प्रमोद रंजन का यह लेख एक साहित्योत्सव के पोस्टर से शुरु होकर सृजनशीलता और मौलिकता क्या है, जैसे बड़े सवालों को उठाता है। प्राध्यापकों की कुंठा और रीढ़विहीनता की भी इसमें अच्छी खबर ली गई है। पढ़िए–
========================
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में एक साहित्य उत्सव हो रहा है। उसका पोस्टर देखकर माथा पीटने की इच्छा हुई। जबकि साहित्योत्सव के आयोजकों में कुछ सुबुद्ध कवि और लेखक हैं, जिनकी साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता पर संदेह नहीं किया जा सकता।
इस साहित्योत्सव में डॉक्टर उदय प्रकाश को आमंत्रित किया गया है! यानी, साहित्योत्सव के पोस्टर में उनका नाम अंकित है- डॉ. उदय प्रकाश। पोस्टर में कुल आठ अतिथि लेखक-लेखिकाओं के नाम हैं। इनमें से सात के नाम के आगे डॉक्टर लिखा गया है।
मुझे नहीं मालूम नाम के आगे डॉक्टर लगाने से उदय जी का सम्मान घटेगा या बढ़ेगा? वे सिर्फ हिंदी के ही श्रेष्ठ कथाकार नहीं हैं, बल्कि उनके साहित्य की तुलना दुनिया की किसी भी भाषा के श्रेष्ठ समकालीन साहित्य से की जा सकती है।
मुझे यह भी नहीं मालूम उदय जी “डाक्टर” हैं या नहीं। जिसे यह मालूम करने में दिलचस्पी होगी, वह लेखक तो नहीं ही हो सकता, अच्छा पाठक भी कतई नहीं होगा। ऐसा कौन पाठक है जो किसी लेखक की रचना इस आधार पर पढ़ना चाहेगा कि वह पीएचडी है या नहीं? पोस्टर में एक अन्य अच्छे कवि के नाम के आगे भी डॉक्टर लिखा गया है। यह बेहद हास्यास्पद और बेहूदा है।
यह भारतेंदु और द्विवेदी काल नहीं है, जब कुछ लेखक अपने नाम के आगे बी.ए. की डिग्री लगाते थे। स्वयं भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी के पास दिखाने लायक औपचारिक डिग्री नहीं थी, उन्होंने जो कुछ सीखा स्वाध्याय से सीखा, और कहते हैं कि जिस हिंदी को आज हम बरतते हैं, उसे उन लोगों ने बनाया है।
हिंदी प्राध्यापकों की कुंठाओं को आत्मसात करने की कुल्लू साहित्योत्सव के आयोजकों की क्या मजबूरी रही होगी, इसे समझना बहुत कठिन नहीं है।
दरअसल, बात सिर्फ इस आयोजन की नहीं है। डॉक्टरगण इसके लिए आयोजकों पर दवाब बनाते हैं और ऐसा न करने पर अच्छा खासा हंगामा खड़ा करते हैं। झगड़ा यहां तक होता है कि किसके नाम के आगे प्रोफेसर लिखा जाए और किसके नाम के आगे सिर्फ डॉक्टर।
लेखक, कवि, आलोचक अनेकानेक पेशों से आते हैं। कुछ लेखक इंजीनियर होते हैं, कुछ पत्रकार भी, कुछ सरकारी दफ्तरों में बाबू हो सकते हैं, कुछ किसान भी हो सकते हैं, हिमाचल के ही एक बहुत अच्छे कवि तो चाय की दुकान चलाते हैं। हिंदी के एक चर्चित रचानाकार मनोचिकित्सक हैं। बिहार के एक कथाकार पटवारी थे। कई लेखक राजनेता रहे हैं। कुछ पुलिस वाले रहे हैं। अन्य भाषाओं में कुछ लेखक हथियारबंद नक्सली भी रहे हैं। यहां तक कि लेखकों में कुछ चोर भी रहे हैं।
हाल ही में हंस में शुभम नेगी की एक बहुत अच्छी कहानी पढ़ी। कहानी में एक ओर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से उत्पन्न होने वाले खतरे हैं तो दूसरी ओर राजनीति द्वारा सचेत रूप से धार्मिक आधार पर फैलाई जा रही घृणा है। दोनों के अंतर्संबंधों को उन्होंने बहुत खूबसूरती से दर्शाया है। शुभम नेगी डेटा साइंटिस्ट हैं।
साहित्यिक आयोजनों में इन लेखकों के नाम के पहले इंजीनियर, पटवारी, चाय वाला, फैक्ट्री कर्मचारी, डेटा साईंटिस्ट आदि भी लिखना चाहिए न!
