जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.


आज पढ़िए कवयित्री जसिंता केरकेट्टा के कविता संग्रह ‘ईश्वर और बाज़ार’ पर अपूर्वा बनर्जी की टिप्पणी। यह संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है-
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कुछ दिनों से पढ़ रही हूं जसिंता केरकेट्टा का संग्रह ईश्वर और बाज़ार। 115 कविताओं का यह संग्रह किसी क्रांति की तरह है। कलम इतनी धारदार है, प्रतिवाद का स्वर इतना सशक्त है कि कभी उसकी आक्रामक शैली आपको भी भीतर से उत्तेजित करती है, आक्रोश से भरती है तो कभी उसका मिज़ाज, उसके प्रश्न, उसके व्यंग्य तिलमिला देते हैं और ठीक इसी के बरक्स कभी आपसे इस तरह संवाद करती है कि जीवन की पीड़ा और विवशता से आपका मन पसीज़ जाता है, आपके भीतर सिहरन पैदा होती है और कहीं मां, पिता, प्रेम को इतनी कोमलता से व्यक्त करती है कि हम औचक रह जाते हैं।

‘पूजा स्थल की ओर ताकता देश’

जिस देश के भीतर देस
भूख, गरीबी, बीमारी से मरता है
और देश अपने बचे रहने के लिए
किसी पूजा स्थल की ओर तकता है
तब असल में वह अपनी असाध्य बीमारी के
उस चरम पर होता है
जहां खुद को सबसे असहाय पाता है
ऐसा असहाय देश
अपनी बीमारी का इलाज़
अगर किसी पूजा स्थल में ढूंढता है
तब उसे अपने ही हाथों
मरने से कौन बचा सकता है?

‘खेमा’
सच को हमारे खेमे से देखो
इधर से…ऐसे…. इस दृष्टिकोण से
हमारे खेमे से नहीं देखोगे
तो इलाके में घुस नहीं पाओगे

एक अदना सा आदमी
जो इंसान भर होने की चाहत लिए
सही को सही और
गलत को गलत कहता है
किसी भी खेमे को वह
सबसे ज़्यादा खतरनाक क्यों लगता है!

‘पिता- सा भाव’

उस आदमी ने
लड़की की हथेली छूकर कहा
तुम्हारी हथेलियां बहुत ठंडी हैं
अलाव के पास जाकर बैठो

उसने पलटकर कहा
मेरे पिता की हथेलियां गर्म हुआ करती थीं
मगर जिनमें आ जाता है पिता सा भाव
उनकी हथेलियों में भी
आ जाता है ठीक वैसा ही ताप

आपकी हथेलियां गर्म हैं।

कवयित्री ने आदिवासी समाज की तमाम विडंबनाओं और विरुपताओं को , अन्याय और उपेक्षा के स्वर को आंखों से गुज़रती किसी कहानी, किसी चलचित्र की भांति जीवंत अभिव्यक्ति दी है। महिलाओं की घर में स्थिति, समाज के नज़रिये और शोषण के जैसे त्रस्त और मजबूर चेहरे जिस तरह खरी भाषा में, बिना लाग लपेट वे सामने रखती हैं, पढ़ते हुए लगता है कि इस नज़र आने वाले तथाकथित सभ्य समाज के भीतर कितने समाज हैं, जो दूषित मानसिकता से अटे पड़े हैं, जहां स्त्री घर में भी बेघर है, जहां इस दौर में भी उनकी आत्मा, उनकी पहचान, उनके प्रतिवाद को आसानी से सरे आम कुचला जाता है, नकारा जाता है!

“अभी मैं बहिष्कृत हूं “

जिन्होंने जमकर भोज उड़ाया था
और गले तक दारू उतारी थी
उस दिन मेरी शादी में
कल मेरी देह पर डंडों के निशान देख
हाथ झाड़ते हुए बोले
देखो यह तो तुम्हारा निजी मामला है

मैं चीखकर उनसे पूछना चाहती थी
प्यार, संबंध, शादी
कोख आस्था और मेरी देह
यह सब क्या मेरा निजी मामला नहीं है?

