यह बताने की आवश्यकता नहीं लगती है कि नागार्जुन वैद्यनाथ मिश्र के नाम से मैथिली में कविताएँ लिखते थे और उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार मैथिली के कवि के रूप में ही मिला था. उनकी जन्मशताब्दी के अवसर पर उनकी कुछ मैथिली कविताओं का अनुवाद युवा कवि त्रिपुरारि कुमार शर्मा ने किया है. अंतिम कविता स्वयं बाबा नागार्जुन के अनुवाद में है- जानकी पुल.
1.
हाँ, अब हुई बारिश
प्रतीक्षा में बीत गये कई पहर
प्रतीक्षा में बदन के रोएं-रोएं से, पसीना निकला घड़ा भर-भरके
प्रतीक्षा में रूक गया पेड़ का पत्ता-पत्ता, नहीं बरसी फुहार भी
प्रतीक्षा में सूरज रह गया ढँका हुआ जाने कितनी देर मेघ की आढ़ में
प्रतीक्षा में सुनी गालियाँ आषाढ़ के इस महीने ने
हाँ, अब हुई बारिश
हाँ, अब भीगा संसार
हाँ, अब हुआ हल्का मन
हाँ, अब उगा सूरज
हाँ, अब दिखी चिड़ियाँ-चुनमुन
बीज होंगे अंकुरित, नयनाभिराम, प्रतीक्षा का फल मिलेगा उसको
बाग़-बगीचे होंगे हरे, भीग जायेंगे धरती के मन-प्राण
ओढ़ लेंगे कदम्ब के पेड़ पीले ‘फुदना’ वाले झालर
ठीक-ठाक करेंगे भगत ‘सलहेम के गहवर’, घास को छील कर साफ़ करेंगे आँगन
भर जायेंगे पोखर, निकलेंगे वहाँ लाल कुमुदिनी के पत्ते
सारा-सारा दिन भीगेंगे लोग
सारा-सारा दिन धान रोपेंगे लोग
आरी पर बैठ कर मझनी ख़ायेंगे लोग
आशा के मचकी पर झूलेंगे लोग
कल्पना के स्वर्ग में टहलेंगे लोग
सुबह सुबह
सुबह सुबह
आया हूँ टहलने के लिए
घास वाले लॉन में सुबह सुबह
आया है धाड़ी
मोती के पथार में सुबह सुबह
कर लिया है अनुभव
पुलकित हो रहा है रोम रोम
स्पर्श से कोना कोना सुबह सुबह
पाँव के दोनों तलवे के छेदों से
आई है पीने
माघ के आकाश की ओस सुबह सुबह
आया हूँ टहलने के लिए
घास वाले लॉन में
कंकाल ही कंकाल
शिशु कंकाल
युवा कंकाल
बूढ़ा कंकाल
कंकाल बूढ़ों का
कंकाल युवाओं का
कंकाल बच्चों का
फटी हुई चमड़ी वाला कंकाल
काली चमड़ी वाला कंकाल
पांडुश्याम चमड़ी वाला कंकाल
टहलता घूमता कंकाल
चलता-फिरता कंकाल
रखा हुआ कंकाल
खड़ा कंकाल
सोया कंकाल
जागा कंकाल
सूखे हुए थन वाला कंकाल
चोकर गर्ववाला कंकाल
मालगाड़ी की तरफ़
लाईन के दोनों तरफ़
हथेलियों में, मुट्ठी में
दाना मिश्रित धूल उठाते हुए कंकाल सप्लाई विभाग के चपरासी की नज़र थाहता कंकाल
दो-दो प्लेटफॉर्म आमने-सामने पार करते हुए
गोड़ पाँच के कुली का
थोड़ा-सा मात्सर्य, एक चुटकी सहानुभूति
यूँ ही हासिल करता कंकाल
जेठ की दोपहरी में जलता कंकाल गया की ओर कोई ब्रोडगेज स्टेशन
क्या नाम था ?
अनुग्रह नारायण रोड !
या कि गुरारू ! या कुछ और !
वैसे तो अभी बाक़ी रह गया
वहाँ की स्मृति के ख़ाते में
कंकाल ही कंकाल
कंकाल ही कंकाल…
पिता-पुत्र सम्वाद
हिमालय के सफ़ेदपोश पहाड़…
बैठे हुए हैं इस पर पद्मासन लगाये
अधखुली आँखें
वहीं पर मौजूद है पर्वत-पुत्री गौरी
ऋद्धि-सिद्धि के साथ-साथ,
गणेश भी हैं गोद में !
कार्तिक कहीं गये हैं घूमने
बसहा खड़ा ‘पाज’ कर रहा है
और क्या चाहिए उनको ? “प्रिय बटुक, पता है तुम्हें –
कुण्ठा क्या है ?
क्या है संत्रास ?
क्या है मृत्युबोध ?
कैसे होता है आक्रोश का विस्फोट ?
अल्पजीवी और लघुप्राण व्यक्ति से मिले हो तुम ?” गणेश तुरंत उतर गये गोद से
चार हाथ की दूरी पर खड़े हो कर
लम्बे और लाल होंठ हिलाते हुए बोले –
“बता तो मैं दूँगा…
पर आप समझेंगे नहीं !
हिमालय की सफ़ेदपोश पहाड़ों को छोड़ कर
नीचे के इलाक़े की ओर देखा है कभी ?” पिता को मौन-गम्भीर देख कर
माँ की तरफ देखने लगे गणेश
तभी, सहज स्नेह से अभिभूत
पार्वती बोली…
“इस तरह भी कोई उल्टा-सीधा
बाप को देता है जवाब ?
जाओ गणेश, क्या कहूँ तुम्हें…
अपने बड़े भाई से
कुछ तो सीखा होता !”
अंतिम प्रणाम
हे मातृभूमि, अंतिम प्रणाम
वैवाहिक शुभ-घट फोड़-फाड़
पहले के परिचय तोड़-ताड़
पुरजन-परिजन सब छोड़-छाड़
चला प्रवास मैं, छोड़ धाम
माँ मिथिले, यह अंतिम प्रणाम दु:खोदधि से संतरण हेतु
चिर विस्मृत वस्तु-स्मरण हेतु
सुप्त सृष्टि-जागरण हेतु
जा रहा आज मैं छोड़ ग्राम
माँ मिथिले, यह अंतिम प्रणाम
भुगतें कर्मफल अब वृद्ध बाप
संतति में मैं ही, कृत आप पाप
यह सोच न होवे मनस्ताप
माँ मिथिले, यह अंतिम प्रणाम
10 Comments
अनुवादित रचनाएं हम तक पहुंचाने के लिए बहुत बहुत आभार
संग्रहणीय रचनाएं
सुन्दर अनुवाद
कल 01/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
Sunder rachna se parichay karane ke liye hardik dhanywaad
badhia
.सार्थक कविताओं का बहुत सुंदर अनुवाद….बेहद सामयिक पोस्ट प्रभात जी, त्रिपुरारी जी को बधाई…….
बाबा की कविताएं भी वैसे ही सबसे अलग हैं जैसे कि बाबा स्वयं! आभार जानकी पुल का
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