कथाकार शिवमूर्ति ने जीविका के लिए दर्ज़ी का काम किया, बीड़ी बनाई, कैलेंडर बेचा और बकरियाँ भी पालीं। बाद में सेल टैक्स अधिकारी बने। उनके नाम के पहले क्या विरुद लगाया जाना चाहिए?
अनेक दलित लेखक जिन पेशों को करने के लिए मजबूर हुए, उनके नाम के साथ उनका वह पेशा भी उपाधि के रूप में लगा देना चाहिए?
हिंदी के एक श्रेष्ठ उपन्यासकार संजीव, जिन्हें इसी साल साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है, वे एक स्टील कंपनी में केमिस्ट थे।
तो उन्हें “केमिस्ट संजीव” लिखा जाए? ऐसे साहित्यिक समारोहों में “केमिस्ट संजीव” की कुर्सी तो ‘डॉक्टरों’ से पीछे होनी चाहिए न? इन भारतीय पीएचडी डॉक्टरों (प्राध्यापकों) के बीच सारा झगड़ा कुर्सी, सीट और कौन किसे पहले नमस्ते करेगा, इसी को लेकर रहता है।
राजेंद्र यादव कहते थे “विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं। जीवित और जीवंत लोग उनके गले कभी नहीं उतरते।” वास्तव में यूनिवर्सिटियों का ढांचा ऐसा नहीं है कि वे लेखक और चिंतक पैदा कर सकें। वे औसत नागरिक और कामकाजी वर्ग तैयार करने के लिए बनी हैं। ये जिज्ञासु वृत्ति, सृजनशीलता, मौलिकता, आत्मसम्मान और सहजता को नष्ट करने वाली विशालकाय मशीनें हैं। जबकि ये ही पांच चीजें किसी को लेखक बनाती हैं। इन मशीनों द्वारा निर्मित डॉक्टरों को इस भ्रम से निकलना चाहिए कि वे एक डिग्री के बूते मुक्तिबोध और अज्ञेय बन गए हैं।
अपने नाम के आगे डॉक्टर और यहां तक प्रमोशन के हिसाब से अपने पदनामों का तमगा लगाने वाले इन प्राध्यापकों की साहित्य और चिंतन की दुनिया में जगह नहीं हो सकती।
लेकिन उनकी इच्छा होती है कि वे अपनी छाती पर डाक्टर और पदनाम का पट्टा लगा कर घूमें और उन्हें लेखक, कवि, चिंतक कहा जाए।
यह सही है कि अनेक अच्छे लेखक यूनिवर्सिटियों में प्राध्यापक भी रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। इनमें प्रमुख रूप से आलोचक रहे हैं। और, इसमें भी संदेह नहीं कि उनमें से कुछ अपने चेलों द्वारा किए गए जयकारों के कारण अपने समय में महत्वपूर्ण लगे। उनके पास साहित्य और विचार की दुनिया को देने के लिए कुछ नहीं था, हां चेलों को देने के लिए नौकरियां जरूर थीं! जब वे गए तो उनके साथ जयकारे भी गायब हो गए। जो महत्वपूर्ण लेखक यूनिवर्सिटियों में रहे उन्होंने कभी अपने नाम के आगे डाक्टर, प्रोफेसर लगाना पसंद नहीं किया। न रामचंद्र शुक्ल ने अपने नाम के आगे कभी प्रोफेसर लिखा, न नामवर सिंह या, न केदारनाथ सिंह या मैनेजर पांडेय ने अपने लेखों और किताबों में अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाया।
यूनिवर्सिटियों के भीतर कुछ नियम होते हैं, वहां आप कागजों पर क्या लिखते हैं, इससे आपके पाठकों को क्या मतलब? कोई लेखक अगर सरकारी बाबू है तो उसके पाठक को इससे क्या लेना-देना कि बाबू है या बड़ा बाबू?