शाम वे कोई प्रार्थना करते हैं
मेरे पति के मन फिराव के लिए
पर उसे कभी कहते नहीं कि
गांव में स्त्रियों पर ऐसी हिंसा नहीं चलेगी

कल मैंने अपने पति को पलटकर पीटा
और वह डंका पीट आया पूरे गांव में
देखो जनी हाथ उठाती है
आज पंचायत बैठी है
यह कहती हुई कि दंड भरना होगा
और दंड न दे सकने पर इस समाज से
अभी मैं बहिष्कृत हूं।

‘मिल बांट कर खाने वाले लोग’
(एक अंश)
कभी कभी इतना भर कहला भेजते हैं
भेज दो अपनी लड़की को
और मेरे घर के डरे हुए सारे मर्द
उनकी देहरी पर छोड़ आते हैं मुझे
यह कहते हुए कि अब मर गईं उनकी बेटी
तो इस भरम में मत रहिए साहब
कि मैं सिर्फ़ कोख में ही मरती हूं
ऐसे भी मिलकर मारी जाती हूं मैं

पर जसिंता की कलम यहीं नहीं रुकती, वह बड़ी ताक़त से, हौसले से स्त्री के इरादों को व्यक्त करती है और शोर मचाती लड़कियां शीर्षक की कविता के अंत में वे कहती हैं

बहुत बोलने से होता है ध्वनि प्रदूषण
यह कहते हुए
सफ़ाई के नाम पर साफ़ करते हैं उन्हें
जो बोलते- बोलते बोल देती हैं सारा कड़वा सच
पर लड़कियां और चिड़ियां
जहां भी जन्म लेंगी, बहुत बोलेंगी
दुनियां उन्हें शोर बताती रहेगी
और वे शोर मचाती रहेंगी।

पर इस संग्रह को आदिवासी जीवन का मूल स्वर भर कहना बिल्कुल उचित न होगा। निश्चित इस संग्रह में जंगल है, प्रकृति है, आदिवासी जीवन है पर सत्ता का तानाशाही रूप भी है, धर्म और ईश्वर के वो विद्रूप चेहरे भी हैं, जिन्होंने मनुष्यता के विरोध में अपनी भूमिका निभाई है, जिनके डर ने मनुष्य को कितना लाचार और पंगु बना दिया है। समाज को बदलने की बैचैनी भी है और हार न मानने की ज़िद भी है।

‘डर जो गुलाम बनाता है ‘
(कविता का अंश)

एक डर जो धीरे धीरे आदमी को खाता है
वही डर उसे धर्म का गुलाम बनाता है
वही डर उसे मंदिर मसजिद
और गिरिजाघर की ओर ले जाता है
वही डर
आदमी को आदमी से नफ़रत करना सिखाता है
और कितना अजीब है
इसी डर से मुक्ति के नाम पर धर्म
सदियों तक अपने अस्तित्व को बचाए रखता है।

इन कविताओं में झांकते और हस्तक्षेप करते शहर, राष्ट्रवाद, ईश्वर, सत्ता , बाज़ार, धर्म हमें ऐसी दुनिया की ओर ले जाते हैं जिनसे हम अनजान न सही पर बेपरवाह हैं, उस दुनिया की प्रवृत्ति और उलझनें कभी हमें अफसोस और कभी आवेश से भरती हैं और कभी अचानक किसी संकरे मोड़ की तरह हमारे सामने खड़ी हो जाती हैं। यही कारण है कि ये कविताएं अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति से ज्यादा मनुष्यता को बचाने में अपनी ऊर्जा देती हैं और उस के लिए अधिक व्यग्र दिखती हैं ।
व्यंग्य और तेवर की इन कविताओं में किताबी ज्ञान नहीं अनुभव और जीवन बोलता है।

