आज विपिन चौधरी की कविताएँ, जिनमें करुणा है, जीवन के गहरे अनुभवों से उपजा विराग है और एक एक ऐसी धुन जो बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह साथ-साथ चलती रहती है- जानकी पुल.
1.
तुम्हारा चेहरा मदर
एक अदृश्य आकृति के मस्तक पर अपनी कामनाओं, सपनो और अरमानों का सेहरा बाँधा
बदले में उसने हमें एक मूर्ति नवाजी
जिसका चेहरा जीवन, उम्मीद, ममता,स्नेह, करूणा से लबरेज़ था
दूरी को बींधने वाली उसकी दो आँखे, सीने पर बंधे कोमल-स्नेहिल हाथों
और नीली किनारी वाली सफेद साड़ी पहने इस मूर्ति को देख हम अभिभूत हो गए
फिर एक प्रदर्शनी मे जब रघु राय की श्वेत-शाम तस्वीर में वही अक्स दुबारा देखा तो
काले-सफेद रंग के खूबसुरत तिलिस्म पर हमें पक्का यकीन हो गया
वह चेहरा उस ‘मदर टेरेसा‘ का था
जिसके बारे में सुनते आये थे कि
बेजान चीज़े, उनके करीब आकर धड़कना सीख जाती हैं
बाद में मदर की यह करामात हमने अपनी खुली आँखों से देखी
इक, दो बार नहीं
हज़ारों हज़ार बार
अपनी घर-परिवार को ताउम्र ना देख पाने
का दुख तुम्हे
कैसे साल पाता ‘मदर‘
जबकी तुम्हे तो हर चेहरे पर सिमटी दुखयारी लकीरों को खारिज कर देने का हुनर बखूबी आता था
कोसावो में जन्मी थी तुम जरूर मगर
तुम्हारे कदमो ने समूची धरती पर धमक दी
तुम्हारे होने की आवाज़ हरेक कानों ने सुनी
तुम्हारी बाहें, पूरी धरती को समेटने के लिये आगे बढी
और समूचा संसार बिना ना-नुकर, तुम्हारी झोली में सिमट गया
यह केवल तुम्हारे ही बस का ही मामला रहा कि
दुनिया भर के किनारे पर धकेले हुये मरणासन्न बुजुर्ग,कमजोर- बीमार बच्चे, कुष्ठ रोगी
तुम्हारे निकट अपनी शरण-स्थली बनाते रहे
रात-दिन, रिश्ते-नातों, दूरी-नज़दीकियों के इसी दुनियावी वर्णमाला के बीच ही तो था
‘वह सब‘
जिसे खोजने हम लोग दर-बदर भटकते रहे
‘उसी सब‘ को अपनी ऊष्मा के बूते तुमने अपनी हथेलियों में कैद कर लिया
धरा की सखी-सहेली बन
जीवन की आर्द्रता को सींच-सींच कर तुमने लोगों के मन को तृप्त किया
और धीरे से कहा ‘शांति‘
तब सारी रुग्ण व्यवस्थायें पल भर में शांत हो गयी
पाणिग्रही समय ने हमें अपने बारे में कुछ नहीं बताया
पर तुम तो सच-सच बताना मदर
मानवीयता के सबसे ऊँचे पायदान पर खडे होकर
जब कभी तुमने सहसा नीचे झाँका तो क्या हम
अपने-अपने स्वार्थो की धुरी पर घुमते बजरबट्टू से ज्यादा कुछ नज़र आये ?
सीने में जमी हुई हमारी दुआयें
भाँप की तरह उठती और बिना छाप छोड़े वायु में विलीन हो जाती रही
तुम्हारी दुआओं ने अपने विशाल पँख खोले
और हर टहनी पर कई घोंसले बनाये
मूर्तियो के नज़दीक अपनी नाक रगड़ने वाले हम
किसी इंसान को आसानी से नहीं पूजते थे
पर इस बार हमने, तुम्हें जी भर कर पूजा
और इसी कारण हमारे फफूँदी लगे विचार ,सफ़ेद रूई मे तब्दील होते चले गये
महज अठारह साल की उम्र में तुम
मानवीयता के प्रेम में गिरफतार हो गयी
पर हम दुनियादारो को प्रेम की परिभाषा खोजने में जुगत लगानी पड़ी
उसी धुंधलके में एक बार फिर याद आया
केवल तुम्हारा ही चेहरा मदर .
2.
