आज पढ़िए वरिष्ठ लेखक उदयन वाजपेयी के कहानी संग्रह ‘पिराउद’ पर यह टिप्पणी। लिखा है कुमारी रोहिणी ने। रोहिणी कोरियन भाषा से पीएचडी हैं और कोरियन एवं हिन्दी साहित्य पर नियमित लेखन करती हैं। उदयन वाजपेयी की इस पुस्तक का प्रकाशन सेतु प्रकाशन से हुआ है। आप फ़िलहाल यह टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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कहा जाता है ‘Do not judge a book by it’s cover’, लेकिन जहाँ तक मेरा मामला है मैं अक्सर ही किताबों के शीर्षक से आकर्षित, उत्सुक या दुखी होकर उन्हें पढ़ने का फ़ैसला करती हूँ या फिर छोड़ देती हूँ। इसी आदत के कारण, जो मालूम नहीं अच्छी है या बुरी, कई अच्छी किताबें पढ़ने से छूट भी जाती हैं और कई बार केवल नाम देखकर फँस जाना भी हुआ है। शायद ऐसा भाषा के अध्ययन-अध्यापन के कारण होगा, या फिर भाषा के अध्ययन-अध्यापन का कारण यह होगा, ठीक-ठीक आजतक समझ नहीं आ पाया है। आज जिस किताब के बहाने बात कर रही हूँ रीडिंग लिस्ट में फ़िलहाल थी नहीं। लेकिन एक बार फिर से शीर्षक ने मुझे अपनी ओर खींच ही लिया। शीर्षक में इस्तेमाल शब्द मेरे लिए नितांत नया था और मुझे लगता है कि एक बड़े पाठक वर्ग के लिए भी यह शब्द अनजान ही होगा। छूटते ही सबसे पहले मैंने कुछ प्रबुद्ध जनों से इस शब्द का अर्थ जानना चाहा क्योंकि गूगल महाराज ने हाथ खड़े कर दिये थे। लेकिन जैसा कि जमाने से होता आ रहा है मुझे किताब को पढ़कर ही इसका अर्थ जानने के निर्देश और सलाह दोनों मिले। मन एकबारगी को खिन्न हुआ लेकिन उस ख़ास शब्द ने दिमाग़ का पीछा नहीं छोड़ा।
मैं बात कर रही हूँ उदयन वाजपेयी के नये प्रकाशित कहानी संग्रह की। वह कहानी संग्रह जिसका नाम ‘पिराउद’ है और जिसमें लेखक ने दस कहानियाँ और दो संस्मरण शामिल किए हैं । अपनी भूमिका में लेखक ने इन दो संस्मरणों को एक कहानी संग्रह में शामिल करने के अपने तर्क और कारण दोनों ही के बारे में लिखा है। उदयन वाजपेयी को पढ़ने का मेरा यह पहला मौक़ा था इसलिए शुरुआत में मैं बहुत संभल-संभल कर और एक ही पंक्ति को कई-कई बार पढ़ रही थी। इसके पीछे एक संशय और डर था कि कहीं कुछ छूट ना जाए या फिर कुछ ग़लत ना समझ लिया जाए। किसी भी लेखक को पहली बार पढ़ने के समय मेरे साथ यह डर भी बना रहता है। हालाँकि कुछ देर ऐसा करने के बाद किताब की भाषा ने मुझे और मैंने उसकी भाषा को अपना लिया और इस कहानी संग्रह के दो संस्मरण और लगभग तीन कहानियाँ पढ़ लेने में मुझे बहुत अधिक समय नहीं लगा।
भूमिका को पढ़ लेने के बाद मैंने सबसे पहले शीर्षक कहानी ‘पिराउद’ ही पढ़ी क्योंकि मुझे उसका ही मतलब जानना था। सोचा भी यही था कि केवल इसी कहानी को पढ़कर किताब रख दी जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। संग्रह में शामिल कहानियाँ आपको एक अलग लोक और परिवेश में ले जाती हैं। जहाँ शीर्षक कहानी ‘पिराउद’ आपको पेरिस की गलियों से होते हुए भोपाल के रास्ते और लोगों के बीच लेकर आती है और एक पांडुलिपि के बहाने लेखक के मन में चल रहे ऊहापोह को सामने रखती है, वहीं ‘रास्ते’ शीर्षक कहानी में आप बहुत सीधी, सरल भाषा से रूबरू होते हैं। दृश्य झूल गया जैसे एक्सप्रेशन का इस्तेमाल कितना सहज और सामान्य लगता है पढ़ने में, लेकिन उपयोग में उतना ही दुर्लभ। ‘रास्ते’ कहानी का पात्र एक जगह कहता है कि ‘मेरी नज़र कलाई पर गई लेकिन घड़ी वहाँ थी नहीं, शायद मैं पहनना भूल गया था।’ इस तरह के छोटे-छोटे वाक्यों तथा सामान्य और सरल शब्दों के प्रयोग को देखते हुए मुझे लगा कि इस कहानी संग्रह को पढ़कर कोई व्यक्ति कहानियाँ लिखने का प्रयास ज़रूर कर सकता है। हालाँकि, किसी नव लेखक के लिए शब्दों और वाक्यों के साथ ऐसा प्रयोग करना और उसमें सिद्धहस्त होना आसान तो क़तई नहीं होगा।