‘मसि कागद छुयो नहीं कलम गही नहिं हाथ’ कहने वाले कबीर की महानता के बारे में इन डॉक्टरों को सोचना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना कि चाहिए कि साहित्य कोई खाला का घर नहीं है, जहां आप प्रोफेसरी को ललाट पर चिपकाए प्रवेश कर सकते हैं। “सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि”।
कोई कह सकता है कि सृजनशीलता और मौलिकता हर किसी में नहीं हो सकती, ऐसे में कोई क्या करे? वास्तव में जिज्ञासु वृत्ति, सहजता और आत्मसम्मान वे चीजें हैं, जो व्यक्ति को सृजनशील और मौलिक बनाती हैं। ये सिर्फ जन्मजात नहीं होती। मौलिकता किसी अनोखेपन को प्रकट करने या चमत्कार दिखाने में नहीं है। समाज, राजनीति, जीवन और सृष्टि को सहज रूप से देखना और उनपर आदिम सहजता से विचार करना और बिना झुके अपना मंतव्य प्रकट करना मौलिक होना है। रीढ़विहीन लोग न मौलिक हो सकते हैं, न सृजनशील। ये लोग साहित्य और चिंतन की दुनिया को कुछ नया नहीं दे सकते। सत्य के लिए किसी से भी न डरना–गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं; ही मौलिक होना है। हिंदी के डाक्टरों-प्राध्यापकों को इन चीजों पर विचार करना चाहिए। और कुछ नहीं तो सहजता अर्जित करने की कोशिश तो वे कर ही सकते हैं। उन्हें अपना बचपन और शिक्षा के शुरुआती दिनों को याद करना चाहिए, जब उनमें प्रेम, करुणा, समानता और अलमस्ती के भाव स्वभाविक रूप से थे। वे सोचें कि आज उन्हें क्या हो गया? वे अपने जीवन की गुणवत्ता के बारे में विचार करें। इन झूठी पदवियों और ऊंचे वेतन ने उन्हें जिस कदर चापलूस, चाटूकारिता-प्रिय, अहंकारी, शंकालु और असहज का बना दिया है, उसका खामियाजा वे स्वयं उठा रहे हैं।
अगर उन्हें लेखन के रास्ते पर चलना है तो डिग्रियों को किनारे रखें, जिज्ञासु बनें, सहज बनें तब शायद कोई रास्ता खुल सकता है। लेखक न बनें, सहज मनुष्य ही बन सकें तो भी यह छोटी उपलब्धि नहीं होगी।
उन्हें अपने समकालीन लेखकों की सहजता के बारे में भी जानना चाहिए। क्या दिवंगत राजेंद्र यादव, मंगलेश डबराल और ज्ञान रंजन, अखिलेश, मैत्रेयी पुष्पा, प्रेमकुमार मणि, पंकज विष्ट, विष्णु नागर जैसों की आत्मीयता और सहजता के बारे में उन्हें पता है? लेकिन उनकी दिलचस्पी इन लेखकों के जीवन और उनकी यारबाशी के किस्सों में भला क्यों होने लगी!
राजेंद्र यादव कहते थे “हिंदी प्रोफेसरों के हिसाब से शुद्ध साहित्यकार वह है जो चैबीसों घंटे रीतिकाल, भक्तिकाल और छायावाद ही घोटता रहता है। अपने गुरुदेवों से उन्होंने जो पढ़ा था उसे ही वे आज भी छात्रों के कान में उगलते रहते हैं।”
इसके अलावा इनमें से अधिकांश के पास तीन और काम होते हैं–अपने से ऊपर वालों की चिरौरी, एक-दूसरे की पीठ खुजाना और जहां भी अवसर मिले वहां अपनी कुंठाओं का वमन।
बहरहाल, जिस भाषा के साहित्य में जितने भिन्न-भिन्न पेशों वाले लेखक सक्रिय होंगे और जितने अधिक सिर्फ लेखन को पेशा बनाने की इच्छा रखने वाले लेखक होंगे, उसका साहित्य उतना ही समृद्ध होगा। जैसा कि मैंने पहले कहा, इसमें कुछ प्राध्यापक भी हो सकते हैं, लेकिन इधर कुछ ऐसा हो रहा है कि प्राध्यापक को लेखक का पर्याय माना जाने लगा है।
वैसे, ख्याल आता है कि उदय प्रकाश के नाम से पहले अगर डॉक्टर नहीं लगाया जा सकता तो कुल्लू साहियोत्सव के आयोजक क्या करते? वे उनकी जगह किसी अन्य ऐसे कथाकार को बुलाते जो “डॉक्टर” हो? या वे सोचते कि आमंत्रित साहित्यकार डॉक्टर के साथ-साथ प्रोफेसर हो, विभागाध्यक्ष या डीन हो तो और अच्छा!