कपालिक अघोरी की तरह
अपने वर्तमान की थोडी-बहुत भी खबर होती
तब शायद किसी काल भैरव से भविष्य का पता पूछने का साहस जुटाती
पर यहाँ भविष्य के साथ-साथ वर्तमान भी घने कोहरे की गिरफ्त में दिखा
तब पूरे ब्रह्मांड को हाजिर नाज़िर जान मैने स्वीकार किया
कहीं से भी कुछ उगाहने के मामले में
सिफर हूँ मैं
मेरे कंधों पर अपनी ठोढ़ी रख
जो गम रह-रह कर मुझे सालते रहे
ठेठ दुनियादारी से उनका दूर का नाता भी नहीं था
एक पारदर्शी लक्ष्मण रेखा मुझे विरासत में मिली
जो ऐन वक्त पर दुनिया में शामिल होने से रोक देती मुझे
हर बार मैं
इस बिना रीढ़ की हड्डी वाली दुनिया की लचीली पीठ पर चढने से बच जाती
इस प्रसंग की याद की याद में
हर बार मुझे स्वामी विवेकानंद याद आये
दुनियादारी की ओर रुख करने लगे जब
वे एक बार तब गुरू परमहंस ने ठीक समय पर उनकी एक नस दबाई
और स्वामी जी दुनिया का हरीभरी राह भूल गए
किसी असरदार दुआओं की तासीर के चलते
चालू समय सीधे-सीधे मेरी आँखों में आँखों डाल कर बात करने की हिम्मत नहीं कर सका
दुनिया के साँचें में न ढल पाने का सुकून सब सुकूनों पर भारी रहा
इन २०६ हडडियों, और के अलावा भीतर कुछ ऐसे बीज़ भी सिमटे रहे
जिन्हें अरमानों की उपजाऊ ज़मीन अंकुरित होने
की भारी ललक थी
ताउम्र इन्हीं को पूरी आकृति देने के प्रयास में
अपनी ताकत से बाहर निकलकर
ढेर सारी असफलताओं से लैस
ठीक भीगी रूई की तरह भारी होती गयी मैं
तमाम बुतपरस्ती को नकारते हुये
अपने ही बनाये द्वीप में अकेली,
अनिश्चित कामना की साधनाओं में लिप्त
उज़ालों से उलटी दिशा में चलती
मन-मस्तक पर धूनी रमाये
अनजानी मंजिल तलाशती
अँधेरों की उस टोह में भी भटकती रही
जहाँ जुगनू भी गाइड बनने से कतराते रहे
लाख कोशिशों के बाद
मन की उफनती नदी का रूख कोई मोड न ले सका
बहता रहा अविरल
तमाम तटबंधन की सीमाओं को अस्वीकारते हुये
अपने ही उजाले में खुद को रोशन करती
तन्हा, रात-बिरात उठ कर तीन चार पंक्तियाँ लिख कर
चैन की साँस ले कर लम्बी नींद मे अलसाई
सीप, शंख,मोती,तारे, जुगनू, फाखता के साथ
किसी बंदरगाह को तराशती, तलाशती
शिव के प्यारे कापालिक अघोरियों की तरह जटाजूट
हररोज़ एक कदम शम
24 Comments
very very interesting and realistic…there is a great connect in ur writing…bohot kam log hote hai jo zameen si judi hui baat karte hai ya keh sakte hai ke jo khud zameen se juda hua hota hai wahi aisa likh bhi sakta hai…insaan ke shabo ka chayan hi uski chavi darshata hai…
Very real and interesting….
I like Mother and Sirfira….
Both are very touching..
Great work Vipinji..
Very real and interesting….
सुंदर और मार्मिक, गरल को पचाती, तरलता को संजोती, हमें मानवीय संवेदनाओं के साथ जोड़तीं और आत्म-चिंतन के लिए प्रेरित करती कविताएं हैं। विपिन जी को बहुत-बहुत बधाई और प्रभात जी को भी।
"लाख कोशिशों के बाद
मन की उफनती नदी का रूख कोई मोड न ले सका
बहता रहा अविरल
तमाम तटबंधन की सीमाओं को अस्वीकारते हुये"
कविता सम्बन्धी विचार एवं आपकी कवितायेँ पढीं ..समय से बात करता …… जी का विचार सहज प्रवाह के साथ मानवीय भावों का उदात्त रूप है .. बहुत ही कोमलता से मन को छू गयi हैं …… कविताएँ, जिनमें करुणा हो , जीवन के गहरे अनुभवों से उपजा विराग हो , और एक ऐसा धुन जो बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह साथ-साथ चलता रहता हो , सहज भाव से अपनी ही धून में रमी कविताएँ, जिनका भावात्मक धुंआ, बहुत सारी सामाजिक दुर्गंध दूर कर सकती है। …. जी को पढ़ना अच्छा लगा। बधाई ……. जी I बेहद आत्मीयता से लिखा गया विचार आज की कविताओं के लिए एक गहन-सघन चिंताएं हैं जो कि अपने समय की तमाम विडंबनाओं और विद्रूपताओं की खबर देता है और पाठक के भीतर कुछ विरल-तरल बहने लगता है.. बधाई हो ……. जी को जिसने …… जी का सुलेख अपलोड कर हमें काव्य जगत के वास्तविक संवेदना से परिचय करने का प्रयास किया है और आभार ……. जी का भी जिन्होंने काव्य जगत को एक नया आयाम दिया था I उनकी कवितायेँ भी पढीं ..समय से बात करतीं उनकी कविता में सहज प्रवाह के साथ मानवीय भावों का उदात्त रूप है .. बहुत ही कोमलता से मन को छू गयीं हैं .. एक बार फिर BIPIN जी के प्रयास एवं ….. जी द्वारा की गई प्रस्तुति को बहुत बहत बधाई………………
…………..डॉ. माया शंकर झा
कोलकाता
विपिन आपकी कवितायेँ पढीं ..समय से बात करतीं आपकी कवितों में सहज प्रवाह के साथ मानवीय भावों का उदात्त रूप है .. बहुत ही कोमलता से मन को छू गयीं हैं .. बहुत बहत बधाई
बेहद आत्मीयता से लबरेज़ इन कविताओं में इतनी गहन-सघन चिंताएं हैं कि अपने समय की तमाम विडंबनाओं और विद्रूपताओं की खबर मिलती है और पाठक के भीतर कुछ विरल-तरल बहने लगता है.. बधाई विपिन जी को और आभार प्रभात जी का..