संग्रह की एक अन्य कहानी ‘लम्बे राजा के आँसू’ को पढ़कर बड़े-बड़े और रसूखदार लोगों के नितांत निजी दुखों की एक झलक पाने की कोशिश की जा सकती है। इस कहानी का मुख्य पात्र एक राजा है और वह इतना लम्बा है कि उसका सिर और मुकुट, दोनों ही बादलों के पार स्वर्गलोक के आसपास तक जाकर टिकते हैं। अपनी इस असाधारण भौतिक विशेषता के कारण निजी जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों से महरूम रह जाने वाले राजा को अपनी रानी का चेहरा देखने तक का सुख नहीं मिल पाता। और तो और उसे रानी की मृत्यु तक की खबर भी बहुत देर से मिलती है और वह उसे स्वर्ग में ही देख पाता है। संभवतः इस लम्बे राजा के बहाने इसे गढ़ने वाला कथाकार ऊँचे पदों पर बैठे लोगों के जीवन की एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हो कि सब कुछ होने के बावजूद भी ऐसे लोग कितने अकेले और उन ख़ुशियों से वंचित रहते हैं जिसे आम बोलचाल में भले ही छोटी-छोटी ख़ुशियाँ कहा जाता हो और जीवन-संघर्ष से जूझ रहे लोगों को उसके महत्त्व का भान ना हो लेकिन वास्तव में जीवन का आनंद और जीवन का सार मिलता उन्हीं ख़ुशियों से और उन्हीं ख़ुशियों में है।
इसके अलावा, गोद की चोरी, मेट्रो, चोरी और रात के मुसाफ़िर भी शानदार कहानियाँ हैं।
कहानी संग्रह में शामिल दो संस्मरणों में एक संस्मरण में उदयन वाजपेयी ने अपने दिवंगत बड़े भाई की एक स्पष्ट, साफ़-सुथरी तस्वीर खींची है और उसे दुनिया के सामने लाने का साहस किया है। किसी भी इंसान के लिए अपने निजी जीवन को अव्वल तो दर्ज करना और फिर उसे सार्वजनिक करना आसान नहीं होता। उसे दर्ज करने के क्रम में व्यक्ति को वापस उन समयों को याद करना होता और जीवन के उन गलियारों में आवाजाही करनी पड़ती है जहाँ सब कुछ केवल सुखद ही नहीं होता है। उदयन वाजपेयी ने इस संस्मरण के बहाने अपने जीवन के उस हिस्से में की जाने वाली आवाजाही को बहुत ही क्रमवार और स्पष्ट तरीक़े से लिपिबद्ध किया है।
दूसरा संस्मरण साहित्य के लोगों के लिए अधिक रोचक हो सकता है क्योंकि इसमें लेखक ने पिता सरीखे अपने बड़े भाई के बारे में लिखा है। यह संस्मरण अपने शीर्षक ‘काल्पनिक भाई की उपस्थिति’ के साथ सौ प्रतिशत जस्टिस करता है। इसमें उदयन वाजपेयी ने अपने सबसे बड़े भाई अशोक वाजपेयी के साथ अपने रिश्ते, पूरे परिवार में उनकी भूमिका, उनके घर के सबसे बड़े बेटे होने से ज़िलाधीश बनने तक की उनकी जीवन यात्रा को उकेरा है। इसके साथ ही इस हिस्से में उन्होंने एक पारंपरिक परिवार में सबसे बड़े बेटे और पिता के बीच के संबंधों का खाँचा जिस तरह से खींचा है उसे पढ़कर लगता है कि सब कुछ ना बताते हुए भी लेखन ने सब तो बता ही दिया है। इस संस्मरण में अपने परिवार, अपने दिवंगत पिता और पिता की मृत्यु से पहले ही ज़िम्मेदारियों के छिपे-अनछिपे भाव के साथ उस पिता का स्थान ले लेने वाले बड़े भाई को, अपने जीवन में उनकी अनुपस्थित उपस्थिति को बहुत सुंदर तरीक़े से याद किया है। उस बड़े भाई को जिसके भीतर पितृत्व का भाव इतना प्रबल था और संभवतः आज भी होगा ही जो अपने मरणासन्न पिता के कोमल हाथों को पकड़कर उसे ‘बेटा’ पुकार लेता है और जिस पुकार को सुनकर उस सबसे बड़े बेटे के पिता को इसका एहसास हो जाता है कि उसके अपने पिता उसे इस संसार से विदा देने आ चुके हैं।
चलते-चलते वापस वही बात कि शीर्षक पढ़कर किताब उठाने की अपनी अच्छी या फिर बुरी जैसी भी हो, उस आदत के कारण एक बार फिर से एक अच्छी किताब पढ़ी गई। इसलिए फ़िलहाल तो इस आदत में कोई सुधार नहीं लाया जाएगा। अंत में, अपनी इस पाठकीय टिप्पणी में मैंने विवेकवश ‘पिराउद’ का अर्थ नहीं बताया है। अगर आप नहीं जानते हैं और आपको भी जानना हो तो इस कहानी संग्रह को पढ़िए और जानिए इस सुंदर शब्द का अर्थ जिसके पर्यायवाची हम आये दिन बोलते-लिखते और पढ़ते हैं।