नहीं करती हैं बल्कि उसपर अपने पात्र के हवाले सवाल करती हैं। गाँव में आए आर्य-प्रचारक का यह कहना कि “भाइयो, एक हिन्दू जाति को पोंगापन्थियों ने हजारों-लाखों उपजातियों में बाँटकर उसकी शक्ति क्षीण कर दी है –
ज्यों केले के पात पात में पात
ज्यों कवियों की बात बात में बात
ज्यों गधे की लात लात में लात
त्यों हिंदुओं की जात जात में जात।”[17]
यह उस असमानता पर सवाल ही है। संविधान लागू होने के 75 बरस बाद भी जब जातिगत असमानताएँ, क्रूरतम हिंसा हो रही है तब ऐसे भारत में जब संविधान बना ही नहीं था, स्थितियाँ और कितनी खराब रही होंगी! ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ से एक अंश को पढ़कर ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है। लेखिका के पूछे जाने पर कि शिक्षा के क्षेत्र में यहाँ कुछ नई विकास योजनाएँ? तो उन्हें जवाब मिलता है – “कैसे बताया जाए आपको। नई योजनाएँ कैसे चलेंगी। यहाँ का राजपूत इसलिए नहीं पढ़ता क्योंकि उसे रजपूती लगी हुई है। बनिया इसलिए नहीं पढ़ता कि उसे दुकान लगी हुई है, और गरीब भील-गरासिया इसलिए नहीं पढ़ता कि उसे गरीबी लगी हुई है।”[18]
इन सबके साथ ही एक ध्यान ज़मीन के बँटवारे पर भी जाता है। एक तरफ़ देश का विभाजन दूसरी ओर ज़मीन का असमान विभाजन! और यह विभाजन-पूर्व भारत और उसके बाद, यहाँ तक कि आज की भी स्थिति यही है। इसका उल्लेख भी कृष्णा सोबती के यहाँ, कुछ जगहों पर मिलता है जैसे कि ज़िन्दगीनामा में है कि – “मुंशिया, अल्लाह बेली की जाने अल्लाह बेली । इस वक़्त तो ज़मीनों की सच्ची-झूठी मालकी शाहों के पास है।”[19] इसका प्रमाण ‘स्मृति का इतिहास’ में भी मिलता है। वह कहती हैं कि “ज़मींदार अपनी ज़मीन पर कब्ज़ा बनाए रखना चाहते थे, जिन्हें लगता था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो उनसे ज़मीन छीन लेगी। अत: यह आन्दोलन पैसेवालों और पढे-लिखे लोगों का था। चालीस के दशक में जो कुछ हुआ, वह इतना अलग और महाप्रलय जैसा था कि उनकी राजनीतिक दृष्टि और बौद्धिक क्षमताओं से परे हो गया। मसलन, भूमि सुधार पर बहस के दूरगामी और गहरे प्रभाव थे। हिंदुओं के पास पैसा था, ज़मीन थी और वे अखबारों के मालिक थे। कुछेक बड़े जमींदारों को छोड़ कर मुसलमान बुनियादी तौर पर गरीब मज़दूर और किसान थे। उनकी रोज़ की कमाई मात्र चार आना ही थी। वे हर तरह का काम करते थे, फिर भी कर्ज़ में डूबे रहते थे। लारेंस बंधुओं में से एक जिसे पंजाब के राजस्व का प्रभारी बनाया गया था, उसने कहा था कि मुस्लिम किसान इस क़दर कर्ज़ में डूबे हैं कि अगर पचास सालों तक भी काम करें तो भी वे साहूकरों का पैसा नहीं चुका सकते।”[20] अभी हाल में ही पी. साईंनाथ ने ‘अग्रीकल्चर इन द एज ऑफ़ इनइक्वैलिटी’ (फ्रंटलाइन, जनवरी 10, 2025) शीर्षक लेख लिखा है जिसमें वे स्पष्ट रूप से उस परिस्थिति का उल्लेख करते हैं कि कैसे 1990 ई. तक किसानों के यहाँ जाने पर चाँदी के गिलास में दूध मिलता था, 1990 के मध्य तक चाँदी की जगह शीशे के गिलास ने ले ली, 2000 ई. में दूध की जगह चाय ने ले ली, 2003-04ई. में वह काली-चाय में तब्दील हो गई, धीरे-धीरे उसमें चीनी की मात्रा भी कम होती गई और 2005 आते-आते तक काली चाय भी प्लास्टिक के कप में आने लगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि चाहे कभी भी, कोई भी आंदोलन हो, सत्ता किसी की भी हो परिणाम, वास्तविकता यही है कि ज़मीनों का बँटवारा असमान ही रहा और अब भी रह रहा है।
मूलतः कृष्णा सोबती का भारत यादों से घिरा हुआ है जैसा कि ‘रेख़्ता’ पर उपलब्ध बातचीत में वे यह कहती भी हैं कि जब विभाजन हो ही गया, उसको याद करना मुश्किल है और उसको भूलना भी बहुत मुश्किल है, ये दोनों चीजें हमारे साथ यहाँ पर आई। एक ऐसी याद जो उनके भीतर घुल गई थी, रच-बस गई थी। उनकी दोनों किताबों के प्रकाशन वर्ष से भी यह समझ सकते हैं। ‘ज़िन्दगीनामा’, आज़ादी के 22 बरस बाद प्रकाशित हुई और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ आज़ादी के 60 वर्षों बाद आई । और दोनों में ही भारत, उसकी याद, उसी में जीना सब शामिल है। एक जगह वे लिखती हैं कि “इन खूनी हलचलों की कीमत पर मिली आज़ादी”[21] शायद यही हलचल अपने जीवन में आगे बाढ़ जाने के बाद भी ताउम्र उनके साथ रही।
संदर्भ सूची –
- भारतीय संस्कृति और मूल्य – कृष्णा सोबती, https://www.shabdankan.com/2017/07/Bhartiya-sanskriti-essay-in-hindi-krishna-sobti.html?=1
- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान – कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017 ई., पृ. 35
3.https://www.bbc.com/hindi/international/2013/12/131226_radcliffe_partition_india_pakistan_va
- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान- वही, पृ. सं. 10
- ज़िन्दगीनामा- कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004 ई.,पृ. सं. 214
- ज़िन्दगीनामा- वही, पृ. सं. 214
- बिहारी- रत्नाकर- सं. जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद, 2018 ई., पृ. सं. 263, छंद सं. 575
- स्मृति का इतिहास, लेखक का जनतंत्र- कृष्णा सोबती – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018 ई. पृ. 45
- ज़िन्दगीनामा- वही, पृ. सं. 70
- स्मृति का इतिहास, वही, पृ. 37
11.वही, पृ. 41
- वही, पृ. 38
- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान – वही, पृ. 127
- ज़िन्दगीनामा- वही, पृ. सं. 103
- स्मृति का इतिहास, वही, पृ. 30
- ज़िन्दगीनामा- वही, पृ. सं. 244
- ज़िन्दगीनामा – वही, पृ. सं. 266
- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान – वही, पृ.48
- ज़िन्दगीनामा – वही, पृ. सं. 182
- स्मृति का इतिहास – वही, पृ. 33-34
- गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान – वही, पृ. 161