तीन ताल में जीने को अभ्यस्त हम
सात सुरों की बात कम ही समझ पाते हैं
भीम पलासी यहाँ काफी ऊपर का मामला है
जो हमारे सिर को बिना छुऐ गुज़र जाता है
जब हम अपने होशोहवास से बाहर होते है
तो कई बेसुरे हमारे संगी-साथी होते हैं
जिनके बीच सुरों का काम घटता जाता है
विपिन, तुम्हारी कविताएं पहली बार पढ़ी हैं… इतनी अच्छी कविताएं लिखती हो तुम, पता न था… गहन मानवीय संवेदनाओं से भरी अर्थपूर्ण तुम्हारी कविताएं एक बहुत ही परिपक्व कवयित्री की कविताएं लगती हैं… लिखना जारी रखो… प्रभात जी का शुक्रिया कि उन्होंने इतनी उम्दा कविताएं पढ़वाईं।
शोभा गुर्टू, किशोरी अमोनकर, मधुप मुदगल
की मुखर रचना हमें स्पंदित न कर दे तो
जीना मरना बेकार है…very nice.aapki kavitaayen chahe jitni hambi hon,padhte waqt pata nahin chalta kab khatm ho gayin.bahus ahsaas se likhti hain aap…bahut-bahut shubhkaamnaayen aapko.
सहज भाव से अपनी ही धूनी में रमी कविताएँ, जिनका भावात्मक धुंआ, बहुत सारी सामाजिक दुर्गंध दूर कर सकता है। विपिन जी को पढ़ना अच्छा लगा। बधाई प्रभात रंजन जी।
आम तौर पर लंबी कवितायें साध पाना सबके बस का नहीं होता. विपिन बहुत सहजता से कविता के इस धर्म का निबाह कर गई हैं.
-आलोक पुतुल
''तब एक ईमानदार
लेकिन सिरफिरा आदमी देश की जनसंख्या रजिस्टर में कम हो जाता है'' adbhut hai..
its simply good –
''तमाम बुतपरस्ती को नकारते हुये
अपने ही बनाये द्वीप में अकेली''
thanks jankipul!
nice poems
Hum to Mother Teresa pad ke VASHIBHUT ho gaye!
You're a very good painter of sensitive words!
very beautiful poems i have ever read.
vipin manviya mulyon ka sangrah karti hai apni kavitaon mein…aur ek sangrahlya ka nirmann karti hai,,
''क्या कहा
इस घोर कोलाहल के बीच स्वर संगति
किस मुंगेरीलाल से यह सपना उधार ले आये हो
अब ज़रा ठहर कर सुनो
तीन ताल में जीने को अभ्यस्त हम
सात सुरों की बात कम ही समझ पाते हैं''
…………………………….सच !!!!!!
..अच्छी कवितायें बधाई विपिन शुभकामनाएं ..आगे बढती कोई भी स्त्री मुझे गौरव का अहसास देती है ..तुम तो फिर अपनी हो 🙂
मूर्तियो के नज़दीक अपनी नाक रगड़ने वाले हम
किसी इंसान को आसानी से नहीं पूजते थे …
kamaal hai … viplav aur kranti ki awaaz saaf sunai de rahi hai … jivan se sarokar rakhti kavitaen tazgi se bhari hain . Badhai! Vipin.
aapko padhna achchha laga.
Prabhat is achchhi post ke liye aabhaar!
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Thanks for this excellent article. Also a thing is that nearly all digital cameras are available equipped with a zoom lens that permits more or less of your scene to become included by ‘zooming’ in and out. These changes in {focus|focusing|concentration|target|the a**** length will be reflected while in the viewfinder and on substantial display screen on the back of your camera.
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