‘पालतू कुत्ते ‘
आवारा कुत्तों के बनिस्बत
पालतू कुत्तों के
मारे जाने की संभावनाएं कम हैं
क्योंकि वे पूरी ताक़त के साथ
अपनी दुम हिलाते हैं।

‘अख़बार ‘
समाज का आईना अखबार
कहते थे जिसे अब वह नहीं रहा
किसी खोजी कुत्ते में तब्दील वह
अब सिर्फ़ उस आदमी की गन्ध पहचानता है
जिसकी गंध भात में सानकर खिलाई गई हो उसे।

कवयित्री की निगाह से कुछ नहीं चूकता। वह इस दुनिया का पर्दाफाश करते हुए बड़ी सूक्ष्मता से हम तक यह बात पहुंचाने में सफल हुई हैं कि विकास के नाम पर हो रहे हमले सिर्फ संसाधनों और जन जीवन को ही तहस- नहस नहीं कर रहे, सांस्कृतिक चेतना और मानवता को भी लील रहे हैं। इन कविताओं में प्रकृति के प्रति करुणा है, अपनापन है, तो उसे बचाने की प्रतिबद्धता भी है ।आदिवासी जीवन की पीड़ा के प्रति संवेदना है, तो उसके शोषण के खिलाफ़ प्रतिरोध भी है। षड्यंत्रों की चालाकियां और जनता का डरा, असहाय जीवन है, तो पर्दाफाश करती और कदम उठाती आवाज़ भी है।
‘पहाड़ों के लिए’

थोड़े पैसों के लिए
जो अपना ईमान बेचते हैं
वे क्या समझेंगे
पहाड़ों के लिए कुछ लोग
क्यों अपनी जान देते हैं।

पश्चाताप
मां से बाबा ने कभी प्रेम नहीं जताया
इसलिए हम भी कभी बाबा से प्रेम नहीं कर पाए
इस बात के लिए भी उन्होंने
हर बार मां को ही जिम्मेदार ठहराया

एक दिन हमने महसूस किया
बाबा को माफ़ किया जाय
अपना दिल साफ़ किया जाए
इसलिए जब वे बूढ़े होने लगे
हमने उनको फिर से संभाल लिया
और लगा इस तरह पश्चाताप किया

पर बहुत दिनों तक एक बात सोचते रहे
हर स्त्री हर बार हर आदमी को
इसी तरह माफ करती है
उनके लिए अपना दिल साफ़ करती है
पर वे जो धरती पर जीवन भर
स्त्रियों के साथ इंसाफ़ नहीं करते
आख़िर वे किधर जाकर पश्चाताप करते हैं?

समकालीन साहित्य में में यह संग्रह एक वरदान है, इसकी उपस्थिति एक ऐसी प्रमाणिक आवाज़ की तरह है जो कल्पना से मुक्त यथार्थ के करीब है, स्वप्न से अधिक जीवन के साथ है!
कवयित्री के शब्दों में
कविताएं लिखते हुए मैने महसूस किया कि कैसे ये आदमी को मशीन से मनुष्य बनाती हैं। एक ऐसी जगह ले जाती हैं जहां मेरा मैं कही गुम हो जाता है और वह बहुतों के मैं के भीतर समाकर हम सा कुछ महसूस करता है। कविताओं ने मुझे भीतर शून्य होना सिखाया है। इसकी वजह से मेरे भीतर कविताओं के एवज में कुछ पाने की लालसा और प्रतिरोध की कविता लिखते हुए मारे जाने का डर दोनों ही ख़त्म हो गए हैं।

आडंबर से मुक्त और सटीक शीर्षकों के संग आपसे बतियाती ये रचनाएं इस बात की पुष्टि भी करती हैं कि कवयित्री जैसा जीती हैं वैसा लिखती हैं या कहें जैसा लिखती हैं वैसा जीती हैं तभी तो कभी कबीर याद आते हैं, कभी प्रेमचंद।

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